07 Aug 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 3 | अर्थव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण :
- भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में भूमि सुधार और उसके उद्देश्यों को परिभाषित कीजिये।
- भूमि सुधार, कृषि उत्पादकता और गरीबी उन्मूलन के बीच संबंधों को रेखांकित कीजिये।
- भारत में कृषि-अनुकूल भूमि सुधारों को आकार प्रदान करने और उन्हें लागू करने में शामिल चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
स्वतंत्रता के समय, कृषि संरचना में व्यापक गरीबी, काश्तकारों का शोषण और असमान भूमि वितरण की विशेषता थी। भारत में भूमि सुधारों की शुरुआत कृषि असमानता को दूर करने, सामाजिक समानता सुनिश्चित करने और कृषि उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से की गई थी।
मुख्य बिंदु :
स्वतंत्र भारत के बाद प्रमुख भूमि सुधार:
- प्रारंभिक चरण (1947-1950) :
- मध्यस्थों का उन्मूलन: इस चरण के दौरान प्राथमिक उद्देश्य ज़मींदारों, जागीरदारों और इनामदारों जैसे बिचौलियों को खत्म करना था, जो किसानों का शोषण कर रहे थे। जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और इसी तरह के कानून विभिन्न राज्यों में लागू किये गए।
- विधान: राज्यों ने ज़मींदारी प्रथा को खत्म करने के लिये कानून बनाए गए और भूमि का स्वामित्व सीधे किसानों को हस्तांतरित किया गया। उदाहरण के लिये उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम, 1951, सबसे शुरुआती और सबसे महत्त्वपूर्ण कानूनों में से एक था।
- समेकन चरण (1960-1970)
- भूमि सीमा अधिनियम: इन अधिनियमों का उद्देश्य भूमि जोतों पर अधिकतम सीमा लगाकर अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण करना था। अधिशेष भूमि को भूमिहीन और सीमांत किसानों के बीच वितरित किया जाना था। उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र कृषि भूमि (जोतों पर अधिकतम सीमा) अधिनियम, 1961 का उद्देश्य भूमि का पुनर्वितरण करना था।
- काश्तकारी सुधार: इन सुधारों ने काश्तकारी की सुरक्षा प्रदान की, किराए को विनियमित किया और काश्तकारों को स्वामित्त्व अधिकार प्रदान करने का लक्ष्य रखा। पश्चिम बंगाल में, ऑपरेशन बरगा (1970 के दशक के अंत में) ने बटाईदारों के अधिकारों को सफलतापूर्वक दर्ज किया, जिससे उन्हें सुरक्षा मिली और उत्पादकता में वृद्धि हुई।
- हरित क्रांति: इस अवधि में हरित क्रांति का आगमन भी देखा गया, जिसने कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि की, लेकिन भूमि वितरण और इक्विटी के मुद्दों को समान रूप से संबोधित नहीं किया।
- स्थिरता और नीति परिवर्तन (1980-1990 के दशक):
- कार्यान्वयन संबंधी मुद्दे: भूमि सुधारों की प्रभावशीलता को कानूनी खामियों, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और प्रशासनिक बाधाओं सहित कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जमींदार अक्सर बेनामी लेनदेन और भूमि अभिलेखों में हेराफेरी के माध्यम से सीलिंग कानूनों से बचते थे।
- फोकस शिफ्ट: पुनर्वितरण सुधारों से फोकस भूमि प्रबंधन, जोतों के समेकन और कृषि बुनियादी ढाँचे में सुधार की ओर स्थानांतरित हो गया।
- समकालीन चरण (2000-वर्तमान) ;
- भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास: भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (LARR) अधिनियम, 2013 का उद्देश्य भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को उचित मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन प्रदान करना था। इसने औद्योगीकरण की ज़रूरतों को सामाजिक न्याय के साथ संतुलित करने का प्रयास किया।
- डिजिटल पहल: डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) जैसे कार्यक्रमों का उद्देश्य भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण करना, विवादों को कम करना और भूमि लेनदेन में पारदर्शिता को बढ़ाना है।
