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  • 18 Aug 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस-29. भारतीय न्यायपालिका द्वारा कुछ संवैधानिक संशोधनों को रद्द करने के लिये संविधान के ‘मूल ढाँचा सिद्धांत’ का उपयोग किस प्रकार किया जाता है? उन संविधान संशोधनों के उदाहरण दीजिये जिन्हें न्यायपालिका द्वारा चुनौती दी गई थी तथा न्यायपालिका के इन निर्णयों के पीछे के तर्क को भी बताइये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • मूल ढाँचा सिद्धांत का परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि वे कौन से संवैधानिक संशोधन हैं जिन्हें न्यायपालिका द्वारा रद्द कर दिया गया।
    • इस संबंध में न्यायालय के निर्णयों के पीछे के तर्क पर चर्चा कीजिये।
    • तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।

    मूल ढाँचा सिद्धांत, भारतीय न्यायपालिका द्वारा स्थापित एक कानूनी सिद्धांत है। यह सिद्धांत पहली बार केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले में प्रस्तुत किया गया था, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है लेकिन वह संविधान के "मूल ढाँचा" को नहीं बदल सकती है।

    उदाहरण के लिये संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन, न्यायिक समीक्षा, मौलिक अधिकार, पंथनिरपेक्षता आदि।

    न्यायपालिका द्वारा चुनौती दिये जाने वाले संशोधन तथा न्यायालय के तर्क:

    • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
      • यह मामला मूल ढाँचा सिद्धांत की नींव है। इसमें 24वें संविधान संशोधन अधिनियम को चुनौती दी गई थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले को रद्द किया गया था जिसमें कहा गया था कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है।
        • इसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संविधान की कुछ आवश्यक विशेषताएँ हैं जो संसद की संशोधन शक्ति से परे हैं।
        • न्यायालय ने इन विशेषताओं की विस्तृत सूची प्रदान नहीं की लेकिन संकेत दिया कि इनमें लोकतांत्रिक सिद्धांत, संघवाद, शक्तियों का पृथक्करण और विधि का शासन शामिल हैं।
    • इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975):
      • इस मामले में 39वें संशोधन को चुनौती दी गई थी, जो प्रधानमंत्री के चुनाव को वैध बनाने से संबंधित था, भले ही वह चुनावी कदाचार का दोषी पाया गया हो।
        • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हालाँकि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन वह इसके मूल ढाँचा को नहीं बदल सकती है।
        • लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इस संशोधन को रद्द कर दिया गया था।
    • मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980):
      • इसमें 42वें संशोधन को चुनौती दी गई थी, जिसमें संसद को मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति दी गई थी।
        • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद के पास संशोधन की व्यापक शक्तियाँ हैं लेकिन फिर भी वह संविधान की मूल संरचना को नष्ट या क्षतिग्रस्त नहीं कर सकती है।
        • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान व्यक्तियों के अधिकारों और समुदाय की ज़रूरतों के बीच संतुलन स्थापित करता है।
    • वामन राव बनाम भारत संघ (1981):
      • इसमें पहले संशोधन को चुनौती दी गई थी, जिसके द्वारा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने वाले कानूनों को न्यायिक जाँच से बचाने के लिये 31C शामिल किया गया था।
        • सुप्रीम कोर्ट ने माना हालाँकि अनुच्छेद 31C वैध है, लेकिन इसका इस्तेमाल किसी भी कानून को मूल ढाँचा सिद्धांत से अलग करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
        • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निदेशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों पर हावी नहीं हो सकते हैं।
    • किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (1992):
      • 52वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी प्रावधान) को शामिल किया गया था।
        • न्यायालय ने इस संशोधन को बरकरार रखते हुए कहा कि यह मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि इसका उद्देश्य राजनीतिक दल-बदल पर अंकुश लगाना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत करना है।
    • एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ (1997):
      • इसमें 42वें संविधान संशोधन को फिर से चुनौती दी गई, जिसके द्वारा प्रशासनिक अधिकरणों की स्थापना तथा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को सीमित करने के लिये अनुच्छेद 323A और 323B को शामिल किया।
        • इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि न्यायिक समीक्षा मूल ढाँचे का एक अभिन्न अंग है और इस शक्ति को बदलने या निरस्त करने वाले संशोधन असंवैधानिक हैं। हालाँकि न्यायालय ने प्रशासनिक अधिकरणों की वैधता को भी बरकरार रखा।
    • आई. आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007):
      • इसमें नौवीं अनुसूची के तहत किये गए कुछ भूमि सुधार कानूनों पर सवाल उठाए गए थे।
        • न्यायालय ने फैसला सुनाया कि बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करने वाले कानून, भले ही नौवीं अनुसूची में हों, न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकते हैं।
    • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2017):
      • आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ तथा सेवाओं का लक्षित वितरण) अधिनियम, 2016 के खिलाफ चुनौती से गोपनीयता के उल्लंघन के बारे में विमर्श को बढ़ावा मिला था।
        • न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार तथा बुनियादी ढाँचे का हिस्सा माना।
        • हालांकि यह सीधे तौर पर संशोधन का मामला नहीं है, लेकिन इस निर्णय ने आधुनिक कानूनी व्याख्याओं में बुनियादी ढाँचा सिद्धांत के महत्त्व की पुष्टि की।

    उपर्युक्त मामले दर्शाते हैं कि कैसे भारतीय न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिये बुनियादी संरचना सिद्धांत का उपयोग किया कि संविधान संशोधन से संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लंघन न हो। यह सिद्धांत मनमाने परिवर्तनों के खिलाफ एक ढाल के रूप में कार्य करता है जो भारत के संवैधानिक ढांचे की मौलिक प्रकृति को नष्ट कर सकता है।

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