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Mains Marathon

  • 29 Jul 2023 रिवीज़न टेस्ट्स भूगोल

     दिवस 12

    1. भारत के राष्ट्रीय आंदोलन तथा राष्ट्र निर्माण में श्री अरबिंदो के योगदान का वर्णन कीजिये।(150 शब्द)

    2. विभिन्न उदारवादी लोकतंत्रों का स्थल होने के बावजूद, हाल के वर्षों में यूरोप में कट्टरवाद की एक नई लहर देखी गई है, जिसमें पुरानी विचारधाराओं के पुनरुद्धार के साथ नई विचारधाराओं का उदय शामिल है। उपयुक्त उदाहरणों सहित विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    3. बाढ़ के प्रमुख कारण और परिणामों को बताते हुए चर्चा कीजिये कि संवेदनशील क्षेत्रों में बाढ़ के प्रभाव को कम करने के लिये कौन सी रणनीतियाँ अपनाई जा सकती हैं?

    4. सूफी और भक्ति दोनों ही संत जन कल्याण के विचार से प्रेरित थे। मूल्यांकन कीजिये।

    5. सामाजिक संरचना को आकार देने तथा सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने में पंथनिरपेक्षता की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।  

    6. वर्तमान में राज्यपाल के पद से जुड़ी चुनौतियों का मूल्यांकन करने के साथ इस संवैधानिक पद की प्रभावशीलता और निष्पक्षता को बढ़ावा देने हेतु उपाय बताइये। (250 शब्द) 

    7. निवारक निरोध कानून की आलोचनाओं और इससे संबंधित चिंताओं का मूल्यांकन कीजिये। भारत में निवारक निरोध कानून के दुरुपयोग को रोकने हेतु कुछ उपाय बताइये। (250 शब्द)

    8. किसी राष्ट्र के लोकतांत्रिक ताने-बाने को मज़बूत करने में इंट्रा-पार्टी/अंतरा-दलीय लोकतंत्र के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। अधिक जीवंत लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये अंतरा-दलीय लोकतंत्र को उन्नत करने हेतु उपाय बताइये। 

    9. क्षेत्रीय संगठन के रूप में बिम्सटेक (BIMSTEC) का उद्देश्य अपने सदस्य देशों के बीच आर्थिक एवं सामाजिक विकास, कनेक्टिविटी तथा सुरक्षा को बढ़ावा देना है। बिम्सटेक में भारत की भागीदारी से संबंधित अवसरों तथा चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द) 

    10. बाल श्रम से निपटने में किये जाने वाले महत्त्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद, यह भारत का एक प्रमुख सामाजिक-आर्थिक मुद्दा बना हुआ है। इस संदर्भ में, बाल श्रम को प्रभावी ढंग से समाप्त करने के लिये आवश्यक उपायों को बताते हुए इससे संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द) 

    1.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    श्री अरबिंदो तथा उनकी 150वीं जयंती के बारे में बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।


    भारत के स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय आंदोलन में उनके योगदान की चर्चा करते हुए राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका बताइये।


    भारतीय इतिहास में उनके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।


    परिचय:
    श्री अरबिंदो (प्रमुख दार्शनिक, कवि और राष्ट्रवादी) ने 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत के राष्ट्रीय आंदोलन एवं राष्ट्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उनके विचारों, सक्रियता और आध्यात्मिक दर्शन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद राष्ट्र निर्माण के प्रयासों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


    स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका:

    • श्री अरबिंदो ने वर्ष 1902 से 1910 तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका निभाते हुए इस दौरान वंदे मातरम जैसे समाचार पत्रों का संपादन करने के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का आयोजन किया और इन्हें अलीपुर बम मामले में कारावास हुआ।
    • उन्होंने ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ-साथ भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर बल दिया था।
    • उन्होंने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करने के साथ आर्थिक, शैक्षिक, प्रशासनिक, न्यायिक और सामाजिक बहिष्कार पर बल दिया था।
    • वह लंदन में भारतीय क्रांतिकारियों की एक गुप्त सोसायटी 'लोटस एंड डैगर्स' के सदस्य बन गए और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के प्रमुख प्रतिपादक बन गए।
    • उन्होंने भारत की एक ऐसे स्वतंत्र संघ के रूप में की कल्पना की थी जो मानवता की भलाई हेतु अन्य देशों के साथ सहयोग करेगा।
    • उन्होंने बड़ौदा प्रवास के दौरान शासक के लिये भाषण लिखे और 'न्यू लैंप फॉर ओल्ड' नामक शीर्षक इंदु प्रकाश नामक एंग्लो-मराठी अखबार के लिये विभिन्न लेख लिखे।
    • इन लेखों में उन्होंने कॉन्ग्रेस के दोषपूर्ण उद्देश्यों, अनुचित तरीकों और सर्वहारा वर्ग को संगठित करने में इसकी विफलता के संबंध में आलोचना की।
    • राष्ट्र निर्माण में श्री अरबिंदो की भूमिका उनकी राजनीतिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने दिव्य चेतना को जगाकर मानव जीवन में बदलाव लाने पर बल दिया था।
    • उन्होंने पांडिचेरी में आध्यात्मिक साधकों के एक समुदाय की स्थापना की थी, जो वर्ष 1926 में श्री अरबिंदो आश्रम बन गया।
    • उन्होंने दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य और कविता जैसे विभिन्न विषयों पर भी विस्तार से लिखा था।
      • उनकी महान कृति द लाइफ डिवाइन थी, जिसमें चेतना के विकास एवं पृथ्वी पर दिव्य जीवन की अभिव्यक्ति के संबंध में बताया गया। उनका महाकाव्य 'सावित्री' उनकी आध्यात्मिक खोज और आकांक्षा का प्रतीक था।
        उन्होंने कई शिष्यों और अनुयायियों को भी प्रेरित किया जिन्होंने उनके कार्य और विरासत को आगे बढ़ाया।
      • उन्होंने पाँच भारतीय मूल्यों धर्म, तपस्या, ज्ञान, ब्रह्मचर्य और बल को ऐसी गतिशील शक्तियों के रूप में माना जिनसे आंदोलन और उसके नेताओं को फिर से जीवंत किया जाता था।
      • उन्होंने कायरता, स्वार्थ और भावुकता जैसी आंतरिक कमज़ोरियों को दूर करने के लिये नई पीढ़ी हेतु पुरुषार्थ और क्रांतिकारी भावना का आह्वान किया।
    • श्री अरबिंदो एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे जिन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन एवं राष्ट्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। वह न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी और देशभक्त थे बल्कि एक दृष्टा और ऋषि भी थे जिन्होंने मानवता पर काफी बल दिया था। उन्हें आधुनिक भारत के संस्थापकों में से एक माना जाता है।

      2.

