05 Sep 2022 | रिवीज़न टेस्ट्स | सामान्य अध्ययन पेपर 1
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
हल करने का दृष्टिकोण:
- यूनेस्को क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क (यूसीसीएन) की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- एक उदाहरण देते हुए व्यक्तिगत नामित शहरों के साथ-साथ अन्य शहरों के लिये यूसीसीएन के लाभ को समझाइये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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UCCN को 2004 में उन शहरों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया था जिन्होंने रचनात्मकता को स्थायी शहरी विकास हेतु एक रणनीतिक कारक के रूप में पहचाना है। वर्तमान में 246 शहर निम्नलिखित उद्देश्यों की दिशा में एक साथ काम कर रहे हैं: स्थानीय स्तर पर विकास योजनाओं हेतु रचनात्मक और सांस्कृतिक उद्योगों को केंद्र में रखना, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रूप से सहयोग करना आदि।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 31 अक्तूबर को विश्व शहर दिवस के रूप में नामित किया है।
यूनेस्को क्रिएटिव सिटीज कार्यक्रम के तहत भारतीय शहरों की मान्यता:
- UCCN में संगीत, कला, लोकशिल्प, डिज़ाइन, सिनेमा, साहित्य तथा डिजिटल कला और पाककला जैसे सात रचनात्मक क्षेत्र शामिल हैं।
- UCCN में शामिल भारत के शहर:
- श्रीनगर - शिल्प और लोक कला (2021)
- मुंबई - फिल्म (2019)।
- हैदराबाद - गैस्ट्रोनॉमी (2019)।
- चेन्नई- संगीत का रचनात्मक शहर (2017)।
- जयपुर- शिल्प और लोक कला (2015)।
- वाराणसी- संगीत का रचनात्मक शहर (2015)।
- नेटवर्क में शामिल शहर अपनी सर्वोत्तम प्रथाओं और सांस्कृतिक गतिविधियों में सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों के साथ-साथ नागरिक समाज को शामिल करने हेतु साझेदारी विकसित करने के लिये प्रतिबद्ध होते हैं:
- सांस्कृतिक गतिविधियों, वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्माण, उत्पादन, वितरण तथा प्रसार को सुदृढ़ करना;
- रचनात्मकता एवं नवोन्मेष के केंद्र विकसित करना एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में रचनाकारों एवं पेशेवरों के लिये अवसरों का विस्तार करना;
- सांस्कृतिक जीवन में, विशेष रूप से उपेक्षित अथवा संवेदनशील वर्गों (कमज़ोर समूहों) एवं व्यक्तियों के लिये अधिगम एवं सहभागिता में सुधार करना;
- सतत् विकास योजनाओं में संस्कृति एवं रचनात्मकता को पूर्ण रूप से एकीकृत करने के लिये।
- क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क न केवल सतत् विकास के लिये रचनात्मकता की भूमिका पर प्रतिबिंब हेतु एक मंच के रूप में यूनेस्को का एक विशेषाधिकार प्राप्त भागीदार है, बल्कि सतत् विकास के लिये 2030 एजेंडा के कार्यान्वयन के लिये विशेष रूप से कार्रवाई और नवाचार के मुख्य आधार के रूप में भी है।
कार्रवाई के क्षेत्र:
- रचनात्मकता एवं सांस्कृतिक उद्योगों को स्थानीय स्तर पर अपनी विकास योजनाओं के केंद्र में रखने एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रूप से सहयोग करने के एक सामान्य उद्देश्य की दिशा में मिलकर कार्य करते हैं जैसे:
- अनुभव, ज्ञान और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना।
- सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों और नागरिक समाज को जोड़ने वाली पायलट परियोजनाओं, भागीदारी और पहल सुनिश्चित करना।
- पेशेवर और कलात्मक विनिमय कार्यक्रम और नेटवर्क।
- रचनात्मक शहरों के अनुभव , अनुसंधान और मूल्यांकन पर अध्ययन।
- शहरी विकास के लिये नीतियाँ और उपाय।
- संचार और जागरूकता बढ़ाने की गतिविधियाँ।
- यूनेस्को के रचनात्मक शहरों के कार्यक्रम के तहत मान्यता प्रदान करने से भारतीय शहरों को होने वाले लाभ:
- शहरों में एसडीजी को शहर की विशिष्टता के साथ संरेखित करना और अन्य शहरों को भी प्रेरित करना।
