दिवस 3: भारत दलहन का एक प्रमुख उत्पादक, उपभोक्ता है, लेकिन अभी तक दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं हो सका है। दलहन उत्पादन के विभिन्न लाभों का उल्लेख कीजिये और दलहन उत्पादन बढ़ाने में भारत के समक्ष उपलब्ध विभिन्न चुनौतियों के बारे में बताइये। (250 शब्द)
13 Jul 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भूगोल
हल करने का दृष्टिकोण:
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पिछले कुछ वर्षों में भारत में दालों के उत्पादन काफी वृद्धि हुई है, दालों के आयात पर निर्भरता कम हुई है और देश में प्रति वर्ष 15,000 करोड़ रुपये से अधिक की बचत हो रही है। 6 वर्षों में ही दालों का एमएसपी 40 फीसदी से बढ़कर 73 फीसदी हो गया है जिससे निश्चित तौर पर किसानों को फायदा हो रहा है।
कृषि वैज्ञानिक देश को दालों की कई किस्में उपलब्ध करा रहे हैं, जिससे उत्पादन और उत्पादकता दोनों को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
किसानों और वैज्ञानिकों द्वारा किये गए प्रयासों के साथ-साथ सरकार की पहल के कारण उत्पादन पिछले छह वर्षों में 140 लाख टन से बढ़कर 240 लाख टन हो गया है। वर्ष 2050 तक दालों की मांग 320 लाख टन तक पहुँचने का अनुमान है।
दालों का घरेलू उत्पादन 2016-17 और 2017-18 में चरम पर पहुँच गया जब 5 प्रमुख दालों का कुल उत्पादन क्रमशः 204.7 लाख टन (एलटी) और 228 एलटी था। भारत वर्तमान में दुनिया के दाल उत्पादन का 25 प्रतिशत उत्पादन करता है। दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी 559 ग्राम/दिन तक पहुँच गई, जबकि आईसीएमआर ने 52 ग्राम/दिन दाल की आवश्यकता की सिफारिश की थी।
एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक करीब 320 लाख टन दाल की ज़रूरत होगी।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को संशोधित रूप में लागू किया गया है ताकि किसानों को सुरक्षा कवर मिल सके और वे जोखिम से मुक्त हो सकें। 4 साल में किसानों ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में प्रीमियम के रूप में 17,000 करोड़ रुपये का भुगतान पाया, जबकि इससे 5 गुना से अधिक यानी 90,000 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान क्लेम राशि के रूप में किसानों को किया गया।
दलहन उत्पादन के लाभ:
भारत में दलहन उत्पादन से जुड़ी प्रमुख समस्याएँ :
दलहन उत्पादन से संबंधित समस्याओं हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:
दलहनों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये, उत्पादकता को 1,000 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक बढ़ाने की आवश्यकता है और फसल के बाद के नुकसान को कम करने के अलावा लगभग 3-4 मिलियन हेक्टेयर के अतिरिक्त क्षेत्र को दलहन के तहत लाना होगा।
किसानों को चावल या गेहूं के स्थान पर दाल उगाने के लिये विशेष प्रोत्साहन देना जैसा कि पहले से ही पंजाब जैसे राज्यों में अपनाया जा रहा है।
किसानों को उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीज उपलब्ध कराने के लिये क्षेत्रीय विशिष्ट उच्च उपज देने वाली दलहनी फसल किस्मों को बीज ग्राम अवधारणा के साथ मिलाकर बढ़ावा देना होगा। बेशक, भारत सरकार और आईसीएआर ने दलहनी फसलों में बीज हब कार्यक्रम का विस्तार किया है जिससे निश्चित रूप से उच्च उपज वाली दलहनी किस्मों के बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में कुछ हद तक मदद मिली है।
उर्वरकों के समय पर प्रयोग के बारे में किसानों को शिक्षित करना और समय पर पौध संरक्षण उपाय करना।
परती भूमि द्वारा दलहन उत्पादन की अधिकतम क्षमता का इस्तेमाल करना। मध्य प्रदेश में परती भूमि का विशाल क्षेत्र (खरीफ चावल क्षेत्र का 78 प्रतिशत जो 4.4 मिलियन हेक्टेयर है), बिहार (2.2 मिलियन हेक्टेयर) और पश्चिम बंगाल (1.7 मिलियन हेक्टेयर) में है, जो दालों की खेती के लिये सबसे उपयुक्त है।
इसी प्रकार, वर्तमान में कम उपज देने वाले लगभग 5 लाख हेक्टेयर सूखे धान, 4.5 लाख हेक्टेयर बाजरा और 3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र का विविधीकरण खरीफ प्रति रबी दलहन के तहत किया जा सकता है।
गन्ना, लाल चना, कपास, मक्का, ज्वार आदि जैसी लंबी अवधि की फसलों में कम अवधि की दलहनी फसलों की अंतरफसल खेती को तेज करना।
विशेषता आधारित प्रजनन, जैव-प्रौद्योगिकी दृष्टिकोण के क्षेत्र में अनुसंधान के अंतर को कम करने के लिये उसी पर अधिक धन निवेश करना।
सूक्ष्म स्तर पर दाल उपजाने वाली इकाइयों को कुटीर उद्योग के रूप में बढ़ावा देना।