दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रारंभिक औपनिवेशिक काल के किसान और आदिवासी विद्रोहों के बारे में संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
- इन आंदोलनों के विभिन्न कारकों पर चर्चा कीजिये, जो मूल रूप से राजनीतिक प्रकृति के थे।
- उल्लेखनीय विद्रोहों का संक्षिप्त में विवरण दीजिये।
- निष्कर्ष में विद्रोहों को भविष्य के राष्ट्रीय आंदोलनों की नींव के रूप में उल्लेख कीजिये।
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परिचय:
भारत में प्रारंभिक औपनिवेशिक काल में कई महत्त्वपूर्ण किसान और आदिवासी विद्रोह हुए। ये आंदोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों तथा उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा लागू की गई शोषणकारी नीतियों एवं दमनकारी प्रथाओं की प्रतिक्रिया के रूप में उभरे। ये विद्रोह, जिन्हें अक्सर आर्थिक संकट, सांस्कृतिक प्रतिरोध और सामाजिक विघटन के रूप में देखा जाता है, स्वाभाविक रूप से राजनीतिक प्रकृति के थे।
मुख्य भाग:
ये आंदोलन निम्नलिखित कारणों से स्वाभाविक रूप से राजनीतिक थे:
- आर्थिक शोषण के खिलाफ उठ खड़ा होना: ब्रिटिश नीतियों के कारण किसानों और आदिवासियों को जिन आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उनमे केवल आर्थिक नीतियाँ नहीं थी, बल्कि औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ राजनीतिक प्रतिरोध का एक रूप भी शमिल था।
- संन्यासी विद्रोह (1763-1800): वर्ष 1770 के विनाशकारी अकाल तथा कठोर आर्थिक नीतियों ने पूर्वी भारत में संन्यासियों के एक समूह को ब्रिटिश शासन से विद्रोह के लिये मजबूर किया।
- भू- राजस्व व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह: वर्ष 1793 का स्थायी बंदोबस्त और रैयतवारी व्यवस्था द्वारा किसानों पर भारी कर आरोपित किया गया, जिससे किसानों में असंतोष उत्पन्न हुआ। इन व्यवस्थाओं के द्वारा किसानों को उनकी भूमि से बेदखल कर दिया गया तथा ज़मींदारों वर्ग को भू- स्वामित्त्व दिया गया, जो किसानों का शोषण करते थे।
- पाबना विद्रोह (1870-1880): पूर्वी बंगाल के बड़े हिस्से में ज़मींदारों और साहूकारों की शोषणकारी प्रथाओं के खिलाप किसानों द्वारा किया गया विद्रोह। बंकिमचंद्र चटर्जी, आरसी दत्त और सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे बुद्धिजीवियों ने किसानों के मुद्दे का समर्थन किया।
- जबरन खेती: भारतीय किसानों को नील, अफीम और चाय जैसी नकदी फसलों की खेती करने के लिये मजबूर करने की ब्रिटिश नीति ने उनकी पारंपरिक कृषि पद्धतियों तथा आजीविका को बुरी तरह से बाधित कर दिया। इस शोषण के कारण किसानों में व्यापक असंतोष या विभिन्न प्रकार के असंतोष उत्पन्न हुए।
- नील विद्रोह (1859-60): बंगाल में किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों की शोषणकरी नीति के खिलाफ विद्रोह किया गया, जो उन्हें कठोर परिस्थितियों और शोषणकारी अनुबंधों के तहत नील की खेती करने के लिये मजबूर करते थे।
- संप्रभुता का दावा: कई विद्रोहों ने औपनिवेशिक राज्य के अधिकार को सीधे चुनौती दी। औपनिवेशिक नीतियों का विरोध करके और पारंपरिक अधिकारों का दावा करके, ये आंदोलन मूल रूप से औपनिवेशिक शासन को चुनौती दे रहे थे
- मुंडा विद्रोह (1899-1900): बिरसा मुंडा के नेतृत्व में इस विद्रोह का उद्देश्य मुंडा राज की स्थापना और ब्रिटिश सरकार एवं मिशनरी संस्थानों को समाप्त करना था। यह विद्रोह पारंपरिक राजनीतिक सत्ता को बहाल करने तथा औपनिवेशिक शासन के हस्तक्षेप के विरोध के विरुद्ध था।
- ब्रिटिश विरोधी आदिवासी आंदोलन: कई विद्रोहों का नेतृत्व संगठित नेताओं द्वारा किया गया। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, कई आदिवासी समुदायों ने ब्रिटिश और उनके सहयोगियों द्वारा आरोपित शोषणकारी नीतियों के खिलाफ विद्रोह किया।
- संथाल विद्रोह (1855-56): सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में संथालों ने कंपनी शासन के खिलाफ विद्रोह किया तथा बिहार में भागलपुर एवं राजमहल के बीच के क्षेत्र को स्वायत्त घोषित कर दिया।
निष्कर्ष:
अंग्रेज़ों ने इन विद्रोहों के दमन हेतु सैन्य बल का इस्तेमाल किया, जो उनके द्वारा महसूस किये गए राजनीतिक संकट को दर्शाता है। औपनिवेशिक प्रशासन ने ऐसे विद्रोहों को रोकने के लिये बंगाल टेनेंसी एक्ट (1885), संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (1876) तथा क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (1871) जैसे कानून बनाए, जिससे इन आंदोलनों के राजनीतिक आयाम पर और अधिक ज़ोर दिया गया। औपनिवेशिक सत्ता के प्रति राजनीतिक प्रतिरोध को मूर्त रूप देने वाले इन विद्रोहों ने निश्चित रूप से भविष्य के राजनीतिक आंदोलनों की नींव रखी।