- भौतिकी सौंदर्य और पारिस्थितिक वातावरण में बदलाव के साथ सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था, पर्यटन और नवाचार को बढ़ावा देना।
- सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था, पर्यटन और नवाचार को बढ़ावा देना
- नीति निर्माताओं को शहर की अमूर्त विरासत के लिये विशेष सुरक्षा हेतु प्रेरित करना तथा वैश्विक स्तर पर इसकी मान्यता प्रदान करना।
- शहरों में अधिक उदार सामाजिक संरचना प्रदान करना जो एक प्रगतिशील समाज के रूप में विकसित हों।
यूसीसीएन सतत् विकास लक्ष्यों को लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में शामिल करने तथा शहरों के स्तर पर व्यवहारिकता लाने का अनूठा तरीका है साथ ही यह उन शहरों के कुशल श्रमिकों को भी मान्यता प्रदान करते हैं जिन्होंने समाज और दुनिया में मूल्यवान अमूर्त संस्कृति को संरक्षित किया है।
उत्तर 2:
हल करने का दृष्टिकोण:
- रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में लिखकर उत्तर का परिचय दीजिये।
- विभिन्न क्षेत्रों में रवींद्रनाथ टैगोर के योगदान की सूची बनाइये।
- टैगोर और गांधीजी के बीच वैचारिक मतभेदों का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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रवींद्रनाथ टैगोर एक बहु-प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले बंगाली कवि, उपन्यासकार, चित्रकार थे जिन्हें भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान की रचना करने का श्रेय भी दिया जाता है।
आधुनिक भारतीय इतिहास में उनका अमिट योगदान:
- इन्हें 'गुरुदेव' (Gurudev), 'कबीगुरू' (Kabiguru) और 'बिस्वाकाबी’ (Biswakabi) के नाम से भी जाना जाता है।
- डब्लू.बी. येट्स (W.B Yeats) द्वारा रबींद्रनाथ टैगोर को आधुनिक भारत का एक उत्कृष्ट एवं रचनात्मक कलाकार कहा गया। ये एक बंगाली कवि, उपन्यासकार और चित्रकार थे, जिन्होंने पश्चिम में भारतीय संस्कृति को अत्यधिक प्रभावशाली ढंग से पेश किया।
- वह एक असाधारण और प्रसिद्ध साहित्यकार थे जिन्होंने साहित्य एवं संगीत को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।
कला और संस्कृति में रवींद्रनाथ का योगदान:
- शास्त्रीय और लोक का मिश्रण:
- रवींद्र संगीत: यह नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित संगीत को फिर से बनाता है। संगीत शास्त्रीय तत्वों और बंगाली लोक शैलियों का मिश्रण है। अपने देश को अपनी ज़रूरतों से ऊपर रखने के लिये बंगाली इनके गीतों को गाते हैं।
- बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट: बंगाल स्कूल का विचार 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में अबनींद्रनाथ टैगोर (रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे) के कार्यों के साथ आया था।
- इस स्कूल के सबसे प्रसिद्ध चित्रकारों में से एक रवींद्रनाथ टैगोर थे। कुछ कला इतिहासकारों का तर्क है कि उनके चित्रों को उनके लेखन से जोड़ा जा सकता है। उनके कई छात्र बंगाल स्कूल के प्रसिद्ध चित्रकार बन गए।
- मणिपुरी नृत्य: रवींद्रनाथ टैगोर ने इस नृत्य शैली को तब सुर्खियों में ला दिया जब उन्होंने इसे शांति निकेतन में पेश किया।
- शांति निकेतन-शिक्षा और ग्रामीण पुनर्निर्माण: 22 दिसंबर 1901 को रवींद्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में अपने स्कूल की स्थापना की (मूल रूप से प्राचीन वन आश्रम की परंपरा में इसका नाम ब्रह्मचर्य आश्रम रखा गया)।
- स्कूल का उद्देश्य बड़े नागरिक समुदाय के प्रति दायित्व की भावना के साथ शिक्षा को संयोजित करना था।
रवींद्रनाथ टैगोर का साहित्यिक योगदान:
- उन्हें बंगाली गद्य और कविता के आधुनिकीकरण हेतु उत्तरदायी माना जाता है। उनकी उल्लेखनीय कृतियों में गीतांजलि, घारे-बैर, गोरा, मानसी, बालका, सोनार तोरी आदि शामिल हैं, साथ ही उन्हें उनके गीत 'एकला चलो रे’ (Ekla Chalo Re) के लिये भी याद किया जाता है।
