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दिवस-3: वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के प्रमुख हिम भंडारों के नष्ट होने से पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (250 शब्द)

19 Jul 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भूगोल

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले पृथ्वी के प्रमुख हिम भंडारों के नुकसान और पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके संभावित प्रभावों पर संक्षेप में चर्चा कीजिये।
  • प्रमुख हिम भंडारों के नष्ट होने से पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को उपयुक्त उदाहरणों के साथ समझाइये।
  • उचित निष्कर्ष दीजिये।

पृथ्वी पर हिम की हानि का तात्पर्य बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों, बर्फ की चादरों, समुद्री बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट पिघलने के कारण इनके क्षेत्र में आने वाली कमी से है।

हिमावरण की हानि, वैश्विक जलवायु परिवर्तन के सबसे दृश्यमान और खतरनाक संकेतकों में से एक है, क्योंकि इसका पृथ्वी के अल्बेडो, ऊर्जा संतुलन, जल चक्र, समुद्र के जल स्तर और जैव विविधता पर प्रभाव पड़ता है।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली हिमावरण की हानि से पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के समक्ष महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसीलिये इस ओर वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का ध्यान आकर्षित हुआ है।

प्रमुख हिम भंडारों के नष्ट होने के प्रभाव:

  • समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होना: हिम भंडारों के नष्ट होने का सबसे तात्कालिक और प्रमुख परिणाम वैश्विक स्तर पर समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होना है। ग्लेशियर और बर्फ की टोपियों के पिघलने से महासागरों में जल की मात्रा में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप तटीय क्षेत्रों में बाढ़ आती है और निचले इलाके जलमग्न हो जाते हैं। इसका घनी आबादी वाले क्षेत्रों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, जिससे समुदायों का विस्थापन होने के साथ निवास योग्य भूमि का नुकसान होता है और क्षेत्र विशेष की तूफान एवं तटीय कटाव जैसी चरम मौसमी घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है। IPCC के अनुसार, वर्ष 1900 के बाद से वैश्विक औसत समुद्र जल स्तर लगभग 7-8 इंच बढ़ गया है और इसमें और भी वृद्धि हो रही है।
  • समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित होना: हिम भंडारों के नष्ट होने से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। समुद्री बर्फ के आवरण में कमी से ध्रुवीय भालू, पेंगुइन, सील और वालरस सहित कई प्रजातियों के प्रजनन चक्र और आवास में बाधा उत्पन्न होती है।
    • आईपीसीसी की रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि विश्व में वर्ष 2050 तक पहले ‘समुद्री बर्फ मुक्त ग्रीष्मकाल’ का अनुभव किया जा सकता है।
    • ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय भालू 25 वर्षों में विलुप्त हो सकते हैं।
  • महासागरीय परिसंचरण और जलवायु प्रतिरूप में परिवर्तन होना: हिम भंडारों के पिघलने से महासागरीय परिसंचरण और जलवायु प्रतिरूप में परिवर्तन हो सकता है जैसे उत्तरी अटलांटिक धारा और थर्मोहेलिन परिसंचरण में परिवर्तन (जो वैश्विक जलवायु स्थिरता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं)। इन परिसंचरणों में व्यवधान के कारण मौसम में परिवर्तन हो सकता है। उदाहरण के लिये हिम भंडारों के पिघलने के कारण अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन (AMOC) के धीमा होने से भारतीय मानसून और अन्य मौसम प्रणालियों पर प्रभाव पड़ सकता है जिससे कृषि, जल संसाधनों के साथ समग्र जलवायु पूर्वानुमान पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • मीठे जल के भंडार में कमी आना: बर्फ के भंडार पृथ्वी के मीठे जल के संसाधनों का महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इन भंडारों में कमी आने से मानव उपभोग एवं कृषि हेतु मीठे जल की उपलब्धता में कमी आती है। हिमनदों के पिघलने से हिमालयी क्षेत्र में बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ सकती है।
  • जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलना: प्रमुख हिम भंडारों के पिघलने से जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है। जैसे-जैसे बर्फ का आवरण कम होता जाता है वैसे-वैसे अल्बेडो प्रभाव कम होता जाता है, जिससे भूमि या समुद्र की सतह द्वारा सौर विकिरण का अवशोषण बढ़ जाता है। इससे वार्मिंग में वृद्धि होने के साथ बर्फ के पिघलने की दर तेज़ होती है।
    • सूर्य के प्रकाश के बढ़ते अवशोषण के कारण ग्रीनलैंड की बर्फ के आवरण का तीव्र गति से पिघलना इसका उदाहरण है।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण प्रमुख हिम भंडारों के नष्ट होने से पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान,समुद्री परिसंचरण में परिवर्तन, मीठे जल के भंडार में कमी और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलना आदि इसके कुछ महत्त्वपूर्ण प्रभाव हैं। इससे मानव समाज, जैव विविधता और वैश्विक स्थिरता के लिये गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। इन मुद्दों को हल करने के लिये जलवायु परिवर्तन का समाधान करने के साथ पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने वाले नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा हेतु ठोस प्रयासों, नीतिगत हस्तक्षेप और टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने की आवश्यकता है।