07 Aug 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 3 | अर्थव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- कृषि क्रांतियों के महत्त्व का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- स्वतंत्रता के बाद भारत में हुई विभिन्न कृषि क्रांतियों का उल्लेख कीजिये
- इन क्रांतियों ने देश में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार योगदान दिया है, विश्लेषण कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
कृषि क्रांतियों का तात्पर्य कृषि पद्धतियों, प्रौद्योगिकियों और प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों से है, जिससे कृषि उत्पादकता, दक्षता और स्थिरता में पर्याप्त वृद्धि होती है। वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत को खाद्यान्न की कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये कई कृषि क्रांतियों की शुरुआत की गई, जिससे कृषि परिदृश्य में बदलाव आया और खाद्य सुरक्षा में वृद्धि हुई।
मुख्य बिंदु:
स्वतंत्रता के बाद भारत में हुई विभिन्न कृषि क्रांति:
- हरित क्रांति (1960-1980):
- हरित क्रांति एक प्रमुख पहल थी जिसका उद्देश्य भारत में खाद्य फसलों, विशेष रूप से गेहूँ और चावल के उत्पादन तथा गुणवत्ता को बढ़ाना था, इसके लिये नई तकनीकों जैसे कि उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई और मशीनीकरण को शामिल किया गया।
- हरित क्रांति के कारण कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। बौने गेहूँ और चावल जैसी नई उच्च उपज देने वाली फसल किस्मों ने प्रति हेक्टेयर भूमि पर अधिक उपज प्रदान की, जिससे खाद्य पदार्थों की बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करने में मदद मिली।
- उदाहरण के लिये वर्ष 1978-1979 में फसल उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि के कारण 131 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ, जिससे भारत विश्व के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों में से एक बन गया।
- श्वेत क्रांति (1970-1990 के दशक):
- ऑपरेशन फ्लड के जरिये शुरू की गई श्वेत क्रांति का उद्देश्य दूध उत्पादन बढ़ाना और देश भर में दूध ग्रिड स्थापित करना था।
- श्वेत क्रांति वर्ष 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) द्वारा डॉ. वर्गीस कुरियन के निर्देशन में शुरू किया गया एक विशाल डेयरी विकास कार्यक्रम था, जिन्हें आमतौर पर श्वेत क्रांति का जनक माना जाता है।
- वर्ष 1970 में 22 मिलियन टन से 2018-19 में 187.7 मिलियन टन तक, भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बन गया है, जो वैश्विक दूध उत्पादन का 22% हिस्सा है।
- पीली क्रांति (1980 का दशक):
- पीली क्रांति तिलहनों, विशेष रूप से सरसों और मूंगफली के उत्पादन को बढ़ाने के लिये थी, ताकि आयातित खाद्य तेलों पर निर्भरता कम हो सके। नई खेती तकनीकों को बढ़ावा देने और समर्थन मूल्य स्थापित करने से तिलहन उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, जिससे किसानों की आय में वृद्धि हुई और आयात में कमी आई है।
- नीली क्रांति (1990-2000 के दशक):
- मत्स्य उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से, नीली क्रांति ने जलीय कृषि और सतत् मत्स्य संग्रहण की प्रथाओं को बढ़ावा दिया।
- इसे भारत में 7वीं पाँचवर्षीय योजना (FYP) के दौरान लॉन्च किया गया, जिसकी अवधि वर्ष 1985 से 1990 तक थी, जिसके दौरान सरकार ने मत्स्य किसान विकास एजेंसी (FFDA) को प्रायोजित किया।
- भारतीय मत्स्य पालन क्षेत्र जो 50 वर्ष पहले केवल 60,000 टन मत्स्य का उत्पादन करता था, आज 4.7 मिलियन टन मत्स्य उत्पादन करता है, जिसमें मीठे पानी की जलीय कृषि से होने वाला 1.6 मिलियन टन उत्पादन शामिल है।
- जीन क्रांति (2000 से वर्तमान तक):
- जीन क्रांति द्वारा भारतीय कृषि में जैव प्रौद्योगिकी और आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फसलों की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य फसल के उत्पादन में पर्याप्त रूप से सुधार करना था।
