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08 Jul 2024
सामान्य अध्ययन पेपर 1
संस्कृति
दिवस-1. भारतीय विरासत तथा संस्कृति में महत्त्वपूर्ण योगदानकर्त्ता के रूप में चिह्नित, गुप्त एवं चोल काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। सुस्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- गुप्त और चोल काल का संक्षिप्त परिचय लिखिये तथा स्वर्ण काल के रूप में उनके महत्त्व पर ज़ोर दीजिये।
- इन कालों के दौरान विरासत और संस्कृति में महत्त्वपूर्ण योगदान का उल्लेख कीजिये।
- प्रासंगिक उदाहरणों के साथ समझाइये।
- भारतीय संस्कृति और विरासत पर स्थायी विरासत की सुदृढ़ता को बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
गुप्त (लगभग 320-550 ई.) और चोल (लगभग 9वीं-13वीं शताब्दी) काल भारतीय इतिहास के दो सबसे प्रसिद्ध काल हैं। कला, स्थापत्य, साहित्य, विज्ञान तथा प्रशासन में अभूतपूर्व उपलब्धियों के कारण इन अवधियों का वर्णन करने के लिये "स्वर्ण काल" शब्द का उपयोग किया जाता है। दोनों राजवंशों ने मज़बूत राजनीतिक और आर्थिक बुनियाद रखी, जिसने उन कालों के दौरान महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा बौद्धिक विकास को सुविधाजनक बनाया।
मुख्य भाग:
गुप्त काल के योगदान:
- गुप्त काल के दौरान मुद्राशास्त्रीय कला:
- गुप्तों ने सबसे अधिक संख्या में सोने के सिक्के जारी किये, जिन्हें उनके अभिलेखों में दीनार कहा गया। सिक्कों में इस्तेमाल किये गए सोने की उच्च शुद्धता गुप्त साम्राज्य के उन्नत धातुकर्म संबंधी ज्ञान और आर्थिक समृद्धि को दर्शाती है।
- सिक्कों का एक समान वज़न और आकार एक सुव्यवस्थित मौद्रिक प्रणाली को दर्शाता है।
- सबसे अच्छे सिक्के समुद्रगुप्त के अश्वमेध सिक्के और चंद्रगुप्त द्वितीय के सिंह-दास प्रकार (Lion-Slaver Type) के सिक्के माने जाते हैं।
- संस्कृत साहित्य का उत्कर्ष:
- इस काल ने कुछ महान साहित्यिक कृतियों और विद्वानों को जन्म दिया, जिनके योगदान का भारतीय संस्कृति तथा बौद्धिक परंपराओं पर स्थायी प्रभाव पड़ा है।
- गुप्त काल के दौरान, कालिदास ने "अभिज्ञानशाकुंतलम्", "मेघदूत", "रघुवंश" और "कुमारसंभव" जैसे काव्यों का लेखन किया, विशाखदत्त ने "मुद्राराक्षस" का लेखन किया, भारवि ने "किरातार्जुनीय" की रचना की तथा शूद्रक ने "मृच्छकटिका" ग्रंथ लिखा।
- शिक्षा के केंद्र:
- इस काल में कई प्रसिद्ध शिक्षा केंद्रों की स्थापना और उत्कर्ष हुआ, जिसने भारत तथा विदेशों से विद्वानों को आकर्षित किया।
- नालंदा विश्वविद्यालय ने धर्मशास्त्र, दर्शन, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित और चिकित्सा सहित विविध विषयों की पेशकश की।
- आर्यभट्ट और जुआनज़ांग (एक चीनी तीर्थयात्री जिन्होंने वहाँ अध्ययन एवं अध्यापन किया) जैसे प्रसिद्ध विद्वान नालंदा से संबंधित थे।
- तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेद, चिकित्सा, राजनीति, युद्ध, खगोल विज्ञान के अतिरिक्त और भी अन्य विषयों को पढ़ाया जाता था।
- विश्वविद्यालय ने पाणिनि (व्याकरणशास्त्री) जैसे प्रख्यात विद्वानों को जन्म दिया।
- विज्ञान और गणित में प्रगति:
- गुप्तों ने विज्ञान और गणित में महत्त्वपूर्ण प्रगति की।
- आर्यभट्ट, एक प्रमुख गणितज्ञ और खगोलशास्त्री, ने शून्य तथा दशमलव प्रणाली की अवधारणा पेश की।
- उनके कार्य, "आर्यभटीय" ने भविष्य के खगोलीय अध्ययनों की बुनियाद रखी।
- "सुश्रुत संहिता" जैसे चिकित्सा ग्रंथों ने शल्य चिकित्सा पर विस्तृत ज्ञान प्रदान किया।
- गुप्तकालीन शिल्पकार लोहे और कांसे के कार्यों से अपनी अलग पहचान बनाई।
- बुद्ध की कांस्य प्रतिमाएँ बड़े पैमाने पर निर्मित की जाने लगीं क्योंकि शिल्पकारों को धातु की उन्नत गुणवत्ता का ज्ञान था।
- गुप्तकाल के दौरान बुद्ध की 6 फीट से ज़्यादा लंबी ताँबे की प्रतिमा निर्मित की गई थी। इसकी खोज भागलपुर के पास सुल्तानगंज में की गई थी, अब इसे बर्मिंघम में प्रदर्शित किया जाता है।
- लोहे की वस्तुओं का सबसे अच्छा उदाहरण दिल्ली के महरौली में स्थित गुप्तकालीन लौह स्तंभ है।