      हल करने का दृष्टिकोण:

      • सबसे उदार लोकतंत्रों के स्थल होने एवं 18वीं और 19वीं शताब्दी में सबसे उदार विचारों की जन्म भूमि के रूप में यूरोप का परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
      • यूरोप में देखी जाने वाली कट्टरवाद की एक नई लहर जिसमें हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद जैसे पुराने कट्टरपंथी विचार तथा फ्राँस में कट्टरपंथी जैसे नए विचार शामिल हैं, को बताइये। उदारवादी विचारों का प्रचारक होने के बावजूद यूरोप में इन कट्टरपंथी विचारधाराओं के उदय के पीछे के कारणों पर भी चर्चा कीजिये।
      • इस संदर्भ में आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
      परिचय:
    • यूरोप को व्यापक रूप से कई उदार लोकतंत्रों की भूमि एवं 18वीं और 19वीं शताब्दी में सबसे उदार विचारों के जन्मस्थान के रूप में माना जाता है।
    • कट्टरवाद से नागरिक स्वतंत्रता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और पंथनिरपेक्षता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसने अमेरिका, फ्राँस और बेल्जियम में विभिन्न क्राँतियों को प्रभावित किया था।
    • हालाँकि हाल के वर्षों में यूरोप में कट्टरवाद की एक नई लहर देखी गई है, जिसमें पुरानी विचारधाराओं का पुनरुद्धार और नई विचारधाराओं का उदय शामिल है।


    मुख्य भाग:

    • यूरोप में फिर से उभरी कुछ पुरानी कट्टरपंथी विचारधाराएँ फासीवाद और नाज़ीवाद से प्रेरित हैं, जिनसे अधिनायकवाद, राष्ट्रवाद, नस्लवाद और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिये जर्मनी में कॉम्बैट-18 नामक एक नव-नाजी समूह को कई हत्याओं और आतंकवादी साजिशों से जुड़े होने के बाद वर्ष 2020 में सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। पोलैंड में दक्षिणपंथी समूहों ने स्वतंत्रता दिवस मनाने एवं अप्रवासी विरोधी तथा एलजीबीटी विरोधी भावनाओं को व्यक्त करने के लिये मार्च और रैलियों का आयोजन किया। आयरलैंड में आयरिश फ्रीडम पार्टी नामक एक नए राजनीतिक दल पर ज़ेनोफोबिया एवं इस्लामोफोबिया जैसे सिद्धांतों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया है।
    • यूरोप में उभरी कुछ नई कट्टरपंथी विचारधाराएँ, कट्टरपंथी इस्लामवाद से संबंधित हैं, जो इस्लामी कानून की वकालत करने के साथ पश्चिमी मूल्यों को खारिज करती है। उदाहरण के लिये फ्राँस में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा किये गए आतंकवादी हमलों ने देश को झकझोर कर रख दिया है जिससे धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं एकीकरण पर बहस को बढ़ावा मिला। वर्ष 2020 में सैमुअल पैटी नाम के एक शिक्षक द्वारा अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखाने के कारण एक इस्लामी कट्टरपंथी द्वारा उनका सिर कलम कर दिया गया था।
      इटली में अंसार अल-इस्लाम नामक एक कट्टरपंथी इस्लामी समूह यूरोप पर हमला करने हेतु लड़ाकों की भर्ती करने में सक्रिय है।


    यूरोप में कट्टरवाद को बढ़ावा मिलने के कारण:

    • यूरोप में इन कट्टरपंथी विचारधाराओं को बढ़ावा मिलने के कई कारण हैं जैसे आर्थिक असुरक्षा, सामाजिक ध्रुवीकरण, सांस्कृतिक विविधता, राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं ऑनलाइन माध्यमों से कट्टरपंथ को बढ़ावा देना।
    • लोग वैश्वीकरण, आप्रवासन, बहुसंस्कृतिवाद और पंथनिरपेक्षता से खतरा महसूस कर सकते हैं एवं ऐसे चरमपंथी समूहों में शरण ले सकते हैं जो उन्हें पहचान एवं अपनेपन की भावना का आश्वासन दे।
    • लोग मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और संस्थानों से भी असंतुष्ट महसूस कर सकते हैं जिन्हें वे भ्रष्ट एवं अप्रभावी मानते हैं।
    • लोग सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल प्लेटफार्मों पर फेक न्यूज़, प्रचार और साजिश के सिद्धांतों के प्रसार से भी प्रभावित हो सकते हैं।
    • कुछ लोगों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया जाना, जो अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों के प्रति अनादर और उकसावे के कार्यों में संलग्न हैं। उदाहरण के लिये कुछ अराजक तत्त्वों ने स्वीडन और नीदरलैंड में कुरान की प्रतियाँ जला दी और कहा कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग कर रहे हैं।
    • हालाँकि ऐसे कृत्य न केवल आक्रामक और घृणित हैं बल्कि खतरनाक एवं गैर-ज़िम्मेदारीपूर्ण भी हैं क्योंकि इनसे हिंसा तथा प्रतिशोध को बढ़ावा मिल सकता है।


    संभावित उपाय:

    • यूरोप में कट्टरपंथ के उदय का मुकाबला करने के लिये विभिन्न समूहों एवं हितधारकों के बीच अधिक संवाद, शिक्षा, एकीकरण तथा सहयोग बढाने की आवश्यकता है।
    • संवाद से विविध पृष्ठभूमि और राय वाले लोगों के बीच आपसी समझ, सम्मान और सहिष्णुता को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।
    • शिक्षा से युवा लोगों के बीच आलोचनात्मक सोच, नागरिक जुड़ाव एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है। एकीकरण से अधिक समावेशी समाज के निर्माण में मदद मिल सकती है जिससे विविधता और मानवाधिकारों का सम्मान हो सके।
    • समन्वय से आम खतरों के प्रति यूरोप की सुरक्षा, स्थिरता एवं एकजुटता को मज़बूत करने में मदद मिल सकती है।


    निष्कर्ष:


    यूरोप में उत्पन्न होने वाली कट्टरवादी विचारधारा से उसके उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के समक्ष खतरा है। पुरानी विचारधाराओं के पुनरुद्धार एवं नई विचारधाराओं के उदय से शांति, सुरक्षा तथा सामाजिक एकजुटता के लिये गंभीर जोखिम पैदा होता है। इसलिये कट्टरपंथ के मूल कारणों को हल करना तथा सभी यूरोपीय लोगों के बीच संवाद, शिक्षा, समन्वय एवं सहयोग की संस्कृति को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है।


    3.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • बाढ़ की परिभाषा, बाढ़ के प्रकारों एवं इससे उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का उल्लेख करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • बाढ़ के प्रमुख कारणों और परिणामों पर चर्चा करने के साथ बताइये कि संवेदनशील क्षेत्रों में बाढ़ के प्रभावों को कम करने के लिये कौन-सी रणनीतियाँ लागू की जा सकती हैं।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।


    परिचय 

    बाढ़ का आशय जल के अतिप्रवाह से है जिससे आमतौर पर शुष्क रहने वाली भूमि जलमग्न हो जाती है। उच्च वर्षा, बर्फ पिघलने या बाँध टूटने के कारण जब नदियों, झीलों या अन्य जल निकायों में अत्यधिक पानी जमा हो जाता है तो बाढ़ की स्थिति बन जाती है। जब यह बाढ़ जन-धन की हानि का कारण बनती है तो यह आपदा का रूप ले लेती है।


    बाढ़ के प्रमुख कारण और परिणाम:

    • उच्च वर्षा: तीव्र या लंबे समय तक वर्षा होने से ज़मीन संतृप्त होने एवं जल निकासी व्यवस्था अप्रभावी होने के परिणामस्वरूप बाढ़ आ सकती है।
      • परिणाम: बाढ़ के जल से घरों, व्यवसायों और बुनियादी ढाँचे को नुकसान होने के साथ विस्थापन एवं जीवन की हानि हो सकती है।
    • नदी का अतिप्रवाह: अत्यधिक वर्षा होने या बर्फ के तेज़ी से पिघलने से नदियों में क्षमता से अधिक जल हो जाने से बाढ़ आ सकती है।
      • परिणाम: बाढ़ के कारण फसल नष्ट होने, समुदाय विस्थापित होने एवं बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचने के साथ जल स्रोत दूषित हो सकते हैं।
    • तटीय तूफानी लहरें: तूफान या चक्रवात से तूफानी लहरें उत्पन्न हो सकती हैं जो तटीय बाढ़ का कारण बनती हैं।
      • परिणाम: तटीय बाढ़ के परिणामस्वरूप तटों का कटाव होने, तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होने एवं इमारतें नष्ट होने के साथ मानव जीवन के लिये खतरा पैदा हो सकता है।
    • मानवीय कारक: वनों की कटाई, शहरीकरण और प्राकृतिक जलमार्गों में परिवर्तन से बाढ़ के प्रभावों को बढ़ावा मिल सकता है।
      • परिणाम: अनुचित भूमि प्रबंधन प्रथाओं से जल को अवशोषित करने की भूमि की क्षमता कम होने से बाढ़ का प्रभाव तीव्र हो सकता है।


