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दिवस- 33: भूस्खलन से संबंधित खतरों के प्रति भारत की सुभेद्यता का परीक्षण कीजिये। भूस्खलन को रोकने के क्रम में आपदा क्षेत्र मानचित्रण किस प्रकार योगदान दे सकता है? (250 शब्द)

14 Aug 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 3 | आपदा प्रबंधन

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • भारत में भूस्खलन के खतरे का संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
  • भूस्खलन के खतरों के प्रति भारत की संवेदनशीलता की जाँच कीजिये।
  • भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का मानचित्रण और आपदा न्यूनीकरण में इसकी भूमिका की व्याख्या कीजिये।
  • भूस्खलन जोखिम प्रबंधन को बढ़ाने के उपायों की सिफारिश कीजिये।
  • उपर्युक्त निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

भूस्खलन (Landslide) एक भू-वैज्ञानिक घटना है जिसमें शैल, मिट्टी और मलबे के एक भाग का नीचे की ओर खिसकना या संचलन शामिल होता है। भूस्खलन और हिमस्खलन प्रमुख जल भू-वैज्ञानिक खतरों में से हैं जो हिमालय के अलावा भारत के बड़े हिस्से, उत्तर-पूर्वी पर्वत शृंखलाएँ, पश्चिमी घाट, नीलगिरी, पूर्वी घाट और विंध्य को प्रभावित करते हैं, जो क्रमश: लगभग 15% भूभाग को कवर करते हैं।

हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन के कारण:

  • भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र: शैल विरूपण, उत्खनन एवं शैलों के रि-वर्क जैसी कई उपसतह प्रक्रियाओं से संबद्ध टेक्टोनिक या नव-टेक्टोनिक गतिविधियाँ तथा कटाव, अपक्षय एवं वर्षा/हिमपात जैसी सतह प्रक्रियाएँ पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाभाविक रूप से भंगुर (fragile) बनाती हैं।
    • भूकंप: हिमालय क्षेत्र में यूरेशियन प्लेट के साथ भारतीय प्लेट के टकराने ने भूमिगत तनाव पैदा किया है जो भूकंप के रूप में प्रकट होता है और इसके परिणामस्वरूप यह दरार/फ्रैक्चर का निर्माण करता है तथा पर्वत सतह के निकट लिथो-संरचनाओं को ढीला कर देता है। इससे ढलान के साथ शैलों के संचलन की संभावना बढ़ जाती है।
  • जलवायु प्रेरित चरम घटनाएँ: जलवायु-प्रेरित चरम घटनाएँ, जैसे बर्फ़ का जमना/पिघलना और भारी वर्षा/हिमपात के कारण हिमस्खलन, भूस्खलन, मलबा प्रवाह, GLOFs (Glacial Lakes Outburst Floods), LLOFs (Landslide Lakes Outburst Floods) और ‘फ्लैश फ्लड’ की स्थिति उत्पन्न होती है। वे पर्वतीय प्रणाली की अनिश्चितता को और बढ़ाते हैं। मानवजनित गतिविधियों से हिमालय पर और अधिक दबाव बनता है।
    • जलवायु परिवर्तन का हिमनदों, नदी प्रणालियों, भू-आकृति विज्ञान और जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप पर्वतीय राज्यों में लोगों की भेद्यता/असुरक्षा बढ़ गई है।
      • भूमि क्षरण से यह समस्या और बढ़ जाती है।
  • मानवजनित कारक: सड़क निर्माण, सुरंग निर्माण, खनन, उत्खनन, वनों की कटाई, शहरीकरण, कृषि, अत्यधिक पर्यटन और जलविद्युत परियोजना जैसी मानवीय गतिविधियाँ भी हिमालय में भूस्खलन का कारण बन सकती हैं या इसे गंभीर बना सकती हैं। ये गतिविधियाँ वनस्पति आवरण को हटाने, जल निकासी पैटर्न में बदलाव करने, मिट्टी के कटाव को बढ़ाने, कृत्रिम ‘कट एंड फिल’ का निर्माण करने, शैलों को तोड़ने और कंपन पैदा करने के रूप में ढलानों के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ सकती हैं।
    • ये गतिविधियाँ मानव बस्तियों और अवसंरचना के लिये भूस्खलन के खतरे एवं जोखिम को भी बढ़ा सकती हैं।
    • वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी इस भूभाग में होटल, सड़क, पुल और बाँध जैसी अनियोजित विकास एवं निर्माण गतिविधियों से भी प्रभावित हुई थी, जिसने प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली को बदल दिया था और मृदा का कटाव बढ़ गया था।
  • भू-वैज्ञानिक संरचना: हिमालय की कुछ शैलें चूना पत्थर से बनी हैं, जो अन्य प्रकार की शैलों की तुलना में जल एवं भूस्खलन के प्रति अधिक प्रवण होती हैं, क्योंकि यह अम्लीय वर्षा जल या भूजल में घुल सकती हैं। यह प्रक्रिया गुफाओं, सिंकहोल और अन्य कार्स्ट स्थलाकृति का निर्माण करती है जो ढलानों की स्थिरता को कमज़ोर करती हैं।
  • पश्चिमी विक्षोभ और मानसून: पश्चिमी विक्षोभ (जो भूमध्य सागर से उत्पन्न होने वाली और पूर्व की ओर आगे बढ़ते हुए मध्य एशिया एवं उत्तरी भारत में पहुँचने वाली निम्न दाब प्रणाली है) और दक्षिण-पश्चिम भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के अभिसरण के कारण जम्मू-कश्मीर के कुछ भागों, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अत्यधिक एवं केंद्रित वर्षा होती है जो फिर भूस्खलन एवं फ्लैश फ्लड का कारण बनती है।

