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  • 13 Aug 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण

    दिवस: 32- भारत में मरुस्थलीकरण एक मूक संकट है जिसके लिये ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • मरुस्थलीकरण को परिभाषित कीजिये और भारत में मरुस्थलीकरण की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिये।
    • भारत में मरुस्थलीकरण को बढ़ावा देने वाले कारकों पर चर्चा कीजिये।
    • मरुस्थलीकरण से निपटने के उपाय सुझाइये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    मरुस्थलीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके तहत उपजाऊ भूमि जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, अत्यधिक चराई और असंवहनीय कृषि पद्धतियों सहित विभिन्न कारकों के कारण लगातार शुष्क तथा अनुत्पादक होती जाती है। मरुस्थलीकरण एक मूक संकट है जिससे भारत का 25% भू-भाग इस प्रक्रिया से गुज़र रहा है। वर्तमान में, 97.85 मिलियन हेक्टेयर (mha) भूमि, जो भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के आकार का 2.5 गुना क्षेत्र है, पहले ही क्षरण हो चुका है।

    मुख्य भाग:

    भारत में मरुस्थलीकरण को बढ़ावा देने वाले कारक:

    • वनों की कटाई और वन अवक्रमण: भारत में लकड़ी (timber) और कृषि कार्य एवं बसावट के लिये भूमि की अत्यधिक मांग ने वनों की कटाई को बढ़ावा दिया है।
      • उदाहरण- IISc के ऊर्जा एवं आर्द्रभूमि अनुसंधान समूह की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी घाटों में 5% सदाबहार वन क्षेत्र नष्ट हो गया है।
    • भूजल का अत्यधिक दोहन: सिंचाई और औद्योगिक उद्देश्यों के लिये भूजल का अत्यधिक दोहन भूजल स्तर को कम कर देता है, जिससे भूमि अवतलन की स्थिति बनती है तथा मृदा की नमी कम हो जाती है।
      • उदाहरण: भारत विश्व में सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्त्ता है, जिसका अनुमानित उपयोग प्रतिवर्ष लगभग 251 bcm है, जो वैश्विक कुल का एक चौथाई से भी अधिक है।
    • तटीय क्षेत्रों में लवणता का प्रवेश: गुजरात और तमिलनाडु जैसे तटीय क्षेत्रों में, भूजल भंडारों और कृषि भूमि में समुद्री जल के प्रवेश के कारण मृदा लवणीकरण की स्थिति बनी है तथा उत्पादकता में कमी आई है।
      • एक अनुमान के अनुसार सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्र के 627 गाँव लवणता के प्रवेश से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं।
    • खनन और औद्योगिक गतिविधियाँ: अनियमित खनन और औद्योगिक परिचालन के परिणामस्वरूप मृदा प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा आस-पास की भूमि के क्षरण की स्थिति बनी है, जिससे मरुस्थलीकरण की वृद्धि हो रही है।
      • उदाहरण: झारखंड के झरिया कोयला क्षेत्र में खनन गतिविधियों के कारण आस-पास के क्षेत्रों में भूमि अवतलन, मृदा प्रदूषण और मरुस्थलीकरण की स्थिति बनी है।
    • शहरीकरण और अवसंरचना का विकास: तीव्र शहरीकरण और राजमार्गों, हवाई अड्डों एवं औद्योगिक गलियारों जैसी वृहद् अवसंरचना परियोजनाओं के निर्माण के कारण उत्पादक कृषि भूमि की हानि हुई है तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान उत्पन्न हुआ है, जिससे मरुस्थलीकरण में वृद्धि हुई है।
      • उदाहरण: कई राज्यों में विस्तृत दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना के परिणामस्वरूप उपजाऊ भूमि के विशाल खंडों का अधिग्रहण हुआ है, जिससे आस-पास के क्षेत्रों में भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण की वृद्धि हुई है।

    भारत में मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये उपाय:

    • देशी प्रजातियों के साथ कृषि वानिकी और पुनर्वनीकरण को बढ़ावा देना: बड़े पैमाने पर कृषि वानिकी पहलों को लागू करना, पेड़ों एवं झाड़ियों को कृषि प्रणालियों में एकीकृत करना, मृदा की उर्वरता को पुनर्बहाल करना, कटाव को कम करना और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये सूक्ष्म जलवायु परिस्थितियों का निर्माण करना।
      • नाइजर, माली, बुर्किना फासो, सेनेगल, इथियोपिया और मलावी में सफल सिद्ध हुई कृषि वानिकी पहल भारत के लिये एक प्रमुख मॉडल हो सकती है।
    • सीड बायोप्राइमिंग (Seed Biopriming) और सीड एनकैप्सुलेशन (Seed Encapsulation): सीड बायोप्राइमिंग तकनीकों के उपयोग को विकसित करना एवं बढ़ावा देना, जिसमें मरुस्थली क्षेत्रों में बीज की व्यवहार्यता और जल-उपयोग दक्षता में सुधार करने के लिये लाभकारी सूक्ष्मजीवों के साथ बीजों का उपचार करना शामिल है।
    • कोहरा संग्रहण जाल (Fog Harvesting Nets): कोहरे से नमी को इकट्ठा करने के लिये शुष्क क्षेत्रों में विशेष जाल लगाना। इस प्रकार संग्रहित जल का उपयोग सिंचाई के लिये या देशी वनस्पति को सहारा देने के लिये किया जा सकता है, जिससे पौधों की वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा और मरुस्थलीकरण की प्रवृत्ति को व्युत्क्रमित किया जा सकता है।
    • जैव लवणीय कृषि (Biosaline Agriculture) और लवणमृदोद्भिद खेती (Halophyte Cultivation): जैव लवणीय कृषि के अनुसंधान एवं विकास में निवेश करना, जिसमें लवणीय या अवक्रमित मृदा में लवण-सहिष्णु फसलों या हैलोफाइट की खेती करना शामिल है।
      • सैलिकोर्निया (Salicornia) और एट्रिप्लेक्स (Atriplex) जैसे लवणमृदोद्भिदों या हैलोफाइट्स को आहार, चारा एवं जैव ईंधन उत्पादन के लिये उगाया जा सकता है, जिससे मरुस्थलीय क्षेत्रों में आर्थिक अवसर उपलब्ध होंगे।
    • मरुस्थलीकरण अनुकूलन क्षेत्रों की स्थापना: विशिष्ट क्षेत्रों को ‘मरुस्थलीकरण अनुकूलन क्षेत्र’ (Desertification Adaptation Zones) के रूप में चिह्नित एवं नामित करना, जहाँ संवहनीय कृषि पद्धतियों, मृदा संरक्षण उपायों और पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली जैसे लक्षित हस्तक्षेपों को सख्ती से लागू किया जाए।
      • इन क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों को मरुस्थलीकरण नियंत्रण प्रयासों में उनकी सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये राशि प्रोत्साहन एवं सहायता प्रदान करना।
    • मरुस्थलीकरण पूर्व-चेतावनी प्रणाली स्थापित करना: उन्नत निगरानी और पूर्व-चेतावनी प्रणाली विकसित करना जो विभिन्न क्षेत्रों में मरुस्थलीकरण की प्रवृत्तियों का पता लगाने तथा पूर्वानुमान व्यक्त करने के लिये रिमोट सेंसिंग, भू-आधारित सेंसर तथा पर्यावरणीय डेटा को एकीकृत करती है।
      • निर्णय-निर्माण के मार्गदर्शन में प्राप्त सूचना का उपयोग और समयबद्ध हस्तक्षेप लागू करने से मरुस्थलीकरण के प्रभावों को कम किया जा सकता है।
    • संरक्षण पर केंद्रित मरुस्थलीय पर्यटन: ज़िम्मेदार मरुस्थलीय पर्यटन कार्यक्रमों को डिज़ाइन करना, जो मरुस्थलीकरण के बारे में जागरूकता बढ़ाएँ और स्थानीय समुदायों के लिये राजस्व उत्पन्न करें।
      • ये कार्यक्रम पर्यटन उद्योग में संरक्षण प्रयासों को प्रोत्साहित कर सकते हैं और संवहनीय अभ्यासों को बढ़ावा दे सकते हैं।

    निष्कर्ष:

    मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) के 14वें सम्मेलन (COP-14) में भारत सहित भागीदार देशों ने वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता हासिल करने को राष्ट्रीय लक्ष्य बनाने पर सहमति व्यक्त की है। सतत् प्रथाओं और नीतियों को लागू करके भारत मरुस्थलीकरण से निपट सकता है, अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकता है तथा अपनी आबादी के लिये अधिक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।

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