    बाढ़ के प्रभाव को कम करने की रणनीतियाँ:

    • प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ: उन्नत बाढ़ निगरानी और पूर्वानुमान प्रणालियों को स्थापित करने से बाढ़ के संबंध में समय पर चेतावनी जारी की जा सकती है, जिससे प्रभावित क्षेत्रों में आवश्यक सावधानी बरती जा सकती है।

    • बुनियादी ढाँचे का विकास: बाढ़ नियंत्रण संरचनाओं जैसे- तटबंध, बाँध और बाढ़ चैनलों का निर्माण और रखरखाव करने से जल प्रवाह को विनियमित करने में मदद मिल सकती है।
    • भूमि उपयोग का नियोजन: उचित भूमि उपयोग नियोजन को लागू करने (जिसमें बाढ़ संभावित क्षेत्रों में निर्माण को प्रतिबंधित करना और प्राकृतिक बाढ़ के मैदानों के संरक्षण को बढ़ावा देना शामिल है) से बाढ़ के प्रति लोगों के जोखिम और भेद्यता को कम किया जा सकता है।
    • बेहतर जल निकासी प्रणालियाँ स्थापित करना: जल प्रबंधन प्रणालियों एवं नालियों तथा सीवरों के रखरखाव सहित जल निकासी संबंधी बुनियादी ढाँचे के विकास से उच्च वर्षा के प्रभाव को कम करने के साथ बाढ़ के जोखिम को कम करने में मदद मिलती है।
    • पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण करना: आर्द्रभूमि और वनों जैसी प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों को संरक्षित और पुनर्स्थापित करने से बाढ़ की तीव्रता एवं प्रभाव को कम करके बाढ़ शमन में सहायता मिल सकती है।
    • सामुदायिक तैयारी: समुदायों को बाढ़ के खतरों के बारे में शिक्षित करने, आपातकालीन तैयारियों को बढ़ावा देने से बाढ़ के दौरान जन-धन के नुकसान को कम करने में मदद मिल सकती है।



    बाढ़ से संवेदनशील क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण जोखिम पैदा होने से व्यापक क्षति और व्यवधान होता है। बाढ़ के प्रभाव को कम करने तथा प्रभावी रणनीतियों को लागू करने हेतु इसके कारणों एवं परिणामों को समझना आवश्यक है। बाढ़ से जुड़े जोखिमों का प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिये संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक उपायों को अपनाते हुए एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना महत्त्वपूर्ण है।


    4.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भक्ति और सूफी आंदोलन से संबंधित संतों का परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि भक्ति और सूफी आंदोलन के दौरान भक्ति तथा सूफी संतों ने लोगों के कल्याण पर बल दिया था।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:


    भक्ति और सूफी आंदोलन सबसे प्रभावशाली आध्यात्मिक आंदोलनों में से थे। इन आंदोलनों के माध्यम से अनुष्ठानों के बजाय प्रेम तथा भक्ति के माध्यम से भगवान के साथ प्रत्यक्ष जुड़ाव पर बल दिया था। इन आंदोलनों ने अपने समय के सामाजिक एवं धार्मिक पदानुक्रमों को भी चुनौती दी थी तथा विभिन्न धर्मों और पृष्ठभूमि के लोगों के बीच सद्भाव एवं समानता को बढ़ावा दिया था।

    • भक्ति आंदोलन की शुरुआत छठी शताब्दी ईस्वी में तमिलनाडु में हुई थी और सूफी आंदोलन का उदय आठवीं शताब्दी में फारस में हुआ था।
    • सूफी और भक्ति संत अपनी शिक्षाओं और प्रथाओं में लोगों के कल्याण पर बल देते थे। उनका उद्देश्य जाति, पंथ या धर्म की परवाह किये बिना सभी लोगों के बीच प्रेम, सद्भाव एवं समानता का संदेश फैलाना था। उन्होंने उस समय समाज को त्रस्त करने वाली सामाजिक बुराइयों और अंधविश्वासों को सुधारने का भी प्रयास किया। जैसे:
      • सूफी संतों द्वारा सुलह-ए-कुल के सिद्धांत का पालन किया गया था, जिसका अर्थ है सार्वभौमिक शांति और सहिष्णुता। वे सभी धर्मों एवं संप्रदायों का सम्मान करते थे तथा आस्था के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करते थे।
      • उन्होंने किसी मध्यस्थ या अनुष्ठान की आवश्यकता के बिना, भगवान के साथ प्रत्यक्ष और व्यक्तिगत संबंध को भी बढ़ावा दिया था। उनका मानना था कि प्रेम, भक्ति एवं ध्यान के माध्यम से ईश्वर का अनुभव किया जा सकता है।
      • भक्ति संतों ने एकेश्वरवाद की वकालत की थी। उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू धर्म पर हावी जाति व्यवस्था, मूर्तिपूजा एवं कर्मकांड के साथ पुरोहितों की सत्ता को खारिज किया था।
      • उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं में भक्ति गीतों एवं कविताओं की रचना की थी, जिससे उनकी शिक्षाएँ आम लोगों तक पहुँच सकीं। उन्होंने महिलाओं और निम्न जातियों को भी अपने आंदोलन में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया था।
      • सूफी और भक्ति संतों ने एक-दूसरे को भी प्रभावित करने के साथ एक-दूसरे की परंपराओं से प्रेरणा ली थी। उदाहरण के लिये कुछ सूफी संतों ने भक्ति संतों से भक्ति गीत (कव्वाली) गाने की प्रथा को अपनाया था, जबकि कुछ भक्ति संतों ने सूफी संतों से रहस्यमय परमानंद (समा) की प्रथा को अपनाया था। उन्होंने एक-दूसरे के तीर्थस्थलों के भ्रमण के साथ परस्पर सम्मान और प्रशंसा की भावना का प्रदर्शन किया था।
      • इस प्रकार सूफी तथा भक्ति संतों ने मध्यकालीन भारत में अध्यात्मवाद, मानवतावाद और बहुलवाद की संस्कृति का निर्माण करके लोगों के कल्याण पर बल दिया था।

    भक्ति और सूफी आंदोलन इस बात के उल्लेखनीय उदाहरण थे कि धर्म किस प्रकार मानवता हेतु सद्भाव, शांति और कल्याण का स्रोत हो सकता है। उन्होंने दिखाया कि भगवान तक विभिन्न मार्गों एवं नामों के माध्यम से पहुँचा जा सकता है, लेकिन इसका सार एक ही है; प्रेम और भक्ति। उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि आध्यात्मिकता केवल मंदिरों और मस्जिदों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे दूसरों की सेवा करके एवं सभी के प्रति दयालु होकर रोजमर्रा की जिंदगी में भी अपनाया जा सकता है। उन्होंने कविता, संगीत, कला एवं दर्शन की साझी विरासत निर्मित कर भारत की सांस्कृतिक तथा धार्मिक विविधता को समृद्ध किया था।


