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दिवस- 15: न्यायिक सक्रियता ने भारत में संसदीय लोकतंत्र को किस सीमा तक प्रभावित किया है? चर्चा कीजिये कि इससे लोकतांत्रिक शासन कमज़ोर हुआ है या मज़बूत। (250 शब्द)

24 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • न्यायिक सक्रियता और संसदीय लोकतंत्र के बीच संबंधों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • चर्चा कीजिये कि क्या इसने लोकतांत्रिक शासन को कमज़ोर बना दिया है या मज़बूत बना दिया है।
  • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

परिचय:

न्यायिक सक्रियता से तात्पर्य कानूनों की व्याख्या करने और सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका से है, जिसमें प्रायः अधिकारों की रक्षा तथा न्याय को बढ़ावा देने के लिये परंपरागत सीमाओं से परे कदम उठाए जाते हैं। इस सक्रियता से संसदीय लोकतंत्र का कामकाज सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभावित हुआ है।

मुख्य भाग:

लोकतांत्रिक शासन को मज़बूत बनाने में न्यायिक सक्रियता

  • मूल अधिकारों का संरक्षण:
    • न्यायिक समीक्षा: न्यायपालिका ने न्यायिक समीक्षा के माध्यम से मूल अधिकारों को अक्षुण्ण रखने और उनकी रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
      • केशवानंद भारती मामले (1973) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि कार्यपालिका को संविधान के मूल ढाँचे में हस्तक्षेप करने और छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है, जिससे संविधान की प्रधानता सुदृढ़ हुई तथा सरकार की अन्य शाखाओं द्वारा संभावित दुरुपयोग से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हुई।
    • जनहित वाद (PIL): जनहित वाद/मुकदमों की सहायता से न्यायपालिका पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक न्याय और हाशियाई समूह के व्यक्तियों के अधिकारों सहित समाज की व्यापक जनसंख्या को प्रभावित करने वाले मुद्दों को संबोधित करने में सक्षम हुआ है।
      • इस उपागम से सरकार का नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति जवाबदेह और अनुक्रियाशील बना रहना सुनिश्चित होता है।
  • संस्थागत जवाबदेहिता का सुदृढ़ीकरण:
    • न्यायिक निगरानी: न्यायिक सक्रियता के माध्यम से न्यायपालिका ने कार्यपालिका को उसके कार्यों के लिये जवाबदेह बनाया है।
      • उदाहरण के लिये इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) में न्यायपालिका ने निर्वाचन में निष्पक्ष प्रथाओं को सुनिश्चित करने के लिये हस्तक्षेप किया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अखंडता को बनाए रखने में उसकी भूमिका प्रदर्शित हुई।
    • सुधार और निदेश: न्यायालयों ने सुधारों के क्रियान्वन के लिये कार्यपालिका को निदेशक जारी किये, जैसा कि विनीत नारायण बनाम भारत संघ (1997) के मामले में देखा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार से निपटने के लिये केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन किया गया।
  • सामाजिक न्याय की उन्नति:
    • महिला सशक्तिकरण: न्यायिक सक्रियता ने भारत में महिलाओं के अधिकारों और उनके सशक्तीकरण की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
      • विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य मामले (1997) में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न की रोकथाम करने के लिये व्यापक दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
    • निदेशक तत्त्व: न्यायपालिका ने सामाजिक और आर्थिक न्याय को बढ़ावा देने के लिये राज्य की नीति के निदशक तत्त्वों की व्याख्या की है, जिससे असमानताओं को दूर करने में राज्य की भूमिका में सुधार हुआ।
      • उदाहरण हेतु न्यायपालिका द्वारा शिक्षा के अधिकार की मूल अधिकार के रूप में व्याख्या करने से महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन हुए और शैक्षिक पहुँच में सुधार हुआ।

लोकतांत्रिक शासन को संभावित रूप से कमज़ोर करने के रूप में न्यायिक सक्रियता

  • न्यायिक अतिरेक: आलोचकों का तर्क है कि न्यायिक सक्रियता कुछ मामलों में न्यायिक अतिरेक की ओर उन्मुख होती है, जहाँ न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की अधिकारिता में हस्तक्षेप करती है।
    • सड़क सुरक्षा पर एक जनहित वाद के प्रत्युत्तर में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों के 500 मीटर के दायरे में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। यातायात दुर्घटनाओं में कमी के साथ प्रतिबंध के संबंध को साबित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य का अभाव था तथा इसके परिणामस्वरूप राज्य सरकारों को राजस्व का भारी नुकसान हुआ एवं लोगों का रोज़गार प्रभावित हुआ। आलोचकों ने यह तर्क दिया कि इसमें प्रशासनिक मामले शामिल थे जिन्हें कार्यपालिका द्वारा सवोत्तम रूप से संबोधित किया जा सकता था और इसलिये इस निर्णय को न्यायिक अतिरेक की संज्ञा दी।
  • संसदीय संप्रभुता को कमज़ोर करना: नीतिगत मामलों में बहुधा हस्तक्षेप करके और सरकार को विशिष्ट कार्रवाई करने का निर्देश देकर, न्यायपालिका संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत को कमज़ोर कर सकती है। यह न्यायपालिका तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच तनाव उत्पन्न कर सकता है, जो संभावित रूप से शक्ति संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने NJAC अधिनियम और 99वें संविधान संशोधन को निरस्त कर दिया, जिसका उद्देश्य न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में परिवर्तन करना था। आलोचकों ने तर्क दिया कि यह विधायिका और कार्यपालिका की अधिकारिता में अतिरेक है।
  • न्यायिक वैधता का अभाव: निर्वाचित प्रतिनिधियों के विपरीत, न्यायाधीश प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं। इस प्रकार, न्यायिक निर्णय, विशेष रूप से नीति को प्रभावित करने वाले निर्णयों में लोकतांत्रिक वैधता का अभाव हो सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1993 से किये गए 214 कोयला ब्लॉक आवंटन को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। आलोचकों ने तर्क दिया कि इस निर्णय ने कार्यकारी और विधायी कार्यों का अतिक्रमण किया।
  • विधायिका पर दबाव: न्यायिक सक्रियता न्यायिक निदेशों के प्रत्युत्तर में विधि निर्माण करने हेतु विधायिका पर दबाव डाल सकती है। हालाँकि इससे हितकारी सुधार हो सकते हैं किंतु इसके कारण जल्दबाज़ी में निर्मित विधान अथवा प्रतिक्रियात्मक नीति निर्माण की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है, जिन पर सुव्यवस्थित रूप से विचार नहीं किया गया हो या जिन पर पूर्ण रूप से विचार विमर्श नहीं किया गया हो।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने दिवाली के दौरान प्रदूषण को कम करने के लिये पटाखों की बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। कुछ लोगों ने इसे न्यायिक अतिरेक के रूप में देखा, जो सांस्कृतिक प्रथाओं एवं आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता है।

निष्कर्ष:

भारतीय संविधान में नियंत्रण और संतुलन की एक पद्धति प्रदान की गई है, जिसमें न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका के पृथक किंतु अधिव्यापी कार्य होते हैं। हालाँकि न्यायिक सक्रियता ने जवाबदेही सुनिश्चित करने तथा अधिकारों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाई है किंतु इसमें अतिरेक से बचने एवं सावधानीपूर्वक संतुलन बनाए रखने की भी आवश्यकता है।