इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

Mains Marathon

  • 06 Sep 2022 रिवीज़न टेस्ट्स सामान्य अध्ययन पेपर 3

    दिवस 58:  संपूर्ण पाठ्यक्रम टेस्ट सामान्य अध्ययन पेपर 3

    प्रश्न 1. परमाणु ऊर्जा, ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के सबसे कुशल तरीकों में से एक है। समालोचनात्मक विवेचना कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 2 कश्मीर संकट कश्मीर के विकास संकट से जुड़ा हुआ है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 3. "रक्षा विनिर्माण में आत्मनिर्भरता प्रभावी रक्षा क्षमता व राष्ट्रीय संप्रभुता को बनाए रखने तथा सैन्य श्रेष्ठता प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।" भारत में रक्षा विनिर्माण के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 4. बताइये कि फिनटेक क्रांति (फिनटेक) भारत में वित्तीय सेवाओं के वितरण को बेहतर बनाने में कैसे मदद की और इससे संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 5. कृषि क्षेत्र से ग्रीन हाउस गैसों (GHG) का उत्सर्जन अधिक होने के क्या कारण हैं और उत्सर्जन को कम करने के लिये उठाए जा सकने वाले कदमों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 6. हाल ही में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर संसदीय स्थायी समिति ने प्रस्तावित वन्यजीव (संरक्षण), संशोधन विधेयक, 2021 पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस संदर्भ में वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 की मुख्य विशेषताओं की चर्चा कीजिये।

    प्रश्न 7. ऐतिहासिक रूप से भारत ने आपदा प्रबंधन का अभ्यास प्रतिक्रियात्मक तरीके से किया है। क्या आप मानते हैं कि आपदा प्रबंधन पर हमारे वर्तमान दृष्टिकोण को बदलना होगा? (150 शब्द)

    प्रश्न 8. हाइड्रोजन सबसे स्वच्छ ईंधनों में से एक है जो जीवाश्म ईंधन का बेहतर विकल्प प्रदान कर सकता है। इस कथन के आलोक में हाइड्रोजन प्रौद्योगिकी के ईंधन के रूप में उपयोग से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 9. अंतर्राष्ट्रीय संगठन और भागीदारी, विश्व भर में आतंकवाद के वित्तपोषण को रोकने में कितने प्रभावी हैं? (150 शब्द)

    प्रश्न 10. हाल ही में आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 पारित किया गया, जो ‘बंदी पहचान अधिनियम, 1920’ को प्रतिस्थापित करने का लक्ष्य रखता है। इस संदर्भ में आपराधिक प्रक्रिया पहचान अधिनियम के मूल उद्देश्य और महत्त्व पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    प्रश्न 11. हाल के निष्कर्ष बताते हैं कि दिल्ली सहित एशियाई शहरों में शहरी जल सुरक्षा में गिरावट आ रही है। इस संदर्भ में जल सुरक्षा के मुद्दों पर चर्चा कीजिये और इसमें सुधार हेतु सुझाव दीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 12. चरम जलवायु घटनाओं और उनसे संबंधित खतरों की बढ़ती तीव्रता को ध्यान में रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर हरित वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। विचार-विमर्श कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 13. संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास निकाय (UNCTAD) के एक अध्ययन के अनुसार, 2021 में भारत की लगभग 7% आबादी के पास ही डिजिटल मुद्रा थी, लेकिन इसके फायदे और नुकसान दोनों है। विचार-विमर्श कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 14. हाल ही में व्यापक उपयोग के कारण अपूरणीय टोकन (NFT) की लोकप्रियता में अचानक वृद्धि हुई है। इस संदर्भ में अपूरणीय टोकन की कार्यप्रणाली तथा ये क्रिप्टोक्यूरेंसी और उनके द्वारा उत्पन्न जोखिमों से कैसे भिन्न हैं, इस पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 15. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और सकल मूल्य वर्द्धित (GVA) के बीच अंतर स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 16. क्या आपको लगता है कि जेम्स वेब टेलीस्कोप अंतरिक्ष अन्वेषण में क्रांति लाएगा और यह हबल स्पेस टेलीस्कोप से कैसे अलग है? चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 17. विघटनकारी प्रौद्योगिकी से आप क्या समझते हैं ? विघटनकारी प्रौद्योगिकी से उत्पन्न लाभों और चुनौतियों की व्याख्या कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 18. निजीकरण से बेहतर समाधान यह हो सकता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को राजनीति से स्वतंत्र रूप से स्व-विनियमन और संचालन करने की क्षमता प्रदान की जाए। इस कथन का औचित्य सिद्ध कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 19. गति शक्ति पहल या मल्टी-मोडल कनेक्टिविटी के लिये राष्ट्रीय मास्टर प्लान का उद्देश्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के विकास और निष्पादन को समन्वित करते हुए रसद लागत को कम करना है। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न 20. डिजिटल स्वास्थ्य का विचार स्वास्थ्य सेवा के लोकतंत्रीकरण में कैसे योगदान दे सकता है? विवेचना कीजिये।(250 शब्द)

      Click Here To Download PDF  

    उत्तर 1:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकता के बारे में लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये एक मुख्य स्रोत के रूप में परमाणु ऊर्जा के उपयोग के लाभों पर चर्चा कीजिये।
    • परमाणु ऊर्जा के उपयोग से जुड़ी चुनौतियों और मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    हाल में विश्व को बिजली और ऊर्जा संकट का सामना करना पड़ा। यद्यपि विभिन्न देशों में इस आपात स्थिति के अलग-अलग कारण रहे, किंतु इसके परिणामस्वरूप जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने की मांग और तेज़ हो गई है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, भारत वर्ष 2030 तक यूरोपीय संघ को दुनिया के तीसरे सबसे बड़े ऊर्जा उपभोक्ता के रूप में पछाड़ देगा। इस प्रकार हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की आवश्यकता है।

    परमाणु ऊर्जा के लाभ

    • परमाणु ऊर्जा उत्पादन से उत्सर्जन: परमाणु ऊर्जा शून्य-उत्सर्जन करती है। इसमें कोई ग्रीनहाउस गैस या वायु प्रदूषक नहीं होते।
    • भूमि उपयोग: अमेरिकी सरकार के आँकड़ों के अनुसार, 1,000 मेगावाट क्षमता के परमाणु संयंत्र को इतनी ही क्षमता के पवन ऊर्जा संयंत्र या ‘विंड फार्म’ की तुलना में 360 गुना कम और सौर संयंत्रों की तुलना में 75 गुना कम भूमि की आवश्यकता होती है।
    • नवीकरणीय ऊर्जा बनाम परमाणु ऊर्जा:
      • नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत अस्थिर हैं: सौर और पवन ऊर्जा प्रायः अस्थिर स्रोत माने जाते हैं। इन स्रोतों से बिजली तभी पैदा की जा सकती है, जब सूर्य निकला हो या पवन बह रही हो।
      • नवीकरणीय ऊर्जा से पारिस्थितिक क्षति: पवन और सौर ऊर्जा परियोजनाएँ जिन क्षेत्रों में स्थापित की जाती हैं, वहाँ पारिस्थितिक क्षति का कारण बन सकती हैं।
        • मोटे तौर पर से यह अनुमान लगाया जाता है कि अमेरिका में पवन टरबाइनों से टकराकर प्रतिवर्ष 500,000 पक्षी मारे जा रहे हैं।
      • एक विकल्प के रूप में परमाणु ऊर्जा: सौर और पवन जैसे नवीकरणीय स्रोतों की अस्थिर प्रकृति के विपरीत, परमाणु ऊर्जा का उपयोग इलेक्ट्रिक बेस लोड की पूर्ति और पीक लोड परिचालन—दोनों के लिये किया जा सकता है।
        • विदित है कि जर्मनी के घरेलू क्षेत्र में बिजली का मूल्य 0.37 डॉलर प्रति किलोवाट-घंटा (KwH) है, जो कि यूरोपीय संघ में सबसे अधिक है, जबकि फ्राँस में यह मात्र 0.19 डॉलर है।
    • परमाणु ऊर्जा और भारत: भारत और अमेरिका ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
      • सितंबर 2021 में सरकार ने घोषणा की कि भारत अगले 10 वर्षों में अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता को तीन गुना कर देगा।

    परमाणु ऊर्जा से संबद्ध समस्याएँ

    • सार्वजनिक वित्तपोषण की कमी: परमाणु ऊर्जा को कभी भी उस स्तर की उदार सब्सिडी प्राप्त नहीं हुई, जैसे अतीत में जीवाश्म ईंधन को प्राप्त हुई थी या वर्तमान में नवीकरणीय स्रोतों को प्रदान की जा रही है।
      • सार्वजनिक वित्तपोषण के अभाव में परमाणु ऊर्जा के लिये भविष्य में प्राकृतिक गैस और नवीकरणीय ऊर्जा से प्रतिस्पर्द्धा कर सकना कठिन हो जाएगा।
    • परमाणु ऊर्जा को प्रतिस्पर्द्धा से बाहर रखने वाले कारक: दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा संबंधी बदतर आर्थिक व्यवस्था, निर्माण लागत में तेज़ वृद्धि—जो कि फुकुशिमा दुर्घटना के बाद और भी बदतर हो गई है, और सरकारी सब्सिडी पर भारी निर्भरता परमाणु ऊर्जा को अप्रतिस्पर्द्धी बना रही है।
    • ज़मीनी स्तर पर प्रतिरोध: भारत में नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के प्रति अनिच्छा या प्रतिरोध की भावना के कारण कुडनकुलम संयंत्र (Kudankulam plant) को चालू करने में पर्याप्त विलंब हुआ और वेस्टिंगहाउस को अपनी पहली नियोजित परियोजना को गुजरात से आंध्र प्रदेश में स्थानांतरित करने के लिये विवश होना पड़ा।
    • भूमि अधिग्रहण: भूमि अधिग्रहण और परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिये स्थान का चयन भी देश में एक बड़ी समस्या है।
      • तमिलनाडु में कुडनकुलम और आंध्र प्रदेश में कोव्वाडा (Kovvada) जैसे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को भूमि अधिग्रहण संबंधी चुनौतियों के कारण पर्याप्त विलंब का सामना करना पड़ा है।

    आगे की राह

    • उपलब्ध संसाधनों का उपयोग: भारत में यूरेनियम का अनुमानित प्राकृतिक भंडार लगभग 70, 000 टन और थोरियम का लगभग 3,60,000 टन है।
      • यूरेनियम के आयात पर बड़ी मात्रा में व्यय के बजाय देश को उन परियोजनाओं में महत्त्वाकांक्षी निवेश की आवश्यकता है, जो थोरियम को विखंडनीय यूरेनियम में परिवर्तित करती हैं और उससे बिजली का उत्पादन करती हैं।
    • प्री-प्रोजेक्ट समस्याओं को संबोधित करना: सरकार को नए स्थलों पर भूमि अधिग्रहण, विशेष रूप से पर्यावरण मंत्रालय सहित विभिन्न मंत्रालयों से मंज़ूरी और विदेशी सहयोगियों की समयबद्ध संलग्नता जैसे प्री-प्रोजेक्ट समस्याओं को संबोधित करने की आवश्यकता है।
    • सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करना: परमाणु ऊर्जा उत्पादन के संबंध में सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है, जिसे प्राथमिकता के आधार पर संबोधित किया जाना चाहिये।
      • इस संबंध में, जल्द-से-जल्द एक ’परमाणु सुरक्षा नियामक प्राधिकरण’ (Nuclear Safety Regulatory Authority) की स्थापना देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों के लिये सहायक सिद्ध होगी।
    • प्रौद्योगिकीय सहायता: भारत में पुनर्प्रसंस्करण और संवर्द्धन क्षमता को भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके लिये भारत को प्रयुक्त ईंधन के पूर्ण उपयोग और अपनी संवर्द्धन क्षमता की वृद्धि के लिये उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है।

    उत्तर 2:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • विकास के अभाव के साथ कश्मीर संकट का संदर्भ बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • कश्मीर संघर्ष को बढ़ाने और तीव्र करने में विकास की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
    • साथ ही साथ इस संकट के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारकों को भी बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।

    कश्मीर संकट भारत के आंतरिक और बाहरी सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।

    कश्मीर में सकारात्मक विकास:

    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
    • कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।

    विकास की कमी के कारण उग्रवाद के मुद्दे:

    • हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
    • इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
    • अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
    • निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
    • फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।

    इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।


    उत्तर 3:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में रक्षा निर्माण की स्थिति के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • स्वदेशी रक्षा निर्माण से संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
    • रक्षा में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिये उठाए जाने वाले कदमों की चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    रक्षा निर्माण में आत्मनिर्भरता का अर्थ है रक्षा उपकरणों के निर्माण में स्वदेशी सामग्री को बढ़ाना न कि रक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिये आयात पर निर्भर रहना।

    महत्त्व:

    • महाशक्ति की महत्त्वाकांक्षा, भारत के पड़ोस में सुरक्षा चुनौतियों की बढ़ती जटिलता और आर्थिक शक्ति (2025 तक भारत 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर), इन हितों की रक्षा हेतु भारत को मज़बूत रक्षा क्षमताओं की आवश्यकता है।
    • इसके अनुसरण में पिछले एक दशक में भारत दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातकों (वैश्विक हथियारों के आयात का लगभग 12%) में से एक रहा है। हालाँकि हथियारों, पुर्जों और गोला-बारूद के लिये 60-70% आयात-निर्भरता के साथ सैन्य संकट के दौरान कमजोरियाँ उत्पन्न होती हैं।

    स्वदेशी रक्षा निर्माण की चुनौतियाँ:

    • बहुत अधिक विलंब: पिछले पाँच वर्षों में भारत सरकार ने प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के साथ 200 से अधिक रक्षा अधिग्रहण प्रस्तावों को मंज़ूरी दी है, जिसका मूल्य लगभग 4 ट्रिलियन रुपए है, लेकिन अधिकांश अभी भी प्रसंस्करण के अपेक्षाकृत प्रारंभिक चरण में हैं।
    • सार्वजनिक क्षेत्र संचालित कंपनियाँ : भारत में दुनिया के शीर्ष 100 सबसे बड़े हथियार उत्पादकों में से चार कंपनियाँ (भारतीय आयुध कारखाने, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL), भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) और भारत डायनेमिक्स लिमिटेड (BDL)) हैं।
      • ये सभी चार कंपनियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम हैं और घरेलू आयुध मांग के बड़े हिस्से को पूरा करने के लिये ज़िम्मेदार हैं। सरकारें आमतौर पर 'मेक इन इंडिया' के बावजूद, निजी क्षेत्र पर रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (DPSU) को विशेषाधिकार देने की प्रवृत्ति रखती हैं।
    • महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों की कमी: महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में खराब डिज़ाइन क्षमता, अनुसंधान एवं विकास में अपर्याप्त निवेश और प्रमुख उप-प्रणालियों और घटकों के निर्माण में असमर्थता स्वदेशी विनिर्माण में बाधा डालती है। आर एंड डी प्रतिष्ठान, उत्पादन एजेंसियों (सार्वजनिक या निजी) और अंतिम उपयोगकर्त्ता के बीच संबंध बेहद कमज़ोर हैं।
    • लंबी निर्माण अवधि: एक विनिर्माण आधार का निर्माण पूंजी और प्रौद्योगिकी-गहन है तथा और इसकी लंबी अवधि है। एक कारखाने हेतु क्षमता उपयोग के इष्टतम स्तर तक पहुँचने के लिये, इसमें पाँच से लेकर 10-15 साल तक का समय लग सकता है।
    • खराब विनिर्माण वातावरण: कड़े श्रम कानून, अनुपालन बोझ और कौशल की कमी, रक्षा में स्वदेशी विनिर्माण के विकास को प्रभावित करती है।
    • समन्वय की कमी: रक्षा मंत्रालय और औद्योगिक संवर्धन मंत्रालय के अतिव्यापी क्षेत्राधिकार भारत की रक्षा निर्माण की क्षमता को कम करते हैं।