    5.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • पंथनिरपेक्षता की अवधारणा का परिचय दीजिये।
    • सामाजिक संरचना को आकार देने तथा सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने में पंथनिरपेक्षता की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
    • भारत जैसे विविधीकृत समाज में पंथनिरपेक्षता के महत्त्व पर बल देते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।


    उत्तर:

    पंथनिरपेक्षता का तात्पर्य राज्य के धर्म से अलग रहने तथा राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करने से है। भारत में पंथनिरपेक्षता का एक अलग अर्थ और संदर्भ है क्योंकि इसका तात्पर्य सार्वजनिक जीवन में धर्म का पूर्ण बहिष्कार नहीं है, बल्कि विविध धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं के लिये बहुलवादी और सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाने से है।

    • पंथनिरपेक्षता सामाजिक संरचना को आकार देने तथा सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जैसे:
      • पंथनिरपेक्षता से देश में धार्मिक परंपराओं और संस्कृतियों की विविधता तथा बहुलता बनी रहती है। भारत विभिन्न धर्मों के साथ-साथ कई संप्रदायों और उप-संस्कृतियों का स्थल है।
      • पंथनिरपेक्षता से विभिन्न धर्मों की समृद्ध एवं विविध सांस्कृतिक विरासत का सम्मान होने के साथ सुरक्षा होती है। इससे विभिन्न धर्मों के बीच अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सुविधा मिलती है जिससे राष्ट्र की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी समृद्ध होती है।
      • पंथनिरपेक्षता से सभी नागरिकों को उनके धर्म की परवाह किये बिना समान अधिकार एवं अवसर प्रदान होते हैं जिससे सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलता है।
      • इससे समाज के हाशिए पर स्थित वर्गों को धर्म पर आधारित दमनकारी प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों को चुनौती देने का अधिकार भी मिलता है।
      • इससे जनता की भलाई में धर्म के मामलों में राज्य को हस्तक्षेप करने का अवसर मिलता है जिससे सामाजिक सुधार एवं कल्याण को भी बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिये, राज्य द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त किया जाना।
      • पंथनिरपेक्षता से संकीर्ण हितों के लिये धर्म के राजनीतिकरण में कमी आती है जिससे सांप्रदायिकता और उग्रवाद का मुकाबला होता है।
      • इससे राज्य अपराधियों के खिलाफ तेजी से और निष्पक्ष रूप से कार्रवाई करके सांप्रदायिक हिंसा पर भी अंकुश लगा सकता है।
      • यह किसी भी धार्मिक पहचान से ऊपर भारतीय होने की सामान्य पहचान को बनाए रखते हुए देश की राष्ट्रीय एकता का भी समर्थन करता है।


    देश की सामाजिक एकता एवं सद्भाव बनाए रखने के लिये पंथनिरपेक्षता एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यह वैश्वीकरण तथा आधुनिकीकरण की चुनौतियों का सामना करने के लिये देश की शक्ति और लचीलेपन का स्रोत भी है। पंथनिरपेक्षता न केवल एक संवैधानिक अधिदेश है बल्कि भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज के लिये एक सामाजिक आवश्यकता भी है।


    6.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • राज्यपाल के पद के बारे में संक्षिप्त रूप से बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • राज्यपाल के पद से जुड़ी चुनौतियों का उल्लेख करते हुए इन चुनौतियों से निपटने के उपाय बताइये।
    • मुख्य बिंदुओं को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।


    परिचय:

    • संविधान के अनुच्छेद 153 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। संघीय ढाँचे में राज्यपाल पद महत्त्वपूर्ण होता है। राज्यपाल राज्य के प्रमुख और केंद्र तथा राज्य के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करता है। राज्य में सभी कार्यकारी निर्णय उनके नाम पर लिये जाते हैं।
    • हालाँकि राज्यपाल के पद को हाल के दिनों में कई चुनौतियों और विवादों का भी सामना करना पड़ा है, जिससे इसकी प्रभावशीलता एवं निष्पक्षता पर प्रश्न लगे हैं।

      मुख्य भाग 

    • संबंधित चुनौतियाँ:
    • राजनीतिक नियुक्तियाँ: संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। हालाँकि राज्यपाल को चुनने के लिये कोई विशिष्ट मानदंड या प्रक्रिया नहीं है, इसे राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जो आमतौर पर मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है।
    • विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग: संविधान के अनुच्छेद 163(1) में राज्यपाल के कार्यों में सलाह तथा सहायता प्रदान करने हेतु मंत्रिपरिषद की स्थापना का प्रावधान किया गया है जिसका प्रमुख, मुख्यमंत्री होता है। हालाँकि संविधान के अनुसार, राज्यपाल अपने विवेक से कुछ शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं। इन विवेकाधीन शक्तियों की सटीक परिभाषा के अभाव से अस्पष्टता और विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है।
      • हालाँकि शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले (1974) में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्यपाल को कुछ असाधारण स्थितियों को छोड़कर, केवल अपने मंत्रियों की सहायता और सलाह के अनुसार ही औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये। ”।
        राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप: राज्यपालों द्वारा राज्य की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने और किसी एक राजनीतिक दल को दूसरे के मुकाबले तरजीह देने के उदाहरण सामने आए हैं। इस तरह की कार्रवाइयाँ एक स्वतंत्र एवं गैर-राजनीतिक इकाई के रूप में राज्यपाल की स्थिति की धारणा को धूमिल करती हैं। उदाहरण के लिये तमिलनाडु के राज्यपाल एवं सरकार के बीच हालिया संघर्ष।
    • केंद्र का एजेंट: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 156 में कहा गया है कि राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा तक पद धारण करेगा। इसका तात्पर्य यह है कि राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है। यह राज्यपाल को राजनीतिक दबाव के प्रति संवेदनशील बनाता है जिससे यह केंद्र सरकार के एजेंट की तरह कार्य करता है।
    • संवैधानिक संकट: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन घोषित करने (यदि सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ है) का अधिकार देता है। राष्ट्रपति इस प्रावधान के अनुसार राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा कार्रवाई कर सकते हैं। हालाँकि इस प्रावधान का कुछ राज्यपालों द्वारा मामूली आधार पर या मुख्यमंत्री से परामर्श किये बिना राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने के रूप में दुरुपयोग किया गया है।
    • सीमित जवाबदेही: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय में कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी या जारी नहीं रखी जाएगी। इसका तात्पर्य यह है कि पद पर रहते हुए उन पर किसी भी अपराध के लिये मुकदमा नहीं चलाया जा सकता या गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। 
    • प्रभावशीलता और निष्पक्षता बढ़ाने के उपाय:
    • राज्यपाल का संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं होना चाहिये: सरकारिया आयोग ने सिफारिश की है कि राज्यपाल का संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं होना चाहिये।
    • पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया: राज्यपालों की नियुक्ति के लिये एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया स्थापित करने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि ईमानदार एवं अनुभव वाले व्यक्तियों का चयन किया जाए। इसमें राज्यपाल की नियुक्ति हेतु सुझाव देने के लिये एक गैर-पक्षपातपूर्ण समिति की स्थापना करना शामिल हो सकता है।
      • वेंकटचलैया आयोग (2002) ने सिफारिश की है कि राज्यपाल की नियुक्ति एक ऐसी समिति को सौंपी जानी चाहिये जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों। 
      • यदि राज्यपाल को कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाना है तो केंद्र सरकार को मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद ही ऐसा करना चाहिये।
    • कार्यकाल की निश्चित अवधि: राज्यपालों के लिये एक निश्चित कार्यकाल का प्रावधान करने से उन्हें मनमाने ढंग से हटाने के जोखिम को कम करने के साथ उनके कार्यकाल के दौरान होने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप को हतोत्साहित किया जा सकता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता में वृद्धि होगी।
      • सरकारिया आयोग की सिफारिशों के अनुसार, दुर्लभ और बाध्यकारी परिस्थितियों को छोड़कर, राज्यपालों को उनके पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जाना चाहिये।
      • पुंछी आयोग द्वारा सिफारिश की गई है कि "राष्ट्रपति की इच्छानुसार" नामक वाक्यांश को संविधान से हटा दिया जाना चाहिये तथा राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल के प्रस्ताव द्वारा ही हटाया जाना चाहिये।
    • प्रशिक्षण प्रदान करना: नवनियुक्त राज्यपालों को उनकी संवैधानिक भूमिकाओं, ज़िम्मेदारियों और सीमाओं पर व्यापक प्रशिक्षण प्रदान करने से उन्हें निष्पक्ष एवं ज़िम्मेदारी से कार्य करने में सहायता मिल सकती है।
    • जवाबदेह तंत्र: किसी भी कदाचार या शक्तियों के दुरुपयोग के लिये राज्यपालों को जवाबदेह ठहराने के लिये एक मज़बूत तंत्र के निर्माण से यह सुनिश्चित होगा कि वे अपने अधिकारों का उपयोग ज़िम्मेदारी से और पूर्वाग्रह के बिना करेंगे।
      • प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1968) ने सिफारिश की है कि राष्ट्रपति शासन के संबंध में राज्यपाल की रिपोर्ट वस्तुनिष्ठ होनी चाहिये और राज्यपाल को इस संबंध में स्वयं तार्किक निर्णय लेना चाहिये।
    • राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप न करना: राज्यपालों को संवैधानिक संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभाने के क्रम में राज्य की राजनीति में शामिल होने या किसी राजनीतिक दल का पक्ष लेने से बचना चाहिये।
    • संविधान संशोधन: राज्यपाल की भूमिका और शक्तियों को फिर से परिभाषित करने, उनकी गैर-राजनीतिक प्रकृति पर बल देने तथा इनकी विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करने के लिये संविधान में तार्किक संशोधन से इस पद की विश्वसनीयता मज़बूत हो सकती है।
      • राजमन्नार समिति ने भारत के संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 को हटाने की सिफारिश की है।
    • राज्यसभा की भूमिका: राज्यों की परिषद होने के नाते, राज्यसभा राज्यपाल के मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप के संभावित उदाहरणों की पहचान करने के लिये राज्यपाल के कार्यों एवं निर्णयों की जाँच करके उनकी निष्पक्षता सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