खतरा क्षेत्र मानचित्रण और आपदा न्यूनीकरण में इसकी भूमिका:

  • संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान और वर्गीकरण: मानचित्रण में भूस्खलन के प्रति उनकी संवेदनशीलता के आधार पर क्षेत्रों की पहचान और वर्गीकरण करना शामिल है। इन मानचित्रों में ढलान की स्थिरता, मिट्टी के प्रकार और ऐतिहासिक भूस्खलन घटनाओं का डेटा शामिल है, जो विभिन्न क्षेत्रों में जोखिम के स्तर का आकलन करने में मदद करता है।
  • भूस्खलन जोखिमों का मूल्यांकन: जोखिम मूल्यांकन और शेड्यूलिंग जोखिम क्षेत्र मानचित्र भूमि-उपयोग योजना को निर्देशित करने और भूस्खलन के जोखिम का आकलन करने के लिये उपयोगी हैं। अधिकारी उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों को परिभाषित करके संवेदनशील स्थानों पर निर्माण को रोकने के लिये कानून लागू कर सकते हैं।
    • प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ ये मानचित्र उन क्षेत्रों को चिह्नित करके प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ विकसित करने में सहायक होते हैं, जिन पर बारीकी से निगरानी की आवश्यकता होती है।
    • ऐसी प्रणालियाँ जोखिमग्रस्त समुदायों को अलर्ट जारी कर सकती हैं, जिससे उन्हें पहले से तैयारी करने या स्थान खाली करने में सहायता मिलेगी।
  • सामुदायिक जागरूकता और तैयारी खतरा मानचित्र भूस्खलन के जोखिम तथा सुरक्षा प्रथाओं के बारे में जानकारी प्रदान करके सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाते हैं।
    • जोखिम मानचित्रों का उपयोग करने वाले आउटरीच कार्यक्रम निवासियों को सुरक्षित प्रथाओं एवं निकासी प्रक्रियाओं के बारे में सूचित कर सकते हैं।

भूस्खलन जोखिम प्रबंधन को बढ़ाने के लिये सिफारिशें:

