दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- औपनिवेशिक काल से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था और हस्तशिल्प उद्योग की प्रमुखता का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
- उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश आर्थिक नीति के उन कारकों की व्याख्या कीजिये जिनके कारण भारतीय हस्तशिल्प उद्योग का पतन हुआ।
- अपने बिंदुओं के पक्ष में कोई प्रासंगिक सांख्यिकी या ऐतिहासिक विवरण बताइये।
- भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के दीर्घकालिक प्रभावों को निष्कर्ष में लिखिये।
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परिचय:
ब्रिटिश उपनिवेशीकरण से पहले, भारत अपने विविध और उच्च गुणवत्ता वाले हस्तशिल्प के लिये प्रसिद्ध था, जिसमें कपड़ा, धातुकर्म तथा मिट्टी के बर्तन शामिल थे। उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान भारत में पारंपरिक हस्तशिल्प उद्योगों का पतन एक बहुआयामी प्रक्रिया थी जो मुख्य रूप से ब्रिटिश आर्थिक नीतियों द्वारा संचालित थी।
मुख्य भाग :
भारतीय हस्तशिल्प उद्योग के पतन के प्रमुख कारण:
- कच्चे माल का निर्यात:
- भारत ब्रिटिश उद्योगों के लिये कच्चे माल, विशेष रूप से कपास का एक महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्त्ता था। कच्चे माल का कम कीमतों पर निर्यात किया जाता था, जिसे ब्रिटेन में संसाधित कर उच्च कीमतों पर तैयार उत्पाद के रूप में भारत को वापस बेचा जाता था।
- कच्चे माल के निर्यात में वृद्धि से स्थानीय विनिर्माण और हस्तशिल्प निवेश में कमी आई, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय औद्योगिक क्षमता एवं कौशल का ह्रास हुआ।
- एकतरफा मुक्त व्यापार :
- भारतीय हस्तशिल्प (विशेष रूप से वस्त्र) आदि को ब्रिटेन में उच्च आयात शुल्क का सामना करना पड़ता था।
- यूरोपीय बाज़ारों में भारतीय वस्त्रों पर लगभग 80% शुल्क आरोपित किया जाता था।
- इसके विपरीत, वर्ष 1813 के चार्टर अधिनियम के बाद ब्रिटिश नागरिकों के लिये एकतरफा मुक्त व्यापार की अनुमति मिलने के बाद ब्रिटेन से सस्ते और मशीन द्वारा निर्मित उत्पादों का आयात भारतीय बाज़ार में होने लगा।
- स्थानीय कारीगर कम लागत वाले ब्रिटिश उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सके, जिससे बाज़ार में उनकी मांग कम हो गई।
- ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियाँ:
- स्थायी बंदोबस्त जैसी ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियों से ग्रामीण आबादी गंभीर रूप से प्रभावित हुई।
- आर्थिक तनाव का सामना कर रहे कारीगरों ने अक्सर अपनी शिल्प कला को छोड़ दिया तथा कृषि या आजीविका के अन्य साधनों की ओर रुख किया। कई कुशल कारीगरों को कृषि श्रम में मजबूर किया गया, जिससे कुशल कारीगरों की संख्या में कमी आई।
- सामाजिक-आर्थिक रूप से कारीगर समुदायों का कार्य बाधित हुआ, जिसके साथ ही पारंपरिक शिल्प का पतन हो गया।
- अकाल और गरीबी:
- औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में कई विनाशकारी अकाल पड़े। ब्रिटिश सरकार ने अक्सर इन संकटों का पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया, जिससे लोगों की पीड़ा और मृत्यु दर में वृद्धि हुई।
- वर्ष 1850 और 1899 के बीच भारत में 24 बड़े अकाल पड़े।
- खाद्य फसलों के बजाय निर्यात के लिये नकदी फसलों पर ध्यान केंद्रित करने से खाद्य उपलब्धता कम हो गई, जिससे अकाल की स्थिति उत्पन्न हुई।
- ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के कारण औपनिवेशिक भारत में अकाल और गरीबी में वृद्धि हुई, जिसका हस्तशिल्प उद्योग पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा, जैसे- मांग में कमी, कुशल कारीगरों का नुकसान एवं पुनर्निवेश के लिये पूंजी की कमी के कारण पारंपरिक शिल्प का क्षरण हुआ तथा अनगिनत कारीगर बेघर हो गए।
- संस्थागत समर्थन का अभाव:
- भारतीय हस्तशिल्प में तकनीकी का अभाव था जबकि ब्रिटिश वस्तुएँ इससे परिपूर्ण थी। ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय उद्योग के आधुनिकीकरण के प्रयास को और भी बाधित कर दिया, जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि भारतीय वस्तुओं का ब्रिटिश औद्योगिक वस्तुओं के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना बहुत मुश्किल हो गया।
- औपनिवेशिक शासन के दौरान बुनियादी ढाँचा को विकसित, जैसे कि रेलवे और सड़कें, मुख्य रूप से स्थानीय उद्योगों का समर्थन करने के बजाय भारत से कच्चे माल के निर्यात एवं ब्रिटिश वस्तुओं के आयात को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य किया गया था।
निष्कर्ष:
दादाभाई नौरोजी के धन निकासी के सिद्धांत को उनकी कृति "भारत में गरीबी और गैर-ब्रिटिश शासन (Poverty and Un-British Rule in India)" में समझाया गया है, जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि ब्रिटिश नीतियों ने भारत से किस तरह से धन का दोहन किया। इस आर्थिक पलायन के कारण अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 23% से गिरकर स्वतंत्रता के समय केवल 3% रह गया। इस गिरावट ने स्थानीय उद्योगों और कारीगरों की आजीविका को बुरी तरह प्रभावित किया, यह एक ऐसी समस्या है जो भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी लंबे समय तक बनी रही।