      निष्कर्ष 

    • भारतीय संघीय व्यवस्था में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिये राज्यपाल का पद महत्त्वपूर्ण है। इसके समक्ष आने वाली चुनौतियों से निपटने तथा इसकी प्रभावशीलता एवं निष्पक्षता बढ़ाने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। पारदर्शी नियुक्तियों, निश्चित कार्यकाल और जवाबदेह तंत्र की स्थापना जैसे उपायों को अपनाकर, भारत में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के संवैधानिक संरक्षक के रूप में राज्यपाल की स्थिति को मज़बूत किया जा सकता है।

    7.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • निवारक निरोध और उसके आधारों का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • निवारक निरोध कानून की आलोचनाओं और इससे संबंधित चिंताओं का उल्लेख कीजिये। ऐसे कानूनों के दुरुपयोग को रोकने हेतु कुछ उपाय बताइये।
    • मुख्य बिंदुओं को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय 

    निवारक निरोध का आशय किसी व्यक्ति को संभावित अपराध करने से रोकने हेतु हिरासत में लेने से है। CrPC की धारा 151 में प्रावधान है कि पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना तथा बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकता है, अगर उसे ऐसा लगता है कि उक्त व्यक्ति की गिरफ्तारी के बिना अपराध को घटित होने से रोका नहीं जा सकता है। निवारक निरोध के तहत हिरासत के आधारों में राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, विदेशी मामले और सामुदायिक सेवाएँ शामिल हैं।

    मुख्य भाग 

    • निवारक निरोध कानून की आलोचनाएँ और इससे संबंधित चिंताएँ:
      • अतार्किक कारणों में इसका उपयोग किया जाना: ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें अधिकारियों ने मामूली मुद्दों के लिये इस कानून का उपयोग किया है। जैसे इसके तहत एक व्यक्ति को घटिया मिर्च पाउडर बेचने के लिये दोषी के रूप में घोषित कर हिरासत में लिया गया था।
        उचित परिभाषा का अभाव: विभिन्न राज्यों के कानूनों में इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं है कि किसी व्यक्ति को किस आधार पर हिरासत में लिया जाना चाहिये। इस प्रकार इस कानून का दायरा अस्पष्ट बना रहता है।
      • औपनिवेशिक विरासत: कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि आधुनिक समय में ऐसे कानूनों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसका इस्तेमाल ब्रिटिश शासन के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया गया था।
      • मौलिक अधिकारों के विरुद्ध: ऐसे कानून स्पष्ट रूप से मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हैं। किसी व्यक्ति को ऐसे अनिश्चित आधार पर हिरासत में लेना कि वह अपराध कर सकता है, अनुच्छेद 19 और 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
      • दुरुपयोग: कई मामलों में यह देखा गया है कि ऐसे कानूनों का प्रतिशोधात्मक तरीके से दुरुपयोग किया गया है। कई मामलों में राजनीतिक दलों द्वारा विपक्ष के सदस्यों को दंडित करने के लिये इन कानूनों का दुरुपयोग करते देखा गया है। COVID अवधि के दौरान विभिन्न राज्य सरकारों ने कई विपक्षी नेताओं और पत्रकारों पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत कार्रवाई की।
      • पर्याप्त सुरक्षा उपायों का अभाव: अनुच्छेद 22 के तहत व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण को जानने का अधिकार दिया गया है जबकि इसी अनुच्छेद में सार्वजनिक हित के आधार पर गिरफ्तारी के कारण को न बताने का भी प्रावधान किया गया है। हिरासत के कारणों को न बताया जाना सही मायने में कोई सुरक्षा उपाय नहीं है।
    • निवारक निरोध कानूनों के दुरुपयोग को रोकने के उपाय:
      • कानूनों में एकरूपता लाना: कानून और व्यवस्था राज्य सूची का विषय होने के कारण विभिन्न राज्यों में इससे संबंधित अलग-अलग कानून हैं। फिर भी केंद्र सरकार को किसी अधिनियम के माध्यम से राज्यों से इसमें एकरूपता लाने का आग्रह करना चाहिये।
      • स्पष्टता लाना: इन कानूनों के तहत अपराधों की प्रकृति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये तमिलनाडु गुंडा अधिनियम में शराब तस्कर, झुग्गी-झोपड़ी पर कब्ज़ा करने वाले, यौन अपराधी एवं साइबर-अपराधियों को शामिल किया गया है।
      • कानूनों का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करना: अधिकारियों को इस तरह से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये कि वे कानूनों का दुरुपयोग न करें। साथ ही इन कानूनों का उपयोग सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने जैसे व्यापक उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया जाना चाहिये जैसा कि मरियप्पन बनाम ज़िला कलेक्टर और अन्य मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया था।
      • वैकल्पिक तरीकों का उपयोग करना: अधिकारियों को इसका कोई अन्य विकल्प ढूँढना चाहिये और यदि संभव हो तो निवारक निरोध से बचने का प्रयास करना चाहिये। किसी भी अपराध की सज़ा प्रत्यक्ष रूप से अपराध की गंभीरता से संबंधित होनी चाहिये। उदाहरण के लिये छोटे अपराध के लिये सीमित जुर्माना उपयुक्त हो सकता है जबकि गंभीर या हिंसक अपराध के लिये जेल की अधिक सजा उपयुक्त हो सकती है।
      • दुर्लभतम मामलों में उपयोग किया जाना: किसी भी मामले में इन कानूनों का मनमाने ढंग से उपयोग नहीं किया जाना चाहिये। संबंधित अधिकारियों को अपराध की गंभीरता का आकलन करने के साथ दुर्लभतम मामलों में इन कानूनों का इस्तेमाल करना चाहिये।

