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  • 08 Jul 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 संस्कृति

    दिवस-1. भक्ति तथा सूफी आंदोलनों ने भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिदृश्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में भक्ति और सूफी आंदोलनों की उत्पत्ति तथा ऐतिहासिक संदर्भ का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक परिदृश्य को आकार देने में भक्ति तथा सूफी आंदोलनों द्वारा निभाई गई भूमिका पर चर्चा कीजिये।
    • निष्कर्ष में इन आंदोलनों की स्थायी विरासत पर चर्चा कीजिये।

    परिचय:

    भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में 7वीं शताब्दी ई. के आस-पास हुई, जो धीरे-धीरे भारत के उत्तरी भागों में फैल गया। दूसरी ओर, सूफी आंदोलन का विश्व के इस्लामी क्षेत्रों में विस्तार हुआ, जो 12वीं शताब्दी ई. के आस-पास भारत में पहुँचा। दोनों आंदोलनों ने हिंदू और इस्लाम धर्म में प्रचलित कर्मकांड तथा पदानुक्रमिक मानदंडों को दरकिनार करते हुए ईश्वर के साथ अधिक व्यक्तिगत, भावनात्मक संबंध को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

    मुख्य भाग:

    भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में भक्ति और सूफी आंदोलनों का प्रभाव:

    • जातिगत कठोरता की निंदा :
      • भक्ति आंदोलन का मूल सिद्धांत सभी व्यक्तियों के लिये सुलभ एक ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत रूप से भक्ति थी, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो। भगवान के साथ इस प्रत्यक्ष संबंध ने पुजारियों और अनुष्ठानों जैसे पारंपरिक मध्यस्थों को दरकिनार कर दिया, जिन्हें अक्सर उच्च जातियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था।
        • रामानंद ने सभी जातियों के शिष्यों को स्वीकार किया, जिनमें रविदास (चमड़े का कार्य करने वाले), कबीर (एक बुनकर) और सेना (एक नाई) शामिल थे, उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ईश्वर के प्रति भक्ति व्यक्ति के जन्म से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
      • सूफी संतों ने ईश्वर के आंतरिक अनुभव और सभी मनुष्यों की अनिवार्य समानता पर ज़ोर दिया। उनकी शिक्षाएँ अक्सर प्रेम, करुणा तथा सभी मानवता के भाईचारे पर केंद्रित होती थीं, जिसमे स्वाभाविक रूप से जाति व्यवस्था का विरोध किया गया था।
        • सूफी दरगाहों पर अक्सर लंगर का आयोजन किया जाता था, जहाँ सभी जातियों और धर्मों के लोग एक साथ भोजन करते थे, जिससे सामाजिक समानता एवं सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा मिलता था।
    • हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल:
      • भक्ति आंदोलन ने ईश्वर के साथ धार्मिक सीमाओं से परे व्यक्तिगत रूप से प्रत्यक्ष भावनात्मक संबंध पर ज़ोर दिया। कर्मकांडों की तुलना में व्यक्तिगत भक्ति ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिये एक साझा आधार विकसित करने में मदद की।
        • 15वीं सदी के कवि-संत कबीर ने ईश्वर की एकता पर ज़ोर दिया और हिंदू एवं मुस्लिम दोनों की रूढ़िवादिता की आलोचना की। "बीजक" में संकलित उनके पद आज भी अपनी आध्यात्मिक गहराई तथा सामाजिक टिप्पणी के लिये पूजनीय हैं।
      • सूफी संतों ने सार्वभौमिक भाईचारे और सभी मनुष्यों की अनिवार्य एकता के विचार का प्रचार किया। उनकी शिक्षाओं में अक्सर धार्मिक तथा जातिगत भेदभाव की निरर्थकता शामिल है एवं इस बात पर ज़ोर दिया गया कि ईश्वर की नज़र में सभी मनुष्य समान हैं।
        • ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की प्रसिद्ध उक्ति, "सभी के प्रति प्रेम, किसी के भी प्रति द्वेष नहीं", उनके समावेशी दृष्टिकोण को दर्शाती है।
    • सार्वभौमिक प्रेम और करुणा पर बल:
      • अपनी शिक्षाओं, प्रथाओं और आध्यात्मिकता के प्रति समावेशी दृष्टिकोण के माध्यम से भक्ति तथा सूफी आंदोलनों ने सहिष्णुता, सहानुभूति एवं पारस्परिक सम्मान की संस्कृति को बढ़ावा दिया।
        • चैतन्य महाप्रभु राधा कृष्ण आंदोलन में शामिल प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने कृष्ण के प्रति राधा के परम प्रेम को भक्ति के अंतिम स्वरुप के रूप में दर्शाया। उन्होंने सामूहिक रूप से कृष्ण के नामों का जाप (संकीर्तन) जैसे अभ्यासों के माध्यम से सांप्रदायिक सद्भाव और सार्वभौमिक प्रेम पर बल दिया।
    • साहित्यिक और कलात्मक योगदान :
      • भक्ति आंदोलन ने भारतीय साहित्य, संगीत और कला में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भक्ति कवियों तथा संतों ने अनेक भक्ति गीत एवं कविताओं की रचना की, जिनसे क्षेत्रीय भाषाओं व साहित्यिक परंपराओं को समृद्ध किया गया।
        • 16वीं शताब्दी के कवि-संत तुलसीदास ने "रामचरितमानस" की रचना की, जो भगवान राम के जीवन का वर्णन करने वाला महाकाव्य है, जिसका उत्तर भारतीय हिंदू धर्म में प्रमुख महत्त्व है।
      • सूफी आंदोलन का भारतीय साहित्य, संगीत और कला पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। सूफी कविता तथा संगीत, विशेष रूप से कव्वालियाँ, भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य का अभिन्न अंग बन गईं है।
        • निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो एक विपुल कवि और संगीतकार थे, जिनकी रचनाएँ फारसी तथा हिंदवी में हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध बनाने एवं कव्वाली शैली को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है।
    • भारतीय संस्कृति की समन्वयात्मक प्रकृति :
      • भक्ति और सूफी परंपराओं के सह-अस्तित्त्व तथा पारस्परिक प्रभाव ने कलात्मक शैलियों के समन्वयकारी मिश्रण को जन्म दिया। यह मिश्रण भारत भर में कला एवं वास्तुकला के विभिन्न रूपों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जिसका हिंदू और इस्लामी रूपांकन सहज रूप से सह-अस्तित्त्व में हैं।
        • कुतुब शाही मकबरे: हैदराबाद में स्थित, इन मकबरों में फारसी, पठान और हिंदू स्थापत्य शैली का मिश्रण है, जो सूफ़ी प्रभावों द्वारा बढ़ावा दिये गए सांस्कृतिक संश्लेषण को दर्शाता है।
        • ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह: अजमेर में स्थित, यह दरगाह भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण सूफी मंदिरों में से एक है। संगमरमर के गुंबद और जटिल नक्काशी के साथ इसकी मुगल शैली की वास्तुकला, उस समय के समन्वित संस्कृति को दर्शाती है।
        • दरगाह-मंदिर परिसर: ऋषिकेश और वाराणसी जैसी जगहों पर, दरगाह-मंदिर परिसर, जहाँ सूफी मंदिर तथा हिंदू मंदिर एक साथ मौजूद थे, जो दोनों आंदोलनों की एकता एवं साझा आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है।

    निष्कर्ष:

    भक्ति और सूफी आंदोलनों ने भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा धार्मिक परिदृश्य को आकार देने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाई। भक्ति, सामाजिक समानता एवं सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ावा देकर, इन आंदोलनों ने भारतीय समाज पर एक स्थायी विरासत, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विविधता की एक समृद्ध परंपरा को बढ़ावा दिया, जिसने समकालीन भारत को प्रभावित किया।

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