दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) की अवधारणा को संक्षेप में समझाइये।
- हिमालय के सामने आने वाली विशेष पारिस्थितिक चुनौतियों का उल्लेख कीजिये।
- चर्चा कीजिये कि वर्तमान EIA भारतीय हिमालयी क्षेत्र को कैसे प्रभावित कर रहा है।
- हिमालय में EIA के लिये आगे की राह सुझाइये।
- उपर्युक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा EIA को परियोजनाओं के कार्यान्वयन से पहले उनके पर्यावरणीय परिणामों का आकलन करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें परियोजना विकल्पों की तुलना करना, पर्यावरणीय प्रभावों का पूर्वानुमान लगाना और शमन रणनीतियाँ तैयार करना शामिल है।
मुख्य भाग:
हिमालय के समक्ष विद्यमान पारिस्थितिक चुनौतियाँ
- पारिस्थितिक कमज़ोरी (Ecological Fragility):
- हिमालय युवा, वलित पर्वत हैं जिसका अर्थ यह है कि वे अभी भी ऊपर उठ रहे हैं और विवर्तनिक गतिविधियों से ग्रस्त हैं। इससे यह क्षेत्र भूस्खलन, हिमस्खलन और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिये प्रवण क्षेत्र है।
- चरम मौसम और जलवायु परिवर्तन:
- हिमालय क्षेत्र चरम मौसम दशाओं— जैसे भारी वर्षा, फ्लैश फ्लड, भूस्खलन और भूकंपीय गतिविधि के लिये प्रवण क्षेत्र है। जलवायु परिवर्तन इन कमज़ोरियों को और बढ़ा देता है। क्षेत्र-विशिष्ट मानकों का अभाव इन चिंताजनक मुद्दों का समाधान करने में विफल रहता है।
- ‘ब्लैक कार्बन’ का संचय:
- ग्लेशियरों के पिघलने के सबसे बड़े कारणों में से एक वायुमंडल में ब्लैक कार्बन एरोसोल (black carbon aerosols) का उत्सर्जन भी है।
- ब्लैक कार्बन अधिक प्रकाश अवशोषित करता है और इंफ्रा-रेड विकिरण उत्सर्जित करता है जिससे तापमान बढ़ता है; इस प्रकार, हिमालय में ब्लैक कार्बन की वृद्धि ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने में योगदान करती है।
- मानव जनित चुनौतियाँ:
- वनों की कटाई, निर्माण गतिविधियाँ, अनियमित पर्यटन और अनुपयुक्त भूमि उपयोग अभ्यासों से मृदा के कटाव एवं भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
- वनस्पति आवरण की क्षति हिमालयी ढलानों को अस्थिर कर देती है, जिससे वे भारी वर्षा या भूकंपीय घटनाओं के दौरान कटाव के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
भारतीय हिमालयी क्षेत्र को प्रभावित करने वाला वर्तमान EIA:
- दोषपूर्ण पारिस्थितिक आकलन:
- भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में परियोजनाओं के प्रभावों का आकलन करने के लिये क्षेत्र की कमज़ोरियों एवं भेद्यता की प्रासंगिक समझ का होना आवश्यक है। वर्तमान प्रणाली इस महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाती है।
- श्रेणीबद्ध दृष्टिकोण और इसकी खामियाँ:
- भारतीय नियामक प्रणाली एक श्रेणीबद्ध दृष्टिकोण अपनाती है, जहाँ किसी परियोजना से प्रभावित पर्यावास के प्रकार के आधार पर पर्यावरणीय स्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इस दृष्टिकोण में IHR के प्रति पृथक दृष्टिकोण का अभाव है, जिससे क्षेत्र विशेष सुरक्षा के बिना रह जाता है।
- EIA के तहत छूट:
- कुछ श्रेणियों से संबंधित परियोजनाएँ— जैसे कि सामरिक एवं रक्षा परियोजनाएँ, बायोमास आधारित बिजली संयंत्र, मत्स्यग्रहण से संबद्ध बंदरगाह, टोल प्लाजा आदि को कुछ मानदंडों के आधार पर EIA से छूट दी गई है।
हिमालय में EIA के लिये आगे की राह:
- एक राष्ट्रीय नियामक की आवश्यकता:
- एक राष्ट्रीय स्तर के नियामक (जिसका सुझाव वर्ष 2011 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया था) की अनुपस्थिति उद्देश्यपूर्ण एवं पारदर्शी परियोजना मूल्यांकन और निगरानी में बाधा डालती है। एक स्वतंत्र नियामक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच अधिक न्यायसंगत संतुलन सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है।
- संचयी प्रभाव आकलन:
- EIA प्रक्रिया, अपने वर्तमान स्वरूप में, संचयी प्रभावों पर पर्याप्त रूप से विचार नहीं करती है। यह किसी विशिष्ट क्षेत्र में कई परियोजनाओं के संयुक्त प्रभावों का आकलन करने के बजाय परियोजना विशेष पर ध्यान केंद्रित करती है। IHR के लिये एक अधिक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- रणनीतिक प्रभाव आकलन:
- रणनीतिक पर्यावरण मूल्यांकन (Strategic environmental assessment- SEA) किसी परियोजना की शुरुआत में वैकल्पिक प्रस्तावों के व्यापक पर्यावरणीय, सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों का आकलन है अर्थात् निर्णय के चरण पर- नीति, योजना या कार्यक्रम (policy, planning or program- PPP) स्तर पर।
- EIA प्राधिकारियों की सक्रिय भूमिका:
- यह महत्त्वपूर्ण है कि EIA प्राधिकारी विकासात्मक गतिविधियों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय उनका अनुमान लगाने में सक्षम हों।
- यह महत्त्वपूर्ण है कि EIA की तैयारी परियोजना प्रस्तावक से पूरी तरह स्वतंत्र हो।
- निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध: जोशीमठ जैसे आपदा प्रवण क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये, जिसकी अनुशंसा मिश्रा समिति (1976) द्वारा भी की गई थी।
निष्कर्ष:
भारत में वर्तमान पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) ढाँचा भेद्य एवं संवेदनशील भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) की विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर सकने में विफल रहता है। इस पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये EIA प्रक्रिया का पुनर्मूल्यांकन करने की तत्काल आवश्यकता है। केवल क्षेत्र-विशिष्ट और समग्र दृष्टिकोण अपनाकर ही हम उत्तरदायी विकास को आगे बढ़ाते हुए IHR के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर सकते हैं।