Mains Marathon

दिवस- 9: आधुनिक भारत में जनजातीय प्रश्न एकीकरण और स्वायत्तता के मुद्दों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। चर्चा कीजिये (250 शब्द)

17 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसांख्यिकीय उपस्थिति और संवैधानिक मान्यता का संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
  • भारत में जनजातियों से जुड़े एकीकरण और स्वायत्तता के मुद्दों का उल्लेख कीजिये।
  • इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये रणनीति सुझाएँ।
  • उपयुक्त निष्कर्ष बताइये।

परिचय:

भारत की आबादी में लगभग 8.6% हिस्सा अनुसूचित जनजातियाँ (ST) का हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 10.4 करोड़ है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत 730 से अधिक अनुसूचित जनजातियाँ हैं, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं। इन समुदायों को सांस्कृतिक संरक्षण, सामाजिक-आर्थिक विकास और राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व से संबंधित अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आधुनिक भारत में जनजातीय प्रश्न एक जटिल एवं बहुआयामी मुद्दा है, जो एकीकरण तथा स्वायत्तता के व्यापक विषयों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।

मुख्य भाग :

एकीकरण की चुनौतियाँ;

  • औपनिवेशिक शासन: ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, आदिवासी क्षेत्रों को अक्सर अलग-अलग इकाई माना जाता था, जिससे कुछ हद तक अलगाव की स्थिति पैदा हो गई थी। अंग्रेज़ों द्वारा वन अधिनियम और भूमि नीतियों ने पारंपरिक आदिवासी आजीविका एवं शासन संरचनाओं को बाधित कर दिया।
  • स्वतंत्रता के बाद की नीतियाँ: स्वतंत्रता के बाद, भारतीय राज्य ने आदिवासी क्षेत्रों को मुख्यधारा के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढाँचे में एकीकृत करने की नीति अपनाई। जिससे अक्सर एकीकरण प्रयासों तथा जनजातीय पहचान के संरक्षण के बीच संघर्ष हुआ।
  • आर्थिक हाशिये पर: जनजातियों को अक्सर आर्थिक रूप से हाशिये पर रखा जाता है, संसाधनों, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुँच सीमित होती है। व्यापक अर्थव्यवस्था में एकीकरण धीमा एवं असमान रहा है, जिससे जनजातीय क्षेत्रों में लगातार गरीबी तथा अविकसितता बनी हुई है।
  • सांस्कृतिक क्षरण: आधुनिकीकरण और आत्मसात की ओर बढ़ने से कभी-कभी जनजातीय संस्कृतियों, भाषाओं एवं परंपराओं का क्षरण हुआ है। आदिवासी रीति-रिवाज़ों को नज़रअंदाज़ करने वाले एकीकरण प्रयासों के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विघटन हो सकता है।
  • भूमि अधिकार: जनजातीय समुदायों का ऐतिहासिक रूप से अपनी भूमि के साथ घनिष्ठ लगाव रहा है। बाहरी संस्थाओं द्वारा अतिक्रमण, खनन गतिविधियों और वनों की कटाई के कारण भूमि अधिकारों पर विवाद तथा जनजातीय आबादी का विस्थापन हुआ है।

स्वायत्तता और स्वशासन:

  • स्वायत्त ज़िला परिषदें: भारत के विभिन्न क्षेत्रों ने आदिवासी स्वशासन के लिये प्रावधान लागू किये हैं, जैसे कि असम, मेघालय और मिज़ोरम जैसे राज्यों में स्वायत्त ज़िला परिषदें (ADC)। इन परिषदों का उद्देश्य स्वशासन की एक सीमा तक व्यवस्था करना एवं जनजातीय परंपराओं तथा रीति-रिवाज़ों को संरक्षित करना है।
  • पाँचवीं और छठी अनुसूची: भारतीय संविधान जनजातीय हितों की रक्षा के लिये पाँचवीं और छठी अनुसूची के तहत विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जिसमे स्वायत्त परिषदों, आदिवासी सलाहकार परिषदों एवं भूमि अधिकारों की सुरक्षा के प्रावधान शामिल हैं।
  • अधिक स्वायत्तता की मांग: कई जनजातीय क्षेत्रों में स्थानीय मुद्दों को बेहतर ढंग से संबोधित करने और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिये अधिक राजनीतिक स्वायत्तता या अलग राज्य की मांग की जाती है। बोडोलैंड एवं गोरखालैंड जैसे आंदोलन अधिक स्वायत्तता की मांग को दर्शाते हैं।

एकीकरण और स्वायत्तता

  • संतुलनकारी कार्य: जनजातीय समुदायों को राष्ट्रीय ढाँचे में एकीकृत करने और उनकी स्वायत्तता तथा सांस्कृतिक विशिष्टता बनाए रखने की अनुमति प्रदान करने संतुलन खोजने में है। नीतियों द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि एकीकरण के प्रयास से जनजातीय पहचान एवं स्वशासन को कमज़ोर न किया जाए।
  • समावेशी विकास: प्रभावी एकीकरण के लिये समावेशी विकास की आवश्यकता होती है, जो जनजातीय समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करता है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक अवसरों तक पहुँच शामिल है, साथ ही उनकी सांस्कृतिक प्रथाओं एवं भूमि अधिकारों का सम्मान भी किया जाता है।
  • सहभागी शासन: जनजातीय समुदायों को शासन और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं तथा राष्ट्रीय नीतियों एवं विकास कार्यक्रमों में जनजातीय दृष्टिकोणों को शामिल करना आवश्यक है।

नीति और संस्थागत प्रतिक्रियाएँ

  • जनजातीय कल्याण कार्यक्रम: भारत सरकार ने जनजातीय समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार लाने के उद्देश्य से विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रम लागू किये हैं, जिनमें शिक्षा योजनाएँ, स्वास्थ्य पहल और आर्थिक विकास परियोजनाएँ शामिल हैं।
  • कानूनी सुरक्षा: अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 जैसे कानूनी संरक्षण का उद्देश्य जनजातीय भूमि अधिकारों की रक्षा करना तथा वन प्रबंधन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना है।
  • जनजातीय नेताओं के साथ जुड़ाव: जनजातीय नेताओं और संगठनों के साथ जुड़ना उनकी ज़रूरतों तथा आकांक्षाओं को समझने के लिये ज़रूरी है। सहयोगात्मक दृष्टिकोण जनजातीय स्वायत्तता का सम्मान करने वाली एवं सतत् विकास को बढ़ावा देने वाली नीतियों को डिज़ाइन तथा लागू करने में मदद कर सकते हैं।

निष्कर्ष:

आधुनिक भारत में जनजातीय प्रश्न एकीकरण और स्वायत्तता के बीच संतुलन कार्य को दर्शाता है। इस प्रश्न को संबोधित करने के लिये एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो जनजातीय पहचान तथा उनके सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करता है एवं उन्हें व्यापक राष्ट्रीय ढाँचे में एकीकृत करते हुए स्व-शासन प्रदान करता है। इन मुद्दों का सफल समाधान समावेशी नीतियों, सहभागी शासन और भारत के जनजातीय समुदायों की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करने की प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा।