15 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में जाति व्यवस्था का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- जाति व्यवस्था की नई पहचान और साहचर्य रूपों का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारत में जाति व्यवस्था ऐतिहासिक सामाजिक पदानुक्रम के रूप में गहराई से जुड़ी हुई है, जिसने सदियों से भारतीय समाज को काफी प्रभावित किया है। इस व्यवस्था का अंत करने के उद्देश्य से व्यापक सुधारों के बावजूद, यह नई पहचान और संघात्मक रूप से विकसित होती रहती है।
मुख्य बिंदु:
नई पहचान और संघात्मक स्वरूप:
- राजनीतिक लामबंदी:
- जाति-आधारित राजनीतिक दल: जाति समूहों ने खुद को राजनीतिक संस्थाओं में संगठित किया है। राजनीतिक दल विशिष्ट जाति के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये उभर कर सामने आते हैं।
- वोट बैंक की राजनीति: राजनेता अक्सर वोट हासिल करने के लिये जातिगत पहचानों को संगठित करते हैं, जिससे राजनीतिक क्षेत्र में जाति-आधारित पहचान कायम रहती है।
- आर्थिक संघ:
- जाति-आधारित व्यवसाय नेटवर्क: कुछ जातियों द्वारा शक्तिशाली व्यवसाय समुदाय स्थापित किये गए हैं, जैसे- मारवाड़ी, चेट्टियार और अन्य। ये नेटवर्क जाति के भीतर आर्थिक सहायता और अवसर प्रदान करते हैं।
- माइक्रोफाइनेंस और सहकारिता: ग्रामीण क्षेत्रों में, जाति-आधारित सहकारी समितियाँ और माइक्रोफाइनेंस समूह वित्तीय सेवाएँ तथा सहायता प्रदान करते हैं, जिससे जातिगत संबंध भी मज़बूत होते हैं।
- सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन:
- जाति संघ: कई जातियों ने समुदाय के भीतर कल्याण, शिक्षा और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये अपने स्वयं के सामाजिक संगठन स्थापित किये हैं। ये संघ अक्सर जाति की पहचान और एकजुटता को बनाए रखने के लिये कार्य करते हैं।
- विवाह प्रथाएँ: सजातीय विवाह प्रचलित है, वैवाहिक विज्ञापनों और मैचमेकिंग सेवाओं में अक्सर जातिगत प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया जाता है।
उन्मूलन के समक्ष चुनौतियाँ:
- गहरी जड़ें जमाए सामाजिक मानदंड:
- सांस्कृतिक सुदृढ़ीकरण: पीढ़ियों से चली आ रही जाति व्यवस्था सांस्कृतिक परंपराओं, अनुष्ठानों और मानदंडों में अंतर्निहित है।
- सामाजिक स्तरीकरण: जाति व्यवस्था एक अपनापन और पहचान की भावना उत्पन्न करती है, जिससे इन पारंपरिक संरचनाओं को भंग करना मुश्किल हो जाता है।
- आर्थिक निर्भरता:
- संरक्षक-ग्राहक संबंध: ग्रामीण भारत में विभिन्न जाति समूहों (जैसे- भू-स्वामी और मज़दूर) के बीच पारंपरिक आर्थिक निर्भरता जाति पदानुक्रम को कायम रखती है।
- संसाधन वितरण: संसाधनों और अवसरों तक पहुँच अक्सर जातिगत आधार पर होती है, जिससे आर्थिक असमानताएँ मज़बूत होती हैं।
- संस्थागत और संरचनात्मक बाधाएँ:
- शिक्षा और रोज़गार: सकारात्मक नीतियाँ मौजूद हैं, लेकिन शिक्षा और रोज़गार के अवसरों में असमानताएँ निहित हैं जो जातिगत पूर्वाग्रहों को दर्शाती हैं।
- कानून प्रवर्तन: भेदभाव विरोधी कानूनों का क्रियान्वयन अक्सर सही ढंग से नहीं हो पाता है, जिससे जाति आधारित हिंसा और भेदभाव जैसी गतिविधियाँ अभी भी देखने को मिलती हैं।
शमन के लिये संभावित राह:
- शैक्षिक सुधार:
- समावेशी पाठ्यक्रम: समानता और जातिगत भेदभाव के उन्मूलन पर ज़ोर देने वाली शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने से लोगों की विचारधारा में बदलाव देखने को मिल सकता है।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच: हाशिये पर पड़े समुदायों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच सुनिश्चित करके उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाया जा सकता है।
- आर्थिक सशक्तीकरण:
- सकारात्मक कार्रवाई: शिक्षा और रोज़गार में सकारात्मक कार्रवाई को मज़बूत करने से हाशिये पर पड़ी जातियों के उत्थान में मदद मिल सकती है।
- उद्यमिता और कौशल विकास: वंचित जातियों को लक्षित करके उद्यमिता और कौशल विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से आर्थिक असमानताओं को कम किया जा सकता है।
- कानूनी और नीतिगत उपाय:
- प्रभावी कानून प्रवर्तन: भेदभाव विरोधी कानूनों के प्रवर्तन को मज़बूत करना और जाति-आधारित हिंसा के मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना।
- नीति सुधार: हाशिये पर पड़ी जातियों की विशिष्ट आवश्यकताओं को समग्र रूप से संबोधित करने हेतु नीतियाँ बनाना।
- सामाजिक आंदोलन और वकालत:
- ज़मीनी स्तर के आंदोलन: जाति समानता और सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले ज़मीनी स्तर के आंदोलनों का समर्थन करना।
- अंतर-जातीय संवाद: समझ को बढ़ावा देने और पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिये विभिन्न जाति समूहों के बीच संवाद तथा बातचीत को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष:
भारत में जाति व्यवस्था के विकास हेतु विशेष ध्यान देने पर भी एक दुर्जेय सामाजिक संरचना बनी हुई है। इसकी निरंतरता पहचान और संघ के नए रूपों द्वारा समर्थित है जो जाति भेद को मज़बूत करती है। जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और कानूनी आयामों को संबोधित करते हुए समानता तथा समावेश की दिशा में सांस्कृतिक बदलाव को बढ़ावा दिया जा सके। चुनौतीपूर्ण होते हुए भी, निरंतर प्रयासों और सुधारों के माध्यम से क्रमिक प्रगति एक अधिक समतापूर्ण समाज का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।