- उन्होंने दो देशों, भारत और बांग्लादेश के लिये राष्ट्रगान दिया।
- अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा वे एक दार्शनिक और शिक्षाविद भी थे, जिन्होंने वर्ष 1921 में विश्व-भारती विश्वविद्यालय (Vishwa-Bharati University) की स्थापना की जिसने पारंपरिक शिक्षा को चुनौती दी।
- रबींद्रनाथ टैगोर को उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये वर्ष 1913 में साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
- वर्ष 1915 में उन्हें ब्रिटिश किंग जॉर्ज पंचम (British King George V) द्वारा नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया गया।
उनके वैचारिक योगदान:
- वे महात्मा गांधी के अच्छे मित्र थे और माना जाता है कि उन्होंने ही महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी। साथ ही उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को राष्ट्र और इसके लोगों की सेवा के लिये 'देश नायक' की उपाधि भी दी है।
- उन्होंने सदैव इस बात पर ज़ोर दिया कि विविधता में एकता भारत के राष्ट्रीय एकीकरण का एकमात्र संभव तरीका है।
- दूसरी ओर टैगोर ने आध्यात्मिक मूल्यों और बहुसंस्कृतिवाद, विविधता और सहिष्णुता में स्थापित एक नई विश्व संस्कृति के निर्माण को बढ़ावा दिया।
- स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान: टैगोर ने समय-समय पर अपने स्वयं के गैर-भावुक और दूरदर्शी तरीके से भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लिया।
- बंगाल विभाजन का विरोध : रवींद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन का कड़ा विरोध किया था। टैगोर ने बंगाल के विभाजन के फैसले के खिलाफ कई राष्ट्रीय गीत लिखे और विरोध सभाओं में भाग लिया।
- 13 अप्रैल, 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के कारण उन्होंने ब्रिटिश सरकार का विरोध करते हुए अपनी ‘नाइट हुड’ की उपाधि लौटा दी।
उनके और महात्मा गांधी के बीच वैचारिक तुलना:
दोनों के बीच बहुत सारे सामान्य विचार थे लेकिन दोनों के बीच कुछ बुनियादी मतभेद भी थे।
समानताएँ
- दोनों ने एक दूसरे के प्रति अहिंसा और सहिष्णुता पर आधारित मानवतावाद और प्रकृति के प्रेम की भविष्यवाणी की।
- दोनों गरीब भारत की समस्याओं को दूर करने के लिये आत्मनिर्भरता के पक्ष में थे।
- गांधीजी मानते थे कि ईश्वर 'सत्य' में है लेकिन टैगोर ने 'प्रेम' में अपना ईश्वरत्व पाया। लेकिन उनके रास्ते अलग थे। गांधी ने अहिंसा के मार्ग से 'सत्य' को प्राप्त करने का प्रयास किया लेकिन टैगोर ने सहयोग, आपसी सम्मान और सहिष्णुता के माध्यम से अपने ईश्वर/प्रेम को प्राप्त करने का प्रयास किया।
असमानताएँ
गांधीजी के साथ टैगोर की असहमति मुख्य रूप से तीन मुद्दों पर थी:-
- गांधी के असहयोग आंदोलन की टैगोर ने कठोरता से आलोचना की क्योंकि उनका विचार था कि जनता को बिना किसी प्रकार के आत्म-नियंत्रण के भागीदारी से इंकार करने का विकल्प नहीं दिया जाना चाहिये। उनके अनुसार, यह असहयोग आंदोलन की अवधारणा का एक नकारात्मक सार है जो हिंसा से बच नहीं सकता क्योंकि हिंसा असहयोग का एक स्वाभाविक उपोत्पाद है (जो चौरी-चौरा घटना में सच साबित हुआ)।
- स्वदेशी आंदोलन के लिये विदेशी कपड़ों को जलाना एक ऐसा मुद्दा था जिससे टैगोर असहमत थे जबकि गांधी इसके पक्ष में थे।
- उन्होंने कहा कि, गरीबी में रहने वाले उत्पीड़ित और गरीब लोगों के लिये जीवन का एक स्थायी तरीका चरखा हेतु गांधी के प्रस्ताव ने गरीबी उन्मूलन के लिये आधुनिक कारखानों और मशीनरी की अवहेलना की।
- चरखे पर, टैगोर ने भविष्यवाणी की थी कि यह भारत को मध्यकालीन युग में वापस खींच लेगा।
