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  • 26 Jul 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय

    दिवस- 9: भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने और निवारण के लिये मौजूदा कानूनी और वैधानिक उपाय कितने प्रभावी हैं? परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर
    • कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा संबंधी चिंताओं और मुद्दों के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये ।
    • इस समस्या को संबोधित करने के लिये कानूनी और संस्थागत ढाँचे तथा मौजूदा कानूनी उपायों की अप्रभाविता के पीछे के कारणों पर चर्चा कीजिये।
    • यथोचित निष्कर्ष लिखिये।

    कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। महिलाओं का उत्पीड़न केवल न्याय एवं मानवीय गरिमा का अपमान नहीं है, बल्कि यह महिलाओं और देश को आर्थिक नुकसान भी पहुँचाता है। कार्यस्थल पर उत्पीड़न में हिंसा के अन्य रूपों की तरह गंभीर स्वास्थ्य, मानवीय, आर्थिक तथा सामाजिक लागत शामिल है। यह किसी राष्ट्र के समग्र विकास सूचकांकों को प्रभावित करता है।

    भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा संबंधी मुद्दे

    • ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार, कई महिलाएँ विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट करने पर सामाजिक कलंक, प्रतिशोध का डर और न्याय में संस्थागत बाधाओं का सामना करती हैं।
    • यौन उत्पीड़न के अलावा महिलाओं को भारत में काम करने में अन्य चुनौतियों और बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है, जैसे- असमान वेतन, सामाजिक सुरक्षा की कमी, बाल देखभाल सुविधाओं की कमी, सुरक्षित परिवहन की कमी, कौशल विकास के अवसरों की कमी और जाति, धर्म के आधार पर भेदभाव एवं वैवाहिक स्थिति आदि।
    • FICCI की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीन दशकों से कार्यस्थल में बहुत अधिक विविधता देखने को मिल रही है।
    • भारत में महिलाओं को अपने जीवन के सभी चरणों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है: जन्म से पहले (शिशु हत्या), शिशु के रूप में (कुपोषण, हत्या), बचपन में (शिक्षा, घरेलू काम, बलात्कार, बाल विवाह), विवाह के बाद (दहेज, आर्थिक निर्भरता, सुरक्षा) और एक विधवा (बहिष्कृत, विरासत) के रूप में।
      • जबकि वर्ष 2016 में देश में सज़ा की कुल दर 46.2% थी, सरकारी आँकड़ों के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में यह लगभग 20% थी।

    सरकारी पहल: कानूनी और संस्थागत ढाँचा

    • सुरक्षित कार्यस्थल एक महिला का कानूनी अधिकार है। समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सिद्धांत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 में निहित है।
    • कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1997 में जारी विशाखा दिशा-निर्देशों पर बनाया गया है। अधिनियम यह सुनिश्चित करने के लिये बनाया गया था कि विशेष रूप से महिलाओं को सभी कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न से बचाया जाए, चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी।
    • कानून द्वारा यह अनिवार्य किया गया है कि 10 से अधिक कर्मचारियों वाली प्रत्येक कंपनी के पास यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक नीति, एक बाहरी सदस्य के साथ प्रशिक्षित आंतरिक शिकायत समिति और यौन उत्पीड़न क्या है तथा संगठन के भीतर मदद कैसे लेनी है, इस पर कर्मचारियों को अनिवार्य प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
    • राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के लिये संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा उपायों की समीक्षा तथा उपचारात्मक विधायी उपायों की सिफारिश करने के लिये वैधानिक निकाय है। इसे कई शिकायतें प्राप्त होती हैं और त्वरित न्याय प्रदान करने के लिये कई मामलों में स्वत: संज्ञान लिया जाता है।

    कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने और निवारण में मौजूदा कानूनी उपायों की अप्रभाविता के पीछे निम्नलिखित कारण हैं:

    • जागरूकता की कमी: कई महिला श्रमिक, विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में, अपने अधिकारों और अधिनियम के तहत उनके लिये उपलब्ध कानूनी उपायों के बारे में नहीं जानती हैं। उनके पास शिकायत दर्ज करने या ICC या LCC तक पहुँचने के लिये ज्ञान एवं कौशल की कमी भी हो सकती है। इसी प्रकार कई नियोक्ता अधिनियम के तहत अपने दायित्वों तथा ज़िम्मेदारियों से अवगत नहीं हैं। FICCI की रिपोर्ट के अनुसार, 36% भारतीय कंपनियाँ और 25% बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इस अधिनियम का अनुपालन नहीं करती हैं।
    • अपर्याप्त संसाधन: अधिनियम के कार्यान्वयन के लिये पर्याप्त मानव, वित्तीय और ढाँचागत संसाधनों की आवश्यकता है। हालाँकि कई ICC या LCC के पास पूछताछ करने या शिकायतकर्ताओं को राहत प्रदान करने के लिये पर्याप्त सदस्य, धन या सुविधाएँ नहीं हो सकती हैं।
    • पितृसत्तात्मक मानसिकता: भारत में प्रचलित सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड अक्सर उन महिला श्रमिकों के लिये प्रतिकूल वातावरण बनाते हैं जिन्हें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्हें अपने परिवार, सहकर्मियों या नियोक्ताओं की ओर से चुप रहने या अपनी शिकायतें वापस लेने के लिये दोष, शर्म या दबाव का सामना करना पड़ सकता है।
    • समय लेने वाली प्रक्रिया: समाधान प्रक्रिया लंबी हो सकती है, जिससे पीड़ितों को न्याय मिलने में देरी हो सकती है। अधिनियम 90 दिनों के भीतर जाँच पूरी करने का आदेश देता है; हालाँकि व्यावहारिक तौर पर जाँच में अक्सर अधिक समय लग सकता है, जिससे निराशा के साथ ही प्रक्रिया के प्रति विश्वास में कमी देखी जा सकती है।

    हालाँकि अधिनियम भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम और निवारण के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है, लेकिन इसके प्रभावी कार्यान्वयन एवं प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिये सभी हितधारकों के बीच अधिक जागरूकता, संवेदनशीलता, क्षमता निर्माण तथा जवाबदेही की आवश्यकता है।

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