वर्तमान में भारतीय कृषि क्षेत्र की ‘आर्थिकी’ का विश्लेषण करते हुए किसान आंदोलनों के सामाजिक-आर्थिक पक्ष की विवेचना कीजिये।
13 Jun, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था‘कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय’ के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 में अनाज उत्पादन में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई, जो पिछले 5 सालों के औसत उत्पादन से 6.7 प्रतिशत तथा 2015-16 के मुकाबले 8.6 प्रतिशत अधिक रही। दालों के उत्पादन में 30 प्रतिशत वृद्धि हुई जिससे किसानों की आय में बढ़ोतरी हुई; साथ ही गेहूँ उत्पादक किसानों की आय की लगभग 10 प्रतिशत बढ़ी है। यदि मंत्रालय के आँकड़ों पर विश्वास करें तो पिछले तीन वर्षों में किसानों की आय में 5 से 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
हाल ही के वर्षों में सरकारों ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में भी वृद्धि की है तथा विभिन्न किसान हितैषी योजनाओं जैसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आदि के द्वारा किसानों के हितों की सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। फिर भी, कुछ राज्यों में किसानों द्वारा अपनी विभिन्न मांगों को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। इन किसान आंदोलनों से देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित होती है, सामाजिक समरसता को भी हानि पहुँचती है। आंदोलन से निवेशकों का मनोबल भी प्रभावित होता है, जिससे पुनः अर्थव्यवस्था में विकास की गति धीमी पड़ जाती है।
यह तथ्य है कि किसानों को निश्चित तौर पर अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की अपेक्षा अधिक कठिन शारीरिक श्रम करना पड़ता है तथा अभी भी कृषि कोई बहुत लाभ देने वाला व्यवसाय नहीं है अपितु छोटे किसानों द्वारा तो कृषि की लागत निकाल पाना ही दुश्वार हो जाता है। इसी के चलते अनेक राज्यों में किसान आत्महत्या करने के लिये मजबूर हो रहे हैं। उन पर बैंकों का कर्ज तथा महाजनों की उधार का बोझ बढ़ने का कारण कृषि-आय की अपर्याप्तता है। सामाजिक परम्पराओं जैसे विवाह, मृत्युभोज आदि पर लोक दबाव में अधिक खर्च कर देने से किसान कर्ज के तले दब जाते हैं और इस कार्य को कृषि-आय से नहीं चुका पा रहे हैं। सूखा और बाढ़ जैसी आपदाएँ स्थिति को और खराब कर देती हैं। अतः मजबूरी और आवश्यकता किसानों को आंदोलन के लिये प्रेरित करती प्रतीत हो रही है। सरकार को भी चाहिये कि किसानों की तर्कसंगत मांगों को स्वीकार करके किसानों की दिक्कतों को दूर करे।