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  • 01 Sep 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था

    दिवस-41. मृदा की उपयुक्तता बढ़ाने और जलवायु-स्मार्ट कृषि में योगदान देने के क्रम में फसल चक्र तथा एकीकृत कीट प्रबंधन जैसे कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोणों की क्षमता का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोणों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि यह किस प्रकार मृदा की उपयुक्तता को बढ़ाता है तथा जलवायु स्मार्ट कृषि में योगदान देता है?
    • भारत में कृषि पारिस्थितिकी दृष्टिकोण को बढ़ाने के कुछ उपायों पर चर्चा कीजिये।
    • तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।

    कृषि पारिस्थितिकी दृष्टिकोण ऐसी कृषि प्रथाओं को संदर्भित करते हैं जो पारिस्थितिकी सिद्धांतों पर आधारित होते हैं तथा सतत एवं लचीली कृषि प्रणाली की स्थापना का लक्ष्य रखते हैं। ये दृष्टिकोण पौधों, जानवरों, मनुष्यों और उनके पर्यावरण के बीच समन्वय पर ध्यान केंद्रित करते हुए कृषि प्रणालियों में पारिस्थितिकी अवधारणाओं तथा प्रथाओं के एकीकरण पर ज़ोर देते हैं।

    कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं के उदाहरणों में अंतरफसल, कृषि वानिकी, फसल चक्रण, एकीकृत कीट प्रबंधन, जैविक खाद निर्माण तथा प्राकृतिक आवास संरक्षण शामिल हैं।

    कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं के लाभ:

    • मृदा की उर्वरता तथा जल प्रतिधारण क्षमता में वृद्धि: भारत के वर्षा आधारित क्षेत्रों में मिश्रित फसल और अंतरफसल जैसी पारंपरिक कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं से पौधों की विविधता में वृद्धि होती है, जिससे मृदा की संरचना तथा पोषक चक्र में सुधार होता है।
      • राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के अध्ययन के अनुसार आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के वर्षा आधारित क्षेत्रों में फलियों के साथ बाजरा की कृषि करने से मृदा की उर्वरता एवं जल प्रतिधारण क्षमता में वृद्धि हुई है।
    • एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन: कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं के तहत जैविक खाद, फसल अवशेषों और आवरण फसलों के उपयोग को बढ़ावा मिलने के साथ, सिंथेटिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी आती है।
      • पंजाब में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के शोध से पता चला है कि फसल अवशेषों को शामिल करने और जैविक खाद के उपयोग से मृदा में कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्त्वों की उपलब्धता एवं जल धारण क्षमता में सुधार हुआ है।
    • फसल चक्रण और विविधता: फसल चक्रण तथा मिश्रित फसल के प्रयोग से मृदा की जैव विविधता में सुधार होने के साथ कीट और बीमारी का दबाव कम होता है, साथ ही पोषक तत्त्वों के कुशल उपयोग को भी बढ़ावा मिलता है।
    • एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM): ट्रैप क्रॉपिंग और जैविक नियंत्रण जैसी IPM तकनीकों को लागू करने से रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता कम हो जाती है, मृदा का संरक्षण होता है एवं पर्यावरण प्रदूषण कम होता है।
      • आंध्र प्रदेश में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (CSA) द्वारा किये गए अध्ययनों से पता चला है कि IPM प्रथाओं से कीटनाशकों के उपयोग में कमी आने के साथ मृदा का स्वास्थ्य बेहतर होता है।
    • कार्बनिक पदार्थ संवर्द्धन: खाद और मल्चिंग जैसी प्रथाओं से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ने के साथ इसकी संरचना, जल प्रतिधारण एवं पोषक तत्त्व धारण क्षमता में सुधार होता है।
      • भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि जैविक खेती के तरीकों से पारंपरिक तरीकों की तुलना में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 20-30% की कमी आ सकती है।
    • जलवायु अनुकूलन और शमन: कृषि पारिस्थितिकी प्रणालियाँ फसल विविधीकरण तथा विभिन्न प्रकार के चयन को बढ़ावा देती हैं, जिससे सूखे और बाढ़ जैसे जलवायु प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता कम हो जाती है।
      • उदाहरण: भारत के महाराष्ट्र में किसान बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप जल की अधिक खपत करने वाली फसलों से बाजरा जैसी सूखा प्रतिरोधी फसलों की ओर स्थानांतरित हो रहे हैं।
    • उन्नत कार्बन पृथक्करण: कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं से मृदा के कार्बन संग्रहण को बढ़ावा मिलता है जिससे जलवायु परिवर्तन के शमन में सहायता मिलती है।
      • उदाहरण: भारत के तमिलनाडु में कृषि वानिकी प्रणाली में फसलों के साथ वृक्षारोपण को एकीकृत किया गया है जिससे आर्थिक लाभ के साथ कार्बन पृथक्करण में सहायता मिलती है।

