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दिवस-2: चर्चा कीजिये कि 19वीं शताब्दी में हुए सामाजिक-धार्मिक सुधारों ने किस तरह से भारत में महिलाओं के अधिकारों तथा सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले बाद के आंदोलनों का आधार तैयार किया। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की प्रमुख भूमिका पर विस्तार से चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

09 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण :

  • भारत में 19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों का संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
  • भारत में महिला अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिये 19वीं सदी के प्रमुख सुधार आंदोलनों पर चर्चा कीजिये।
  • स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर विस्तार से चर्चा कीजिये।
  • इन सुधारों के आधार पर रखकर निष्कर्ष लिखिये।

परिचय:

भारत में 19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों ने पारंपरिक मानदंडों और प्रथाओं से महत्त्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया, सामाजिक अन्याय को चुनौती दी तथा समानता की वकालत की। इन सुधारों ने बाद में महिलाओं के अधिकारों एवं सामाजिक न्याय की वकालत करने वाले आंदोलनों के लिये एक महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया, जबकि महिलाओं ने खुद भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मुख्य भाग:

भारत में महिला अधिकारों और सामाजिक न्याय हेतु 19वीं सदी के प्रमुख सुधार आंदोलन:

  • सती प्रथा का उन्मूलन (1829): राजा राम मोहन राय के प्रयासों से ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा को समाप्त कर आपराधिक न्यायालय द्वारा इसे गैर इरादतन हत्या के रूप में दंडनीय बना दिया।
  • कन्या भ्रूण हत्या: सामाजिक सुधारकों के प्रयासों से वर्ष 1795 और 1804 के बंगाल विनियमों द्वारा शिशु हत्या को अवैध घोषित किया गया तथा इसे एक सामान्य हत्या के रूप में माना गया।
  • विधवा पुनर्विवाह: पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रयासों से हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 पारित किया गया, इसने विधवाओं के विवाह और ऐसे विवाह से होने वाले बच्चों को वैध घोषित किया। विष्णु शास्त्री पंडित द्वारा वर्ष 1850 के दशक में विधवा पुनर्विवाह संघ की स्थापना की गई।
  • बाल विवाह को नियंत्रित करना: 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के विवाह पर रोक लगाने वाली मालाबारी को सहमति अधिनियम (1891) के अधिनियमन द्वारा पुरस्कृत किया गया। शारदा अधिनियम (1930) द्वारा लड़कों और लड़कियों के लिये विवाह की आयु क्रमशः 18 और 14 वर्ष कर दी गई।
  • महिलाओं को शिक्षा: पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर बंगाल में कम-से-कम 35 लड़कियों के स्कूलों से जुड़े थे तथा उन्हें महिला शिक्षा के अग्रदूतों में से एक माना जाता है। प्रोफेसर डी.के. कर्वे द्वारा वर्ष 1916 में स्थापित भारतीय महिला विश्वविद्यालय महिलाओं को शिक्षा प्रदान करने वाले उत्कृष्ट संस्थानों में से एक था।
  • महिला आंदोलनों की नींव: लड़कियों के लिये स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई तथा वंचित महिलाओं को शिक्षा के अवसर प्रदान कर उन्हें अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त करने तथा सामाजिक परिवर्तन में योगदान करने में सक्षम बनाया गया।
    • लेडीज़ सोशल कॉन्फ्रेंस (1905) और ऑल इंडिया विमेंस कॉन्फ्रेंस (1927) जैसे संगठनों की स्थापना ने महिलाओं को उनके अधिकारों तथा सामाजिक न्याय की वकालत करने के लिये एक मंच प्रदान किया।

स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका :

  • प्रारंभिक अग्र-दूत :
    • झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1857 के विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • बेगम हज़रत महल: 1857 के विद्रोह में एक और प्रमुख व्यक्तित्व, अवध की बेगम हज़रत महल ने अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियार उठाए तथा लखनऊ की घेराबंदी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • सामाजिक सुधार:
    • पंडिता रमाबाई: एक समाज सुधारक, महिलाओं के उत्थान की प्रबल समर्थक, पंडिता रमाबाई के द्वारा किये गए प्रयास महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम के लिये संगठित करने में महत्त्वपूर्ण थे।
      • उन्होंने वर्ष 1887 में "द हाई-कास्ट हिंदू वूमन" की रचना की।
    • सावित्रीबाई फुले: हालाँकि मुख्य रूप से शिक्षा और सामाजिक सुधार में अपने कार्यों के लिये जानी जाती हैं, लेकिन सावित्रीबाई फुले के प्रयासों ने महिलाओं के बीच साक्षरता एवं जागरूकता को बढ़ावा देकर स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी के लिये आधार तैयार किया।
      • उन्होंने महिलाओं के अधिकारों से संबंधित मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये महिला सेवा मंडल की स्थापना की।
  • भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस में भागीदारी :
    • एनी बेसेंट: वे भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की एक प्रमुख नेता थीं, जिन्होंने स्वशासन की मांग करते हुए होमरूल आंदोलन की शुरुआत की और भारतीय महिलाओं को आंदोलन में शामिल होने के लिये उन्हें प्रेरित किया। वह वर्ष 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।
    • सरोजिनी नायडू: "भारत की कोकिला" के रूप में जानी जाने वाली सरोजिनी नायडू ने एक प्रमुख कॉन्ग्रेसी नेता के रूप में सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह वर्ष 1925 में कॉन्ग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली दूसरी महिला थीं।
  • जन आंदोलनों में भूमिका :
    • असहयोग आंदोलन: महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन में महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। उन्होंने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार, धरना और आत्मनिर्भरता के प्रतीक खादी के प्रचार का समर्थन जैसी गतिविधियों में भाग लिया।
      • बसंती दास ने स्वतंत्रता गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया, जिन्हें असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी कर लिया गया था।
    • सविनय अवज्ञा आंदोलन: सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान, राजकुमारी अमृत कौर और मुथु लक्ष्मी रेड्डी जैसी हस्तियों के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने नमक बनाकर एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में भाग लेकर ब्रिटिश कानूनों की अवहेलना की।
    • भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका:
      • अरुणा आसफ अली: अरुणा आसफ अली ने वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिये व्यापक रूप से याद किया जाता है।
      • उषा मेहता: उषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक भूमिगत रेडियो स्टेशन चलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • क्रांतिकारी गतिविधियाँ :
    • भीकाजी कामा: उन्होंने वर्ष 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को फहराया तथा यूरोप में भारत की स्वतंत्रता को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया।
    • कल्पना दत्ता और प्रीतिलता वद्देदार: उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह में भाग लिया और चटगाँव शस्त्रागार छापे सहित विद्रोह के साहसी कार्यों में शामिल रहीं।

रानी गाइदिन्ल्यू: एक आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता, रानी गाइदिन्ल्यू ने पूर्वोत्तर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया।

कनकलता बरुआ: एक युवा असमिया स्वतंत्रता सेनानी, कनकलता बरुआ को वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय ध्वज लेकर जुलूस का नेतृत्व करते समय ब्रिटिश राज की भारतीय शाही पुलिस ने गोली मार दी थी।

निष्कर्ष :

19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों ने न केवल तात्कालिक सामाजिक कुरीतियों को संबोधित किया, बल्कि शिक्षा और सशक्तीकरण को भी बढ़ावा दिया, जिससे महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाया गया। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला। इसने पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती दी और स्वतंत्रता के बाद सार्वजनिक जीवन एवं राजनीति में महिलाओं की अधिक भागीदारी का मार्ग प्रशस्त किया।