- उन्होंने दावा किया कि चरखे ने लोगों के मन में विज्ञान के प्रति अनादर का भाव पैदा कर दिया है और गांधीजी ने इस अवधारणा का उपयोग करके अत्यधिक गरीबी और दुख को समाप्त करने के लिये विज्ञान की शक्ति की अनदेखी की है।
- देश को गरीबी के जाल से बाहर निकालने और ऊपर उठाने के लिये उन्होंने भारत को आगे बढ़ने और एक अभिनव और जिज्ञासु दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दी।
तमाम मतभेदों के बावजूद दोनों आदर्शवादी थे तथा एक-दूसरे के प्रति अपार सम्मान रखते थे।
उत्तर 3:
हल करने का दृष्टिकोण:
- वर्ष 1905 के विभाजन विरोधी आंदोलन का परिचय दीजिये।
- वर्ष 1905 के विभाजन विरोधी आंदोलन, स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के भविष्य की राष्ट्रीय गतिविधियों पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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- विभाजन विरोधी आंदोलन (अवधि 1903-05), दिसंबर 1903 में लॉर्ड कर्ज़न के बंगाल प्रांत को विभाजित करने के फैसले के खिलाफ सुरेंद्रनाथ बनर्जी, के.के.मित्रा और पृथ्वीशचंद्र (सभी नरमपंथी) जैसे लोगों द्वारा नेतृत्व प्रदान किया गया था।
- बंगाल विभाजन हेतु दिया गया आधिकारिक कारण यह था कि बंगाल प्रशासनिक दृष्टि से बहुत बड़ा है। कुछ हद तक यह सही था लेकिन विभाजन की योजना का असली कारण बंगाल में चल रहे भारतीय राष्ट्रवाद के केंद्र को कमज़ोर करने की ब्रिटिश इच्छा थी।
- नरमपंथियों के विभाजन विरोधी अभियान में शामिल हैं:
- सरकार को भेजी गई याचिकाएँ
- जनसभाएँ आयोजित की गईं और
- हितबादी, संजीबनी और बंगाली जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से विचारों का प्रसार किया गया।
विभाजन के प्रस्ताव के खिलाफ ज़ोरदार जनमत की अनदेखी करते हुए, सरकार ने जुलाई 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा की।
विभाजन विरोधी आंदोलन/अभियान की विफलता के कारण स्वदेशी और बहिष्कार जैसे व्यापक आंदोलन का उदय हुआ जिसने राष्ट्रीय गतिविधियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया।
स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन: 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता टाउनहॉल में आयोजित एक विशाल बैठक में बहिष्कार प्रस्ताव के पारित होने के साथ स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक घोषणा की गई थी। इसके तहत निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल थीं:
- नेताओं ने मैनचेस्टर के कपड़े और लिवरपूल नमक के बहिष्कार के संदेश का प्रचार किया।
- लोगों ने उपवास किया, गंगा में स्नान किया और वंदे मातरम गीत गाते हुए नंगे पांव जुलूस निकाला।
- 'अमार सोनार बांग्ला' (आधुनिक बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान) जिसे सड़कों पर मार्च करने वाली भारी भीड़ द्वारा गाया गया था।
- बंगाल के दो हिस्सों की एकता के प्रतीक के रूप में एक दूसरों के हाथों में राखियाँ बांधी गई थी।
इसके तुरंत बाद यह आंदोलन तिलक (पुणे और बॉम्बे), लाला लाजपत राय और अजीत सिंह (पंजाब), सैयद हैदर रज़ा (दिल्ली) और चिदंबरम पिल्लई (मद्रास) के साथ देश के अन्य हिस्सों में फैल गया।
विभाजन विरोधी आंदोलन अभियान के रूप में शुरू हुआ लेकिन विभाजन विरोधी आंदोलन, स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के नाम से 3 आंदोलनों की तिकड़ी बन गया। इन आंदोलनों की तिकड़ी ने राष्ट्रीय गतिविधियों को बदल दिया जैसे:
- दादाभाई नौरोजी ने कलकत्ता अधिवेशन (1906) में स्वशासन या स्वराज को कॉन्ग्रेस का लक्ष्य घोषित किया।
- चरमपंथियों ने स्वदेशी और बहिष्कार के अलावा निष्क्रिय प्रतिरोध का आह्वान किया जिसमें सरकारी स्कूलों और कॉलेजों, सरकारी सेवाओं, अदालतों, विधान परिषदों, नगर पालिकाओं, सरकारी उपाधियों आदि का बहिष्कार शामिल था।
- अरबिंदो ने कहा कि "राजनीतिक स्वतंत्रता एक राष्ट्र की प्राणवायु है"। इस प्रकार चरमपंथियों ने भारत की स्वतंत्रता के विचार को भारत की राजनीति में केंद्रीय स्थान प्रदान किया।
