भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की चर्चा करें। ये अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में किस सीमा तक सफल रहे। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
06 Dec, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास
विनोबा भावे द्वारा शुरू किये गए भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की पृष्ठभूमि को बताते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
स्वतंत्रता के पश्चात् कृषि जोतों में असमानता से उत्पन्न आर्थिक विषमता के कारण कृषकों की दशा अत्यंत दयनीय हो गई। भूमिहीन कृषकों की दशा सुधारने हेतु विनोबा भावे ने 1951 में भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की शुरुआत वर्तमान तेलंगाना के पोचमपल्ली गाँव से की, जिससे भूमिहीन निर्धन किसान समाज की मुख्य धारा से जुड़कर गरिमामय जीवनयापन कर सकें।
विषय-वस्तु में हम भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे-
स्वतंत्रता के बाद लगभग 57 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि कुछ ज़मींदारों के पास थी। विनोबा भावे का मानना था कि भूमि का वितरण सरकार कानून बनाकर न करे अपितु देश भर में एक ऐसा आंदोलन चलाया जाए जिससे ऐसे ज़मींदार जिनके पास आवश्यकता से अधिक भूमि है, स्वेच्छा से ज़रूरतमंद किसानों को दे दें।
विनोबा भावे गांधीवादी थे, अत: उन्होंने विभिन्न राज्यों में पदयात्राएँ कीं तथा ज़मींदार एवं भू-स्वामियों से मिलकर आवश्यकता से अधिक भूमि को गरीब किसानों में बाँटने हेतु आग्रह किया। भूदान आंदोलन में पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया।
कुछ ज़मींदार जो कई गाँवों के मालिक थे, उन्होंने पूरा-का-पूरा गाँव भूमिहीनों को देने की पेशकश की जिसे ग्रामदान कहा गया। इन गाँवों की भूमि पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व स्वीकार किया गया। इसकी शुरुआत ओडिशा से हुई। जहाँ एक तरफ यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा वहीं दूसरी ओर, कुछ ज़मींदारों ने भूमि सीमांकन से बचने के लिये इसका गलत लाभ उठाया।
विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम इन आंदोलनों का आलोचनात्मक परीक्षण करेंगे-
आरंभ में यह आंदोलन काफी लोकप्रिय हुआ किंतु 1960 के बाद यह कमज़ोर पड़ गया क्योंकि आंदोलन की रचनात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं किया गया। दान में मिली 45 एकड़ भूमि में से बहुत कम ही भूमिहीन किसानों के काम आ सकी, क्योंकि अधिक बंजर भूमि ही दान में प्राप्त हुई थी। इसके अलावा लोगों ने ऐसी भूमि भी दान कर दी जो कानूनी मुकदमें में फँसी हुई थी।
जहाँ एक ओर इन आंदोलनों ने भूमि वितरण कर असमानता को दूर करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों के लोगों की आकांक्षाएँ पूरी न हो सकी वहाँ नक्सलवाद जैसे आंदोलनों की नींव पड़ गई जिससे वर्ग संघर्ष तथा हिंसा में वृद्धि हुई।
अंत में संक्षिप्त, सारगर्भित एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें।
हम पाते हैं कि अंतत: भूदान तथा ग्रामदान आंदोलन अपने उद्देश्यों तथा प्रयासों में तो महान आंदोलन था किंतु इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। किंतु भूमि सुधार की इस रक्तहीन क्रांति ने कानूनी रूप से ‘भूमि सुधारों’ को आधार अवश्य प्रदान किया।