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दिवस-3: "क्या आपको लगता है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक बहुवर्गीय आंदोलन था जो सभी वर्गों के साम्राज्यवाद-विरोधी हितों का प्रतिनिधित्व करता था? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिये।"(250 शब्द)

10 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण :

  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन वास्तव में एक बहुवर्गीय आंदोलन था, चर्चा कीजिये।
  • इस तर्क के समर्थन में स्वतंत्रता संग्राम की कुछ प्रमुख घटनाओं पर प्रकाश डालिये।
  • यह पुष्टि करते हुए निष्कर्ष लिखिये कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक विविध समाज की सामूहिक आकांक्षाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व था।

परिचय:

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिये एक व्यापक और बहुआयामी संघर्ष था, जो एक शताब्दी से अधिक समय तक चला, जिसकी परिणति वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के रूप में हुई। इसमें विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ और दर्शन शामिल थे, जो उस समय के जटिल सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाते थे।

मुख्य भाग:

विभिन्न वर्गों की व्यापक भागीदारी :

  • किसान और ग्रामीण जनसंख्या:
    • चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह: 20वीं सदी की शुरुआत में महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह (1917) और खेड़ा सत्याग्रह (1918) जैसे महत्त्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया, जो दमनकारी ब्रिटिश नीतियों तथा ज़मींदारों के अधीन पीड़ित किसानों की शिकायतों को सीधे संबोधित करते थे।
    • बारदोली सत्याग्रह: सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली सत्याग्रह (1928) में गुजरात के किसानों ने बढ़ी हुई भू-राजस्व मांगों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जिसने आंदोलन में ग्रामीण जनसंख्या की भागीदारी को और उजागर किया।
  • शहरी श्रमिक वर्ग:
    • ट्रेड यूनियन आंदोलन: ट्रेड यूनियन आंदोलनों और हड़तालों के माध्यम से शहरी श्रमिक वर्ग ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष 1920 में स्थापित अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कॉन्ग्रेस (AITUC) ने शोषणकारी श्रम संबंधी प्रथाओं के खिलाफ श्रमिक हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी:
    • स्वदेशी आंदोलन: स्वदेशी आंदोलन (1905-1908) में छात्रों, शिक्षकों, वकीलों और व्यापारियों सहित मध्यम वर्ग ने ब्रिटिश वस्तुओं तथा संस्थानों का बहिष्कार किया साथ ही स्वदेशी उत्पादों एवं उद्यमों को बढ़ावा दिया, जिससे आर्थिक आत्मनिर्भरता व राष्ट्रवादी उत्साह में योगदान मिला।
    • कॉन्ग्रेस नेताओं की भूमिका: दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे बुद्धिजीवियों तथा शिक्षित अभिजात वर्ग ने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के राजनीतिक विमर्श एवं रणनीतियों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई व आंदोलन को आगे बढ़ाया।
  • व्यवसाय और औद्योगिक वर्ग:
    • उद्योगपतियों से समर्थन: प्रमुख उद्योगपतियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को आर्थिक और वैचारिक रूप से समर्थन प्रदान किया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की विभिन्न गतिविधियों को वित्तपोषित किया तथा स्वदेशी आंदोलन जैसी पहलों में भाग लिया।
    • आर्थिक नीतियाँ: औद्योगिक वर्ग ने भी आंदोलन की आर्थिक नीतियों का समर्थन किया, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश आयात पर निर्भरता कम करना और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देना था।
  • जन आंदोलन:
    • असहयोग आंदोलन (1920-22), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) तथा भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे जन आंदोलनों ने संघर्ष की एकीकृत, बहु-वर्गीय प्रकृति का उदाहरण प्रस्तुत किया। इन आंदोलनों में समाज के सभी वर्गों की व्यापक रूप से भागीदारी देखी गई।
  • दलित आंदोलन:
    • डॉ. बी.आर. अंबेडकर दलितों की चिंताओं और आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने वाले एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे।
      • बहिष्कृत हितकारिणी सभा जैसे संगठनों के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिये सामाजिक सुधार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की वकालत की तथा "शिक्षित, संगठित तथा आंदोलन" के सिद्धांतों पर ज़ोर दिया। दलितों के अधिकारों की रक्षा करने एवं उनके मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिये उन्होंने मूक नायक व बहिष्कृत भारत जैसी प्रभावशाली पत्रिकाओं की शुरुआत की।
  • आदिवासी भागीदारी:
    • अनुसूचित जनजाति और आदिवासी भी विभिन्न रूप से स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए तथा संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह एवं गांधीवादी आंदोलनों में भाग लिया।
  • महिलाओं की भागीदारी :
    • महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, विभिन्न विरोध प्रदर्शनों, मार्चों और सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसी गतिविधियों में बड़ी संख्या में भाग लिया। सरोजिनी नायडू, भीकाजी कामा और अरुणा आसफ अली जैसे नेता आंदोलन में प्रमुख व्यक्ति के रूप में शामिल हुए। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) जैसे संगठनों ने महिलाओं को संगठित करने तथा राष्ट्रीय एवं लैंगिक मुद्दों को संबोधित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

निष्कर्ष :

आंदोलन की प्राथमिकताओं में विविधता और मतभेदों के बावजूद, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक एकीकृत रुख बनाए रखा। आत्मनिर्णय तथा स्वतंत्रता का साझा लक्ष्य के साथ विभिन्न वर्ग एवं जाति की बाधाओं को दूर कर सामाजिक समूहों की एक विस्तृत शृंखला ने प्रमुख रूप से आंदोलन में भाग लिया।