10 Aug 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | सामाजिक न्याय
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- विवाह के लिये न्यूनतम आयु निर्धारित करने वाले वर्तमान कानूनों का अवलोकन देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- लड़कियों की विवाह योग्य आयु में वृद्धि के लाभों की विवेचना कीजिये।
- लड़कियों की विवाह योग्य आयु में वृद्धि के नुकसान/मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- आगे की राह का सुझाव देते हुए अपना उत्तर समाप्त कीजिये।
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उत्तर:
वर्तमान कानून: हिंदुओं के लिये, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 विवाह हेतु लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़के की न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित करता है। इस्लाम में यौवन (Puberty) प्राप्त कर चुके नाबालिग के विवाह को वैध माना जाता है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिये क्रमश: 18 और 21 वर्ष की आयु को विवाह हेतु न्यूनतम आयु के रूप में निर्धारित करता है।
लिंग अंतराल को कम करने हेतु भारत के प्रयास: भारत ने वर्ष 1993 में ‘महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन’ (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women- CEDAW) की पुष्टि की थी।
विवाह योग्य कानूनी आयु बढ़ाने के पक्ष में तर्क
- बुनियादी अधिकारों का संरक्षण: अल्पायु विवाह और बाल विवाह के विरुद्ध महिलाओं की सुरक्षा वस्तुतः उनके बुनियादी अधिकारों की सुरक्षा है और यह महत्त्वपूर्ण कदम देश की आधी आबादी के लिये व्यापक अधिकार-आधारित ढाँचा प्रदान करने हेतु संबंधित विधायी ढाँचे में परिवर्तन को बल देगा।
- लिंग समानता लाना: विशेष विवाह अधिनियम की धारा 2(a) महिलाओं के लिये 18 वर्ष जबकि पुरुषों के लिये 21 वर्ष की विवाह योग्य कानूनी आयु घोषित करती है, लेकिन यह भेद रखने का कोई उचित तर्क मौजूद नहीं है।
- जब पुरुषों और महिलाओं के लिये मतदान करने की आयु समान हो सकती है, उनके लिये सहमति, स्वेच्छा और वैध रूप से किसी अनुबंध में प्रवेश करने की आयु भी समान है, तो फिर विवाह के लिये समान आयु क्यों नहीं निर्धारित की जा सकती।
- समान कानूनों से समानता की उत्पत्ति: समान कानूनों से समानता की उत्पत्ति होती है और सामाजिक परिवर्तन कानूनों के पूर्ववर्ती और उनके परिणाम दोनों ही होते हैं।
- प्रगतिशील समाजों में कानून में परिवर्तन सामाजिक धारणाओं में परिवर्तन लाने की भी वृहत संभावना रखता है।
- महिला सशक्तीकरण को सबल करना: महिलाओं के विकास के कई संकेतक होते हैं जिनमें उच्च शिक्षा में छात्राओं के नामांकन में वृद्धि एक प्रमुख संकेतक है।
- इसके अलावा, उज्ज्वला, मुद्रा योजना और प्रधानमंत्री जन-धन योजना जैसी योजनाओं ने महिलाओं को सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों के सबसे बड़े वर्ग के रूप में प्रकट किया है।
- विवाह योग्य आयु में समानता के प्रवेश से महिला सशक्तीकरण को और बढ़ावा मिलेगा।
विवाह योग्य कानूनी आयु बढ़ाने के विपक्ष में तर्क
- आर्थिक रूप से आश्रित महिलाओं को लाभ की संभावना नहीं: विवाह योग्य कानूनी आयु में वृद्धि का उद्देश्य भावना के स्तर पर तो अच्छा दिखता है, लेकिन सामाजिक जागरूकता में वृद्धि और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच में सुधार किये बिना यह महिलाओं को अधिक लाभ नहीं दे सकेगा। वस्तुस्थिति यह है कि युवा महिलाएँ अभी तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र एवं सबल नहीं हो सकी हैं और पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव में रहते हुए अपने अधिकारों एवं स्वतंत्रता का उपभोग करने में असमर्थ हैं।
- कड़े कानूनों के बावजूद बाल विवाह का उच्च प्रचलन: 18 वर्ष से कम आयु के विवाह पर निषेध रखने वाला कानून किसी-न-किसी रूप में 1900 के दशक से ही प्रवर्तित रहा है, फिर भी वर्ष 2005 तक बाल विवाह पर लगभग कोई रोक नहीं लगी थी और 20-24 आयु वर्ग की महिलाओं में से लगभग आधी महिलाओं का विवाह न्यूनतम कानूनी आयु से पहले हो गया था।
- अल्पायु विवाह का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं: भले ही प्रत्येक पाँच में से एक विवाह 18 वर्ष की आयु से पहले संपन्न हुआ हो, लेकिन देश के आपराधिक रिकॉर्ड में अधिनियम के उल्लंघन का कोई उल्लेख शायद ही प्रकट हुआ हो।
- बाल विवाह के उन्मूलन का कोई आश्वासन नहीं: प्रभावित होने वाली विवाह योग्य आयु की महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है, जिनमें से 60% से अधिक का 21 वर्ष से पहले विवाह हो जाता है।
- 18 वर्ष की आयु से पहले महिलाओं के विवाह का उन्मूलन कर सकने की असमर्थता इस बात का कोई आश्वासन नहीं देती कि इस आयु को बढ़ाकर 21 किये जाने से अल्पायु विवाह का उन्मूलन हो सकेगा।
- माता-पिता द्वारा कानूनों का दुरुपयोग: महिला अधिकार कार्यकर्त्ताओं के अनुसार माता-पिता प्रायः इस अधिनियम का दुरूपयोग अपनी इच्छा से विवाह करने वाली या बलात विवाह, घरेलू हिंसा और शिक्षा सुविधाओं के अभाव से बचने के लिये भाग जाने वाली अपनी बेटियों को दंडित करने के लिये करते हैं।
- इस प्रकार, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में अधिक संभावना यह है कि आयु सीमा में परिवर्तन से युवा वयस्कों पर माता-पिता की अधिकारिता में और वृद्धि ही होगी।
आगे की राह:
वस्तुनिष्ठ समानता सुनिश्चित करना: जैविक, सामाजिक या डेटा एवं शोध-आधारित—कोई भी तर्क वैध विवाह में प्रवेश करने हेतु पुरुषों और महिलाओं के बीच आयु में असमानता को उचित नहीं ठहरा सकता है।
भारत ने वर्ष 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के साथ निर्णय लिया था कि आयु एक वैध विवाह की बुनियादी आवश्यकताओं में से एक होनी चाहिये। इस संबंध में समानता का नहीं होना एकमात्र दोष था जिसे अब बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA), 2006 में संशोधन के माध्यम से दूर किया जा रहा है।
वंचित महिलाओं का सशक्तीकरण: वंचित महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये उनके प्रजनन अधिकारों का सम्मान किया जाना और अल्पायु विवाह की शिकार महिलाओं की बुनियादी संरचनात्मक वंचनाओं को दूर करने हेतु अधिकाधिक निवेश सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है।
महिलाओं में जागरूकता बढ़ाना: घोषित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक अच्छा (किंतु कठिन) तरीका यह होगा कि बालिकाओं को अल्पायु गर्भधारण के खतरों के प्रति जागरूक बनाया जाए और उन्हें अपने स्वास्थ्य में सुधार हेतु तंत्र प्रदान किया जाए।