    उठाए जाने वाले कदम

    • नवनियुक्त CDS: चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) त्रि-सेवा कोण से रक्षा अधिग्रहण की जाँच कर सकता है, इससे देरी से बचा जा सकता है और रक्षा खरीद प्रक्रिया में तेज़ी आ सकती है।
    • सबसिस्टम के लिये प्रौद्योगिकी का अनिवार्य हस्तांतरण: यह अनिवार्य है कि जब भारत किसी भी हथियार प्रणाली का आयात करता है, तो गोला-बारूद और कल-पुर्जों को अंततः भारत में निर्मित करने की योजना होनी चाहिये ताकि संकट के दौरान हमें विदेशों से तत्काल पुनःपूर्ति प्राप्त करने हेतु प्रेरित न किया जाए। वही हथियार प्लेटफार्मों के उन्नयन के लिये मरम्मत, रखरखाव और ओवरहाल सुविधाओं के लिये जाता है।
    • आयुध निर्माणी बोर्ड का आधुनिकीकरण: दशकों से आयुध कारखाने भारत के सशस्त्र बलों को हथियार प्रणालियों से लेकर पुर्जों, गोला-बारूद और सहायक उपकरणों तक स्वदेशी आपूर्ति का आधार रहे हैं। उनकी संरचना, कार्य संस्कृति और उत्पाद शृंखला को अब आधुनिक सशस्त्र बलों की प्रौद्योगिकी और गुणवत्ता की मांगों के प्रति उत्तरदायी होने की आवश्यकता है।
    • मौजूदा विनियमों और प्रथाओं का अतिव्यापन: सशस्त्र बलों की आवश्यकताओं की एक दीर्घकालिक एकीकृत परिप्रेक्ष्य योजना से उद्योग को भविष्य की आवश्यकताओं की स्पष्ट तस्वीर मिलनी चाहिये।
      • अगली रक्षा खरीद प्रक्रिया में भारतीय और विदेशी कंपनियों के बीच दूरंदेशी रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा देने के लिये दिशा-निर्देश शामिल होने चाहिये, ताकि परिष्कृत प्लेटफार्मों हेतु समय की अवधि में स्वदेशीकरण प्राप्त किया जा सके।
    • रक्षा निर्यात को बढ़ावा देना: भारतीय हो या विदेशी, निवेश तब व्यवहार्य होगा जब एक पारदर्शी नीति के साथ रक्षा निर्यात के द्वार को बढ़ावा दिया जाएगा।
    • हितों के टकराव का समाधान: सरकार के एकमात्र सलाहकार, विकासकर्त्ता और प्रौद्योगिकियों के मूल्यांकनकर्त्ता के रूप में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) की भूमिका निजी खिलाड़ियों के प्रवेश के लिये हितों का टकराव पैदा करती है।
      • इस प्रकार निजी उद्योग को रक्षा प्रौद्योगिकियों के विकास के लिये एक समान अवसर प्रदान करने हेतु DRDO की भूमिका को संशोधित किया जाना चाहिये।

    आत्मनिर्भर अभियान के तहत रक्षा क्षेत्र में सुधार

    • संशोधित FDI सीमा: स्वचालित मार्ग के तहत रक्षा निर्माण में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की सीमा को 49% से बढ़ाकर 74% कर दिया गया है।
    • परियोजना प्रबंधन इकाई (PMU): सरकार से समयबद्ध तरीके से रक्षा खरीद शुरू करने और परियोजना प्रबंधन इकाई (अनुबंध प्रबंधन उद्देश्यों के लिये) की स्थापना करके तीव्रता से निर्णय लेने की उम्मीद है।
    • रक्षा आयात विधेयक में कमी: सरकार आयात के लिये प्रतिबंधित हथियारों/प्लेटफॉर्मों की एक सूची अधिसूचित करेगी और इस प्रकार ऐसी वस्तुओं को केवल घरेलू बाज़ार से ही खरीदा जा सकता है।
    • घरेलू पूंजी प्राप्तियों के लिये अलग बजट का प्रावधान किया जाएगा।
    • आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण: इसमें कुछ इकाइयों की सार्वजनिक सूची शामिल होगी, जो डिज़ाइनर और अंतिम उपयोगकर्त्ता के साथ निर्माता के अधिक कुशल इंटरफेस को सुनिश्चित करेगा।

    रक्षा निर्माण में आत्मनिर्भरता प्रभावी रक्षा क्षमता और राष्ट्रीय संप्रभुता बनाए रखने तथा सैन्य श्रेष्ठता हासिल करने का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इसकी प्राप्ति से सामरिक स्वतंत्रता, लागत प्रभावी रक्षा उपकरण सुनिश्चित होंगे एवं रक्षा आयात बिलों में बचत हो सकती है, जो बाद में भौतिक व सामाजिक बुनियादी ढाँचे को वित्तपोषित कर सकता है।


    उत्तर 4:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • फिनटेक के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • फिनटेक से संबंधित भारत में फिनटेक के प्रमुख विकास घटकों की चर्चा कीजिये।
    • फिनटेक के साथ संबद्ध चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए अपना उत्तर समाप्त कीजिये।

    फिनटेक क्रांति (Fintech revolution)

    हाल ही में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत एशिया में फिनटेक (FinTech) के सबसे बड़े बाज़ार के रूप में उभरा है। विश्व के दूसरे सबसे बड़े फिनटेक हब (अमेरिका के बाद) के रूप में उभरने के बाद भारत में ‘फिनटेक बूम’ अर्थात् फिनटेक का तीव्र और व्यापक विकास देखा गया है।

    फिनटेक शब्द का प्रयोग उन नई तकनीकों के संदर्भ में किया जाता है, जिनके माध्यम से वित्तीय सेवाओं का प्रयोग, इसमें सुधार और स्वायत्तता लाने का प्रयास किया जाता है। डिजिटल पेमेंट, डिजिटल ऋण, बैंक टेक, इंश्योर टेक, रेगटेक (RegTech) क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency) आदि फिनटेक के कुछ प्रमुख घटक हैं। हालाँकि वर्तमान में फिनटेक के तहत कई अलग-अलग क्षेत्र और उद्योग जैसे-शिक्षा, खुदरा बैंकिंग, निधि जुटाना और गैर-लाभकारी कार्य, निवेश प्रबंधन आदि भी शामिल किये जाते हैं।

    फिनटेक नवोन्मेष के सक्रिय क्षेत्र:

    • क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल कैश।
    • ब्लॉकचेन तकनीक: इसके तहत किसी केंद्रीय बहीखाते की बजाय कंप्यूटर नेटवर्क पर लेन-देन के रिकॉर्ड को सुरक्षित रखा जाता है।
    • स्मार्ट कॉन्ट्रैक्ट, इसके तहत कंप्यूटर प्रोग्राम के माध्यम से (अक्सर ब्लॉकचेन का उपयोग करते हुए) खरीदारों और विक्रेताओं के बीच अनुबंधों को स्वचालित रूप से निष्पादित किया जाता है।
    • ओपन बैंकिंग: ओपन बैंकिंग एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत बैंक नए एप्लीकेशन और सेवाओं को विकसित करने हेतु तीसरे पक्ष को अपने ‘एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस’ (API) की सुविधा प्रदान करते हैं।
    • ओपन बैंकिंग के तहत कार्यरत बैंकों को फिनटेक के साथ प्रतिस्पर्द्धा की बजाय साझेदारी करने का अवसर प्रदान किया जाता है।
    • इंश्योर टेक: इसके तहत प्रौद्योगिकी के उपयोग के माध्यम से बीमा उद्योग को सरल और कारगर बनाने का प्रयास किया जाता है।
    • रेगटेक: रेग टेक, रेगुलेटरी टेक्नोलॉजी (Regulatory technology) का संक्षिप्त रूप है। इसका उपयोग व्यवसायों को कुशलतापूर्वक और किफायती तरीके से औद्योगिक क्षेत्र के नियमों का पालन करने में सहायता के लिये किया जाता है।
    • साइबर सुरक्षा: देश में साइबर हमलों के मामलों में वृद्धि और विकेंद्रीकृत डेटा के कारण फिनटेक तथा साइबर सुरक्षा के मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

    भारत में फिनटेक के विकास के प्रमुख घटक:

    • व्यापक पहचान औपचारिकता (आधार के माध्यम से): 131.68 करोड़ नामांकन।
    • व्यापक स्मार्टफोन पहुँच: लगभग 114 करोड़ से अधिक स्मार्टफोन उपभोक्ता।
    • इंडिया स्टैक: व्यवसायों और स्टार्टअप्स के लिये API का सेट।
    • भारत में व्यय योग्य आय में वृद्धि।
    • भारत सरकार द्वारा यूपीआई (UPI) और डिजिटल इंडिया जैसे प्रमुख प्रयास।
    • मध्यम वर्ग का व्यापक विस्तार: वर्ष 2030 तक भारत की मध्यम वर्गीय आबादी में 140 मिलियन नए परिवार और उच्च-आय वर्ग की आबादी में 21 मिलियन नए परिवार जुड़ जाएंगे, जो देश के फिनटेक बाज़ार में मांग और विकास को गति प्रदान करेंगे।

    फिनटेक से जुड़ी संभावनाएँ:

    • व्यापक वित्तीय समावेशन: वर्तमान में भी देश की एक बड़ी आबादी औपचारिक वित्तीय प्रणाली के दायरे से बाहर है। वित्तीय प्रौद्योगिकियों के प्रयोग के माध्यम से पारंपरिक वित्तीय और बैंकिंग मॉडल में वित्तीय समावेशन से जुड़ी चुनौतियों को दूर किया जा सकता है।
    • MSMEs को वित्तीय सहायता प्रदान करना: वर्तमान में देश में सक्रिय ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME)’ के अस्तित्व के लिये पूंजी का अभाव सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ (IFC) की रिपोर्ट के अनुसार, MSME क्षेत्र के लिये आवश्यक और उपलब्ध पूंजी का अंतर लगभग 397.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर आँका गया है। ऐसे में MSME क्षेत्र में फिनटेक का महत्त्व बढ़ जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में पूंजी की कमी को दूर करने की क्षमता भी है। कई फिनटेक स्टार्टअप द्वारा आसान और त्वरित ऋण उपलब्ध कराए जाने पर MSMEs को कई बार बैंक जाने या इसकी जटिल कागज़ी प्रक्रिया से राहत मिल सकेगी।
    • ग्राहक अनुभव और पारदर्शिता में सुधार: फिनटेक स्टार्टअप सहूलियत, पारदर्शिता, व्यक्तिगत , और व्यापक पहुँच तथा उपयोग में सुलभता जैसी महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ प्रदान करते हैं, जो ग्राहकों को सशक्त बनाने में सहायता करते हैं। फिनटेक उद्योग द्वारा जोखिमों के आकलन के लिये अद्वितीय और नवीन मॉडल का विकास किया जाएगा। बिग डेटा, मशीन लर्निंग, ऋण जोखिम के निर्धारण हेतु वैकल्पिक डेटा का लाभ उठाकर और सीमित क्रेडिट इतिहास वाले ग्राहकों के लिये क्रेडिट स्कोर विकसित कर देश में वित्तीय सेवाओं की पहुँच में सुधार लाने में सहायता प्राप्त होगी।

    चुनौतियाँ:

    • साइबर हमले: प्रक्रियाओं का स्वचालन और डेटा का डिजिटलीकरण फिनटेक प्रणाली को हैकरों के हमलों के प्रति सुभेद्य बनाता है। हाल ही में कई डेबिट कार्ड कंपनियों और बैंकों में हुए साइबर हैकिंग के हमले इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि हैकर्स कितनी आसानी से महत्त्वपूर्ण प्रणालियों तक पहुँच प्राप्त कर इनमें अपूरणीय क्षति का कारण बन सकते हैं।
    • डेटा गोपनीयता की समस्या: उपभोक्ताओं के लिये साइबर हमलों के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत और वित्तीय डेटा का दुरुपयोग भी एक बड़ी चिंता का कारण है।
    • विनियमन में कठिनाई: वर्तमान समय में तेज़ी से उभरते फिनटेक क्षेत्र (विशेष रूप से क्रिप्टोकरेंसी) का विनियमन भी एक बड़ी समस्या है। वर्तमान में विश्व के अधिकांश देशों में फिनटेक के विनियमन हेतु कोई विशेष प्रावधान नहीं हैं, ऐसे में विनियमन के इस अभाव ने इस क्षेत्र में घोटाले और धोखाधड़ी की घटनाओं को बढ़ावा दिया है। फिनटेक द्वारा दी जाने वाली सेवाओं की विविधता के कारण इस क्षेत्र की समस्याओं के लिये कोई एकल और व्यापक समाधान तैयार करना बहुत ही कठिन है।

    आगे की राह

    • साइबर अपराधियों से सुरक्षा: वर्तमान में भारत साइबर हमलों के विरुद्ध सुरक्षात्मक और आक्रामक दोनों क्षमताओं के लिये लगभग पूरी तरह आयात पर ही निर्भर करता है। देश में विभिन्न क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी की स्वीकार्यता और इसकी पहुँच में व्यापक वृद्धि को देखते हुए भारत के लिये इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है।
    • उपभोक्ता जागरूकता: तकनीकी सुरक्षा उपायों की स्थापना के साथ फिनटेक के लाभ और साइबर हमले से बचाव के संदर्भ में जागरूकता फैलाने के लिये ग्राहकों को शिक्षित और प्रशिक्षित किये जाने से भी फिनटेक के लोकतांत्रिकरण में सहायता प्राप्त होगी।
    • डेटा सुरक्षा कानून: RBI द्वारा इस क्षेत्र में तकनीकी के प्रभावों की समीक्षा के लिये फिनटेक सैंडबॉक्स की स्थापना का निर्णय लिया जाना इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है। हालाँकि देश में एक मज़बूत डेटा सुरक्षा ढाँचे की स्थापना करना बहुत ही आवश्यक है। इस संदर्भ में ‘व्यक्तिगत डेटा सुरक्षा विधेयक, 2019’ को व्यापक विचार-विमर्श के बाद पारित किया जाना चाहिये।

    फिनटेक में बीमा, निवेश, प्रेषण (Remittance) जैसी अन्य वित्तीय सेवाओं में व्यापक बदलाव लाने की क्षमता है। हालाँकि इस क्षेत्र में विनियम के दौरान इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये कि ऐसा कोई भी प्रयास इसके विकास में सहायक होना चाहिये न कि बाधक।


    उत्तर 5:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • मीथेन गैस के उत्सर्जन की स्थिति बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • कृषि से उच्च मीथेन उत्सर्जन के कारणों पर चर्चा कीजिये।
    • कृषि से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के उपायों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    ग्लासगो में आयोजित CoP-26 में भारत द्वारा निर्धारित वर्ष 2070 तक कार्बन तटस्थता लक्ष्य की पृष्ठभूमि में वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में ‘जलवायु कार्रवाई’ (Climate Action) और ‘ऊर्जा संक्रमण’ (Energy Transition) को ‘अमृत काल’ की चार प्राथमिकताओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

    देश के मीथेन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का योगदान 73% है, बजट की घोषणाएँ सीमित ही हैं। धान की खेती, पशुपालन और बायोमास जलाने जैसी कृषि और संबद्ध गतिविधियाँ वैश्विक मीथेन सांद्रता में 22%-46% का योगदान करती हैं।

    कृषि उत्सर्जन और जलवायु कुशल कृषि

    कृषि उत्सर्जन का योगदान:

    • नेशनल ग्रीनहाउस गैस इन्वेंटरी के अनुसार, कृषि क्षेत्र 408 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) CO2 का उत्सर्जन करता है।कृषि और संबद्ध क्षेत्र में आंत्र किण्वन (Enteric Fermentation- 54.6%) और उर्वरक उपयोग (19%) के बाद धान की खेती (17.5%) GHG उत्सर्जन का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है।
    • धान के खेत वायुमंडलीय नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और मीथेन (CH4) के मानवजनित स्रोत हैं जिन्हें 20 वर्षों में तापमान वृद्धि के लिये CO2 की तुलना में क्रमशः 273 गुना और 80-83 गुना अधिक ज़िम्मेदार माना गया है। (IPCC AR6, 2021 के अनुसार)।
    • भारत में धान के खेतों से उत्सर्जित CH4 की मात्रा 3.396 टेराग्राम (1 टेराग्राम = 109 किलोग्राम) प्रतिवर्ष या 71.32 MMT CO2 के समतुल्य है।