भूमि सुधार, कृषि उत्पादकता और गरीबी उन्मूलन के बीच संबंध
- भूमि सुधार और कृषि उत्पादकता:
- न्यायसंगत भूमि वितरण: न्यायसंगत वितरण को बढ़ावा देने वाले भूमि सुधारों से संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सकता है, जिससे छोटे किसानों को अपनी भूमि में निवेश करने और आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने में मदद मिलेगी।
- निवेश और नवाचार: सुरक्षित भूमि स्वामित्त्व किसानों को मृदा स्वास्थ्य, सिंचाई और फसल विविधीकरण में सुधार के लिये निवेश करने के लिये प्रोत्साहित करता है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक उपज होती है।
- कृषि उत्पादकता और गरीबी में कमी :
- आय में वृद्धि: उच्च कृषि उत्पादकता सीधे किसानों की आय में वृद्धि में योगदान देती है, जो ग्रामीण गरीबी को कम करने में मदद करती है।
- खाद्य सुरक्षा: कृषि उत्पादन में वृद्धि से खाद्य उपलब्धता में सुधार होता है, जो विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- भूमि सुधार और गरीबी उन्मूलन :
- सीमांत किसानों का सशक्तीकरण: भूमि सुधार सीमांत और छोटे किसानों को सुरक्षित भूमि स्वामित्त्व प्रदान करके सशक्त बना सकते हैं। यह सुरक्षा ऋण और बाज़ार के अवसरों तक उनकी पहुँच को बढ़ाती है।
- सामाजिक स्थिति: भूमि का स्वामित्त्व किसानों की सामाजिक स्थिति में सुधार तथा उन्हें आर्थिक अवसर प्रदान करता है।
भारत में कृषि-अनुकूल भूमि सुधारों को डिज़ाइन करने और कार्यान्वित करने में चुनौतियाँ:
- राजनीतिक और सामाजिक प्रतिरोध: भूमि सुधार पहलों को अक्सर राजनीतिक रूप से प्रभावशाली भूस्वामियों और निहित स्वार्थ वाले लोगों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, जो पुनर्वितरण का विरोध करते हैं।
- उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में, कई ज़मींदारों ने कानूनी खामियों और राजनीतिक संबंधों के माध्यम से भूमि हदबंदी कानूनों को दरकिनार कर दिया है, जिससे हाशिये पर पड़े समुदायों को भूमि का प्रभावी पुनर्वितरण बाधित हो रहा है।
- नौकरशाही बाधाएँ: भूमि सुधारों का कार्यान्वयन करना नौकरशाही अकुशलताओं के कारण जटिल है, जिसमें पुराने भूमि रिकॉर्ड, शीर्षक विवाद और प्रशासनिक देरी शामिल हैं।
- भूमि हदबंदी अधिनियम के तहत बेनामी लेनदेन चिंता का विषय बन गया।
- आर्थिक बाधाएँ: भूमि सुधारों के वित्तीय निहितार्थ, जैसे भूमि पुनर्वितरण के लिये मुआवजा और सहायक सेवाओं की स्थापना, आर्थिक चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं।
- भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम (2013) के तहत प्रदान किये गए मुआवजा अपर्याप्त होने के कारण आलोचना की गई है, जिससे भूमि मालिक सार्वजनिक परियोजनाओं के लिये स्वेच्छा से अपनी ज़मीन देने में संकोच करने लगे हैं।
- जागरूकता और शिक्षा: किसानों में अपने अधिकारों और भूमि सुधारों के लाभों के बारे में जागरूकता की कमी इन पहलों में भागीदारी और समर्थन में बाधा डाल सकती है।
निष्कर्ष:
भूमि सुधार, कृषि उत्पादकता और गरीबी उन्मूलन के बीच संबंध भारत के आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। जबकि भूमि सुधार कृषि उत्पादकता को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ा सकते हैं तथा गरीबी को कम कर सकते हैं, राजनीतिक प्रतिरोध, नौकरशाही की अक्षमताओं, आर्थिक बाधाओं और जागरूकता की चुनौतियों का समाधान प्रभावी कार्यान्वयन के लिये आवश्यक है। एक व्यापक भूमि सुधार ढाँचा जो सतत् कृषि विकास को प्राथमिकता देता है तथा हाशिये पर पड़े किसानों का समर्थन करता है, भारत में गरीबी को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।