- इन आंदोलनों के कारण संघर्ष के नए रूप सामने आए जैसे:
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार: इस आंदोलन में विदेशी कपड़े को सार्वजनिक रूप से जलाना, विदेशी निर्मित नमक या चीनी का बहिष्कार शामिल था।
- जनसभाएँ और जुलूस: जनसभाएँ और जुलूस जन लामबंदी के प्रमुख तरीकों के रूप में उभरे।
- स्वयंसेवकों की वाहिनी या 'समितियाँ': सामूहिक लामबंदी के एक शक्तिशाली साधन के रूप में और जादुई लालटेन व्याख्यान के माध्यम से जनता के बीच राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के लिये।
- पारंपरिक लोकप्रिय त्योहारों और मेलों का भावनापूर्ण उपयोग: जनता तक पहुँचने और राजनीतिक संदेश फैलाने हेतु तिलक के गणपति और शिवाजी उत्सव स्वदेशी प्रचार का माध्यम बन गए।
- आत्मनिर्भरता पर दिया गया ज़ोर: आत्मनिर्भरता या 'आत्मा शक्ति' को प्रोत्साहित किया गया।
- स्वदेशी या राष्ट्रीय शिक्षा का कार्यक्रम: ब्रिटिश शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार का आंदोलन। राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रीय नियंत्रण में साहित्यिक, वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा की एक प्रणाली को व्यवस्थित करने के लिये की गई थी।
- स्वदेशी या स्थानीय उद्यम: स्वदेशी की भावना को स्वदेशी कपड़ा मिलों, साबुन और माचिस की फैक्ट्रियों, टेनरियों, बैंकों, बीमा कंपनियों, दुकानों आदि की स्थापना में भी अभिव्यक्ति मिली।
- सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रभाव: इस अवसर पर टैगोर का अमार सोनार बांग्ला लिखा गया।
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान प्रचलित गांधीवादी तकनीकों जैसे निष्क्रिय प्रतिरोध, अहिंसक असहयोग, ब्रिटिश जेलों को भरने का आह्वान, सामाजिक सुधार, रचनात्मक कार्य, विदेशी निर्मित नमक या चीनी का बहिष्कार आदि।
आंदोलन द्वारा लाए गए अन्य परिवर्तन:
- स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलनों ने समाज के एक बड़े वर्ग द्वारा आधुनिक राष्ट्रवादी राजनीति में जन भागीदारी (समाज के सभी वर्गों) को प्रोत्साहित किया।
- पहली बार महिलाएँ अपने घरों से बाहर निकलीं और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और धरना में शामिल हुई।
- असहयोग और निष्क्रिय प्रतिरोध के विचार महात्मा गांधी द्वारा कई वर्षों बाद 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलनों में सफलतापूर्वक लागू किये गए।
आंदोलन की उपर्युक्त विशेषता से यह आधुनिक भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है क्योंकि-
- यह एक से अधिक तरीकों से 'लीप फॉरवर्ड' साबित हुआ। अब तक अछूते वर्गों-छात्रों, महिलाओं, श्रमिकों, शहरी और ग्रामीण आबादी के कुछ वर्गों ने भाग लिया।
- राष्ट्रीय आंदोलन के सभी प्रमुख रुझान, रूढ़िवादी संयम से लेकर राजनीतिक उग्रवाद तक, क्रांतिकारी गतिविधियों से लेकर प्रारंभिक समाजवाद तक, याचिकाओं और प्रार्थनाओं से लेकर निष्क्रिय प्रतिरोध और असहयोग तक स्वदेशी आंदोलन के दौरान उभरे।
- राष्ट्रीय आंदोलन की समृद्धि केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें कला, साहित्य, विज्ञान और उद्योग भी शामिल थे।
- लोग नींद से जाग गए थे और अब उन्होंने साहसिक राजनीतिक पदों को लेना और राजनीतिक कार्यों के नए रूपों में भाग लेना सीख लिया था।
- स्वदेशी अभियान ने औपनिवेशिक विचारों और संस्थाओं के आधिपत्य को कमज़ोर कर दिया।
- भविष्य का संघर्ष प्राप्त अनुभव से बहुत अधिक आकर्षित करना था।
आंदोलन के इन सभी परिणामों ने विभिन्न विचारधाराओं, व्यक्तित्वों और तकनीकों के तहत राष्ट्रीय आंदोलन को अलग-अलग स्थानों में निर्देशित किया।
उत्तर 4:
हल करने का दृष्टिकोण:
- धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के साथ उत्तर का परिचय दीजिये।
