दिवस-7. संविधान की ‘मूल ढाँचा’ की अवधारणा पर चर्चा कीजिये। हाल के उदाहरणों को बताते हुए भारत की संवैधानिक प्रणाली के संदर्भ में इसके महत्त्व और प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)
24 Jul 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
हल करने का दृष्टिकोण:
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परिचय:
‘मूल ढाँचा’ सिद्धांत एक न्यायिक सिद्धांत है जिससे स्पष्ट होता है कि भारत के संविधान में कुछ ऐसी आधारभूत विशेषताएँ हैं जिन्हें संसद द्वारा संविधान संशोधनों के माध्यम से बदला या नष्ट नहीं किया जा सकता है। यह सिद्धांत भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक फैसले में विकसित हुआ था।
मुख्य भाग:
इस सिद्धांत का महत्त्व यह है कि यह संविधान के आधारभूत मूल्यों एवं सिद्धांतों को विधायिका के हस्तक्षेप से बचाता है। यह न्यायपालिका को संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करने वाले किसी भी संशोधन की समीक्षा करने और उसे रद्द करने का अधिकार प्रदान करता है। इस प्रकार यह सिद्धांत संसद की संशोधन शक्ति पर नियंत्रण और संतुलन के रूप में कार्य करता है और भारत के संवैधानिक मूल्यों एवं अखंडता को संरक्षित करता है।
हाल के वर्षों में विधायी कार्यों को चुनौती देने के लिये विभिन्न मामलों में ‘मूल ढाँचा’ के इस सिद्धांत को लागू किया गया है। उदाहरण के लिये वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन से संबंधित था क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप था जो कि मूल ढाँचे का एक हिस्सा है। इस निर्णय ने भारत की अखंडता और संवैधानिक ढाँचे को संरक्षित करने के क्रम में ‘मूल ढाँचा’ के इस सिद्धांत के महत्त्व को प्रदर्शित किया।
इसके अलावा वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में संबंधित अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन इसमें कुछ प्रतिबंधों के साथ संशोधन किये गए। इसमें न्यायालय ने माना कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अभिन्न अंग है और मूल ढाँचे का एक हिस्सा है। इस निर्णय ने व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा में मूल ढाँचे के सिद्धांत के महत्त्व की पुष्टि की।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों की सुरक्षा में ‘मूल ढाँचा’ का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका महत्त्व मनमाने संशोधनों को रोकने और संवैधानिक ढाँचे के मूल्यों को संरक्षित करने में निहित है। हाल के उदाहरण के रूप में NJAC से जुड़ा मामला, भारत की संवैधानिक अखंडता को बनाए रखने में इस सिद्धांत के प्रभाव को प्रदर्शित करता है।