    कृषि क्षेत्र से अधिक मीथेन उत्सर्जन के कारण:

    • नुकसान की यह स्थिति काफी हद तक यूरिया, नहर सिंचाई और सिंचाई के लिये बिजली जैसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रदत्त सब्सिडी का परिणाम है।
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एवं खरीद नीतियाँ कुछ राज्यों में ही अधिक प्रचलित हैं और मुख्यतः दो फसलों चावल और गेहूँ पर केंद्रित हैं जिसके कारण इनके अति-उत्पादन की स्थिति बनी हुई है।
    • 1 जनवरी 2022 तक की स्थिति के अनुसार देश के केंद्रीय पूल में गेहूँ और चावल का स्टॉक बफर स्टॉकिंग की आवश्यकता से चार गुना अधिक था।
    • वर्ष 2020-21 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत चावल के रिकॉर्ड वितरण और निर्यात के बावजूद भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास चावल का स्टॉक चावल के बफर मानदंडों से सात गुना अधिक है।
    • यह आँकड़ा न केवल दुर्लभ संसाधन के अक्षम उपयोग को दर्शाता है बल्कि इन भंडारों में निहित ग्रीनहाउस गैसों की बड़ी मात्रा को भी दर्शाता है।

    अंतर्निहित समस्याएँ:

    • इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर आने वाली बाढ़ से जल और मीथेन उत्सर्जन कम होते हैं लेकिन नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि होती है।
    • इस प्रकार नियंत्रित सिंचाई के माध्यम से मीथेन उत्सर्जन को कम करने से शुद्ध निम्न उत्सर्जन (Net low Emissions) की स्थिति प्राप्त नहीं होगी।
    • इसके अलावा भारत अपने नेशनल GHG इन्वेंट्री में N2O उत्सर्जन की रिपोर्टिंग नहीं करता है।
    • चावल उत्पादन से होने वाले GHG उत्सर्जन में निम्नलिखित की गणना शामिल नहीं है:
      • धान के अवशेष जलाने से होने वाला उत्सर्जन
      • उर्वरकों का प्रयोग
      • चावल के लिये उर्वरकों का उत्पादन
      • कटाई जैसी ऊर्जाचालित गतिविधियां
      • पंप
      • प्रसंस्करण
      • परिवहन गतिविधियां

    धान के खेत में प्रति एक टन चावल के उत्पादन के लिये लगभग 4,000 क्यूबिक मीटर जल (सिंचाई के रूप में) की आवश्यकता होती है। जल की इतनी अधिक मात्रा के कारण मृदा में ऑक्सीजन का प्रवेश बाधित होता है जो मीथेन उत्सर्जित करने वाले बैक्टीरिया के लिये एक अनुकूल परिदृश्य का निर्माण करता है।

    कृषि से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के उपाय:

    • जलवायु कुशल कृषि (Climate Smart Agriculture- CSA) फसल-भूमि, पशुधन, वन एवं मत्स्यपालन आदि भूदृश्य के प्रबंधन के लिये यह एक एकीकृत दृष्टिकोण है जो खाद्य सुरक्षा और बढ़ते जलवायु परिवर्तन की परस्पर-संबद्ध चुनौतियों को संबोधित करता है। CSA का लक्ष्य एक साथ तीन परिणाम प्राप्त करना है: उत्पादकता में वृद्धि, अनुकूलता में वृद्धि और उत्सर्जन में कमी लाना ।
    • नीतियों का पुनरीक्षण: आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में बताया गया है कि देश अपने भूजल संसाधन का अत्यधिक दोहन कर रहा है, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में, जिसका प्रमुख कारण 44 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती का किया जाना है। हालाँकि इससे भारत को खाद्य सुरक्षा हासिल करने में मदद मिली है लेकिन अब भूजल और पर्यावरण के संरक्षण का उपयुक्त समय है रक्षा पर केंद्रित नीतियों का निर्माण हो। इस परिदृश्य में बिजली एवं उर्वरकों पर प्रदत्त सब्सिडी, MSP एवं खरीद संबंधी नीतियों के पुनरीक्षण और उन्हें GHG उत्सर्जन को कम करने की दिशा में उन्मुख करने की आवश्यकता है।
    • उर्वरकों का कुशल उपयोग : उर्वरकों की बर्बादी को कम करने के लिये और इसके कुशल उपयोग के लिये फर्टिगेशन की विधि का उपयोग किया जा सकता है।
    • शून्य-जुताई को अपनाना: शून्य-जुताई खेती, जिसमें किसान फसलों के बीच अपने खेतों की जुताई नहीं करते हैं, से पारंपरिक खेती की तुलना में वायुमंडल में बहुत कम मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होती हैं।
    • धान की सिंचाई में प्रयुक्त जल का प्रबंधन
    • किसानों को प्रोत्साहन: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर कृषि क्षेत्र में कार्बन बाज़ार के विकास के लिये कृषक समूहों और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसके अलावा विशिष्ट जल, उर्वरक एवं मृदा प्रबंधन प्रक्रियाओं से चावल जैसे सांस्कृतिक रूप से महत्त्वपूर्ण अनाज की उत्पादकता में वृद्धि करते हुए इसके जलवायु प्रभावों को कम करने और किसानों की आय बढ़ाने के रूप में त्रिकोणीय सफलता हासिल की जा सकती है।
    • कार्बन मूल्य-निर्धारण: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार उत्सर्जन को 2℃ वार्मिंग लक्ष्य के स्तर तक कम करने के लिये विश्व को वर्ष 2030 तक 75 डॉलर प्रति टन कार्बन कर अधिरोपित करने की आवश्यकता है। कई देशों ने कार्बन मूल्य निर्धारण को लागू करना शुरू कर दिया है।यह उपयुक्त समय है कि भारत सांकेतिक कार्बन मूल्य निर्धारण की घोषणा के साथ एक जीवंत कार्बन बाज़ार का सृजन करे जो ‘अमृत काल’ में हरित विकास को प्रोत्साहन दे सके।
    • कृषक जागरूकता में वृद्धि करना: उपयुक्त समाधान यह होगा कि चावल उत्पादक किसानों को सही समय पर उचित सलाह और प्रोत्साहन दिया जाए ताकि वे केवल उतने ही जल या उर्वरक का प्रयोग करें जितनी आवश्यकता है। किसानों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव डाले बिना चावल की खेती को और अधिक संवहनीय बनाया जाना चाहिये।

    इस दिशा में आगे बढ़ने के लिये आवश्यक है कि किसानों को सही समय पर सही सलाह देने वाले और वैज्ञानिक क्षमता रखने वाले आधारभूत संगठनों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ।


    उत्तर 6:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • इस विधेयक पर स्थायी समिति की रिपोर्ट के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • विधेयक की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा करने के साथ प्रस्तावित संशोधन विधेयक से संबंधित मुद्दों पर भी चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जंगली जानवरों और पौधों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण, उनके आवासों के प्रबंधन एवं विनियमन तथा जंगली जानवरों, पौधों व उनसे बने उत्पादों के व्यापार पर नियंत्रण के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।

    इस अधिनियम में ऐसे पौधों और जानवरों को सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की सुरक्षा प्रदान कर निगरानी की जाती है।

    इस अधिनियम में कई बार संशोधन किया गया है, अंतिम संशोधन वर्ष 2006 में किया गया था।

    स्थायी समिति ने पाया है कि कुछ प्रजातियों, जिन्हें पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित किया गया है, को वन्यजीवों और पौधों की विभिन्न अनुसूचियों से बाहर रखा गया है तथा इन प्रजातियों को शामिल करने हेतु अनुसूचियों की संशोधित सूची की सिफारिश की गई है।

    इस विधेयक की प्रमुख विशेषताएँ

    • CITES के प्रावधान : इस विधेयक में वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के प्रावधानों को लागू करने पर ज़ोर दिया गया है। यह विधेयक केंद्र सरकार के लिये एक प्रबंधन प्राधिकरण नामित करने का प्रावधान करता है जिसका कार्य प्रजातियों के व्यापार के लिये निर्यात या आयात परमिट देना है।
      • अनुसूचित प्रजातियों के व्यापार में संलग्न प्रत्येक व्यक्ति को लेन-देन का विवरण , रिपोर्ट प्रबंधन प्राधिकरण को सौपना होगा।
      • CITES के अनुसार, प्रबंधन प्राधिकरण प्रजातियों के लिये पहचान चिह्न का प्रयोग कर सकता है।
      • यह विधेयक किसी भी व्यक्ति को प्रजातियों के पहचान चिह्न को संशोधित करने या हटाने से प्रतिबंधित करता है।
      • इसके अतिरिक्त अनुसूचित जीवित पशुओं के नमूने रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन प्राधिकरण से पंजीकरण प्रमाण पत्र प्राप्त करना आवश्यक होगा।
      • वैज्ञानिक प्राधिकरण द्वारा व्यापार किये जा रहे जानवरों के अस्तित्व पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़े पहलुओं पर अपनी सलाह देना अपेक्षित है।
    • अनुसूचियों की प्रासंगिकता: वर्तमान अधिनियम में विशेष रूप से संरक्षित पौधों (एक), विशेष रूप से संरक्षित जानवरों (चार) और कृमि प्रजातियों (एक) के लिये कुल छह अनुसूचियांँ हैं। इस विधेयक में इन्हें घटाकर 4 करना है:
      • अनुसूची I में वे प्रजातियाँ सूचीबद्ध होंगी जिन्हें सबसे अधिक संरक्षण प्राप्त होगा ।
      • अनुसूची II में वे प्रजातियाँ सूचीबद्ध होंगी जिन्हें कुछ कम संरक्षण प्राप्त होगा ।
      • अनुसूची III में पौधों को शामिल किया जायेग।
      • यह कृमि (वर्मिन) प्रजातियों की अनुसूची को निष्कासित करता है। कृमि प्रजाति छोटे जानवरों को संदर्भित करती है जो बीमारियों में वृद्धि के साथ ही भोजन को नष्ट करती हैं।
      • यह CITES के अंतर्गत परिशिष्टों में जंतु नमूनों की नवीन अनुसूची को शामिल करता है।
    • आक्रामक विदेशी प्रजातियांँ: यह विधेयक केंद्र सरकार को आक्रामक विदेशी प्रजातियों के आयात, व्यापार, अधिकार या प्रसार को विनियमित या प्रतिबंधित करने का अधिकार देता है।
      • आक्रामक विदेशी प्रजातियांँ उन पौधों या जानवरों की प्रजातियों को संदर्भित करती हैं जो भारतीय मूल की नहीं हैं और जो वन्यजीव या इनके आवास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं|
      • केंद्र सरकार किसी अधिकारी को आक्रामक प्रजातियों को हटाने करने और उनका निपटान करने के लिये अधिकृत कर सकती है।
      • अभ्यारण्यों का नियंत्रण: यह अधिनियम मुख्य वन्यजीव वार्डन को एक राज्य में सभी अभ्यारण्यों को नियंत्रित, प्रबंधित करने और बनाए रखने का काम सौंपता है।
      • यह विधेयक निर्दिष्ट करता है कि मुख्य वार्डन द्वारा की जाने वाली कार्रवाई अभ्यारण्यों के लिये प्रबंधन योजनाओं के अनुसार होनी चाहिये। विशेष क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले अभ्यारण्यों के लिये संबंधित ग्राम सभा के साथ उचित परामर्श के बाद प्रबंधन योजना तैयार की जानी चाहिये।
    • संरक्षण रिज़र्व: इस अधिनियम के तहत राज्य सरकारें वनस्पतियों और जीवों तथा उनके आवास की रक्षा के लिये राष्ट्रीय उद्यानों व अभयारण्यों के आस-पास के क्षेत्रों को संरक्षण रिज़र्व के रूप में घोषित कर सकती हैं। यह विधेयक केंद्र सरकार को भी संरक्षण रिज़र्व को अधिसूचित करने का अधिकार देता है।
    • बंदी जानवरों का समर्पण: यह विधेयक किसी भी व्यक्ति को स्वेच्छा से किसी भी बंदी जानवर या पशु उत्पाद को मुख्य वन्यजीव वार्डन को सौंपने का प्रावधान करता है। ऐसी वस्तुओं को अभ्यर्पित करने वाले व्यक्ति को कोई मुआवज़ा नहीं दिया जाएगा। अभ्यर्पित वस्तुएँ राज्य सरकार की संपत्ति होंगी।
    • दंड: इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर कारावास की सजा तथा जुर्माने का प्रावधान किया गया है।

    प्रस्तावित संशोधनों से संबंधित मुद्धे :

    • WLPA की धारा 43 में किया गया संशोधन अनुसूची I में शामिल, हाथियों के 'धार्मिक या किसी अन्य उद्देश्य' के लिये उपयोग किये जाने की अनुमति प्रदान करता है। इस कदम की वन्यजीव कार्यकर्ताओं और पशु विशेषज्ञों ने आलोचना की है। इससे संभावित रूप से जंगली हाथियों को अवैध रुप से बंदी रखने की प्रवृत्ति में वृद्धि होगी इसके साथ ही इन्हे छोटी जगहों पर कैद करने जैसी प्रवृत्ति में वृद्धि होगी।
    • वन्यजीव संरक्षण संशोधन विधेयक, 2021 के तहत भारतीय पर्यावरण विधायी व्यवस्था में 'आक्रामक विदेशी प्रजातियों' के लिये एक नियामक ढाँचा शामिल किया गया है। हालाँकि एक बेहतर कदम होने के बावजूद इस प्रावधान का दायरा भारतीय पारिस्थितिकी में आक्रामक प्रजातियों के खतरे के प्रबंधन के लिये संकीर्ण और अपर्याप्त है। अपने मौजूदा स्वरूप में इस विधेयक में 'एलियन' शब्द के तहत आक्रामक देशी प्रजातियों को इसके क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया है।
    • इसके आलोचकों के अनुसार प्रस्तावित संशोधनों के तहत दूसरी अनुसूची में आने वाले स्ट्रिप हायना और भारतीय लोमड़ी को भी वर्मिंन माना जा सकता है। यह पुनर्वर्गीकरण बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन के किया गया है। इस विधेयक में वर्मिन निर्धारित करने के लिये मानदंड शामिल करने चाहिये ताकि लुप्तप्राय प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

    फिर भी नया प्रस्तावित विधेयक वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 का अगला कदम है जो पुराने अधिनियम में निहित खामियों को दूर करने में सहायक होगा।


    उत्तर 7:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • ‘आपदा’ और ‘आपदा प्रबंधन’ की संक्षिप्त चर्चा कीजिये। 
    • आपदा प्रबंधन के प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण के दुष्प्रभावों की चर्चा कीजिये।
    • तत्पश्चात् बताइये कि कैसे आपदा प्रबंधन को अधिक समावेशी बनाया जा सकता है।
    • उचित निष्कर्ष लिखिये।

    आपदा, समुदाय या समाज की गतिविधियों को प्रभावित करने वाला एक गंभीर व्यवधान है जिसमें व्यापक स्तर पर मानव, अवसंरचना, आर्थिक तथा पर्यावरणीय क्षति जैसे प्रभाव शामिल हैं, जो प्रभावित समुदाय या समाज को अपने संसाधनों का उपयोग करने की क्षमता से वंचित करते हैं। मुख्य रूप से आपदाओं को प्राकृतिक ,मानव निर्मित या इन दोनों के संयोजन के परिणामस्वरूप घटित होने वाली घटनाओ के रुप में देखा जाता है। वहीं आपदा प्रबंधन को आपदाओं के प्रभाव में कमी लाने,  आपात स्थिति के सभी मानवीय पहलुओं यथा तत्परता, प्रतिक्रिया और संसाधनों की पुनर्प्राप्ति के लिये किये गए उपायों तथा दायित्वों के संयोजन एवं प्रबंधन के रूप में परिभाषित किया जाता है।

