दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) का संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
- अधिनियम की उपलब्धियों की रूपरेखा बताइये।
- भारत में भाषायी संघर्षों से संबंधित अनसुलझे मुद्दों की पहचान कीजिये।
- अंत में समकालीन भारत में शेष भाषायी संघर्षों को संबोधित करने के लिये संभावित उपाय सुझाइये।
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भूमिका:
भाषायी आधार पर राज्यों की मांग स्वतंत्रता के बाद भारत में एक प्रमुख मुद्दा बना रहा है। वर्ष 1956 का राज्य पुनर्गठन अधिनियम मुख्य रूप से फजल अली आयोग की सिफारिशों पर आधारित था, जिसके द्वारा भाषायी और सांस्कृतिक रूप से राज्यों का पुनर्गठन किया गया था। पुनर्गठन के परिणामस्वरूप 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेशों का निर्माण हुआ। जबकि 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम ने भाषायी आधार पर राज्यों का निर्माण कर कई भाषायी संघर्षों को संबोधित किया, कई मुद्दे अभी भी अनसुलझे हुए हैं।
मुख्य भाग :
राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) की उपलब्धियाँ
- भाषायी आधार पर राज्यों का गठन: इस अधिनियम द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक और भाषायी आकांक्षाओं को समायोजित करते हुए भाषायी आधार पर राज्यों का सफलतापूर्वक निर्माण किया गया।
- आंध्र प्रदेश: अधिनियम के तहत वर्ष 1953 में भाषायी आधार पर सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश का गठन हुआ था। इसका गठन तत्कालीन मद्रास राज्य से तेलुगू भाषी क्षेत्रों को मिलाकर किया गया था।
- कर्नाटक: मैसूर राज्य (जिसे बाद में कर्नाटक नाम दिया गया) को बंबई, हैदराबाद, मद्रास और कूर्ग के कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को शामिल कर पुनर्गठित किया गया था।
- भाषायी संघर्ष में कमी: पुनर्गठन से भाषायी संघर्ष कम करने में मदद मिली और भाषायी समूहों के बीच पहचान एवं गौरव की भावना उत्पन्न हुई।
- महाराष्ट्र और गुजरात: बंबई राज्य का महाराष्ट्र और गुजरात के रूप में विभाजन से मराठी एवं गुजराती भाषियों के बीच भाषायी संघर्ष में काफी कमी आई है।
- केरल: केरल के गठन से मलयालम भाषी लोग एक साथ आए, जिससे एक एकीकृत सांस्कृतिक और भाषायी पहचान को बढ़ावा मिला।
- प्रशासनिक दक्षता: अधिक समरूप जनसंख्या वाले राज्यों का निर्माण करके, अधिनियम का उद्देश्य प्रशासनिक दक्षता और शासन में सुधार करना था।
- आंध्र प्रदेश: तेलुगू भाषी क्षेत्रों को आंध्र प्रदेश में शामिल करने से लोगों की विशिष्ट आवश्यकताओं हेतु अधिक केंद्रित प्रशासनिक नीतियों को संभव बनाया जा सका।
- कर्नाटक: कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को एक प्रशासनिक इकाई के रूप में शामिल करने से शासन व्यवस्था सुव्यवस्थित तथा प्रशासनिक जटिलताएँ कम हुईं।
- राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करना: अधिनियम ने एकीकृत भारत के ढाँचे के भीतर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संबोधित करके राष्ट्रीय एकता को मज़बूत किया, जिससे अलगाववादी प्रवृत्तियों में कमी आई।
- विविध क्षेत्रों का एकीकरण: भाषायी और सांस्कृतिक रूप से समान क्षेत्रों को एक साथ लाकर, अधिनियम ने विविध आबादी को राष्ट्रीय ढाँचे में एकीकृत करने में मदद की, जिससे एकता की भावना को बढ़ावा मिला तथा अलगाववादी भावनाओं में कमी आई।
- भविष्य के पुनर्गठन के लिये रूपरेखा: अधिनियम ने भविष्य के राज्य पुनर्गठन के लिये एक मिसाल कायम की, क्षेत्रीय और भाषायी मांगों को संबोधित करने के लिये एक रूपरेखा तैयार की।
- हरियाणा और पंजाब (1966): भाषायी पुनर्गठन सिद्धांतों का पालन करते हुए, हरियाणा को पंजाब से अलग करके हिंदी भाषी लोगों के लिये एक राज्य का गठन किया गया, जबकि पंजाब पंजाबी भाषी राज्य बना रहा।
- छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड का गठन (2000): वर्ष 1956 के अधिनियम द्वारा इन राज्यों का गठन क्षेत्रीय और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर किया गया था।
भारत में भाषायी संघर्ष से संबंधित अनसुलझे मुद्दे
- राज्यों के भीतर विभिन्न भाषायी समूहों के बीच संघर्ष के कारण तनाव उत्पन्न होता रहता है।
