दिवस-3: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी चरण ने राष्ट्रीय भावना जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, फिर भी वे जनता को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सके। विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
10 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी चरण के संक्षिप्त अवलोकन के साथ उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- भारतीय मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में उदारवादियों की उपलब्धियों को रेखांकित कीजिये।
- उदारवादी तरीकों की सीमाओं पर प्रकाश डालिये।
- निष्कर्ष के तौर पर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के व्यापक संदर्भ में उदारवादी चरण के महत्त्व पर ज़ोर दीजिये।
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परिचय:
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदारवादी चरण (1885-1905) भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण चरण है। उदारवादी राजनीतिक गतिविधयों में कानून के दायरे में रहकर संवैधानिक सुधार शामिल था, जिसमे धीमी लेकिन व्यवस्थित राजनीतिक प्रगति देखी गई।
मुख्य भाग:
राष्ट्रीय भावना में उदारवादियों का योगदान:
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस (INC) की स्थापना:
- गठन: भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में ए.ओ. ह्यूम ने दादाभाई नौरोजी, डब्ल्यू.सी. बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे प्रमुख भारतीय नेताओं के साथ मिलकर की थी।
- चर्चा के लिये मंच: कॉन्ग्रेस ने राजनीतिक चर्चा और बहस के लिये एक मंच प्रदान किया, जो एक सामूहिक भारतीय पहचान बनाने में महत्त्वपूर्ण था।
- संवैधानिक तरीके और याचिकाएँ:
- याचिकाएँ और ज्ञापन: उदारवादी अपनी शिकायतों और मांगों को व्यक्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार को याचिकाएँ, प्रस्ताव तथा ज्ञापन प्रस्तुत करने पर निर्भर थे। उन्होंने नारा दिया- “प्रतिनिधित्व के बिना कोई कराधान नहीं”
- सुधार और प्रतिनिधित्व: उन्होंने संवैधानिक सुधार, विधान परिषदों में अधिक भारतीय प्रतिनिधित्व और बेहतर प्रशासनिक नीतियों की मांग की।
- वर्ष 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम, ब्रिटिश भारत के विधायी सुधार में उदारवादी राष्ट्रवादियों के लिये एक मामूली लेकिन महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सफलता थी।
- आर्थिक समालोचन
- धन निकासी का सिद्धांत (ड्रेन थ्योरी): दादाभाई नौरोजी द्वारा दिया गया 'धन निकासी का सिद्धांत (ड्रेन थ्योरी)' ने अंग्रेज़ों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को स्पष्ट किया, जिसने कई भारतीयों को प्रभावित किया और भारत की अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश शासन के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा की।
- आर्थिक शोषण: आर.सी. दत्त जैसे नेताओं ने भारतीय कृषि और उद्योग पर ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के प्रतिकूल प्रभाव पर प्रकाश डाला।
- सामाजिक और शैक्षिक सुधार
- शिक्षा को बढ़ावा: उदारवादियों ने भारतीयों को सशक्त बनाने और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा देने के साधन के रूप में पश्चिमी शिक्षा के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
- सामाजिक सुधार: उन्होंने सामाजिक सुधारों पर बल दिया, जिसमें बाल विवाह जैसी प्रथाओं का उन्मूलन और महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देना शामिल था, जिससे राष्ट्रीय विकास की भावना में योगदान मिला।
- राजनीतिक जागरूकता और राष्ट्रीय पहचान
- नागरिक अधिकारों की सुरक्षा: एक निरंतर अभियान के माध्यम से, राष्ट्रवादी आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों का प्रसार करने में सक्षम थे तथा जल्द ही नागरिक अधिकारों की रक्षा स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न अंग बन गई।
- राष्ट्रीय पहचान को जागृत करना: सभी भारतीयों के बीच एक व्यापक राष्ट्रीय चेतना पैदा करने में सक्षम थे, तथा जिन्होंने समान हितों के इर्द-गिर्द एकजुट होने की आवश्यकता तथा इन सबसे बढ़कर एक राष्ट्र की भावना पर बल दिया।
मध्यम चरण की सीमाएँ:
- जन-आंदोलन का अभाव
- अभिजात्य दृष्टिकोण: उदारवादियों में मुख्य रूप से शिक्षित अभिजात वर्ग जैसे- वकील, पेशेवर और बुद्धिजीवी शामिल थे। उनके कार्य करने के तरीके और भाषा जनता, विशेष रूप से ग्रामीण आबादी के साथ प्रतिध्वनित नहीं होती थी।
- सीमित पहुँच: संवैधानिक तरीकों पर ध्यान और ब्रिटिश सद्भावना पर निर्भरता ने तत्काल आर्थिक तथा सामाजिक कठिनाइयों से पीड़ित आम जनता तक उनकी अपील को सीमित कर दिया।
- तत्काल सुधारों में अप्रभावीता
- धीमी प्रगति: याचिकाओं और अपीलों के माध्यम से स्वतंत्रता की मांग वाले उदारवादी दृष्टिकोण के कारण अक्सर ब्रिटिश सरकार की ओर से धीमे तथा निम्न सुधार हुए, जिससे कई भारतीयों को निराशा मिली।
- वफादारी की धारणा: उदारवादियों की ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफादारी और क्रमिक सुधार में उनके विश्वास को कभी-कभी कमज़ोरी या आत्मसंतुष्टि के रूप में देखा जाता था।
- बढ़ता असंतोष:
- बढ़ती हताशा: उदारवादियों के तरीकों की सीमित सफलता और धीमी गति ने युवा नेताओं तथा आम जनता के बीच बढ़ती निराशा को जन्म दिया।
- चरमपंथियों का उदय: इस असंतोष ने कॉन्ग्रेस के भीतर चरमपंथी गुट के उदय का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, बिपिन रावत जैसे नेताओं ने किया।
- चन्द्र पाल और लाला लाजपत राय ने उग्रवादी तथा प्रत्यक्ष कार्रवाई की वकालत की।
- चरमपंथी चरण में संक्रमण:
- जन आंदोलन: उग्रवादियों ने जन आंदोलन, बहिष्कार और स्वदेशी (आत्मनिर्भरता) आंदोलनों पर ध्यान केंद्रित किया, जो राष्ट्रीय आंदोलन में जनता को आकर्षित करने में अधिक प्रभावी थे।
- सांस्कृतिक पुनरुत्थान: नए नेतृत्व ने अत्यधिक पश्चिमीकरण के प्रभाव को महसूस किया और ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीय राष्ट्रीय पहचान को डुबोने के लिये औपनिवेशिक डिज़ाइनों को महसूस किया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती का राजनीतिक संदेश ‘भारत भारतीयों के लिये’’ था।
निष्कर्ष:
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी चरण ने राष्ट्रीय भावना को जाग्रत और स्वतंत्रता संग्राम के बाद के चरणों के लिये बौद्धिक तथा संगठनात्मक आधार तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदारवादी से उग्रवादी चरण में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रगति थी, जो औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय लोगों की उभरती आकांक्षाओं एवं कुंठाओं को दर्शाती थी।