    भारत में आपदा प्रबंधन का पारंपरिक दृष्टिकोण आपदा के पश्चात् राहत व पुनर्वास आदि क्रिया पर केंद्रित है, जिसे प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण के रूप में जाना जाता है।

    आपदा प्रबंधन दृष्टिकोण के लिये प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण की प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं:

    • जान व माल की व्यापक क्षति: प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण, राहत एवं तत्काल पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करता है एवं निवारक आपदा न्यूनीकरण नीतियों की उपेक्षा करता है। इस प्रकार ऐसे दृष्टिकोण के पालन से जान और माल की क्षति अधिक मात्रा में होती है।
    • विभिन्न प्रकार की आपदाओं के लिये अनुकूलन रणनीति की अनुपस्थिति: विभिन्न प्रकार की आपदाओं के लिये प्रतिक्रिया के उपाय भिन्न हो सकते हैं जिन्हें आपदा प्रबंधन के लिये प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण में उपयुक्त रूप से शामिल करना संभव नहीं है। प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण ऐसा दृष्टिकोण है जिसमे सभी आपदाओं के प्रबंधन के लिये एक ही जैसे दृष्टिकोणों को शामिल किया जाता है।
    • प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण में प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों की अनुपस्थिति ,आपदा प्रतिक्रिया में देरी का कारण बनती है। प्रभावी संस्थानों के माध्यम से समय पर विश्वसनीय सूचना का प्रावधान, समुदाय एवं सरकारी मशीनरी को आपदा के जोखिम को कम करने और इससे उत्पन्न होने वाले खतरे का सामना करने के लिये पर्याप्त रूप से तैयार रहने में सक्षम बनाता है।

    आपदा प्रबंधन की वर्तमान स्थिति एक ‘पोस्टमार्टम’ दृष्टिकोण का अनुसरण करती है जिसमें आपदा जोखिम में कमी की रणनीतियों को कम महत्त्व दिया जाता है, जिसके सरल निवारक उपायों को अपनाने से हजारों लोगों की जान बचाई जा सकती है।

    वर्तमान समय में इन निवारक उपायों का अनुसरण करके हम अपनी परंपरागत आपदा प्रबंधन की पद्धति को बदल सकते हैं और इसे और बेहतर बना सकते हैं:

    • आपदा से संबंधित जान-माल की हानि की बढ़ती घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिये आपदा जोखिम में कमी की रणनीतियों और इसकी ‘रोकथाम की प्रक्रिया’ को अपनाया जाना चाहिये। 
    • ‘सतत् विकास के संदर्भ में आपदा सुभेद्यता, संकटों और पूरे समाज में अवहनीय आपदा प्रभावों को कम करने के लिये नीतियों, रणनीतियों तथा प्रक्रियाओं का व्यवस्थित विकास और अनुप्रयोग शामिल होना चाहिये।’ इसमें खतरों की संभावना और समुदाय द्वारा सामना की गई सुभेद्यता के विश्लेषण का आकलन शामिल करना चाहिये। 
    • हालाँकि इन सभी प्रयासों के लिये समाजों मे ‘सुरक्षा संस्कृति’ का प्रसार किया जाना चाहिये। ऐसे में शिक्षा, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण जैसे इनपुट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • शोध एवं पिछले अनुभवों से अर्जित ज्ञान के साथ समुदाय के पास उपलब्ध पारंपरिक ज्ञान का भी उपयोग किया जाना चाहिये।

    यह समझने की आवश्यकता है कि इस तरह की तैयारियाँ एकमात्र प्रयास से नहीं हो सकती हैं। हालाँकि यह एक सतत् प्रक्रिया है। दीर्घकाल में आपदाओं को उन घटनाओं के रूप में संदर्भित नहीं किया जाना चाहिये जिन्हें आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवाओं के माध्यम से प्रबंधित किया जाना है। अत: विशेष रूप से विकास प्रक्रिया में प्रमुख मुद्दों के समाधान के साथ इसकी रोकथाम और इसके पहले से ही पता लगाने की संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।

    इस प्रकार समग्र मानव विकास के उद्देश्य से आपदा प्रबंधन को एक ऐसी रणनीति के रूप में तैयार किया जाना चाहिये जो सतत् विकास लक्ष्यों और नीतियों तथा प्रक्रियाओं को एकीकृत करने के साथ सुभेद्यता में वृद्धि की बजाय लोगों की क्षमता में वृद्धि हेतु उन्मुख हो।


    उत्तर 8:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • वैकल्पिक ईंधन के रूप में हाइड्रोजन के उपयोग को संक्षेप में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। 
    • ऊर्जा के स्रोत के रूप में हाइड्रोजन के लाभ और हानि की विवेचना कीजिये। 
    • उचित निष्कर्ष लिखिये।

    केंद्रीय बजट 2021 के तहत एक राष्ट्रीय हाइड्रोजन ऊर्जा मिशन (National Hydrogen Energy Mission-NHM) की घोषणा की गई है जो हाइड्रोजन को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में उपयोग करने के लिये एक रोडमैप तैयार करने और भारत की बढ़ती अक्षय ऊर्जा क्षमता को हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना है।

    हाइड्रोजन ऊर्जा का एक स्वच्छ स्रोत है और इसे अक्षय ऊर्जा का वैकल्पिक स्रोत माना जाता है। हालाँकि इसका लाभ उठाने से पहले कई चुनौतियाँ मौजूद हैं।

    हाइड्रोजन ईंधन के लाभ

    • नवीकरणीय स्रोत एवं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध: यह ब्रह्मांड में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्व है। यह हल्का है एवं इसका ऊर्जा घनत्व अधिक है, साथ ही यह पेट्रोल की तुलना में दो-तीन गुना अधिक ऊर्जा दक्ष है।
    • हाइड्रोजन ईंधन हासिल करने में कुछ समय लग सकता है, यह अक्षय ऊर्जा है, अत: ईंधन के अन्य स्रोतों की तरह इसके समाप्त होने की चिंता नहीं करनी होगी।
    • किसी विषैली गैस का उत्सर्जन नहीं: इसका एक अन्य विशिष्ट गुण जो हाइड्रोजन को अन्य ईंधन स्रोतों से अलग करता है, वह है गैर-विषाक्त और गैर-प्रदूषणकारी।
    • भारत में बिजली उत्पादन भारी मात्रा में कोयले पर निर्भर है। हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन की जगह लेगा और वायु प्रदूषण एवं तेल की बढ़ती कीमतों को कम करने में मदद करेगा।
    • यह परिवहन (भारत में ग्रीनहाउस गैसों के एक-तिहाई भाग का उत्सर्जन का कारण परिवहन क्षेत्र है), लौह एवं इस्पात तथा रासायनिक क्षेत्रों को लाभान्वित करेगा।

    समस्याएँ:

    ऊर्जा का अपेक्षाकृत सस्ता स्रोत होने के बावजूद ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की संभावित कमियाँ निम्नलिखित हैं-

    • हाइड्रोजन निष्कर्षण की खर्चीली प्रक्रिया: हाइड्रोजन केवल हाइड्रोकार्बन और पानी जैसे रासायनिक यौगिकों में मौजूद है। इसे इलेक्ट्रोलाइसिस विधि का उपयोग करके अलग किया जाता है, जो काफी महँगा है।
    • अवसंरचना का अभाव: ऐसा कोई बुनियादी ढाँचा नहीं है जिसमें वाहनों के लिये ईंधन के प्रमुख स्रोत (जैसे पेट्रोल या डीज़ल) के बदले हाइड्रोजन को प्रयोग में लाया जा सके।
    • सुरक्षा से संबंधित समस्या: हाइड्रोजन अत्यधिक दहनशील है। इसे बहुत अधिक (700 बार तक) दाब पर संग्रहित किया जाता है लेकिन ईधन टैंक को पैसेंजर वे से अलग रखे जाने के कारण इससे विस्फोट का खतरा बहुत अधिक हो जाता है।
      • इसके अलावा हाइड्रोजन का घनत्व गैसोलीन की तुलना में कम होता है इसे ईंधन स्रोत के रूप में प्रभावी और तरल रूप में बनाए रखने के लिये कम तापमान पर रखा जाना चाहिये।

    भारत ने 2050 तक अपने आप को कार्बन मुक्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस क्रम में भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय हाइड्रोजन ऊर्जा मिशन सही दिशा में उठाया गया एक कदम है।


    उत्तर 9:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • ‘आतंकी वित्तपोषण’ पद की संक्षिप्त व्याख्या कीजिये।
    • आतंकी वित्तपोषण पर अंकुश लगाने की आवश्यकता को बताइये।
    • आतंकी वित्तपोषण को नियंत्रित करने में विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तथा सांगठनिक सहयोग की भूमिका का विश्लेषण कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।

    आतंकी वित्तपोषण में व्यक्तिगत आतंकवादियों या नॉन-स्टेट एक्टर को वित्त या वित्तीय सहायता प्रदान करना शामिल है। धन के बिना आतंकवादी हथियार, उपकरण, सामग्री या सेवाओं का क्रय नहीं कर सकते हैं। आतंकी कोष का स्रोत विधिसंगत या विधि विरुद्ध हो सकता है तथा इसे आपराधिक गतिविधियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, जिसमें नशीली दवाओं या हथियारों की तस्करी, जबरन वसूली और फिरौती के लिये अपहरण भी शामिल हैं।

    आतंकी वित्तपोषण से न केवल आंतरिक सुरक्षा के लिये संकट है, बल्कि यह आर्थिक विकास व वित्तीय बाज़ार की स्थिरता को भी कमज़ोर कर सकता है। इस प्रकार निम्नलिखित कारणों से आतंकवादियों को प्राप्त हो रहे धन के प्रवाह को रोकना सबसे आवश्यक है:

    • आतंकवादी संगठनों के लिये धन के प्रवाह को रोकना और बाधित करना आतंकवाद से लड़ने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है।
    • धन के लेन-देन का आसानी से लेन-देन, निकासी के माध्यम से पता लगाया जा सकता है, जो न केवल भविष्य के आतंकी हमलों को रोक सकता है बल्कि आगे की जाँच के लिये अंतर्दृष्टि भी प्रदान कर सकता है।
    • आतंकवादी व आतंकवादी समूह विभिन्न साधनों के प्रयोग कर धन जुटाना जारी रखते हैं, देशों को आतंकी वित्तपोषण से घटित हो सकने वाले जोखिमों को समझने के लिये इसे प्राथमिकता देनी चाहिये और इसके सभी पहलुओं पर नीतिगत प्रतिक्रियाएँ भी विकसित करनी चाहिये।

    ऐसे कई निकाय तथा सहकार्य संगठन हैं, जो धनशोधन को रोकने के लिये आतंकी वित्तपोषण (एम.एल./टी.एफ.) का मुकाबला करने के लिये विशेषज्ञता और वित्तीय खुफिया जानकारी के सुरक्षित आदान-प्रदान के लिये एक मंच प्रदान करने के लिये काम कर रहे हैं। इसमें वित्तीय कार्रवाई कार्यबल (एफ.ए.टी.एफ.), एग्मोंट ग्रुप की वित्तीय खुफिया इकाई, मनी लॉण्ड्रिंग पर एशिया-प्रशांत समूह (ए.पी.जी.), यू.एन.एस.सी. संकल्प 2462 आदि शामिल हैं।

    आतंकी वित्तपोषण से निपटने में इन निकायों एवं सांगठनिक सहयोग की भूमिका:

    • ये संगठन आतंकी वित्तपोषण का मुकाबला करने के लिये राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करते हैं तथा वैश्विक धनशोधन एवं आतंकी वित्तपोषण का मुकाबला (ए.एम.एल./सी.एफ.टी.) मानकों के अनुसार वित्तीय जानकारी साझा करने के लिये एक विश्वसनीय मंच के रूप में उभरे हैं।
    • ये धनशोधन और आतंकी वित्तपोषण से निपटने के लिये अंतरराष्ट्रीय मानकों को संहिताबद्ध करने में सहायता प्रदान करते हैं।
    • ये एफ.ए.टी.एफ. मानकों के अनुपालन का आकलन एवं निगरानी करते हैं।
    • ये धनशोधन तथा आतंकी वित्तपोषण विधियों, प्रवृत्तियों एवं तकनीकों से संबंधित अध्ययन करने में सहायता प्रदान करते हैं और इस प्रकार नए व उभरते संकटों का जवाब देने में मदद करते हैं, जैसे- परमाणु, रासायनिक एवं जैविक हथियारों के प्रसार को बढ़ावा देने के लिये प्रयोग किया जाने वाला प्रसार वित्तपोषण।

    हालाँकि वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में कई महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ निहित हैं तथा विभिन्न सुझाव/सिफारिशें वर्तमान में कागज़ तक सीमित हैं।

    इससे संबंधी चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं: 

    • पहला, आतंकवाद के उन्मूलन पर एक विश्वस्तरीय समझौते का अभाव, जो एक ठोस वैश्विक प्रतिक्रिया तैयार करने के प्रयासों को क्षीण करता है।
    • दूसरा, बहुपक्षीय कार्रवाई विद्यमान साधनों के अपर्याप्त अनुपालन तथा प्रवर्तन से ऋणात्मक रूप से प्रभावित है।
    • तीसरा, यद्यपि कट्टरता-रोधी और विचलन ने पिछले पाँच वर्षों में कुछ ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से सीमित संसाधनों और विशेषज्ञता वाले राज्यों के विकास में अवरोध व्याप्त है।
    • आतंकवाद-रोधी शासन में आतंकवाद प्रतिबंध और प्रतिक्रिया के लिये समर्पित एक केंद्रीय वैश्विक निकाय का अभाव है। आतंकवाद-रोधी गतिविधियों के लिये परिदृश्य में सुसंगतता का अभाव है।

    सभी राष्ट्रों को आतंकी वित्तपोषण के रोकथाम के लिये अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली को प्रतिकूल बनाने का संकल्प करना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में आतंकवाद का मुकाबला करने के लिये दृढ़ प्रयासों एवं व्यापक दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिये। प्रत्येक हितधारकों को उनके क्षेत्रों से आतंकवादी नेटवर्क एवं कार्यों के वित्तपोषण को रोकने के लिये दायित्व सौंपा जाना चाहिये।


    उत्तर 10:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • इस अधिनियम के बारे में संक्षेप में बताइये।
    • इस अधिनियम के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।
    • नए अधिनियम से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। 

    आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 को औपनिवेशिक युग के कानून, कैदियों की पहचान अधिनियम, 1920 की जगह लाया गया है जो पुलिस अधिकारियों को आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए गए, गिरफ्तार किये गए या मुकदमे का सामना करने वाले लोगों की पहचान करने के लिये अधिकृत करता है।

    आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के मूलभूत उद्देश्य उदेश्य

    • यह पुलिस को अपराधियों के साथ-साथ अपराधों के आरोपियों के शारीरिक और जैविक नमूने लेने के लिये कानूनी मंज़ूरी प्रदान करता है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 53 या धारा 53A के तहत पुलिस डेटा एकत्र कर सकती है।

    आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 का महत्त्व

    • आधुनिक तकनीक:
      • यह अधिनियम उपयुक्त शरीर मापों को दर्ज करने के लिये आधुनिक तकनीकों के उपयोग का प्रावधान करता है।
        • मौजूदा कानून सीमित श्रेणी के दोषी व्यक्तियों के केवल ‘फिंगरप्रिंट’ और ‘फुटप्रिंट’ लेने की ही अनुमति देता है।
    • जाँच एजेंसियों की मदद में सहायक:
      • ‘व्यक्तियों’ (जिनका सैंपल लिया जा सकता है) के दायरे का विस्तार, जाँच एजेंसियों को कानूनी रूप से स्वीकार्य पर्याप्त सबूत इकट्ठा करने और आरोपी व्यक्ति के अपराध को साबित करने में मदद करेगा।
    • जाँच को और अधिक सक्षम बनाना :
      • यह उन व्यक्तियों के शरीर से उपयुक्त सैंपल लेने के लिये कानूनी स्वीकृति प्रदान करता है जिन्हें इस तरह के सैंपल देने की आवश्यकता होती है और यह अपराध की जाँच को अधिक कुशल और त्वरित करने तथा सज़ा दर को बढ़ाने में भी मदद करेगा।

