संसदीय लोकतंत्र में संसदीय बैठकों के माध्यम से विधायी कार्यों को निष्पादित किया जाता है। हाल के वर्षों में संसदीय बैठकों की संख्या में हो रही कमी लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित कर सकती है? चर्चा करें।
09 Feb, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर की रूपरेखा:
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संविधान में अनुच्छेद 85 के अंतर्गत यह उल्लिखित है कि संसद के दो सत्रों के बीच अधिकतम छ: माह से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिये। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष संसद के तीन सत्र आयोजित किए जाते हैं, वर्ष के आरम्भ में बजट सत्र, मानसून सत्र और अंत में शीतकालीन सत्र।
किंतु, हाल ही में यह देखा गया कि संसद के शीतकालीन सत्र में दो सप्ताह का विलंब हुआ और जहाँ पूर्व में संसद में बैठकों की संख्या औसतन 120 दिन प्रतिवर्ष थी अब यह संख्या विभिन्न व्यवधानों के कारण घटकर लगभग 70 दिन हो गई है।
भारत में संविधान निर्माताओं ने संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की है और विधायी कार्यों के निष्पादन में संसदीय सत्रों के माध्यम से विचार-विमर्श की संस्कृति को अपनाया है जिससे कि संसद में किसी भी मुद्दे पर पर्याप्त चर्चा हो और विधायी कार्य जन सरोकार से जुड़ सके। ऐसे में बैठकों की घटती संख्या निश्चित ही चिंताजनक है और संसदीय प्रणाली की विधायिका पर प्रश्न चिह्न लगाती है। इसके निम्नलिखित नकारात्मक परिणाम देखे जा सकते हैं-
उपाय:
सत्र के आयोजन में सरकार की शक्तियों को कम कर, इसके लिये एक स्वतंत्र निकाय का गठन करना चाहिये जो संसद में होने वाली बैठकों और सत्रों के लिये एक कैलेंडर तैयार करे तथा उन्हें निर्धारित समय पर आयोजित कराए। इसके अतिरिक्त, संसद सदस्यों के लिये अपने क्षेत्र में निश्चित संख्या में कुशल प्रतिनिधि नियुक्त करना भी अनिवार्य किया जाना चाहिये।