- भारत में साम्प्रदायिकता के उदय के लिये उत्तरदायी कारकों की संख्या बताइये।
- भारत में साम्यवाद के संभावित परिणामों का उल्लेख कीजिये।
- सांप्रदायिकता के खतरे को कम करने के लिये आगे का रास्ता सुझाएँ।
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- साम्प्रदायिकता की विचारधारा धार्मिक विश्वास के आधार पर भारतीय समाज को विभाजित करती है और इस बात पर ज़ोर देती है कि हर धर्म के हित एक-दूसरे से अलग हो रहे हैं और यहाँ तक कि शत्रुतापूर्ण भी हैं।
- संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष भारत के बावजूद, कई कारणों से भारत में सांप्रदायिकता बढ़ी:
भारत में सांप्रदायिकता के विकास के पीछे कारक:
- ऐतिहासिक कारक:
- 1947 से पहले के भारत में सांप्रदायिकता: यह पाकिस्तान के निर्माण के लिये राजनीति से प्रेरित लोगों के स्वार्थ से प्रेरित था।
- वर्ष 1960 के दशक में यह पाकिस्तान प्रेरित खालिस्तानी समूहों द्वारा संचालित पंजाब राज्य में अलगाव की मांग के रूप में एक अलगाववादी आंदोलन के रूप में उभरा था। विशेष धार्मिक पहचान के नाम पर पाकिस्तान द्वारा समर्थित अलगाववादी आंदोलन के रूप में वर्ष 1980 के दशक के दौरान जम्मू और कश्मीर में भी यही स्थिति दोहराई गई थी।
- राजनीतिक कारक:
- राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा उत्पन्न राजनीतिक आदर्शवाद (धर्मनिरपेक्षता की तरह) की अपरिहार्य थकावट जिसने लोगों, विशेषकर युवाओं को प्रेरित किया और धर्मनिरपेक्ष विचारों को गति प्रदान की।
- सांप्रदायिक हिंसा के साथ बर्ताव में सरकारी तंत्र, खासकर पुलिस की ढिलाई बढ़ती जा रही है जैसे दिल्ली पुलिस पर वर्ष 2020 के दिल्ली दंगों में उदासीनता का आरोप लगाया गया।
- राजनीति में धर्म की घुसपैठ: उदाहरण के लिये कॉन्ग्रेस (धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल) ने वर्ष 1960 के दशक में केरल में मुस्लिम लीग और पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन किया।
- अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को समझने योग्य, लोकतांत्रिक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की तुलना में कम खतरनाक के रूप में पेश किया गया।
- वोट बैंक की राजनीति के लिये राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक रूढ़िवादिता के पक्ष में सरकार के एक और स्तंभ के निर्णय के खिलाफ जाकर लिया गया निर्णय जैसे शाह बानो मामले में सवोच्च न्यायालय के फैसले को संवैधानिक संशोधन के जरिये वापस लेना।
- सामाजिक-आर्थिक कारक:
- साम्प्रदायिक विचारधारा और साम्प्रदायिक हिंसा द्वारा लोगों का साम्प्रदायिकीकरण।
- आर्थिक कठिनाई, बेरोज़गारी, सामाजिक चिंता, युवाओं के लिये अपर्याप्त अवसर भी प्रबल थे, युवाओं को पूरे समाज के हितों के खिलाफ निर्देशित करने के लिये एक बहुत ही अच्छा अवसर था।
- अभद्र भाषा (हरिद्वार धर्म संसद-अभद्र भाषा 2021), पेड न्यूज और फेक न्यूज जैसे समकालीन कारकों ने लोगों के सांप्रदायिकरण को बढ़ा दिया। उदाहरण के लिये 2020 दिल्ली के दंगे।
- सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा भी असामाजिक तत्वों द्वारा छेड़खानी (2013, मुज़फ्फरनगर दंगा), यौन उत्पीड़न, बलात्कार, आदि जैसे कृत्यों द्वारा विकसित और मज़बूत की गई।
सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिकता को विभिन्न तरीकों से प्रस्तुत और व्यक्त किया जा सकता है। लेकिन समाज के लिये इसके बहुत प्रतिकूल परिणाम हैं:
सांप्रदायिकता के परिणाम:
- यह समाज (सांप्रदायिक हिंसा और दंगे) और मानव मन (तर्कसंगत और न्यायपूर्ण विचार प्रक्रियाओं को ज़हर देना) दोनों में अशांति का माहौल बनाता है।
- सांप्रदायिक हिंसा और विचारधारा जीवन और संपत्ति को नष्ट कर रही है और अनुत्पादक वातावरण बना रही है।