    इस अधिनियम से संबंधित मुद्दे:

    • निजता के अधिकार को कमज़ोर करना :
      • यह विधायी प्रस्ताव न केवल अपराध के दोषी व्यक्तियों के बल्कि प्रत्येक सामान्य भारतीय नागरिक के निजता के अधिकार को कमज़ोर करता है।
      • यह विधेयक राजनीतिक विरोध से संलग्न प्रदर्शनकारियों तक के जैविक नमूने एकत्र करने का प्रस्ताव करता है।
    • अस्पष्ट प्रावधान:
      • प्रस्तावित कानून ‘बंदी पहचान अधिनियम, 1920’ को प्रतिस्थापित कर काफी हद तक इसके दायरे और पहुँच का विस्तार करता है।
      • ‘जैविक नमूने’ जैसे पदों का अधिक वर्णन नहीं किया गया है इसलिये रक्त और बाल के नमूने लेने या डीएनए नमूनों के संग्रह जैसा कोई भी दैहिक हस्तक्षेप किया जा सकता है।
      • वर्तमान मे ऐसे हस्तक्षेपों के लिये एक मजिस्ट्रेट की लिखित स्वीकृति की आवश्यकता होती है।
    • अनुच्छेद 20 का उल्लंघन:
      • आशंकाएँ जताई गई हैं कि इस विधेयक ने नमूनों के मनमाने संग्रह को सक्षम किया है और इसमें अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन शामिल है जो आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार देता है।
    • विधेयक में जैविक सूचना के संग्रह में बल प्रयोग निहित है जिससे ‘नार्को परीक्षण’ और ‘ब्रेन मैपिंग’ को बढ़ावा मिल सकता है। T
    • डेटा का प्रबंधन:
      • यह विधेयक 75 वर्षों के लिये रिकॉर्ड को संरक्षित करने की अनुमति देता है। अन्य चिंताओं में वे साधन शामिल हैं जिनके द्वारा एकत्र किये गए डेटा को संरक्षित, साझा, प्रसारित और नष्ट किया जाएगा।
      • संग्रह के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर निगरानी भी हो सकती है इस कानून के तहत डेटाबेस को अन्य डेटाबेस जैसे कि अपराध और आपराधिक ट्रैकिंग नेटवर्क प्रणाली (CCTNS) के साथ जोड़ा जा सकता है।
      • अपराध और आपराधिक ट्रैकिंग नेटवर्क प्रणाली (CCTNS) की कल्पना कॉमन इंटीग्रेटेड पुलिस एप्लीकेशन (CIPA) के अनुभव से की गई है।
    • बंदियों के बीच जागरूकता की कमी:
      • यद्यपि विधेयक में यह प्रावधान है कि कोई गिरफ्तार व्यक्ति (जो महिला या बच्चे के विरुद्ध अपराध का आरोपी नहीं हो) नमूने देने से इनकार कर सकता है लेकिन जागरूकता के अभाव में सभी बंदी इस अधिकार का प्रयोग कर सकने में सफल नहीं होंगे।
      • पुलिस के लिये इस तरह के इनकार की अनदेखी करना भी अधिक कठिन नहीं होगा और बाद में वे दावा कर सकते हैं कि उन्होंने बंदी की सहमति से नमूने एकत्र किये हैं।

    आगे की राह

    • गोपनीयता और डेटा की सुरक्षा पर चिंता निःस्संदेह रूप से महत्त्वपूर्ण है। ऐसे कार्य जिनमें व्यक्तिगत प्रकृति के महत्त्वपूर्ण विवरणों का संग्रह, भंडारण और निस्तारण शामिल है, उन्हें एक मज़बूत डेटा संरक्षण कानून को लागू करने के पश्चात ही किया जाना चाहिये और इन कानूनों का उल्लंघन करने पर सख्त सजा का प्रावधान करना चाहिये।
    • कानून प्रवर्तन एजेंसियों को नवीनतम तकनीकों के उपयोग से वंचित करना अपराधों के शिकार लोगों और बड़े पैमाने पर राष्ट्र के लिये एक गंभीर नुकसान होगा। बेहतर जाँच और डेटा संरक्षण कानून के अलावा, कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिये भी उपाय किये जाने की जरूरत है।
    • अपराध स्थल से नमूने एकत्र करने के लिये अधिक कुशल विशेषज्ञों, फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और किसी आपराधिक मामले में शामिल संभावित अभियुक्तों की पहचान एवं विश्लेषण के लिये उन्नत उपकरणों की आवश्यकता को भी पूरा किया जाना चाहिये।

    उत्तर 11:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जल सुरक्षा के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • जल सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
    • जल सुरक्षा में सुधार हेतु सुझाव दीजिये ।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    जल सुरक्षा एक ऐसा शब्द है जो किसी समाज के जीवित रहने और विभिन्न उत्पादक गतिविधियों को करने के लिये गुणवत्तायुक्त पर्याप्त जल की उपलब्धता को दर्शाता है। इसलिये जल सुरक्षा वाला समाज गरीबी को कम करने और जीवन स्तर में सुधार करने की स्थिति में होता है।

    टोक्यो, शंघाई और दिल्ली जैसे वैश्विक मेगा शहर नई एशियाई सदी के उदय के प्रतीक हैं क्योंकि यह दुनिया के तीन सबसे बड़े आर्थिक विकास के इंजन हैं जो अपने निवासियों और विश्व के लिये अरबों की आर्थिक गतिविधियों के उत्पादन में संलग्न हैं।

    लेकिन इन देशों में प्रति व्यक्ति दैनिक ज़रूरतों के लिये पर्याप्त ताजा पानी उपलब्ध नहीं होने के कारण यह गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं।

    जल सुरक्षा से संबंधित चुनौतियाँ

    • मीठे जल की मात्रा: एशिया में मीठे जल की उपलब्धता विश्व स्तर पर उपलब्ध मीठे जल की तुलना में आधी है। हालाँकि यहाँ दुनिया की 60% से अधिक आबादी रहती है।
    • जल की कम दक्षता : कृषि उत्पादन में जल की तुलनात्मक रूप से बड़ी मात्रा का उपयोग होने के बावजूद जल की दक्षता भी दुनिया में सबसे कम है, जल की दक्षता कम होने से फसल की पैदावार कम होती है।
    • शहरी प्रदूषण : कई बड़े शहरों में जल की समस्या आम है इसका कारण पर्यावरण का ह्रास, जनसंख्या और आर्थिक विकास के लिये औद्योगिक गतिविधियाँ और जल निकायों में औद्योगिक अपशिष्ट का निर्वहन है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय शहरों में भारत की 36 प्रतिशत आबादी रहती है लेकिन जल प्रदूषण में इनकी 70% भागीदारी है। सिर्फ मौज़ूदा जल संसाधन बढ़ती मांग को पूरा नहीं कर सकते हैं।
    • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे और बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएंँ अधिक देखी जा रही हैं जो समस्या को और भी बढ़ाती हैं।
    • 2019 के अनुसार NITI Aayog की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अपने इतिहास में सबसे खराब जल संकट से जूझ रहा है और इसकी लगभग 600 मिलियन आबादी स्वच्छ जल से वंचित है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि बंगलौर, दिल्ली, हैदराबाद और चेन्नई सहित 21 शहरों ने 2021 तक अपने भूजल संसाधनों को लगभग समाप्त कर दिया है।

    जल सुरक्षा में सुधार के सुझाव:

    • नीति हस्तक्षेप: एकीकृत शहरी जल सुरक्षा मूल्यांकन ढांँचे की तरह व्यावहारिक हस्तक्षेप मददगार साबित हो सकते हैं। इसका उपयोग किसी शहर की शहरी जल सुरक्षा के पूर्ण स्पेक्ट्रम का आकलन करने हेतु किया जा सकता है जो कि ड्राइविंग फोर्स (Driving Forces) के रुप में इसे प्रभावित कर सकते हैं।
    • विकसित प्रौद्योगिकी: थाईलैंड के एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (Asian Institute of Technology- AIT) के शोधकर्त्ताओं ने WATSAT विकसित किया है जो एक वेब-आधारित जल सुरक्षा मूल्यांकन उपकरण है । यह शहरी जल सुरक्षा के पांँच (जल आपूर्ति, स्वच्छता, जल उत्पादकता, जल पर्यावरण और जल शासन) अलग-अलग पहलुओं को मापकर शहरों की स्थिति का मूल्यांकन कर सकता है।
    • स्थानीय समाधान: जल प्रबंधन के नए तरीकों को अपनाने वाले शहर अपनी आबादी की आजीविका में सुधार कर निरंतर विकास का समर्थन कर सकते हैं। उदाहरण के लिये बैंकॉक ने अपशिष्ट जल को सार्वजनिक जल स्रोतों में छोड़ने से पहले घरेलू स्तर पर अपशिष्ट जल के उपचार को शामिल करने हेतु जल प्रबंधन के लिये प्रोत्साहनों को अपनाया है।
    • योजना और कार्यान्वयन: लीकेज पाइप के कारण पानी की आपूर्ति के नुकसान को रोकने के लिये योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है जिससे उत्पादकता भी बढ़ेगी।

    पृथ्वी पर पीने योग्य जल की कमी है और जनसंख्या के दबाव तथा इसके व्यर्थ उपयोग ने इसकी कमी को और भी जटिल बना दिया है। इसीलिये इस दुर्लभ संसाधन के संरक्षण के लिये पूरी मानव जाति को एक साथ आने और काम करने की आवश्यकता है।


    उत्तर 12:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • हरित वित्तपोषण के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • जलवायु वित्त की आवश्यकता और स्थिति की विवेचना कीजिये।
    • अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर हरित वित्त तंत्र की चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    ग्रीन फाइनेंसिंग सार्वजनिक, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों से सतत् विकास प्राथमिकताओं के लिये वित्तीय प्रवाह (बैंकिंग, माइक्रो-क्रेडिट, बीमा और निवेश से) के स्तर को बढ़ाने के लिये है।

    इसका एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा पर्यावरणीय और सामाजिक ज़ोखिमों को बेहतर ढंग से प्रबंधित करना और ऐसे अवसरों का लाभ उठाना है जो प्रतिफल की एक अच्छी दर और पर्यावरणीय लाभ के साथ ही अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।

    हरित वित्तपोषण के सिद्धांत:

    • ‘प्रदूषणकर्त्ता द्वारा भुगतान’ (Polluter Pays) - आमतौर पर स्वीकृत इस व्यवस्था के अनुसार प्रदूषण उत्पन्न करने वालों को मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिये इसके प्रबंधन की लागत वहन करनी चाहिये।
    • सामान्य लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व और संबंधित क्षमता (CBDR–RC): यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में अलग-अलग देशों की विभिन्न क्षमताओं और अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करता है।
    • अंतर्निहित सिद्धांत: विकसित देश ऐतिहासिक रूप से प्रमुख पर्यावरण प्रदूषक रहे हैं।

    हरित वित्तपोषण की आवश्यकता :

    • जलवायु परिवर्तन के न्यूनीकरण के लिये जलवायु वित्त की आवश्यकता है क्योंकि उत्सर्जन को उल्लेखनीय रूप से कम करने के लिये बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है।
    • अनुकूलन के लिये जलवायु वित्त भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्रतिकूल प्रभावों के अनुकूल होने और बदलती जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है।
    • जलवायु वित्त पोषण इस बात को स्वीकार करता है कि जलवायु परिवर्तन में देशों का योगदान और इसे रोकने और इसके परिणामों से निपटने की उनकी क्षमता में काफी अंतर है।
    • इसलिये, विकसित देशों को भी देश-संचालित रणनीतियों का समर्थन करने और विकासशील देशों की ज़रूरतों और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न कार्यों के माध्यम से जलवायु वित्त जुटाने में अग्रणी रहना चाहिये।
    • जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न मुद्दों से निपटने और पूर्व-औद्योगिक स्तरों से पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जलवायु वित्त महत्त्वपूर्ण है, जैसा कि 2018 की आईपीसीसी रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गई है।

    जलवायु वित्तपोषण की स्थिति:

    • विकसित देशों से अपेक्षित योगदान: विकसित देशों से आवश्यक जलवायु वित्त विकासशील देशों को उनके जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हस्तांतरित करना।
    • विकसित देशों द्वारा वास्तविक योगदान: वर्ष 2010 में ‘कानकुन समझौतों’ के माध्यम से विकसित देशों ने विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य हेतु प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी।
      • हालाँकि ‘ग्लासगो जलवायु समझौते’ (COP26) में इस बात का उल्लेख किया गया कि विकसित देशों की प्रतिबद्धता अभी तक पूरी नहीं हुई है।
      • इस संबंध में ‘COP26’ ने ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ (UNFCCC) को वित्त पर स्थायी समिति से वर्ष 2022 में ऐसे देशों पर एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया है जो विकासशील देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं।

    ग्लोबल फ्रेमवर्क फॉर क्लाइमेट फाइनेंसिंग:

    • जलवायु वित्त के प्रावधान को सुविधाजनक बनाने हेतु UNFCCC ने विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन प्रदान करने के लिये वित्तीय तंत्र की स्थापना की है।
      • क्योटो प्रोटोकॉल के तहत अनुकूलन कोष: इसका उद्देश्य उन परियोजनाओं और कार्यक्रमों को वित्तपोषित करना है जो विकासशील देशों में संवेदनशील समुदायों की मदद करते हैं और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिये क्योटो प्रोटोकॉल के पक्षकार हैं।
      • ग्रीन क्लाइमेट फंड: यह वर्ष 2010 में स्थापित UNFCCC का वित्तीय तंत्र है।
        • भारत प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की पेरिस समझौते की जलवायु वित्त प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिये विकसित देशों पर ज़ोर दे रहा है।
      • वैश्विक पर्यावरण कोष (GEF): वर्ष 1994 में कन्वेंशन लागू होने के बाद से ‘वैश्विक पर्यावरण कोष’ ने वित्तीय तंत्र की एक परिचालन इकाई के रूप में कार्य किया है।
        • यह एक निजी इक्विटी फंड है जो जलवायु परिवर्तन के तहत स्वच्छ ऊर्जा में निवेश द्वारा दीर्घकालिक वित्तीय रिटर्न प्राप्त करने पर केंद्रित है।
        • GEF दो अतिरिक्त फंड, स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड (SCCF) और लीस्ट डेवलप्ड कंट्री फंड (LDCF) को प्रबंधित करता है।

    भारत में जलवायु वित्तपोषण:

    • घरेलू संसाधनों से वित्तपोषण: भारत की जलवायु क्रियाओं को अब तक बड़े पैमाने पर घरेलू संसाधनों द्वारा वित्तपोषित किया गया है।
      • वर्ष 2014 और 2019 के बीच यूएनएफसीसीसी द्वारा जारी भारत की तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट 2021 के अनुसार, वैश्विक पर्यावरण सुविधा और हरित जलवायु कोष ने कुल 165.25 मिलियन यूएसडी का अनुदान प्रदान किया है। घरेलू स्तर पर यह राशि 1.374 बिलियन अमेरिकी डॉलर है।
    • हरित वित्तपोषण के लिये धन: जलवायु परिवर्तन से संबंधित हरित वित्तपोषण प्रमुख रूप से राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष (एनसीईएफ) और राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (एनएएफ) द्वारा जुटाया जाता है।
      • भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत स्थापित आठ मिशनों के माध्यम से वित्तपोषण भी प्रदान करती है।
      • इसने वित्त मंत्रालय के तहत एक जलवायु परिवर्तन वित्त इकाई (सीसीएफयू) की स्थापना की है जो सभी जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण मामलों के लिये नोडल एजेंसी है।
    • प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना: सरकार ने 13 ऊर्जा गहन क्षेत्रों में कार्बन उत्सर्जन में कमी को लक्षित करते हुए पीएटी योजना शुरू की है।
    • विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित करना: सरकार ने अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में स्वचालित मार्ग के तहत 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी है।
    • अक्षय ऊर्जा को प्रोत्साहन:
      • सरकार ने परियोजनाओं के लिये सौर और पवन ऊर्जा की अंतर-राज्यीय बिक्री हेतु अंतर-राज्यीय पारेषण प्रणाली (आईएसटीएस) शुल्क माफ कर दिया है।
      • अक्षय खरीद दायित्व (आरपीओ) के लिये प्रावधान करना और अक्षय ऊर्जा पार्क स्थापित करना।
      • राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन की घोषणा।

