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  • 09 Jul 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस-2: “कुल मिलाकर इस निष्कर्ष को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है कि तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन 'न तो प्रथम, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था- आर.सी. मजूमदार”। इस कथन के आलोक में वर्ष 1857 के विद्रोह की प्रकृति का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • वर्ष 1857 के विद्रोह और भारतीय इतिहास में इसके महत्त्व को परिचय में लिखिये।
    • आर.सी. मजूमदार की आलोचना प्रस्तुत कीजिये और विश्लेषण के दायरे की रूपरेखा तैयार कीजिये।
    • विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करते हुए वर्ष 1857 के विद्रोह की प्रकृति का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
    • विद्रोह की प्रकृति की कठिनाइयों पर विचार कीजिये तथा भारतीय इतिहास पर वर्ष 1857 के विद्रोह के स्थायी प्रभाव पर विचार करते हुए निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    वर्ष 1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के रूप में जाना जाता है, 10 मई, 1857 को मेरठ शहर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ और जल्द ही दिल्ली, अवध, बिहार तथा मध्य भारत सहित कई क्षेत्रों में नागरिक विद्रोह के रूप में फैल गया, जिसके प्रमुख नेतृत्वकर्त्ताओं में बहादुर शाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहिब एवं तात्या टोपे शामिल थे।

    मुख्य भाग:

    विद्रोह पर विभिन्न दृष्टिकोण:

    • औपनिवेशिक दृष्टिकोण: अंग्रेज़ों ने इसे विद्रोह कहा, सैन्य पहलू पर ध्यान केंद्रित कर इसे सिपाहियों के बीच अनुशासन हीनता के रूप में देखा।
    • राष्ट्रवादी दृष्टिकोण: भारतीय राष्ट्रवादियों ने इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध बताया, जिसमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध पर ज़ोर दिया गया।
    • मार्क्सवादी दृष्टिकोण: विदेशी और सामंती साहूकारों के खिलाफ सैनिक-किसान लोकतांत्रिक गठबंधन का संघर्ष।
    • आलोचनात्मक दृष्टिकोण: आर.सी मजूमदार जैसे इतिहासकारों ने इसे न तो पहला, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता का युद्ध माना।

    आर.सी. मजूमदार के दृष्टिकोण का विश्लेषण

    • न तो पहला:
      • पूर्ववर्ती विद्रोह: वर्ष 1857 से पहले, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिरोध के कई उदाहरण थे, जैसे- संन्यासी विद्रोह (18वीं शताब्दी के अंत में) और पाइका विद्रोह (1817)।
    • न ही राष्ट्रीय:
      • अखिल भारतीय भागीदारी की अनुपस्थित: विद्रोह मुख्य रूप से विशिष्ट क्षेत्रों तक ही सीमित था। इसके प्रमुख क्षेत्रों में बंगाल, दिल्ली, अवध और मध्य भारत शामिल थे।
        • भारत के पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से अप्रभावित रहे।
        • जिसमे कुल क्षेत्रफल का एक-चौथाई से अधिक क्षेत्र और कुल आबादी का दसवाँ हिस्सा से अधिक हिस्सा इस विद्रोह से अप्रभावित था।
      • सभी वर्गों का शामिल न होना: कुछ वर्ग और समूह इसमें शामिल होने से बचे तथा सक्रिय रूप से विद्रोह का विरोध किया।
        • वास्तव में कई भारतीय शासकों और ज़मींदारों ने अंग्रेज़ों को सक्रिय रूप से समर्थन प्रदान किया। शिक्षित भारतीयों ने भी इस विद्रोह को प्रतिगामी माना।
    • न ही स्वतंत्रता के लिये विद्रोह:
      • स्वतंत्रता के लिये कोई एकीकृत प्रयास नहीं: स्वतंत्रता आंदोलनों के विपरीत, विद्रोह के दौरान कोई स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टि या एजेंडा नहीं था। प्रतिभागियों के बीच उद्देश्य व्यापक रूप से भिन्न थे। विद्रोह स्वतंत्रता के लिये एकीकृत प्रयास की तुलना में तात्कालिक घटनाओं से अधिक प्रेरित था।
        • सिपाहियों द्वारा वेतन, सेवा शर्तों और सांस्कृतिक असंवेदनशीलता (जैसे- एनफील्ड राइफल कारतूस की शुरूआत) पर शिकायतों के कारण विद्रोह किया। किसानों, ज़मींदारों और स्थानीय शासकों के अपने-अपने कारण थे, जो अक्सर आर्थिक संकट तथा सत्ता के नुकसान से संबंधित थे।
      • एकीकृत राष्ट्रीय एकता का अभाव: विद्रोहियों के पास औपनिवेशिक शासन की स्पष्ट समझ का अभाव था, उनके पास कोई दूरदर्शी राष्ट्रीय दृष्टि या सुसंगत सामाजिक विकल्प नहीं था।
      • केंद्रीय नेतृत्व का अभाव: विद्रोह को बिना किसी समन्वय या केंद्रीय नेतृत्व के साथ खराब तरीके से संगठित किया गया था। नाना साहेब, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, लक्ष्मीबाई जैसे प्रमुख विद्रोही नेता अपने ब्रिटिश विरोधियों की रणनीति का सामना नहीं कर सके।

    प्रतिवाद और व्यापक परिप्रेक्ष्य

    • राष्ट्रीय चेतना का जागरण: विद्रोह ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत किया, जो क्षेत्रीय, धार्मिक और जातिगत विभाजनों से परे थी। इसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध की सामूहिक चेतना को बढ़ावा दिया तथा राष्ट्रवादी भावना के बीज बोए।
    • असंतोष का प्रतीक: विद्रोह दमनकारी ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष का प्रतीक था। इसने प्रदर्शित किया कि भारतीय निष्क्रिय नहीं थे, बल्कि ब्रिटिश अजेयता की धारणा को चुनौती देने में सक्षम थे।
      • विद्रोह के नेताओं और प्रतिभागियों ने स्वतंत्रता सेनानियों की अगली पीढ़ियों को प्रेरित किया।
    • ब्रिटिश नीतियों पर प्रभाव: विद्रोह के बाद क्रूर दमन और बाद की ब्रिटिश नीतियों, जैसे कि 1858 के भारत सरकार अधिनियम के माध्यम से व्यपगत का सिद्धांत तथा क्राउन शासन, ने औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी प्रकृति को उजागर किया। इसने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को हवा दी एवं स्वशासन की मांग को तीव्र किया।

    निष्कर्ष:

    वर्ष 1857 का विद्रोह, हालाँकि एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन या स्वतंत्रता संग्राम नहीं था, लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसने ब्रिटिश शासन के प्रति व्यापक असंतोष को उजागर किया। यह न तो प्रतिरोध का पहला उदाहरण था और न ही एक एकीकृत राष्ट्रीय विद्रोह था, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के भविष्य की दिशा को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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