- साम्प्रदायिकता ने समाज में उदार और उत्पादक विचारों को अपनाने में बाधाएँ भी लाईं है।
- असुरक्षा और हिंसा की भावना लोगों के प्रवास को प्रतिकूल परिस्थितियों से बचने के लिये प्रबल कर सकती है जैसे कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन और कैराना (यूपी में एक शहर) से सांप्रदायिक प्रवास।
- वैचारिक स्तर पर यह ज़ेनोफोबिया पर हावी है।
- छोटे शहरों और महानगरों में साम्प्रदायिक विचारधारा समान विश्वास वाले लोगों बाकी समुदायों या जातियों से अलग-थलग कर देती है।
यद्यपि साम्प्रदायिकता समाज के उदय के साथ उभरी, लेकिन इसकी तीव्रता को रोका जाना चाहिये।
भारतीय समाज में सांप्रदायिक विचारधारा को कम करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिये:
- समाज और जनता के कल्याण के लिये संवैधानिक भावना के अनुसार राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक आदर्शवाद का अभ्यास करने और धार्मिक एवं सांप्रदायिक भावना को राजनीतिक क्षेत्र में लाने की आवश्यकता है।
- पूर्व संध्या पर छेड़खानी, लड़कियों के उत्पीड़न और सांप्रदायिक समाचारों जैसे मुद्दों से निपटने के लिये कानून और व्यवस्था को बहुत चुस्त होना चाहिये ताकि मौके पर ही स्थिति को कम किया जा सके और मुज़फ्फर नगर जैसे बड़े नुकसान को रोका जा सके।
- समाज में क्या हो रहा है, इसके प्रति सतर्क रहने के लिये पुलिस कर्मियों को सोशल मीडिया समूहो तथा समाज से संबंधित पृष्ठों का हिस्सा होना चाहिये। पुलिस विभाग ने ऐसे मुद्दों को कम करने के लिये केरल पुलिस के साइबरडोम के मॉडल को अपनाया है।
- समग्र और व्यवस्थित समाज के लिये एमएचए के तहत स्थापित सांप्रदायिक सद्भाव के लिये राष्ट्रीय फाउंडेशन को और अधिक मज़बूती प्रदान करने की आवश्यकता है।
- सोशल मीडिया दिग्गजों को सांप्रदायिक, फेक और पेड न्यूज के लिये जवाबदेह होना चाहिये, जो समाज में अधिक से अधिक नुकसान करने की क्षमता रखते हैं।
- चुनाव में उभर रहे सांप्रदायिक मुद्दों से निपटने के लिये चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं के पास और ताकत होनी चाहिये।
साम्यवाद को समाज से पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन हमें इसे नियंत्रण में रखने के लिये सतर्क रहना चाहिये। हमें विवेकानंद की भावना का पालन करना चाहिये यानी ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं बनना है, न ही हिंदू या बौद्ध को ईसाई बनना है। लेकिन प्रत्येक को एक दूसरे की भावना को आत्मसात करना और अपने व्यक्तित्व को बनाए रखना चाहिये और साथ ही विकास के अपने नियम के अनुसार विकसित होना चाहिये।
उत्तर 5:
हल करने का दृष्टिकोण:
- समाज के वंचित वर्गों के लिये सामाजिक सशक्तीकरण और इसके महत्त्व का वर्णन कीजिये।
- समाज के विभिन्न वर्गों की प्रतिष्ठा को सुदृढ़ करने के साधनों का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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सामाजिक सशक्तिकरण स्वायत्तता और आत्मविश्वास की भावना विकसित करने तथा सामाजिक संबंधों एवं सामाजिक रूप से वंचित वर्गों को बाहर करने और उन्हें गरीबी में रखने वाली संस्थाओं को बदलने के लिये व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रक्रिया है।
आबादी के विभिन्न वर्गों का सामाजिक सशक्तीकरण कमज़ोर वर्ग द्वारा प्राप्त सदियों पुराने भेदभाव और पीड़ा को दूर करता है और एक न्यायपूर्ण, समतावादी और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में सक्षम बनाता है। यह प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों और विभिन्न अन्य अनुसूचियों में निहित संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों की पुष्टि करता है।
सशक्तीकरण सभी वर्गों के आर्थिक योगदान के माध्यम से एक राष्ट्र की समग्र शक्ति में योगदान प्रदान करता है, विभिन्न समुदायों के बीच मतभेदों और विवादों को दूर करता है तथा सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक शक्ति के साथ मिलकर कार्य करता है।