    आगे की राह

    • सहयोग के दायरे का विस्तार: सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ वित्तीय बाज़ारों, बैंकों, निवेशकों, सूक्ष्म-ऋण संस्थाओं, बीमा कंपनियों में प्रमुख भागीदारों को शामिल करने हेतु बहु-हितधारक भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • समग्र ढांँचा: निम्नलिखित को बढ़ावा देकर हरित वित्तपोषण को बढ़ावा दिया जा सकता है:
      • देशों के नियामक ढांँचे में बदलाव लाकर।
      • सार्वजनिक वित्तीय प्रोत्साहनों के सामंजस्य से।
      • विभिन्न क्षेत्रों से हरित वित्तपोषण में वृद्धि करके।
      • सतत् विकास लक्ष्यों के पर्यावरणीय आयाम के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तपोषण निर्णय लेने के संरेखण द्वारा
      • स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकियों के निवेश में वृद्धि करके।
      • टिकाऊ प्राकृतिक संसाधन-आधारित हरित अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु स्मार्ट नीली अर्थव्यवस्था हेतु वित्तपोषण द्वारा।
      • ग्रीन बॉण्ड के उपयोग को बढ़ावा देकर।

    उत्तर 13:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • डिजिटल मुद्राओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • डिजिटल मुद्राओं की विशेषताओं पर चर्चा कीजिये।
    • डिजिटल मुद्राओं के लाभ और हानियों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    डिजिटल मुद्रा, मुद्रा का एक ऐसा रूप है जो केवल डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध है। इसे डिजिटल मनी, इलेक्ट्रॉनिक मनी, इलेक्ट्रॉनिक करेंसी या साइबरकैश भी कहा जाता है। यह भौतिक रुप में उपलब्ध न होकर केवल डिजिटल रूप में उपलब्ध होती हैं।

    डिजिटल मुद्राओं से जुड़े लेनदेन कंप्यूटर या इंटरनेट या निर्दिष्ट नेटवर्क से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट का उपयोग करके किए जाते हैं। जबकि भौतिक मुद्राएँ जैसे कि बैंक नोट और ढाले हुए सिक्के मूर्त होते हैं, जिसका अर्थ है कि यह भौतिक विशेषताओं और उपलब्धता वाले होते हैं।

    डिजिटल मुद्रा की विशेषताएँ :

    • डिजिटल मुद्राओं को केंद्रीकृत या विकेंद्रीकृत किया जा सकता है।
      • फिएट मुद्रा भौतिक रूप में मौजूद होती है, जो एक केंद्रीय बैंक और सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्पादन और वितरण की एक केंद्रीकृत प्रणाली है।
        • प्रमुख क्रिप्टोकरेंसी, जैसे कि- बिटकॉइन और एथेरियम, विकेंद्रीकृत डिजिटल मुद्रा प्रणाली के उदाहरण हैं।
    • मोटे तौर पर तीन अलग-अलग प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक मुद्राएँ हैं: क्रिप्टोकरेंसी , आभासी मुद्राएँ और सेंट्रल बैंक डिजिटल मुद्राएँ।

    लाभ:

    • लेन-देन तेजी से होना : आम तौर पर एक ही नेटवर्क के भीतर मौजूद होने और इसमें मध्यस्थता न होने के कारण डिजिटल मुद्राओं का लेनदेन तेजी से होता
    • भौतिक रुप से बनाने की आवश्यकता न होने से लागत बच जाती है: भौतिक मुद्राओं के लिये कई आवश्यकताएं, जैसे भौतिक निर्माण सुविधाओं की स्थापना जैसी ज़रूरतें डिजिटल मुद्राओं के लिये नहीं होती हैं। ऐसी मुद्राएँ भौतिक मुद्रा से संबंधित कमियों जैसे फट जाने या गन्दी हो जाने से भी सुरक्षित होती हैं।
    • मौद्रिक और राजकोषीय नीति का आसान कार्यान्वयन: वर्तमान मुद्रा व्यवस्था के तहत केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में धन प्रसारित करने के लिये मध्यस्थों जैसे - बैंकों और वित्तीय संस्थानों के माध्यम से कार्य करता है। सीबीडीसी इस तंत्र को दरकिनार करने में मदद कर सकते हैं और एक सरकारी एजेंसी को नागरिकों को सीधे भुगतान करने में सक्षम बना सकते हैं।
    • लेन-देन की लागत में कमी आना : डिजिटल मुद्राएँ एक नेटवर्क के अन्दर सीधे संपर्क को सक्षम बनाती हैं। उदाहरण के लिये एक ग्राहक एक दुकानदार को तब तक सीधे भुगतान कर सकता है जब तक कि वे एक ही नेटवर्क से जुड़े हों।

    हानियाँ :

    • हैकिंग के लिये अतिसंवेदनशील: डिजिटल उपस्थिति, डिजिटल मुद्राओं को हैकिंग के लिये अतिसंवेदनशील बनाती है। हैकर्स ऑनलाइन वॉलेट से डिजिटल मुद्रा चुरा सकते हैं या डिजिटल मुद्राओं के लिये प्रोटोकॉल बदल सकते हैं, जिससे वे अनुपयोगी हो सकती हैं।
    • अस्थिर मूल्य: व्यापार के लिये उपयोग की जाने वाली डिजिटल मुद्राओं की कीमतों में काफी अधिक उतार-चढ़ाव हो सकता है। उदाहरण के लिये क्रिप्टोकरेंसी की विकेंद्रीकृत प्रकृति के परिणामस्वरूप इसकी कीमतों में निवेशक की इच्छा के आधार पर अचानक परिवर्तन होने की संभावना बनी रहती है।
    • अविनियमित: यह स्थिरता और यह सुनिश्चित करने में सहायक है कि इसमें स्थापित वित्तीय उद्योग द्वारा व्यापक नियंत्रण शामिल नहीं है। अधिकांश डिजिटल मुद्राएँ अब इस विनियमन से मुक्त हैं और उपयोगकर्ताओं को स्वतंत्रता देती हैं लेकिन उन्हें संदिग्ध व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील भी बनाती हैं।
    • आपराधिक गतिविधियों पर जोर: हालाँकि डिजिटल मुद्रा तक पहुँच से लाभ भी मिलता है लेकिन इसकी कई कमियां भी हैं। इन तक आसान पहुँच का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इससे आपराधिक तत्वों द्वारा मुद्रा का दुरुपयोग किया जा सकता है। मनी लॉन्ड्रिंग या अवैध कार्यों के वित्तपोषण के लिये डिजिटल मुद्रा का उपयोग होने को लेकर अधिकारी सबसे अधिक चिंतित रहते हैं।
    • अनिश्चितता: भुगतान के पारंपरिक तरीकों के विपरीत जो स्थायी है और जिनका भविष्य बेहतर दिखता, डिजिटल मुद्रा अभी भी नई है और विकास के शुरुआती चरणों में है। इनका भविष्य इतना अप्रत्याशित है कि इस बात का कोई आश्वासन नहीं है कि लोगों के पास पहले से मौजूद डिजिटल मुद्रा कितनी उपयोगी और मूल्य वाली रहेगी।

    आगे की राह

    • उपकरणों का उन्नयन : हैकिंग से बचाने के लिये पुराने तकनीकी उपकरणों को नई सुरक्षा सुविधाओं के साथ अपग्रेड करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
    • उचित विनियमन: आपराधिक कानूनों को विनियमित करने के लिये एक नया व्यापक कानून और संबंधित नियम और विनियम होने चाहिये।
    • प्रौद्योगिकी का स्वदेशीकरण: हमें सरकार के महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को विदेशी सरकार की हैकिंग से बचाने के लिये यथासंभव घरेलू स्तर पर तकनीकी उपकरणों का निर्माण करने का प्रयास करना चाहिये।
    • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: डिजिटल मुद्रा का मुद्दा कोई स्थानीय मुद्दा नहीं है जिसे किसी एक देश द्वारा सुलझाया जा सकता है इसलिये इस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा की जानी चाहिये।

    उत्तर 14:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • नॉन-फंजिबल टोकन (NFT) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • नॉन-फंजिबल टोकन की कार्यप्रणाली पर चर्चा कीजिये।
    • क्रिप्टोकरेंसी और नॉन-फंजिबल टोकन की तुलना कीजिये।
    • एनएफटी की खरीद से जुड़े जोखिमों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    कोई भी चीज़ जिसे डिजिटल रूप में बदला जा सकता है वह NFT हो सकती है। ड्रॉइंग, फोटो, वीडियो, जीआईएफ, संगीत, इन-गेम आइटम, सेल्फी और यहांँ तक कि एक ट्वीट सभी को NFT में परिवर्तित किया जा सकता है जिसका बाद में क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग करके ऑनलाइन कारोबार किया जा सकता है।

    NFT का कार्य:

    • यदि कोई अपनी डिजिटल संपत्ति को NFT में परिवर्तित करता है तो उसे ब्लॉकचेन द्वारा संचालित स्वामित्व का प्रमाण प्राप्त होगा
    • NFT की खरीद और विक्री हेतु एक क्रिप्टोकरेंसी वॉलेट और एक एनएफटी मार्केटप्लेस की आवश्यकता होती है।
    • OpenSea.io, Rarible, Foundation कुछ एनएफटी मार्केटप्लेस हैं।
    • एनएफटी अन्य डिजिटल रूपों से इस मायने में अलग है कि यह ब्लॉकचेन तकनीक द्वारा समर्थित हैं।
    • NFT में एक समय में केवल एक ही मालिक हो सकता है।
    • अनन्य स्वामित्व के अलावा, एनएफटी मालिक अपनी कलाकृति पर डिजिटल हस्ताक्षर भी कर सकते हैं और अपने एनएफटी मेटाडेटा में विशिष्ट जानकारी संग्रहित कर सकते हैं।
    • इसे केवल वह व्यक्ति देख सकेगा जिसने NFT खरीदी है।

    एनएफटी , क्रिप्टोकुरेंसी से निम्नलिखित मामलों में अलग है:

    • ब्लॉकचेन पर आधारित NFTs और क्रिप्टोकरेंसी दोनों एक दूसरे से अलग हैं।
    • क्रिप्टोकरेंसी एक परिवर्तनीय मुद्रा है जिसका अर्थ है कि यह विनिमय करने योग्य है।
    • उदाहरण के लिये यदि किसी के पास एक क्रिप्टो टोकन जैसे एथेरियम है तो किसी अन्य द्वारा धारित एथेरियम भी उसी मूल्य का होगा।
    • हालाँकि NFTs नॉन-फंजिबल हैं जिसका अर्थ है कि एक NFTs का मूल्य दूसरे के बराबर नहीं होता है।
      • नॉन-फंजिबल का अर्थ है कि NFTs परस्पर विनिमेय नहीं हैं।
      • इसमें प्रत्येक कृति दूसरों से अलग होती है जो इसे नॉन-फंजिबल और अद्वितीय बनाती है।

    NFTs की खरीद से जुड़े ज़ोखिम:

    • धोखाधड़ी का जोखिम: हाल के दिनों में NFT घोटालों की कई घटनाएँ सामने आई हैं जिनमें नकली बाज़ारों का उदय होने से असत्यापित विक्रेता अक्सर वास्तविक कलाकारों का प्रतिरूपण करते हैं और उनकी कलाकृतियों की प्रतियाँ आधी कीमत पर बेचते हैं।
    • पर्यावरणीय जोखिम: लेन-देन को मान्यता प्रदान करने हेतु क्रिप्टो माइनिंग की जाती है जिसके लिये उच्च क्षमता वाले कंप्यूटर की आवश्यकता होती है जो अति उच्च क्षमता पर चलते हैं और अंततः पर्यावरण को प्रभावित करते हैं।
    • स्मार्ट अनुबंध जोखिम और एनएफटी का रखरखाव: स्मार्ट अनुबंध और एनएफटी के रखरखाव का जोखिम वर्तमान में एनएफटी बाज़ार में प्रचलित एक प्रमुख मुद्दा है। ऐसे कई मामले हैं जहाँ हैकर्स डेफी (विकेंद्रीकृत वित्त) नेटवर्क पर हमला करते हैं और बड़ी मात्रा में क्रिप्टो चोरी करते हैं।
    • मूल्यांकन: एनएफटी बाज़ार में मुख्य चुनौती एनएफटी की कीमत निर्धारित करने में अनिश्चितता है। अब किसी भी एनएफटी की कीमत रचनात्मकता, विशिष्टता, खरीदारों और मालिकों की कमी और अन्य कारणों पर निर्भर करेगी। एनएफटी की कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव होता है क्योंकि किसी विशेष प्रकार के एनएफटी के लिये कोई निश्चित मानक नहीं होता है।
    • कानूनी चुनौतियां: विश्व में एनएफटी की कोई मान्य कानूनी परिभाषा नहीं है। यूके, जापान और यूरोपीय संघ जैसे विभिन्न देश एनएफटी को वर्गीकृत करने के लिये अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ आगे बढ़ रहे हैं। इससे यह आवश्यक हो जाता है कि विश्व में नॉन-फंजिबल टोकन से संबंधित नियमों को स्थापित करने और वैधीकरण के लिये अंतरराष्ट्रीय निकाय स्थापित किया जाये।
    • बौद्धिक संपदा अधिकार: किसी भी एनएफटी का स्वामित्व ,चिंता का एक अन्य महत्त्वपूर्ण विषय है। जब आप बाज़ार से एनएफटी खरीदने का प्रयास कर रहे हों तो आपको यह पता लगाना चाहिये कि विक्रेता वास्तव में उस एनएफटी का मालिक है या नहीं। ऐसे मामले भी देखे गये हैं जहाँ लोग विक्रेता के रूप में सामने आ रहे हैं जबकि उनके पास केवल किसी कार्य की प्रतिकृतियां हैं। ऐसे मामलों में आपको केवल उस NFT का उपयोग करने का अधिकार प्राप्त होगा लेकिन बौद्धिक संपदा अधिकारों का नहीं।

    इससे पहले कि हम केवल प्रचार के कारण किसी भी व्यवस्था में शामिल हों उससे पहले आवश्यक है कि पूरी तरह से उस विषय पर शोध कर लिया जाए। अगर बात नॉन-फंजिबल टोकन की आती है तो इसके लिये बेहतर होगा कि पहले हम इससे संबंधित सभी जोखिमों और चुनौतियों को समझें। इससे नॉन-फंजिबल टोकन को बिना जोखिम के बाज़ार में खरीदना और बेचना आसान हो जाएगा।


    उत्तर 15:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जीडीपी और जीवीए के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • जीडीपी और जीवीए के बीच अंतर पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    सकल घरेलू उत्पाद (GDP)

    • किसी अर्थव्यवस्था या देश के लिये सकल घरेलू उत्पाद या GDP एक वित्तीय वर्ष में उस देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य होता है। यह निजी खपत, अर्थव्यवस्था में सकल निवेश, सरकारी निवेश, सरकारी खर्च और शुद्ध विदेशी व्यापार (निर्यात और आयात के बीच का अंतर) का योग है।
      • GDP = निजी खपत + सकल निवेश + सरकारी निवेश + सरकारी खर्च + (निर्यात-आयात)

    सकल मूल्य वर्द्धन (GVA)