- कला और स्थापत्य:
- गुप्तकालीन कला और स्थापत्य की विशेषता उनकी भव्यता एवं परिष्कार है।
- अजंता की गुफाएँ, अपने बेहतरीन भित्ति चित्रों और मूर्तियों के साथ, इस काल की कलात्मक उपलब्धियों का उदाहरण हैं।
- देवगढ़ के दशावतार मंदिर जैसे मंदिर जटिल नक्काशी और नवीन स्थापत्य तकनीकों का प्रदर्शन करते हैं, जिसने बाद के मंदिरों की संरचनाओं को प्रभावित किया।
- वर्तमान आंध्र प्रदेश में अमरावती स्तूप गुप्तकालीन स्तूप स्थापत्य का एक अद्भुत उदाहरण है, जो बुद्ध के जीवनकाल को दर्शाती है इसे इसकी विस्तृत नक्काशी के लिये जाना जाता है।
- गुप्तकालीन कला और स्थापत्य की विशेषता उनकी भव्यता एवं परिष्कार है।
- धार्मिक और दार्शनिक योगदान:
- गुप्त काल भारत में महान बौद्धिक और आध्यात्मिक उतार-चढाव का काल था, जो धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों के उत्कर्ष द्वारा चिह्नित था।
- गुप्त काल के दौरान, विष्णु पुराण, भागवत पुराण और मार्कंडेय पुराण जैसे कई पुराणों की रचना की गई।
- इस काल में सांख्य और योग दर्शन का विकास भी देखा गया, जिसमें सांख्यकारिका तथा योगसूत्र जैसे ग्रंथ इन दर्शनों के लिये आधारभूत बन गए।
- इसके अतिरिक्त, गुप्त काल में ब्रह्म सूत्र या वेदांत सूत्र की रचना देखी गई, जिसने उपनिषदों की शिक्षाओं को व्यवस्थित किया और वेदांत दर्शन के लिये एक आधारभूत ग्रंथ बन गए।
- गुप्त काल भारत में महान बौद्धिक और आध्यात्मिक उतार-चढाव का काल था, जो धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों के उत्कर्ष द्वारा चिह्नित था।
चोल काल का योगदान:
- साहित्य और शिक्षा:
- संगम साहित्य के संकलन के साथ-साथ कंबन ('रामावतारम' के लेखक) और सेक्किज+हर ('पेरिया पुराणम' के लेखक) जैसे कवियों की रचनाओं ने तमिल सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया।
- चोल शासकों ने मंदिर की शाखाओं और विद्वानों के संरक्षण के माध्यम से शिक्षा को भी बढ़ावा दिया।
- कला और स्थापत्य में प्रगति:
- चोल स्थापत्य अपनी भव्यता और जटिलता के लिये प्रसिद्ध है। तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर, अपने विशाल विमान एवं उत्कृष्ट मूर्तियों के साथ, चोल स्थापत्य की उत्कृष्ट कृति है।
- चोल शासकों ने कांस्य मूर्तिकला में भी उत्कृष्टता हासिल की, नटराज जैसी प्रतिष्ठित मूर्तियों का निर्माण किया, जिसमें भगवान शिव को उनके ब्रह्मांडीय नृत्य रूप में दर्शाया गया है।
- धर्म और दर्शन में योगदान:
- चोल शासक हिंदू धर्म, विशेष रूप से शैव धर्म के कट्टर संरक्षक थे। उन्होंने भगवान शिव को समर्पित कई मंदिरों का निर्माण किया, जो धार्मिक गतिविधि और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र बन गए।
- भक्ति आंदोलन, जिसमें देवताओं के प्रति व्यक्तिगत भक्ति पर ज़ोर दिया गया, इस काल के दौरान अधिक समृद्ध हुआ, जिसमें अप्पार, सुंदरार और मणिक्कवचकर जैसे संतों ने भक्ति भजनों की रचना की।
- समुद्री विस्तार और सांस्कृतिक प्रभाव:
- चोल शासकों की समुद्री शक्ति ने उन्हें दक्षिण-पूर्व एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने में सक्षम बनाया। उन्होंने इंडोनेशिया, मलेशिया और कंबोडिया जैसे क्षेत्रों के साथ व्यापार तथा सांस्कृतिक संबंध स्थापित किये, उन्होंने भारतीय संस्कृति, कला एवं स्थापत्य का प्रसार किया।
- इन क्षेत्रों में मंदिरों की स्थापत्य शैली, जैसे कंबोडिया में अंकोरवाट, चोल स्थापत्य के प्रभाव को दर्शाती है।
निष्कर्ष:
गुप्त एवं चोल काल ने भारतीय विरासत और संस्कृति पर एक स्थायी विरासत छोड़ी। कला, स्थापत्य, साहित्य तथा व्यापार में उनके योगदान ने न केवल भारतीय सभ्यता को समृद्ध किया, बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया की सांस्कृतिक एवं कलात्मक परंपराओं पर भी गहरा प्रभाव डाला। इन कालों के दौरान निर्मित वास्तुशिल्प साहित्यिक कृतियाँ प्राचीन भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक उपलब्धियों को उज़ागर करते हुए विस्मय एवं प्रशंसा को प्रेरित करती हैं।