    8.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • अपने उत्तर की शुरुआत अंतरा-दलीय लोकतंत्र के संक्षिप्त अवलोकन से कीजिये।
    • अंतर-पार्टी लोकतंत्र के महत्त्व का उल्लेख कीजिये और इसे बढ़ाने के उपाय सुझाइये।
    • मुख्य बिंदुओं को बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • अंतरा-दलीय लोकतंत्र का आशय राजनीतिक दलों के अंदर आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से है जिससे यह सुनिश्चित होता है कि दल के अंदर निर्णय लेने और नेतृत्व का चयन पारदर्शी, भागीदारीपूर्ण और समावेशी माध्यम से हो। अंतरा-दलीय लोकतंत्र का महत्त्व किसी राष्ट्र के समग्र लोकतांत्रिक ढाँचे को उन्नत करने में इसकी भूमिका में निहित है। जब राजनीतिक दल लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखते हैं तो इसका शासन, प्रतिनिधित्व, नागरिक भागीदारी और लोकतांत्रिक प्रणाली के समग्र स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

      मुख्य भाग 

    • अंतरा-दलीय लोकतंत्र का महत्त्व:
      • समावेशिता को बढ़ावा: अंतरा-दलीय लोकतंत्र दलों के सदस्यों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने की अनुमति देकर समावेशिता को बढ़ावा देता है। यह दलों के अंदर विभिन्न सदस्यों के दृष्टिकोणों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करता है।
      • जवाबदेही और पारदर्शिता: पारदर्शी आंतरिक प्रक्रियाओं से दलों के नेताओं और सदस्यों की जवाबदेही बढ़ती है। जब नेता निष्पक्ष और पारदर्शी तंत्र के माध्यम से चुने जाते हैं तो उनके अपने मतदाताओं और आम जनता के प्रति जवाबदेह होने की अधिक संभावना होती है, जिससे समग्र रूप से लोकतांत्रिक जवाबदेही मज़बूत होती है।
      • नीति निर्माण और कार्यान्वयन: अंतरा-दलीय लोकतंत्र से नीतिगत मामलों पर स्वस्थ बहस और चर्चा को प्रोत्साहन मिलता है। जब दलों के सदस्यों को नीति निर्माण में योगदान करने का अवसर मिलता है, तो इससे अधिक व्यापक और सुविचारित नीतियाँ बनती हैं जो राष्ट्र की विविध आवश्यकताओं को पूरा करती हैं।
      • ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करना: अंतरा-दलीय लोकतंत्र से दलों के सदस्यों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करने से ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूती मिलती है। स्थानीय नेताओं को अपने समुदायों की चिंताओं की बेहतर समझ होती है और वे बड़े राजनीतिक क्षेत्र में उनका प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
      • गुटबाजी और आंतरिक संघर्षों में कमी आना: एक मज़बूत अंतरा-दलीय लोकतांत्रिक प्रणाली दलों के अंदर गुटबाजी और आंतरिक संघर्षों को कम करने में मदद करती है। इससे समझौता और सहयोग की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
    • अंतरा-दलीय लोकतंत्र को बढ़ावा देने के उपाय:
      • भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को कानून और उनके स्वयं के संविधान के अनुपालन के आधार पर राजनीतिक दलों को पंजीकृत करने, पंजीकरण रद्द करने, ऑडिट करने और पर्यवेक्षण करने का अधिकार देने से दलों की जवाबदेहिता को बढ़ावा मिलता है। ECI दलों के संचालन की देखरेख करने वाली एक निष्पक्ष संस्था के रूप में कार्य कर सकता है।
      • दलों के अंदर समावेशिता को बढ़ाने तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मज़बूत करने के लिये, उन्हें निर्णय लेने में सदस्यों तथा समर्थकों को शामिल करने के लिये जनमत संग्रह और सर्वेक्षण जैसे नवीन तरीकों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
      • राजनीतिक दलों के अंदर तथा उनके बीच संवाद एवं बहस की संस्कृति को सुविधाजनक बनाने से विविध विचारों तथा दृष्टिकोणों के आदान-प्रदान को बढ़ावा मिलता है, जिससे तार्किक निर्णय लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलने के साथ लोकतंत्र अधिक मज़बूत होता है।
      • राजनीतिक दलों के प्रदर्शन और आचरण की निगरानी तथा आलोचना करने के लिये नागरिक समाज संगठनों एवं मीडिया को सशक्त बनानाने से पारदर्शिता तथा जवाबदेहिता सुनिश्चित होती है। जन सरोकारों के प्रति यही जवाबदेही दलों को जनता की ज़रूरतों से जोड़े रखती है।
      • दलों के भीतर दलों के नेताओं, ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं एवं विभिन्न गुटों के लिये संवाद में शामिल होने और फीडबैक प्रदान करने के लिये मंच बनाने से दलों के सदस्यों के बीच अपनेपन और स्वामित्व की भावना को बढ़ावा मिलता है। इससे भागीदारी को प्रोत्साहन मिलने के साथ अंतरा-दलीय गतिशीलता में सुधार होता है।
      • राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं के लिये आचार संहिता तथा नैतिक सहिंता के विकास एवं इनके प्रवर्तन तंत्र से नैतिक व्यवहार एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित होता है। अनुशासनात्मक समितियाँ, लोकपाल या नागरिक समाज के निगरानीकर्ता इन मानकों को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

        निष्कर्ष 
    • चुनाव प्रणाली में सुधार (जो राजनीति में धन और बाहुबल के प्रभाव को कम करने और हाशिये पर पड़े समूहों के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने पर केंद्रित हो) से राजनीतिक प्रक्रिया की समावेशिता और निष्पक्षता को बढ़ावा मिलता है। इससे सुनिश्चित होता है कि समाज के विभिन्न लोगों की चिंताओं पर ध्यान देने के साथ उनका प्रभावी ढंग से समाधान किया जाए।
    • अंतरा-दलीय लोकतंत्र एक जीवंत लोकतांत्रिक प्रणाली को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि इससे सुनिश्चित होता है कि राजनीतिक दल स्वयं उन लोकतांत्रिक आदर्शों को अपनाते हैं जिनकी वे राष्ट्र के लिये वकालत करते हैं। अंतरा-दलीय लोकतंत्र को बढ़ावा देकर राजनीतिक दल न केवल अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को मज़बूत कर सकते हैं बल्कि देश में लोकतंत्र की स्थिरता में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इन ठोस प्रयासों के माध्यम से ही कोई राष्ट्र वास्तव में एक मज़बूत और सहभागी लोकतंत्र के रूप में विकसित हो सकता है।

    9.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • अपने उत्तर की शुरुआत बिम्सटेक के संक्षिप्त परिचय और उसके महत्त्व से कीजिये।
    • बिम्सटेक के प्रति भारत की नीति, भारत के लिये अवसरों और बाधाओं पर चर्चा कीजिये।
    • मुख्य बिंदुओं को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिये और दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ निष्कर्ष लिखिये।