    • GVA किसी देश की अर्थव्यवस्था में सभी क्षेत्रों जैसे-प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र द्वारा किया गया कुल अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन का मौद्रिक मूल्य है। दरअसल जब किसी उत्पाद के मूल्य से उसकी इनपुट लागत और कच्चे माल की लागत में कटौती के बाद जो राशि शेष बचती है उसे GVA कहते हैं।

    सकल मूल्य वर्द्धन = GDP + उत्पादों पर सब्सिडी - उत्पादों पर कर

    • इससे क्षेत्र-विशिष्ट स्थिति का भी पता चलता है जैसे किसी क्षेत्र, उद्योग या अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में विकास की स्थिति क्या है।

    2015 में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने आर्थिक गतिविधियों का बेहतर अनुमान लगाने के लिये कारक लागत पर सकल घरेलू उत्पाद के मापन के स्थान पर बाज़ार मूल्य पर जीडीपी के मापन के अंतर्राष्ट्रीय मानदंड और सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) उपाय को अपनाया।

    GDP और GVA की तुलना

    • सकल मूल्य वर्द्धन पद्धति के अंतर्गत जहाँ उत्पादक या आपूर्ति पक्ष की तरफ से आर्थिक गतिविधियों की तस्वीर पेश की जाती है वहीं सकल घरेलू उत्पाद पद्धति के अंतर्गत उपभोक्ता पक्ष या मांग पक्ष के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक गतिविधियों का अनुमान लगाया जाता है।
      • निवल करों को अलग तरीके से संदर्भित करने के कारण दोनों के बीच समानता नहीं होना चाहिये
    • GVA को अर्थव्यवस्था का बेहतर मापक माना जाता है। GDP वास्तविक आर्थिक परिदृश्य को मापने में विफल है क्योंकि उत्पादन में तेज वृद्धि उच्च कर संग्रहण व बेहतर अनुपालन के कारण भी हो सकती है जो वास्तविक उत्पादन की स्थिति को प्रतिबिंबित करे यह आवश्यक नहीं।
    • GVA , क्षेत्रवार वर्गीकरण डेटा प्रदान करता है जिससे नीति निर्माताओं को यह तय करने में मदद मिलती है कि किन क्षेत्रों को प्रोत्साहन की आवश्यकता है और तदनुसार क्षेत्र विशिष्ट नीतियाँ तैयार की जा सकती हैं।
      • लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषण करने और विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं की आय की तुलना करने की बात आती है तो जीडीपी एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
    • वैश्विक डेटा मानकों और एकरूपता के परिप्रेक्ष्य में GVA किसी देश के आर्थिक प्रदर्शन को मापने में एक अभिन्न और आवश्यक पैरामीटर है। कोई भी देश जो अन्य देशों से पूँजी और निवेश आकर्षित करना चाहता है उसे राष्ट्रीय आय लेखांकन में सर्वोत्तम वैश्विक मानकों के अनुरूप होना ही चाहिये।

    उत्तर 16:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जेम्स वेब टेलीस्कोप के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • अंतरिक्ष अन्वेषण में जेम्स वेब टेलीस्कोप के महत्त्व की चर्चा कीजिये।
    • हबल स्पेस टेलीस्कोप और जेम्स वेब टेलीस्कोप के बीच अंतरों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    यह टेलीस्कोप नासा, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ESA) और कनाडाई अंतरिक्ष एजेंसी के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का परिणाम है जिसे दिसंबर 2021 में लॉन्च किया गया था।

    यह वर्तमान में अंतरिक्ष में एक बिंदु पर है जिसे सूर्य-पृथ्वी L2 लैग्रेंज बिंदु के रूप में जाना जाता है जो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा से लगभग 1.5 मिलियन किमी दूर है।

    यह अब तक का सबसे बड़ा, सबसे शक्तिशाली इन्फ्रारेड स्पेस टेलीस्कोप है। यह हबल टेलीस्कोप के अगले चरण के रुप में संदर्भित किया जाता है।

    अंतरिक्ष अन्वेषण में जेम्स वेब टेलीस्कोप का महत्त्व:

    • यह बिग बैंग के ठीक बाद निर्मित दूर की उन आकाशगंगाओं को देखने में सक्षम है जिन आकाशगंगाओं के प्रकाश को हमारी दूरबीनों तक पहुँचने में कई अरब वर्ष लग गए।
    • यह ब्रह्मांड के अतीत के हर चरण, बिग बैंग से लेकर आकाशगंगाओं, तारों और ग्रहों के निर्माण से लेकर हमारे अपने सौर मंडल के विकास तक का अन्वेषण करेगा।
    • जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप की थीम्स को चार विषयों में बाँटा जा सकता है।
      • पहला, लगभग 13.5 बिलियन वर्ष पूर्व, अंधकारमय प्रारंभिक ब्रह्मांड से सितारों और आकाशगंगाओं के निर्माण को समझना।
      • दूसरा, सबसे कमज़ोर आरंभिक आकाशगंगाओं की तुलना आज के भव्य सर्पिलों से करना और यह समझना कि आकाशगंगाएँं अरबों वर्षों में कैसे एकत्रित होती हैं।
      • तीसरा, यह समझना कि तारे और ग्रह प्रणालियाँ कहाँ विकसित हो रहे हैं।
      • चौथा, एक्स्ट्रासोलर ग्रहों (हमारे सौरमंडल से परे) के वातावरण का निरीक्षण करना एवं ब्रह्मांड में कहीं भी जीवन की अनुकूल दशाओं का पता लगाना।

    हबल और जेम्स वेब टेलीस्कोप में अंतर:

    • तरंग दैर्ध्य:
      • जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप मुख्य रूप से 0.6 से 28 माइक्रोन तक कवरेज में इन्फ्रारेड रेडिएशन का निरीक्षण करेगा।
      • हबल का मुख्य कार्य स्पेक्ट्रम के पराबैंगनी और दृश्य भाग का निरीक्षण करना है। यह 0.8 से 2.5 माइक्रोन तक की रेंज का निरीक्षण कर सकता है।
    • कक्ष:
      • वेब टेलीस्कोप पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करेगा। यह पृथ्वी से 1.5 मिलियन किलोमीटर दूर सूर्य की परिक्रमा करेगा।
      • हबल 575 किलोमीटर की ऊँचाई से पृथ्वी की परिक्रमा करता है।
    • अवलोकन:
      • नासा के अनुसार, हबल सभी आकाशगंगाओं में सबसे छोटी और नवीनतम आकाशगंगाओं को देख सकता है।
      • वेब नई आकाशगंगाओं को भी देख सकेगा।
      • वेब के निकट और मध्य-अवरक्त उपकरण सबसे पहले निर्मित आकाशगंगाओं और एक्सोप्लैनेट का अध्ययन करने में सहायक होंगे।

    उत्तर 17:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • विघटनकारी तकनीक के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • विघटनकारी प्रौद्योगिकी के लाभों की विवेचना कीजिये।
    • विघटनकारी प्रौद्योगिकी से सबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    विघटनकारी तकनीक एक ऐसा नवाचार है जो उपभोक्ताओं, उद्योगों या व्यवसायों के संचालन के तरीके को महत्त्वपूर्ण रूप से बदल देता है। यह अच्छी तरह से स्थापित उत्पाद या प्रौद्योगिकी को विस्थापित कर,नये उद्योग या बाज़ार का निर्माण करता है।

    नई तकनीक या तो सतत् या विघटनकारी हो सकती है। सतत् प्रौद्योगिकी पहले से मौजूद प्रौद्योगिकी में वृद्धिशील सुधारों पर निर्भर करती है जबकि विघटनकारी तकनीक पूरी तरह से नई होती है।

    विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ समय के साथ विकसित हुईं हैं और कुछ साल पहले तक ऑटोमोबाइल, बिजली सेवा और टेलीविज़न विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ मानी जाती थीं।

    हालाँकि समय बदल रहा है और तकनीकें भी बदल रही हैं। वर्तमान में उपयोग की जा रही विघटनकारी तकनीकों में निम्नलिखित शामिल हैं: ब्लॉकचेन तकनीक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इत्यादि।

    विघटनकारी प्रौद्योगिकी के लाभ

    • नियमित गतिविधियों में नवाचार: विघटनकारी प्रौद्योगिकी की प्रमुख विशेषताओं में से एक उपभोक्ताओं को नए और उल्लेखनीय लाभ प्रदान करने की क्षमता है। जब इस प्रकार की तकनीक बाज़ार में प्रवेश करती है तो यह पूरे उद्योग को बदल देती है।
    • तकनीकों में सुधार और संशोधन: उपभोक्ताओं की समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिये आधुनिक तरीकों को अपनाने की आवश्यकता है। विघटनकारी नवाचार किसी कंपनी की प्रक्रियाओं के मूल्यांकन और उसके अनुसार अनुकूलन के साथ बेहतर सेवाओं के प्रावधान और उद्योग में परिवर्तन हेतु सहायक होती है।
    • स्टार्टअप कंपनियों का विकास: विघटनकारी तकनीक स्टार्टअप कंपनियों को मौजूदा उद्योगों से महत्त्वपूर्ण वृद्दि हासिल करने के अवसर प्रदान करती है।
      • यह छोटे स्टार्टअप को तेज़ी से विकास करने और संभावित रूप से बड़ी, अधिक अच्छी तरह से स्थापित कंपनियों से बेहतर प्रदर्शन करने का अवसर प्रदान करती है।
    • व्यापार विस्तार: जब एक स्थापित व्यवसाय स्वेच्छा से विघटनकारी प्रौद्योगिकी को अपनाता है तो उसे अपने वर्तमान उद्योग के भीतर या प्रौद्योगिकी द्वारा बनाए गए एक नए उद्योग के विकास के प्रमुख अवसर प्राप्त होते हैं। इससे देश का आर्थिक विकास भी होता है।
      • कंपनियां जो अपने मौजूदा उत्पादों और सेवाओं में विघटनकारी प्रौद्योगिकी को सुचारू रूप से शामिल कर सकती हैं वह मौजूदा ग्राहकों को विघटनकारी तकनीक का उपयोग करने में मदद कर सकती हैं साथ ही नए खरीदारों को नए बाज़ार में प्रवेश के साथ अपना सकती हैं।
    • भारत की आईटी शक्ति का लाभ उठाना: भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग अच्छी तरह से स्थापित है और कनेक्टिविटी बढ़ाने की योजना 'डिजिटल इंडिया' के हिस्से के रूप में अच्छी तरह से चल रही है।
      • यह छोटे शहरों में एडिटिव मैन्युफैक्चरिंग सुविधाओं के निर्माण और प्रमुख शहरों के बाहर औद्योगिक विकास को बढ़ावा देगा।

    विघटनकारी प्रौद्योगिकी से सबंधित चुनौतियाँ

    • वर्तमान चुनौतियां: भारत जैसे विकासशील देश संकट की स्थिति में हैं क्योंकि यह पहले से ही कम मानव पूंजी, अप्रभावी संस्थानों और एक कठिन कारोबारी माहौल की चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
    • विश्वास और नैतिक प्रश्न: विघटनकारी प्रौद्योगिकी स्वयं समस्या नहीं है लेकिन इन प्रौद्योगिकियों से संबंधित गोपनीयता, स्वामित्व और पारदर्शिता जैसे नैतिक मुद्दे , चिंता का कारण बन सकते हैं।
    • अनुकूलन क्षमता में चुनौतियां: जटिल बाज़ार स्थितियों में विघटनकारी नवाचारों को शामिल होने और बाज़ार में प्रवेश करने में काफी समय भी लग जाता है। विघटनकारी नवाचारों को भी बाज़ार के माहौल के अनुकूल होना चाहिये।
    • इस क्षेत्र में परीक्षण नहीं किया गया और इसमें समय लगता है: नई तकनीक आमतौर पर अपने शुरुआती चरणों के दौरान अप्रयुक्त और अपरिष्कृत होती है जिनमे कई वर्षों तक विकास जारी रह सकता है।
      • उपयोगिता और बाज़ार की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता के आधार पर किसी भी नवीन विचार को लंबी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। किसी भी नवीन विचार या उत्पाद या सेवा को बाज़ार में स्थापित होने में काफी समय भी लग जाता है।
    • प्रचलित पुरानी प्रौद्योगिकी से उत्पन्न प्रतिरोध: नए विचारों या व्यावसायिक मॉडलों में मौजूदा और स्थापित विचारों/उत्पादों/सेवाओं/व्यावसायिक मॉडलों को बाधित करने की प्रवृत्ति होती है और इससे बाज़ार में व्यापक स्तर पर प्रतिस्पर्धा पैदा होती है।
      • यह किसी भी नए विचार के लिये बहुत चुनौतीपूर्ण होता है क्योंकि मौजूदा और स्थापित व्यवसाय बाज़ार में अपने आप को बनाये रखने के लिये कोई भी कदम उठा सकते हैं।

    आगे की राह

    • अनुकूल वातावरण : प्रौद्योगिकी और नवाचार की अगली पीढ़ी के लिये ऐसा नीतिगत ढाँचा होना जरूरी है जिससे विघटनकारी प्रौद्योगिकियों द्वारा अर्थव्यवस्था, समाज और पर्यावरण को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के साथ असमानताओं को कम किया जा सके।
    • समग्र दृष्टिकोण: संपूर्ण अर्थव्यवस्था या समाज के अधिकांश दृष्टिकोण का पालन किया जाना चाहिये क्योंकि सिर्फ तकनीक सफलता की गारंटी नहीं देगी। नीति निर्माताओं को स्थानीय संदर्भों और परिस्थितियों पर भी ध्यान देना चाहिये ताकि ऐसा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र बन सके जिसमें प्रौद्योगिकी से रोजगार पैदा होने के साथ समावेशी विकास को भी प्रोत्साहन मिले।
    • अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र को बढ़ावा देना: उत्पाद डिज़ाइन केंद्रों के गठन को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि उत्पादों को भारतीय पर्यावरण और उपभोक्ताओं के अनुरूप बनाया जा सके।
    • सरकारी सहायता की आवश्यकता: छोटे शहरों में वितरित विनिर्माण के लिये प्रोत्साहन प्रदान करने हेतु सरकारी सहायता की आवश्यकता है और आईटी उद्योग को ऐसे प्लेटफॉर्म और मार्केटप्लेस बनाने पर काम करने की आवश्यकता है जो उपभोक्ता मांगों, उत्पाद डिज़ाइनरों और निर्माताओं को एक सहज तरीके से जोड़ते हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: विभिन्न सरकारों ने हाल ही में एआई जैसी विघटनकारी तकनीकों को स्थापित किया है और कुछ देश अभी भी इनको विकसित करने के क्रम में हैं। बहुपक्षीय स्तर पर मानकों की स्थापना में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अभी भी प्रगति पर है।

    उत्तर 18:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • बैंकों के निजीकरण की आवश्यकता के संदर्भ का उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • बैंकों के निजीकरण के औचित्य और उसके विरुद्ध तर्कों का उल्लेख कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    हाल के वर्षों में भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) के घोटालों के कारण उच्च गैर-निष्पादित आस्तियों (NPA) के चलते भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के लिये बहस को प्रेरित किया है। हालाँकि इससे जुड़े कई फायदे और नुकसान हैं।

    बैंकों के निजीकरण का औचित्य

    • एनपीए का बोझ: बैंकिंग प्रणाली पर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का काफी बोझ है और इसका अधिकांश हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निहित है।
    • दोहरे नियंत्रण की समस्या: पीएसबी को आरबीआई और वित्त मंत्रालय द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इसके कारण RBI के पास PSB पर वे सभी अधिकार नहीं हैं जो उसके पास निजी क्षेत्र के बैंकों पर हैं।
    • राजनीतिक हस्तक्षेप: बैंक बोर्ड की नियुक्तियों में सरकार का अभी भी प्रमुख स्थान है इससे बैंकों के सामान्य कामकाज में राजनीतिकरण और हस्तक्षेप का मुद्दा पैदा होता है।
    • लाभ की निकासी: निजी बैंक लाभ-संचालित होते हैं जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का व्यवसाय कृषि ऋण माफी आदि जैसी सरकारी योजनाओं से बाधित होता है।