    भारत में कृषि पारिस्थितिकी दृष्टिकोण बढ़ाने के उपाय:

    • नीति समर्थन: कृषि पारिस्थितिकी को राष्ट्रीय और राज्य कृषि नीतियों में एकीकृत करने एवं टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने हेतु प्रोत्साहन प्रदान करने के साथ इस संदर्भ में सब्सिडी प्रदान करना।
      • उदाहरण: भारत में सिक्किम राज्य 100% जैविक खेती में परिवर्तित हो गया है, जो जैविक प्रथाओं को प्रोत्साहित करने और सिंथेटिक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने वाले नीतिगत उपायों द्वारा समर्थित है।
    • अनुसंधान और नवाचार: विशिष्ट कृषि-पारिस्थितिकी प्रथाओं और लचीली फसल किस्मों को विकसित करने के लिये अनुसंधान में निवेश करना आवश्यक है।
      • उदाहरण: भारत में "फसल गहनता प्रणाली" (SCI) विकसित की गई थी, जो पौधों के बीच अंतर और मृदा प्रबंधन में सुधार के माध्यम से जल एवं अन्य इनपुट उपयोग को कम करते हुए चावल की पैदावार बढ़ाने पर केंद्रित है।
    • स्वदेशी ज्ञान को बढ़ावा देना: पारंपरिक कृषि पद्धतियों को पहचानना और इन्हें आधुनिक कृषि पारिस्थितिकी प्रणालियों में एकीकृत करना।
      • भारत के उत्तराखंड में "बीज बचाओ आंदोलन" जैव विविधता तथा खाद्य संप्रभुता को बढ़ावा देने के लिये पारंपरिक बीजों और कृषि पद्धतियों को पुनर्जीवित करने पर केंद्रित है।
    • बाज़ार संपर्क: कृषि संबंधी उपज के लिये बाज़ार संबंध विकसित करना, किसानों के लिये उचित मूल्य सुनिश्चित करना तथा टिकाऊ प्रथाओं को प्रोत्साहित करना।
      • कर्नाटक में सहज समृद्धि जैसे किसान उत्पादक संगठन (FPOs) जैविक कृषि वाले किसानों को बाज़ारों से जोड़ने के साथ बेहतर रिटर्न सुनिश्चित करते हैं।
    • प्रयोगशालाएँ और पायलट परियोजनाएँ: इसका विस्तार करने से पहले छोटे पैमाने पर कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोणों का परीक्षण और मूल्यांकन करने के लिये प्रयोगशालाएँ स्थापित करना।
      • उदाहरण: आंध्र प्रदेश में "रयथु साधिकारा संस्था" (RySS) कृषि पारिस्थितिकी प्रथाओं सहित विभिन्न कृषि नवाचारों को लागू करने और उनका आकलन करने के लिये प्रयोगशालाएं स्थापित करने पर केंद्रित है।

    इन उपायों को अपनाकर भारत, किसानों के लिये स्थायी आजीविका को बढ़ावा देने और पर्यावरणीय अनुकूलन सुनिश्चित करते हुए मृदा क्षरण, जलवायु परिवर्तन एवं खाद्य सुरक्षा जैसी चुनौतियों का समाधान करने के लिये कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण की क्षमता का उपयोग कर सकता है।

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