    उत्तर:

    परिचय 

    बिम्सटेक एक क्षेत्रीय संगठन है जिसका उद्देश्य अपने सदस्य देशों के बीच आर्थिक एवं सामाजिक विकास, कनेक्टिविटी और सुरक्षा को बढ़ावा देना है। बिम्सटेक का तात्पर्य बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation- BIMSTEC) से है तथा इसका गठन 6 जून, 1997 को बैंकॉक घोषणा के माध्यम से किया गया था। इसमें बंगाल की खाड़ी क्षेत्र के आसपास के सात देश: बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड शामिल हैं। बिम्सटेक क्षेत्र 1.67 अरब लोगों को एक साथ लाता है तथा संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद लगभग 4.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (वर्ष 2022) है।

    बिम्सटेक के साथ भारत के संबंध इसकी प्रमुख विदेश नीति 'नेबरहुड फर्स्ट (Neighbourhood First)' तथा 'एक्ट ईस्ट (Act East)' की प्राथमिकताओं से प्रेरित है। भारत बिम्सटेक को दक्षिण एशिया एवं दक्षिण पूर्व एशिया में अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के साथ-साथ क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिये एक प्राकृतिक मंच के रूप में देखता है।

    मुख्य भाग 

    • बिम्सटेक में भारत की भागीदारी से संबंधित अवसर:
      • बिम्सटेक देशों के साथ विशेष रूप से कपड़ा, चमड़ा, पर्यटन, कृषि, प्रौद्योगिकी और वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में व्यापार एवं निवेश संबंधों को बढ़ाना। भारत अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करके तथा अपने निर्यात बाज़ारों में विविधता लाकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आपूर्ति शृंखला पुनर्गठन से भी लाभ अर्जित कर सकता है।
      • बिम्सटेक ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी फ्रेमवर्क एग्रीमेंट, बिम्सटेक कोस्टल शिपिंग एग्रीमेंट, बिम्सटेक मोटर व्हीकल एग्रीमेंट तथा कलादान मल्टी-मोडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट जैसी पहलों के माध्यम से क्षेत्रीय कनेक्टिविटी और एकीकरण को बढ़ावा देना। ये परियोजनाएँ भारत की पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ म्यांमार, थाईलैंड तथा उससे आगे तक पहुँच बढ़ा सकती हैं।
      • आतंकवाद-निरोध, अंतर्राष्ट्रीय अपराध, साइबर सुरक्षा, आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन तथा पीपल-टू-पीपल कॉन्टेक्ट्स जैसे क्षेत्रों में सहयोग को मज़बूत करना। ये मुद्दे सभी बिम्सटेक सदस्यों के लिये सामान्य चिंता एवं हित के हैं तथा इनके लिये सामूहिक कार्रवाई और समन्वय की आवश्यकता है।
      • बिम्सटेक देशों के साथ सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत संबंधों का लाभ उठाना, विशेष रूप से उन देशों के साथ जो समान बौद्ध विरासत साझा करते हैं। भारत बोधि पर्व उत्सव, बिम्सटेक टेली-मेडिसिन नेटवर्क और बिम्सटेक सांस्कृतिक उद्योग वेधशाला जैसी पहलों के माध्यम से अपनी सॉफ्ट पॉवर का प्रदर्शन कर सकता है तथा सांस्कृतिक कूटनीति को बढ़ावा दे सकता है।
    • बिम्सटेक में भारत की भागीदारी से संबंधित चुनौतियाँ:
      • सहमत प्रतिबद्धताओं और परियोजनाओं को लागू करने के लिये कुछ बिम्सटेक सदस्यों के बीच संस्थागत क्षमता तथा राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। घरेलू राजनीति, नौकरशाही बाधाओं, संसाधन बाधाओं एवं प्रतिस्पर्द्धी प्राथमिकताओं जैसे विभिन्न कारकों के कारण बिम्सटेक की प्रगति धीमी तथा असमान रही है।
      • भारत और अन्य बिम्सटेक सदस्यों के बीच आकार एवं शक्ति की विषमता, जो भारत के प्रभुत्व या आधिपत्य की धारणा उत्पन्न कर सकती है। भारत को अपने छोटे पड़ोसियों की संप्रभुता एवं हितों के प्रति संवेदनशीलता तथा सम्मान के साथ अपनी नेतृत्व भूमिका को संतुलित करने की आवश्यकता है।
      • SAARC, ASEAN, BBIN आदि जैसे अन्य क्षेत्रीय संगठनों की ओवरलैपिंग मेंबरशिप और जनादेश, जो भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं या जिसमें प्रयासों का दोहराव हो सकता है। भारत को विभिन्न क्षेत्रीय प्लेटफार्मों के साथ जुड़ने के लिये अपने दृष्टिकोण तथा रणनीति को स्पष्ट करने और उसके अनुसार अपनी नीतियों एवं पहलों में सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है।
      • बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI), स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स (SOP) आदि के माध्यम से बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में चीन की बढ़ती उपस्थिति और प्रभाव से उत्पन्न बाहरी चुनौतियाँ।
      • भारत को विश्वसनीय विकल्प तथा साझेदारी की पेशकश करके चीन की रणनीतिक घेराबंदी और अपने पड़ोसियों के आर्थिक प्रलोभन का मुकाबला करने की आवश्यकता है।

    निष्कर्ष 


    बिम्सटेक एक क्षेत्रीय मंच है जो बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में भारत के आर्थिक एवं रणनीतिक हितों को लाभ पहुँचाता है। भारत बिम्सटेक में एक प्रमुख स्थान रखता है तथा उसने इसकी वृद्धि एवं विकास का समर्थन किया है। हालाँकि भारत को बिम्सटेक के साथ अपने संबंध में कुछ चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है जैसे- धीमा कार्यान्वयन, शक्ति विषमता, रीजनल ओवरलैप और चीनी प्रतिस्पर्द्धा। भारत को बिम्सटेक में अपने नेतृत्त्व, विश्वास, समन्वय एवं साझेदारी को बढ़ाकर इन चुनौतियों का समाधान करने की आवश्यकता है।


    10.

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • अपने उत्तर की शुरुआत बाल श्रम की परिभाषा और भारत में इसकी व्यापकता से कीजिये।
    • बाल श्रम उन्मूलन में चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और इसे समाप्त करने के उपाय प्रस्तावित कीजिये।
    • दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ निष्कर्ष लिखिये।


    उत्तर:

    परिचय 

    • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, बाल श्रम को "ऐसे काम के रूप में परिभाषित किया गया है जो बच्चों (18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति) को उनके बचपन, उनकी क्षमता तथा उनकी गरिमा से वंचित करता है तथा जो शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये हानिकारक है"। यह उनकी स्कूली शिक्षा में भी बाधा डाल सकता है तथा उन्हें विभिन्न संकटों और जोखिमों में डाल सकता है। बाल श्रम एक वैश्विक समस्या है जो विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील देशों में लाखों बच्चों को प्रभावित करती है।
    • भारत ने 'किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000' को अधिनियमित करने के लिये शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009; पेंसिल पोर्टल, न्यूनतम आयु पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की अभिसमय संख्या 138 पर हस्ताक्षर तथा बाल श्रम के सबसे खराब रूपों से संबंधित अभिसमय संख्या 182 पर हस्ताक्षर जैसे कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इन सभी उपायों के बावजूद भारत में बाल श्रम अभी भी जारी है।
      • 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 10.1 मिलियन बाल मज़दूर थे। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, कोविड-19 महामारी के बाद बाल श्रम का खतरा कई गुना बढ़ गया है।