  • पर्यावरण संबंधी विचार: पर्वतीय इलाकों की अनूठी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए उचित नगर नियोजन महत्त्वपूर्ण है। भारी निर्माण को प्रतिबंधित करना, प्रभावी जल निकासी प्रणालियों को लागू करना, ढलान-कटाई का वैज्ञानिक रूप से प्रबंधन करना और धारक-भित्ति (retaining walls) का उपयोग करना पर्यावरण के प्रति जागरूक विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
    • धारक भित्ति अपेक्षाकृत सुदृढ़ दीवारें होती हैं जिनका उपयोग मिट्टी को पार्श्व रूप से सहारा देने के लिये किया जाता है ताकि इसे दोनों तरफ भिन्न स्तरों पर बनाए रखा जा सके।
  • नीति में जोखिम क्षेत्रीकरण को एकीकृत करना:
    • राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भूमि-उपयोग नीतियों में जोखिम क्षेत्र मानचित्रण को शामिल करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि नियोजन तथा विकास में भूस्खलन जोखिमों पर विचार किया जाए। नए डेटा और बदलते जोखिम प्रारूप को दर्शाने के लिये जोखिम क्षेत्र मानचित्रों को नियमित रूप से अपडेट करना। इन मानचित्रों के कवरेज का विस्तार करने से आपदा प्रबंधन में उनकी प्रभावशीलता में सुधार हो सकता है।
      • भारतीय भूस्खलन एटलस एक दस्तावेज़ है जो भारत के भूस्खलन प्रभावित प्रांतों में मौजूद भूस्खलनों का विवरण प्रदान करता है, जिसमें विशिष्ट भूस्खलन स्थानों के नुकसान का आकलन भी शामिल है।
  • एकीकृत पूर्व-चेतावनी प्रणाली:
    • AI और मशीन लर्निंग (ML) एल्गोरिदम का उपयोग करके एक एकीकृत पूर्व-चेतावनी प्रणाली (Early Warning System- EWS) का विकास करना महत्त्वपूर्ण है। ऐसी प्रणाली आसन्न खतरों का पूर्वानुमान करने और समुदायों को सचेत करने में मदद कर सकती है, जिससे उन्हें निवारक उपाय करने के लिये बहुमूल्य समय प्राप्त हो सकता है।
  • हिमालयी राज्य परिषद का गठन:
    • एक ऐसे सहयोगी मंच की स्थापना करना जो हिमालयी क्षेत्र के विभिन्न राज्यों के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों को एक साथ लाता हो, एक महत्त्वपूर्ण रणनीतिक कदम होगा। यह केंद्रीकृत परिषद भूभाग पर विभिन्न दबावकारी घटकों के प्रभावों का प्रभावी ढंग से आकलन करने और उनका प्रबंधन करने के लिये ज्ञान, अनुभव एवं संसाधनों की साझेदारी को सक्षम बनाएगी।
  • सतत्/संवहनीय पर्यटन:
    • सतत् पर्यटन (Sustainable Tourism) पर्यावरण जागरूकता, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण एवं सुरक्षा और जैवविविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति सम्मान को बढ़ावा देकर भूस्खलन को कम कर सकता है।
    • यह स्थानीय समुदायों के लिये आर्थिक प्रोत्साहन एवं सामाजिक लाभ भी प्रदान कर सकता है, जो प्राकृतिक खतरों से निपटने के लिये उनकी प्रत्यास्थता एवं अनुकूलन क्षमता को बढ़ा सकता है।
  • सामुदायिक जागरूकता और प्रशिक्षण:
    • भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में समुदायों के लिये नियमित जागरूकता अभियान और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना। भूस्खलन के शुरुआती संकेतों को पहचानने और निकासी प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी होने से जनधन की होने वाली हानि को बचाया जा सकता है।

निष्कर्ष:

NDMA द्वारा तैयार किये गए भूस्खलन और हिमस्खलन पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देश, पूरे भारत में भूस्खलन के जोखिम को कम करने के लिये एक मज़बूत ढाँचा प्रदान करते हैं। भौगोलिक, जलवायु और मानवीय कारकों द्वारा आकार दिये गए देश की भेद्यता के साथ, नीति और नियोजन में जोखिम क्षेत्र मानचित्रण का एकीकरण न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य भी है। सार्वजनिक शिक्षा को आगे बढ़ाकर, प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को मज़बूत करके और सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देकर, भारत न केवल भूस्खलन के विनाशकारी प्रभावों को कम कर सकता है, बल्कि भविष्य के लिये सशक्त समुदाय और अनुकूल स्थिति भी विकसित कर सकता है।