- महाराष्ट्र: मुंबई जैसे शहरों में मराठी-भाषी और गैर-मराठी-भाषी लोगों (जैसे- गुजराती, उत्तर भारतीय) के बीच संघर्ष लगातार होते रहे हैं, जिन्हें अक्सर स्थानीय मराठी लोगों के अधिकारों का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है।
- कर्नाटक: बेंगलूरु में कन्नड़ और अन्य भाषाएँ, विशेष रूप से तमिल तथा तेलुगू बोलने वालों के बीच कभी-कभी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है, जो अंतर्निहित सांस्कृतिक एवं आर्थिक असमानताओं को दर्शाता है।
- अंतर्राज्यीय सीमा विवाद: राज्यों के बीच कई सीमा विवाद भाषायी आधार पर होते हैं, जिसके कारण लंबे समय तक संघर्ष चलता रहता है।
- बेलगाम (कर्नाटक-महाराष्ट्र): बेलगाम क्षेत्र कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच विवाद का विषय रहा है, दोनों राज्य भाषायी जनसांख्यिकी के आधार पर इस क्षेत्र पर अपना दावा करते हैं।
- असम और उसके पड़ोसी: असम का नगालैंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के साथ सीमा विवाद है, जिसमें अक्सर भाषायी एवं जातीय आयाम शामिल होते हैं।
- नये राज्यों की मांग: भाषायी और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर नये राज्यों के निर्माण की निरंतर मांग, अनसुलझे क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दर्शाती है।
- विदर्भ (महाराष्ट्र): एक अलग विदर्भ राज्य की मांग मुख्य रूप से आर्थिक उपेक्षा और स्वशासन की इच्छा से प्रेरित है, लेकिन इसमें भाषायी पहचान के मुद्दे भी शामिल हैं।
- गोरखालैंड (पश्चिम बंगाल): गोरखा लोगों के लिये एक अलग राज्य गोरखालैंड की मांग आर्थिक और प्रशासनिक शिकायतों के साथ-साथ भाषायी तथा सांस्कृतिक पहचान में निहित है।
- भाषायी अल्पसंख्यक और अधिकार: राज्यों के भीतर भाषायी अल्पसंख्यकों को अक्सर अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप संघर्ष होता है।
- पूर्वोत्तर भारत: असम, मेघालय और त्रिपुरा जैसे राज्यों में प्रमुख जनसंख्या भाषायी अल्पसंख्यकों की है, जो स्वयं को हाशिये पर महसूस करती हैं। उदाहरण के लिये असम में बंगाली बोलने वाले लोगों को अपनी पहचान एवं नागरिकता से संबंधित मुद्दों का सामना करना पड़ा है।
- तमिलनाडु: तेलुगू और कन्नड़ बोलने वाले जैसे भाषायी अल्पसंख्यक कभी-कभी प्रमुख तमिल संस्कृति के समक्ष अपनी भाषायी विरासत को संरक्षित करने के लिये संघर्ष करते हैं।
- भाषा नीति और शिक्षा: शिक्षा और सरकारी सेवाओं में भाषा नीतियों का कार्यान्वयन विवादास्पद बना हुआ है।
- त्रि-भाषा सूत्र: स्कूलों में बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाई गई नीति को अक्सर विरोध का सामना करना पड़ता है, कुछ राज्य हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में लागू करने का विरोध करते हैं। उदाहरण के लिये तमिलनाडु राज्य हिंदी भाषा को लागू करने का विरोध करता है।
- शिक्षा का माध्यम: स्कूलों में शिक्षा का माध्यम (क्षेत्रीय भाषा बनाम अंग्रेज़ी) विवाद का एक प्रमुख विषय है, जिसमें वैश्विक स्तर पर अवसर हेतु अंग्रेज़ी के लाभों का टकराव क्षेत्रीय भाषाओं से होता है।
- सांस्कृतिक एवं पहचान को लेकर राजनीति: पुनर्गठन द्वारा कभी-कभी सांस्कृतिक एवं पहचान से संबंधित मुद्दे को लेकर राजनीति में वृद्धि हुई है, जिससे संघर्षों को बढ़ावा मिला है।
- जातीय आंदोलन: मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों में भाषायी एवं सांस्कृतिक पहचान से प्रेरित जातीय आंदोलनों ने अधिक स्वायत्तता या अलग राज्य की मांग को जन्म दिया है।
- धार्मिक और भाषायी संघर्ष: संघर्ष अक्सर धर्म और भाषा के मुद्दे से उत्पन्न होते हैं, जैसे खालिस्तान विद्रोह, जिसके धार्मिक एवं भाषायी दोनों आयाम थे।
निष्कर्ष:
समकालीन भारत में शेष भाषायी संघर्षों को संबोधित करने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रीय एकता के साथ संतुलित करता है। संघवाद को मज़बूत करके, भाषायी समावेशिता को बढ़ावा देकर, समान विकास सुनिश्चित करके और सांस्कृतिक मान्यता को बढ़ावा देकर, भारत अपनी भाषायी विविधता को प्रभावी ढंग से प्रबंधित कर सकता है तथा अपनी विविध आबादी के बीच सद्भाव को बढ़ावा दे सकता है।