    मुख्य भाग 
    भारत में बाल श्रम उन्मूलन में चुनौतियाँ:

    • गरीबी: भारत में गरीबी बाल श्रम के मुख्य चालकों में से एक है क्योंकि कई परिवार अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपने बच्चों की आय पर निर्भर होते हैं। गरीबी कई बच्चों के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पोषण एवं स्वच्छता तक पहुँच को भी सीमित कर देती है जिससे वे शोषण तथा दुर्व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
    • शिक्षा: बाल श्रम पर अंकुश लगाने तथा उसे समाप्त करने में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण कारक है क्योंकि यह बच्चों को बेहतर भविष्य के लिये ज्ञान, कौशल एवं अवसरों के साथ सशक्त बनाती है। UNICEF के अनुसार, भारत में 42.7 मिलियन से अधिक बच्चे स्कूल से वंचित हैं।
      इसके अलावा, कोविड-19 महामारी ने शिक्षा प्रणाली को बाधित कर दिया तथा ऐसे कई बच्चों के लिये बाल श्रम का खतरा बढ़ गया है, जिनकी ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच समाप्त हो गई है या जिन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।
    • कानूनों का कमज़ोर कार्यान्वयन: भारत में कई कानून और नीतियाँ हैं जो बाल श्रम को प्रतिबंधित तथा विनियमित करते हैं, जैसे
      • बाल श्रम (निषेध और नियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 पारिवारिक उद्यमों या कलाकारों को छोड़कर, किसी भी व्यवसाय या प्रक्रिया में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोज़गार पर प्रतिबंध लगाता है;
      • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, पुनर्वास तथा पुन:एकीकरण का प्रावधान करता है।
      • हालाँकि विभिन्न हितधारकों के बीच जागरूकता, संसाधनों, समन्वय, निगरानी एवं जवाबदेही की कमी के कारण इन कानूनों का कार्यान्वयन और प्रवर्तन प्राय: कमज़ोर या अपर्याप्त होता है।
    • सामाजिक मानदंड और दृष्टिकोण: बाल श्रम के उन्मूलन में एक और बाधा सामाजिक मानदंड तथा दृष्टिकोण हैं जो इसको नज़रअंदाज़ करते हैं या उचित ठहराते हैं। इनमें से कुछ मानदंडों में लैंगिक रूढ़ियाँ शामिल हैं जो बालक तथा बालिकाओं को अलग-अलग भूमिकाएँ और अपेक्षाएँ प्रदान करती हैं, सांस्कृतिक प्रथाएँ जिनमें बच्चों को जोखिम भरी या हानिकारक गतिविधियों में शामिल किया जाता है तथा उपभोक्ता प्राथमिकताएँ जो शामिल मानवीय लागत को ध्यान में रखे बिना सस्ती वस्तुओं और सेवाओं की मांग करती हैं।
      • वयस्कों और किशोरों के लिये अच्छे काम के अवसरों का अभाव: उच्च बेरोज़गारी दर तथा कम वेतन के कारण, कई वयस्कों व युवाओं को सभ्य एवं सम्मानजनक काम प्राप्त नहीं हो पाता है। इससे वे अनौपचारिक तथा जोखिम भरे काम में लग जाते हैं या अपने बच्चों को श्रम में धकेल देते हैं।
    • आपात्कालीन परिस्थितियाँ: प्राकृतिक आपदाएँ, संघर्ष एवं महामारी समाज के सामान्य कामकाज को बाधित कर सकती हैं तथा बच्चों की भेद्यता को बढ़ा सकती हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता, घर या मूलभूत सेवाओं तक पहुँच खो सकते हैं। उन्हें जीवित रहने हेतु काम करने के लिये मज़बूर किया जा सकता है या तस्करों और अन्य अपराधियों द्वारा उनका शोषण किया जा सकता है।
      बाल श्रम उन्मूलन के उपाय:
    • कानूनी ढाँचे और उसके प्रवर्तन को मज़बूत करना: सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मानकों तथा सम्मेलनों के अनुरूप, बाल श्रम को प्रतिबंधित एवं विनियमित करने वाले कानूनों को बनाना तथा संशोधित करना चाहिये। यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि कानूनों को प्रभावी ढंग से कार्यान्वयित और लागू किया जाए।
      • बाल श्रम कानूनों का उल्लंघन करने पर दंड कठोर तथा सुसंगत होना चाहिये।
    • सामाजिक सुरक्षा एवं आर्थिक सहायता प्रदान करना: सरकार को गरीब एवं कमज़ोर परिवारों को व्यापक सामाजिक सुरक्षा तथा आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिये ताकि उन्हें प्रबंधन तंत्र के रूप में बाल श्रम का सहारा लेने से रोका जा सके।
      • इसमें नियमित नकद हस्तांतरण, सब्सिडी, पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, खाद्य सुरक्षा, ऋण तक पहुँच आदि शामिल हो सकते हैं।
    • सार्वभौमिक एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना: सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 तथा संविधान के अनुच्छेद 21A के अनुसार, 14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तक पहुँच प्राप्त हो।
      • इससे उन्हें पर्याप्त अवसंरचना, शिक्षक, पाठ्यक्रम, छात्रवृत्तियाँ, स्कूल छोड़ने वाले या स्कूल में दाखिला न लेने वाले बच्चों को निगरानी, ब्रिज एजुकेशन, व्यावसायिक प्रशिक्षण या वैकल्पिक सीखने के अवसर आदि प्रदान करके शिक्षा की गुणवत्ता, प्रासंगिकता, सुरक्षा एवं समावेशिता में सुधार करना चाहिये।
    • जागरूकता बढ़ाना और सक्रिय कार्रवाई: सरकार को बाल श्रम के हानिकारक प्रभावों तथा बाल अधिकारों के महत्त्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये नागरिक समाज संगठनों, मीडिया, निगमों तथा नागरिकों के साथ सहयोग करना चाहिये।
      • इसे मंच, अभियान, नेटवर्क, गठबंधन आदि बनाकर बाल श्रम के विरुद्ध पहल के लिये कार्रवाई और समर्थन भी जुटाना चाहिये।
      • जागरूकता बढ़ाने के लिये पंचायतों की भूमिका का भी पता लगाया जा सकता है।
      • आपात्कालीन स्थितियों और संकटों पर प्रतिक्रिया: सरकार को उन आपात्कालीन स्थितियों और संकटों के लिये तैयार रहना चाहिये तथा प्रतिक्रिया देनी चाहिये जो बाल श्रम के जोखिम को बढ़ा सकते हैं जैसे कि संघर्ष, आपदाएँ, महामारी या आर्थिक आघात।
      • प्रभावित बच्चों एवं परिवारों को भोजन, जल, आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल, मनोसामाजिक सहायता आदि जैसी मानवीय सहायता एवं सुरक्षा प्रदान करनी चाहिये। इसे शिक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा सेवाओं की निरंतरता भी सुनिश्चित करनी चाहिये।

    निष्कर्ष 


    इससे निपटने के महत्त्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद, भारत में बाल श्रम एक सतत् सामाजिक-आर्थिक मुद्दा बना हुआ है। श्रम के लिये बच्चों का शोषण न केवल उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है बल्कि गरीबी के चक्र को भी कायम रखता है तथा राष्ट्र के समग्र विकास में बाधा डालता है। इस जटिल समस्या के समाधान के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो इसके मूल कारणों के निपटान और उन्मूलन के लिये व्यापक उपाय प्रदान करे।

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