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दिवस- 11: विश्व और भारत में जल तनाव एक गंभीर मुद्दा है। विस्तार से समझाइये। (150 शब्द)

19 Jul 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भूगोल

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • जल तनाव या वाटर स्ट्रेस को परिभाषित कीजिये।
  • इसकी प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित कीजिये।
  • जल संकट के वैश्विक और भारतीय परिदृश्यों पर चर्चा कीजिये।
  • जल संकट से निपटने के लिये रणनीति प्रस्तावित कीजिये।
  • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

जल तनाव, जिसे मानवीय और पारिस्थितिक जल मांग को पूरा करने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया जाता है, यह एक गंभीर मुद्दा है जो विश्व तथा भारत में कई क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। इसकी विशेषता जल की उपलब्धता में कमी, खराब जल गुणवत्ता एवं सुरक्षित व किफायती जल तक पहुँचने में आने वाली चुनौतियाँ हैं।

मुख्य भाग:

जल संकट की गंभीरता

वैश्विक परिदृश्य:

  • जल संकट: 2 बिलियन से ज़्यादा लोग ऐसे देशों में रहते हैं जहाँ पानी की भारी कमी है, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया के कुछ हिस्से पानी की अत्यधिक कमी का सामना कर रहे हैं।
  • प्रदूषण: दूषित जल स्रोत से विश्व भर में लगभग 2.2 बिलियन लोगों प्रभावित होते हैं, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता में कमी आती है।
  • विश्व स्तर पर सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र:
    • मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (MENA): MENA क्षेत्र विश्व स्तर पर सबसे अधिक जल-दुर्लभ क्षेत्रों में से एक है, जो विलवणीकरण संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर है।
    • उप-सहारा अफ्रीका: कई देशों में पानी की गंभीर समस्या है और जल भंडारण तथा वितरण के लिये बुनियादी ढाँचे की कमी है।
    • एशिया: तीव्र आर्थिक विकास और जनसंख्या वृद्धि से जल संसाधनों पर, विशेष रूप से चीन एवं भारत में, प्रभाव पड़ा है।

भारतीय परिदृश्य:

  • व्यापक तनाव: जून 2018 में नीति आयोग द्वारा प्रकाशित “समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (CWMI)” नामक एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था कि भारत अपने इतिहास में सबसे अशुद्ध जल संकट से गुज़र रहा है; लगभग 600 मिलियन से भी अधिक लोग जल तनाव का सामना कर रहे हैं तथा स्वच्छ जल तक अपर्याप्त पहुँच के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग 200,000 लोगों की मृत्यु हो जाती हैं।
  • प्रदूषण: भारत में जल निकाय औद्योगिक निर्वहन, कृषि अपवाह और अपर्याप्त अपशिष्ट प्रबंधन के कारण अत्यधिक प्रदूषित हैं, जिससे सतही एवं भू-जल दोनों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
    • नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में भारत का 120वाँ स्थान है तथा लगभग 70% जल प्रदूषित है।
  • भू-जल का ह्रास: कृषि और घरेलू उपयोग के लिये अत्यधिक निकासी के कारण भू-जल स्तर में गिरावट आई है, जिसके कारण कई राज्य गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं।
    • विश्व में भारत सबसे बड़ा भू-जल उपयोगकर्त्ता है, जिसका अनुमानित उपयोग प्रतिवर्ष लगभग 251 बीसीएम है, जो विश्व का एक चौथाई से भी अधिक है।
  • क्षेत्रीय स्तर पर जल तनाव
    • उत्तरी भारत: कृषि के लिये अत्यधिक दोहन के कारण पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य भू-जल की तीव्र कमी का सामना कर रहे हैं।
    • पश्चिमी भारत: राजस्थान और गुजरात में कम वर्षा तथा उच्च वाष्पोत्सर्जन दर के कारण जल की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
    • दक्षिणी भारत: कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश को अक्सर अंतर-राज्यीय नदी विवादों एवं विभिन्न वर्षा पैटर्न के कारण जल संघर्ष का सामना करना पड़ता है।

जल तनाव में योगदान देने वाले कारक:

  • जनसंख्या वृद्धि: अनुमान है कि वर्ष 2050 तक वैश्विक जनसंख्या 9.7 बिलियन तक पहुँच जाएगी, जिससे जल की मांग में वृद्धि होगी। 1.4 बिलियन से अधिक की आबादी के साथ, भारत के जल संसाधन अत्यधिक दबाव में हैं।
  • जलवायु परिवर्तन: वर्षा के बदलते पैटर्न, सूखे की बढ़ती स्थिति और ग्लेशियरों के पिघलने से पानी की उपलब्धता प्रभावित होती है।अनियमित मानसून, हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना एवं बार-बार सूखा पड़ने से भारत में जल की उपलब्धता प्रभावित होती है।
  • शहरीकरण और औद्योगिकीकरण: तेज़ी से बढ़ते शहरी विकास और औद्योगिक गतिविधियाँ जल प्रदूषण एवं पानी की मांग को बढ़ाती हैं।
  • कृषि मांग: वैश्विक मीठे पानी के उपयोग का लगभग 70% हिस्सा कृषि में खर्च होता है, जिससे अक्सर जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन होता है।

जल तनाव के प्रभाव:

  • स्वास्थ्य पर प्रभाव
    • जलजनित रोग: दूषित जल स्रोतों से हैज़ा, पेचिश और टाइफाइड जैसी बीमारियाँ होती हैं।
    • कुपोषण: जल की कमी से खाद्य उत्पादन प्रभावित होता है, जिससे पोषण संबंधी कमियाँ होती हैं।
  • आर्थिक परिणाम:
    • कृषि उत्पादकता: जल की कम उपलब्धता से फसल की पैदावार प्रभावित होती है, जिससे खाद्य सुरक्षा और किसानों की आय प्रभावित होती है।
    • औद्योगिक विकास: कपड़ा और पेय पदार्थ सहित जल-निर्भर उद्योगों को परिचालन संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • सामाजिक और राजनीतिक परिणाम
    • जल विवाद: जल संसाधनों को लेकर देशों के अंदर और उनके मध्य विवाद भी होते हैं, जैसे कि कर्नाटक एवं तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी जल विवाद।
    • प्रवास: जल की कमी से आंतरिक विस्थापन और प्रवास हो सकता है, जिससे शहरी क्षेत्रों में भीड़भाड़ बढ़ सकती है।
  • कुशल जल प्रबंधन
    • ड्रिप सिंचाई: कृषि में जल की बर्बादी को कम करने के लिये कुशल सिंचाई तकनीकों को बढ़ावा देना।
      • ‘जल प्रति बूंद अधिक फसल और आय’ (2006) पर एम.एस. स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट के अनुसार, ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई से फसल की खेती में लगभग 50% पानी की बचत तथा फसलों की उपज में 40-60% की वृद्धि हो सकती है।
    • वर्षा जल संचयन: जल आपूर्ति बढ़ाने के लिये वर्षा जल संग्रहण को विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में प्रोत्साहित करना।
  • नीति और शासन
    • एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM): ऐसी नीतियों को लागू करना जो सभी क्षेत्रों में जल के सतत् उपयोग और प्रबंधन को बढ़ावा दे सके।
    • जल मूल्य निर्धारण: जल के संरक्षण और कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिये मूल्य निर्धारण तंत्र की शुरुआत करना।
  • तकनीकी नवाचार
    • विलवणीकरण: तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी की आपूर्ति के लिये विलवणीकरण संयंत्रों का विकास और उनकी स्थापना।
    • अपशिष्ट जल उपचार: औद्योगिक और कृषि उपयोग के लिये अपशिष्ट जल के उपचार तथा पुनर्चक्रण के लिये प्रौद्योगिकियों में निवेश करना।

निष्कर्ष:

जल संकट एक बहुआयामी मुद्दा है जिसके लिये समन्वित वैश्विक और स्थानीय प्रयासों की आवश्यकता है। भारत में जल संकट को संबोधित करने के लिये स्थायी जल प्रबंधन सुनिश्चित करने हेतु तकनीकी, नीति तथा समुदाय-आधारित दृष्टिकोणों का संयोजन शामिल है। स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिरता एवं सामाजिक सद्भाव के लिये जल सुरक्षा सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है, जिसके लिये तत्काल व निरंतर कार्रवाई की आवश्यकता है।