वित्त वर्ष में बदलाव करने के पक्ष में अब तक अनेक सिफारिशें की गई हैं एवं हाल ही में इसे जनवरी-दिसंबर करने के पक्ष में कई ठोस तर्क भी दिए गए। इन तर्कों के आलोक में वित्त वर्ष में बदलाव की ‘वांछनीयता एवं व्यवहार्यता’ का समालोचनात्मक विश्लेषण करें।
उत्तर :
मध्यप्रदेश ने वित्त वर्ष की शुरुआत जनवरी से करने का निर्णय लिया है और केंद्र सरकार भी यह फैसला लागू करने पर विचार कर रही है। इस संबंध में जुलाई, 2016 में वित्त मंत्रालय ने वित्त वर्ष को बदलने की ‘वांछनीयता एवं व्यवहार्यता’ की जाँच करने के लिए पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर आचार्य की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है।
भारत का पहला बजट 7 अप्रैल 1860 को प्रस्तुत किया गया था और वर्ष 1867 तक वित्त वर्ष की गणना 1 मई-30 अप्रैल तक होती थी। लेकिन, 1867 में ब्रिटिश सरकार के बजट के साथ साम्यता स्थापित करने के उद्देश्य से भारत में वित्त वर्ष का समय 1 अप्रैल - 31 मार्च कर दिया गया। हालांकि समय-समय पर अनेक समितियों एवं आयोगों ने इसे कम व्यावहारिक बताया एवं इसे बदलने की सिफारिश की-
- 1865 में भारतीय खाता जाँच आयोग बना जिसने वित्त वर्ष को 1 जनवरी से प्रारंभ करने का सुझाव दिया।
- 1913 में भारतीय वित्त एवं मुद्रा पर सुझाव के लिए गठित शाही आयोग (चैंबरलिन आयोग) ने वित्त वर्ष को 1 नवंबर अथवा 1 जनवरी से करने का सुझाव दिया।
- आजादी के बाद वर्ष 1958 में लोक सभा की प्राक्कलन समिति ने अपनी 20वीं रिपोर्ट में वित्त वर्ष की शुरूआत 1 अक्टूबर से करने की सिफारिश की।
- प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी 1966 में पेश अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष को 1 अक्टूबर से शुरू करने की सिफारिश की थी।
- एल.के. झा समिति ने वर्ष 1984 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में 1 जनवरी से वित्त वर्ष शुरू करने का प्रस्ताव रखा था जिस पर केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) ने भी सहमति जताई कि इससे आंकड़ों के एकत्रण में सुविधा होगी।
नीति आयोग के सदस्यों विवेक देवराय एवं किशोर देसाई ने एक परिचर्चा नोट (discussion note) प्रस्तुत किया जिसमें वित्त वर्ष को 1 जनवरी से करने का पक्ष लिया था। इस प्रकार इस बदलाव के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-
- वित्त वर्ष को जनवरी-दिसंबर करने से बजट को नवंबर में पेश किया जाएगा। उस समय खरीफ की फसल की उपज के बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध होती है एवं रबी की फसल के बारे में भी अनुमान लगाया जा सकता है। चूंकि भारत कृषि आधारित देश है एवं बजट निर्माण में मानसून की स्थिति एवं कृषि उपज की स्थिति की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है अतः इससे संबंधित सूचनाएँ एवं डाटा एकत्रण की दृष्टि से वित्त वर्ष के लिए जनवरी-दिसंबर सबसे उपयुक्त समय होगा।
- फ्रांस, जर्मनी, चीन, ब्राजिल सहित विश्व के अनेक देश कैलेंडर वर्ष (जनवरी-दिसंबर) का ही वित्त वर्ष के रूप में प्रयोग करते हैं साथ ही अमेरिका एवं यूरोप की अधिकांश कंपनियाँ भी कैलेंडर वर्ष का प्रयोग व्यापार वर्ष (business year) के रूप में करती है। अतः वित्त वर्ष में बदलाव से भारत अंतर्राष्ट्रीय परंपरा के अनुरूप हो जाएगा जिससे व्यापार सुगमीकरण (ease of doing business) को बढ़ावा मिलेगा इसके अलावा, वित्त वर्ष एवं कैलेंडर वर्ष अलग-अलग होने से पैदा होने वाले भ्रम को भी दूर किया जा सकेगा।
- यद्यपि, वित्त वर्ष में इस प्रकार के बदलाव की आलोचना भी की जा रही है। आलोचना के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं-
- एसोचैम ने इस प्रकार के बदलाव की आलोचना की एवं तर्क दिया कि वित्त वर्ष बदलने का अर्थ केवल लेखा-जोखा (Book-keeping) में बदलाव ही नहीं होगा बल्कि इससे लेखा सॉफ्टवेयर की संपूर्ण अवसंरचना, कराधान ढाँचा, मानव संसाधन कार्यप्रणाली आदि सभी में बदलाव करना होगा जो उद्योगों के लिए भारी लागत का कारण बनेगा।
- कृषि और मानसून को आधार बनाकर वित्त वर्ष में बदलाव करना भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इस दृष्टि से जुलाई-जून आदर्श वित्त वर्ष होगा क्योंकि जुलाई में खरीफ की बुआई होती है एवं मानसून एक माह पूर्व आ चुका होता है। तथा, जून अंत तक रबी की फसलों की कटाई एवं विक्रय हो चुका होता है।
- इसके अलावा, केवल कृषि को नजर में रखते हुए वित्त वर्ष बदलना उचित नहीं है क्योंकि वर्तमान में कृषि का राष्ट्रीय आय में योगदान 20% से भी कम है।
निष्कर्षः वित्त वर्ष में बदलाव किसी राज्य का एकाकी निर्णय नहीं होना चाहिए बल्कि यह केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर एक साथ होना चाहिए। इस पर बनी शंकर आचार्य समिति की सिफारिशों को सार्वजनिक चर्चा में रखकर पक्ष-विपक्ष प्रस्तुत किए गए तर्कों पर व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् ही कोई निर्णय लेना चाहिए।