    बैंकों के निजीकरण के विरोध में तर्क

    • बैंकिंग का लोकतंत्रीकरण: भारत में बैंकों का पहली बार 1969 में राष्ट्रीयकरण किया गया था। इससे पहले यह अपने धन का 67% उद्योग क्षेत्र को उधार दे रहे थे और वस्तुतः कृषि क्षेत्र को कुछ भी नहीं दे रहे थे।
      • इस प्रकार बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लोगों तक बैंकिंग सेवाओं के प्रसार में वृद्धि हुई है।
    • समाज कल्याण की अवहेलना : सार्वजनिक बैंक भारत के गैर-लाभकारी ग्रामीण क्षेत्रों या गरीब क्षेत्रों में भी शाखाएँ, एटीएम, बैंकिंग सुविधाएँ आदि का प्रसार करते हैं जहाँ बड़ी जमा राशि प्राप्त करना या लाभ कमाना संभव नही होता है।
      • हालाँकि निजी बैंक ऐसा करने के लिये इच्छुक नहीं होते हैं और वे ज्यादातर महानगरों या शहरी क्षेत्रों में ऐसी सुविधाएँ प्रसारित करना पसंद कर सकते हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण : पूर्वी एशियाई देशों की अधिकांश सफलता की कहानियों को सरकारों द्वारा प्रभावी रूप से नियंत्रित वित्तीय प्रणालियों के रुप में देखा गया है।
      • दूसरी ओर जहां बैंकिंग प्रणाली काफी हद तक निजी हाथों में है वहाँ निजी बैंकों को दिवालियेपन से बचाना पड़ा है। 

    भले ही निजी क्षेत्र के बैंकों के पास सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में बेहतर बैलेंस शीट हैं लेकिन यह विचार करना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अकेले निजीकरण से इस क्षेत्र की सभी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। निजीकरण से बेहतर समाधान, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को खुद को सुधारने और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त कार्य करने की स्वायत्तता देना हो सकता है।


    उत्तर 19:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • गति शक्ति योजना के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • गति शक्ति योजना की मूलभूत विशेषताओं की विवेचना कीजिये।
    • एकीकृत बुनियादी ढाँचे के विकास की आवश्यकता पर चर्चा करते हुए इससे संबंधित चिंताओं पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    ज़मीनी स्तर पर काम में तेज़ी लाने ,लागत में कमी और रोज़गार पैदा करने पर ध्यान देने के साथ-साथ आगामी चार वर्षों में बुनियादी अवसंरचना परियोजनाओं की एकीकृत योजना और कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये गति शक्ति योजना को शुरु किया गया है।

    गति शक्ति योजना की आधारभूत विशेषताएँ:

    • गति शक्ति योजना के तहत वर्ष 2019 में शुरू की गई 110 लाख करोड़ रुपए की ‘राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन’ को समाहित किया जाएगा।
    • लॉजिस्टिक्स लागत में कटौती के अलावा इस योजना का उद्देश्य कार्गो हैंडलिंग क्षमता को बढ़ाना और व्यापार को बढ़ावा देने हेतु बंदरगाहों पर टर्नअराउंड समय को कम करना है।
    • इसका लक्ष्य 11 औद्योगिक गलियारे और दो नए रक्षा गलियारे (एक तमिलनाडु में और दूसरा उत्तर प्रदेश में) बनाना भी है। इसके तहत सभी गाँवों में 4G कनेक्टिविटी का विस्तार किया जाएगा। साथ ही गैस पाइपलाइन नेटवर्क में 17,000 किलोमीटर की क्षमता जोड़ने की योजना बनाई जा रही है।
    • यह वर्ष 2024-25 के लिये सरकार द्वारा निर्धारित महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करेगा जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क की लंबाई को 2 लाख किलोमीटर तक विस्तारित करना, 200 से अधिक नए हवाई अड्डों, हेलीपोर्ट और वाटर एयरोड्रोम का निर्माण करना शामिल है।
    • इसके अंतर्गत बुनियादी अवसंरचना से संबंधित 16 मंत्रालयों को एक साथ लाने पर ज़ोर दिया गया है। इससे लंबे समय से चली आ रही समस्याओं जैसे- असंबद्ध योजना, मानकीकरण की कमी, मंज़ूरी संबंधी चुनौतियाँ दूर करने के साथ-साथ समय पर बुनियादी अवसंरचना की क्षमता के निर्माण एवं उपयोग में मदद मिलेगी।
    • इसमें एक अम्ब्रेला प्लेटफॉर्म का निर्माण शामिल है जिसके माध्यम से विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के बीच वास्तविक समय पर समन्वय के माध्यम से बुनियादी अवसंरचना परियोजनाओं का निर्माण कर उन्हें प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है।

    गति शक्ति योजना का महत्त्व:

    • यह योजना मौजूदा और प्रस्तावित कनेक्टिविटी परियोजनाओं की मैपिंग में मदद करेगी।
    • साथ ही इसके माध्यम से देश में विभिन्न क्षेत्रों और औद्योगिक केंद्रों को जोड़ने संबंधी योजना भी स्पष्ट हो सकेगी।
    • एक समग्र एवं एकीकृत परिवहन कनेक्टिविटी रणनीति से ‘मेक इन इंडिया’ को समर्थन मिलेगा और परिवहन के विभिन्न तरीकों को एकीकृत करने में सहायता मिलेगी।
    • इससे भारत को विश्व की व्यापारिक राजधानी बनाने में मदद मिलेगी।

    एकीकृत बुनियादी अवसंरचना के विकास की आवश्यकता:

    • समन्वय एवं उन्नत सूचना साझाकरण की कमी के कारण मैक्रो नियोजन और माइक्रो कार्यान्वयन के बीच एक व्यापक अंतर मौजूद है क्योंकि विभाग प्रायः समन्वय के अभाव की स्थिति में निर्णय लेने के साथ कार्य करते हैं।
    • एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लॉजिस्टिक लागत सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 13% है जो कि विकसित देशों की तुलना में काफी अधिक है।
      • इस उच्च लॉजिस्टिक लागत के कारण भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता बहुत कम हो जाती है।
    • यह विश्व स्तर पर स्वीकार किया जाता है कि सतत् विकास के लिये गुणवत्तापूर्ण बुनियादी अवसंरचना का निर्माण काफी महत्त्वपूर्ण है जो विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से व्यापक पैमाने पर रोज़गार पैदा करता है।
    • इस योजना का कार्यान्वयन ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन’ (NMP) के साथ समन्वय स्थापित कर किया जाएगा।
      • ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन’ को मुद्रीकरण हेतु एक स्पष्ट ढाँचा प्रदान करने और संभावित निवेशकों को बेहतर रिटर्न की प्राप्ति के लिये संपत्तियों की एक सूची प्रदान करने हेतु शुरू किया गया है।

    संबद्ध चिंताएँ :

    • लो क्रेडिट ऑफ-टेक: हालाँकि सरकार ने बैंकिंग क्षेत्र की मज़बूती के लिये कई सुधार किये और दिवाला एवं दिवालियापन संहिता के तहत खराब ऋणों पर लगभग 2.4 लाख करोड़ रुपए की वसूली भी की गई लेकिन क्रेडिट ऑफ-टेक की प्रवृत्ति में गिरावट संबंधी चिंताएँ अभी भी बनी हुई हैं।
      • भविष्य की आय और मौजूदा बाज़ार की स्थितियों के प्रमाण के आधार पर बैंक,भविष्य की परियोजनाओं के लिये वित्तपोषण हासिल करने में व्यवसायों की मदद करने के लिये क्रेडिट ऑफ-टेक प्रदान करते हैं।
    • मांग में कमी: कोविड-19 के बाद के परिदृश्य में निजी मांग और निवेश की कमी देखी गई है।
    • संरचनात्मक समस्याएँ: भूमि अधिग्रहण में देरी और मुकदमेबाज़ी के मुद्दों के कारण देश में वैश्विक मानकों की तुलना में परियोजनाओं के कार्यान्वयन की दर बहुत धीमी है।
      • इसके अतिरिक्त भूमि प्रयोग और पर्यावरण मंज़ूरी के मामले में विलंब,अदालत में लंबे समय तक चलने वाले मुकदमे आदि अवसंरचना परियोजनाओं में देरी के कुछ प्रमुख कारण हैं।

    PM गति शक्ति सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। हालाँकि इसमें उच्च सार्वजनिक व्यय से उत्पन्न संरचनात्मक और व्यापक आर्थिक स्थिरता संबंधी चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता है। इस प्रकार आवश्यक है कि यह पहल एक स्थिर और पूर्वानुमेय नियामक एवं संस्थागत ढाँचे पर आधारित हो।


    उत्तर 20:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • डिजिटल स्वास्थ्य सेवा के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं के लाभों पर चर्चा कीजिये।
    • डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं से संबद्ध चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    पिछले कुछ वर्षों में यह देखना बेहद उत्साहजनक रहा है कि किस प्रकार प्रौद्योगिकी और अभिनव उपकरणों का एकीकरण सार्वजनिक सेवा वितरण को बेहतर बना सकता है। इंडिया स्टैक और JAM (जन-धन, आधार और मोबाइल) के विकास को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

    इसी प्रकार COVID-19 महामारी ने स्वास्थ्य क्षेत्र में तीव्र डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। हाल ही में लॉन्च किया गया राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन स्वास्थ्य क्षेत्र में डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग पर प्रकाश डालता है।

    इसके अतिरिक्त दीर्घकालिक रोगों के इलाज की लागत में लगातार वृद्धि हो रही है और वर्तमान में विश्वभर में डॉक्टरों की भारी कमी भी है। ऐसे में डिजिटल स्वास्थ्य सेवाएँ सभी के लिये स्वास्थ्य सेवा पहुँच के लक्ष्य को पूरा करने हेतु सहायक हो सकती हैं।

    सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लक्ष्य को साकार करने के लिये भारत सरकार द्वारा वर्ष 2020 में राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (NDHM) का शुभारंभ किया गया था।

    डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं के लाभ:

    • महामारी के प्रसार की निगरानी: किसी संक्रामक बीमारी के मामले में एक बार डेटा उपलब्ध होने (रिकॉर्ड और विश्लेषण के लिये) के बाद, बीमारी के संचरण तथा भू-स्थानिक कवरेज़ के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है।
      • डीप लर्निंग और क्लाउड इमरजेंसी रिस्पांस एल्गोरिदम जैसे डिजिटल टूल के अभिनव प्रयोग ने इस महामारी के दौरान अस्पतालों के आपातकालीन कक्ष में कार्य कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों को काफी सहायता प्रदान की है।
    • रोगी के अनुकूल स्वास्थ्य प्रणाली: स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता उपकरणों के उपयोग से इनमें होने वाली देरी को काफी हद तक कम किया जा सकेगा और इसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी लागत में भी कमी आएगी।
      • स्वास्थ्य सेवा का डिजिटल रूपांतरण वर्तमान में संसाधनों की सीमित उपलब्धता, विविध जनसांख्यिकीय मिश्रण तक चिकित्सा पहुँच बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता जैसे मुद्दों के समाधान की मुख्य प्राथमिकताओं में शामिल है।
    • निवारक देखभाल: उभरती हुई प्रौद्योगिकियाँ न केवल नई दवाओं के विकास में तेज़ी लाती हैं बल्कि कई मामलों में यह चिकित्सा की नई श्रेणी भी प्रस्तुत करती हैं जैसे-डिजिटल थेराप्यूटिक्स (DTx)।
      • DTx सॉफ्टवेयर-आधारित समाधान है जिससे जीवन शैली से संबंधित बीमारी या विकार का इलाज किया जा सकता है।
      • इस प्रकार डिजिटल स्वास्थ्य प्रणाली का स्वास्थ्य देखभाल के वितरण पर एक व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है और यह उपचार से हटकर बचाव के प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करने के माध्यम से स्वास्थ्य क्षेत्र की अगली चुनौती से निपटने का अवसर प्रदान करती है।
    • नैदानिक परीक्षण में सहायक: डिजिटल स्वास्थ्य क्षेत्र में डेटा का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है जो नमूनों के विश्लेषण में सहायक होगा और इसी प्रकार छवियों का उपयोग बेहतर नैदानिक निर्णय लेने के लिये किया जा सकता है।

    संबंधित चुनौतियाँ:

    • ऑनलाइन धोखाधड़ी का जोखिम: स्वास्थ्य देखभाल की पहुँच का अभाव और स्वास्थ्य प्रणाली के प्रति लोगों के विश्वास में हो रही कमी, रोगियों को अप्रभावी चिकित्सा और ऑनलाइन चिकित्सा धोखाधड़ी के प्रति संवेदनशील बना सकती है।
    • स्वास्थ्य साक्षरता का मुद्दा: डिजिटल प्रौद्योगिकियों के उपयोग के बावजूद, डिजिटल स्वास्थ्य सेवाओं का विकास स्वास्थ्य साक्षरता पर भी निर्भर है।
      • कम स्वास्थ्य साक्षरता स्तर वाले लोग आमतौर पर स्वास्थ्य के संदर्भ में निम्न स्थिति में होते हैं साथ ही यह डॉक्टरों के पास अधिक जाते हैं और रोकथाम तकनीकों का उपयोग कम करते हैं। व्यापक रूप से देखा जाए तो ऐसे लोग स्वास्थ्य प्रणाली के आर्थिक भार को बढ़ाते हैं।
    • स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक व्यक्तिगत खर्च का होना: पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल से डिजिटल स्वास्थ्य की ओर बढ़ने से पहले आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लोगों द्वारा अयोग्य चिकित्सकों द्वारा अप्रभावी उपचार प्राप्त करने, उपयुक्त चिकित्सा सेवाओं तक पहुँच में कमी, दवा और उच्च लागत के इलाज़ हेतु भुगतान की असमर्थता जैसी चुनौतियों को दूर करना आवश्यक है।
      • जब तक बाह्य रोगी उपचार की लागतों को कम नहीं किया जाता है तब तक किसी मरीज़ के लिये अस्पताल में भर्ती होने से पहले होने वाले अधिक व्यक्तिगत खर्च की चुनौती बनी रहेगी।
    • डेटा का दुरुपयोग: डिजिटल हेल्थकेयर को अपनाने से पहले स्वास्थ्य क्षेत्र में कुछ सुरक्षात्मक उपायों को अपनाया जाना बहुत ही आवश्यक है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस क्षेत्र में डिजिटल डेटा का दुरुपयोग न होने पाए।
      • इस संदर्भ में सरकार को व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 को अधिनियमित करने में तेजी लानी चाहिये,जिससे यह सुनिश्चित होगा कि डेटा के उपयोग के लिये सहमति केवल परिभाषित उद्देश्यों के लिये ही मांगी जा सकती है।

    आगे की राह

    • गोपनीयता नीति: सरकार को डेटा की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिये इसकी चोरी और धोखाधड़ी पर सख्त नीति बनाना चाहिये।
    • डिजिटल साक्षरता: लोगों को डिजिटल रूप से साक्षर बनाने के लिये जागरूकता पैदा करने के प्रयास होने चाहिये ताकि उन्हें टेलीमेडिसिन तक आसानी से पहुँच प्राप्त हो सके।
    • डेटा संग्रह के लिये दिशानिर्देश: डेटा की सुरक्षित हैंडलिंग और इसकी चोरी को रोकने के लिये इसके भंडारण के लिये सख्त दिशानिर्देश होने चाहिये।

    डिजिटल स्वास्थ्य सेवा की अवधारणा इस मायने में एक बड़ा वैचारिक बदलाव है कि इन व्यापक बदलावकारी प्रौद्योगिकियों से, स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता तथा मरीज़ दोनों को डिजिटल एवं वस्तुनिष्ठ डेटा की सुलभ पहुँच प्रदान होने के माध्यम से साझा निर्णय लेने के साथ एक समान स्तर के डॉक्टर-रोगी संबंध व स्वास्थ्य देखभाल के लोकतंत्रीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2