- बीटी कॉटन की शुरूआत से कपास उत्पादक राज्यों में उत्पादन में काफी वृद्धि हुई तथा जल्द ही कपास की खेती अधिकांश जमीन पर की जाने लगी।
- आँकड़ों के मुताबिक जहाँ एक ओर वर्ष 2001-02 में कपास उत्पादन 14 मिलियन बेल्स (Bales) था, वहीं 2014-15 में यह 180 प्रतिशत बढ़कर 39 मिलियन बेल्स हो गया।
भारत में गरीबी उन्मूलन पर कृषि क्रांतियों का प्रभाव:
- उच्च आय स्तर: जैसे-जैसे कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई, किसानों को अपनी उपज से उच्च आय का अनुभव हुआ। आय स्तर में वृद्धि ने किसानों को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और अन्य आवश्यक आवश्यकताओं में निवेश करने में सक्षम बनाया, जिससे उनके जीवन की समग्र गुणवत्ता में सुधार हुआ।
- रोज़गार सृजन: कृषि क्रांतियों ने खेती और संबद्ध क्षेत्रों जैसे प्रसंस्करण, परिवहन और विपणन में कई नौकरियों का सृजन किया। अकेले हरित क्रांति ने ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसरों में उल्लेखनीय वृद्धि की।
- आय के अवसरों का विविधीकरण: नीली क्रांति ने मत्स्य संग्रहण और जलीय कृषि को प्रोत्साहित किया, जिससे किसानों के लिये वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध हुई और पारंपरिक फसल कृषि पर निर्भरता कम हुई। इस विविधीकरण ने आय को स्थिर और गरीबी के जोखिम को कम करने में मदद की।
- सौदेबाजी की शक्ति: श्वेत क्रांति ने सहकारी डेयरी फार्मिंग को बढ़ावा दिया, जिससे छोटे किसानों को उत्पादन और विपणन प्रक्रियाओं में हिस्सेदारी देकर उन्हें सशक्त बनाया गया। इस सामूहिक दृष्टिकोण ने उनकी सौदेबाजी की शक्ति और आय को बढ़ाने में मदद की।
- संसाधनों तक पहुँच: कृषि क्रांतियों ने ऋण, इनपुट और बाज़ारों सहित संसाधनों तक बेहतर पहुँच की सुविधा प्रदान की, जिससे किसानों को अपनी उत्पादकता और आय में सुधार करने में मदद मिली।
भारत में खाद्य सुरक्षा पर कृषि क्रांतियों का प्रभाव:
- फसल उत्पादन में वृद्धि: इसके परिणामस्वरूप वर्ष 1978-79 में 131 मिलियन टन अनाज उत्पादन हुआ और भारत विश्व के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों में से एक बन गया।
- 1960 के दशक में भारत में चावल की पैदावार लगभग 2 टन प्रति हेक्टेयर थी, जो 1990 के दशक के मध्य तक यह बढ़कर 6 टन प्रति हेक्टेयर हो गयी।
- आत्मनिर्भरता: खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि ने भारत को मुख्य फसलों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने, खाद्य आयात पर निर्भरता कम करने और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने में मदद की।
- खाद्य स्रोतों का विविधीकरण: पीली और नीली क्रांतियों ने क्रमशः तिलहन और मत्स्य संग्रहण को बढ़ाया, जिससे विभिन्न प्रकार के खाद्य विकल्प उपलब्ध हुए तथा समग्र आहार विविधता में सुधार हुआ।सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS): अधिशेष खाद्य उत्पादन ने सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू करने में सक्षम बनाया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि खाद्यान्न कमज़ोर आबादी को रियायती दरों पर वितरित किया जाए, जिससे कम आय वाले परिवारों के लिए खाद्य सुरक्षा में और वृद्धि हुई।
निष्कर्ष:
अपनी सफलताओं के बावजूद, भारत में कृषि क्रांतियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिसमें मृदा के क्षरण और अत्यधिक रासायनिक उपयोग के कारण पानी की कमी जैसे पर्यावरणीय मुद्दे शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, लाभ समान रूप से वितरित नहीं हुए, छोटे किसानों को संसाधनों और बाज़ारों तक पहुँच हेतु संघर्ष करना पड़ रहा है, जबकि संकर और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों पर बढ़ती निर्भरता ने जैव विविधता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना, छोटे किसानों के लिये संसाधनों तक पहुँच बढ़ाना तथा कृषि नीतियों में जैव विविधता एवं खाद्य संप्रभुता को प्राथमिकता देना आवश्यक है।