भारत में सामाजिक रूप से वंचित समूहों में एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिलाएँ शामिल हैं।
सामाजिक रूप से वंचितों की गरिमा/प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने हेतु व्यापक लक्ष्य:
- एक कुशल वातावरण प्रदान करना: इन वर्गों के सामाजिक सशक्तीकरण में एक कुशल वातावरण प्रदान करना शामिल है जो इन समूहों के लिये स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों का प्रयोग करने, अपने विशेषाधिकारों का आनंद लेने और आत्मविश्वास एवं सम्मान के साथ जीवन जीने के लिये अनुकूल है। उदाहरण के लिये संस्थान, सार्वजनिक स्थान और निजी संबंध पक्षपात और भेदभाव से मुक्त हैं
- असमानताओं को दूर करना: असमानताओं को दूर करना, शोषण और दमन को समाप्त करना तथा कानूनों, संस्थागत सेट-अप, सकारात्मक भेदभाव के माध्यम से वंचित समूहों को सुरक्षा प्रदान करना ताकि सभी समुदायों के लिये एक मंच प्रदान किया जा सके।
- समावेशी विकास: यह सुनिश्चित करना कि सभी स्तरों पर संसाधनों के समान वितरण के माध्यम से विकासात्मक लाभ सामाजिक रूप से वंचितों तक पहुँचे।
- सहभागी विकास प्रक्रिया: योजना की प्रक्रिया में सामाजिक रूप से वंचित समूहों की भागीदारी सुनिश्चित करना न केवल लाभार्थियों के रूप में बल्कि आवश्यकता-आधारित परियोजनाओं के निर्माण में प्रतिभागियों के साथ-साथ उनके कार्यान्वयन में भी शामिल है।
सामाजिक सशक्तीकरण के अभिकर्त्ता:
- शिक्षा: शिक्षा आधारभूत आवश्यकता है जो सामाजिक सशक्तीकरण का सबसे प्रभावी साधन है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित करता है।
- आर्थिक सशक्तिकरण: अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के कमज़ोर वर्गों का आर्थिक सशक्तिकरण रोज़गार और आय सृजन गतिविधियों को बढ़ावा देने के माध्यम से किया जा रहा है, जैसे स्किल इंडिया, एससी/एसटी और महिलाओं के लिये स्टैंड अप इंडिया।
- सामाजिक न्याय: अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों की व्यापकता और वंचित समूहों के खिलाफ शोषण और अत्याचार के बढ़ते मामले के लिये नागरिक अधिकारों का संरक्षण (पीसीआर) अधिनियम, 1955, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (पीओए अधिनियम) सामाजिक भेदभाव की समस्याओं को दूर करने के लिये दो महत्त्वपूर्ण कानून है।
- राजनीतिक सशक्तीकरण: 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/महिलाओं के लिये आरक्षण प्रदान किया गया है, जो ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के स्थानीय शासन संस्थानों में आरक्षण प्रदान करके उनके राजनीतिक सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।
- जेंडर बजटिंग: जेंडर बजटिंग जेंडर को मुख्यधारा में लाने का एक शक्तिशाली उपकरण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विकास का लाभ पुरुषों की तरह महिलाओं तक पहुँच सके, यह महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा की ज़रूरतों पर केंद्रित खर्च सुनिश्चित करता है।
- आदिवासी उप-योजना: आदिवासी उप-योजना (टीएसपी) जनजातीय लोगों के तेज़ी से सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये एक रणनीति है। यह किसी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र की वार्षिक योजना का एक भाग है।
- अल्पसंख्यकों का सामाजिक सशक्तीकरण: प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम (पीएमजेवीके) जैसी योजनाओं के माध्यम से पहचान किये गए अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों के विकास की कमी को दूर करना, सरकारी प्रणालियों, बैंकों आदि के साथ बातचीत करने के लिये ज्ञान, उपकरण और तकनीक प्रदान करके महिलाओं के लिये नई रोशनी द्वारा अल्पसंख्यकों को सशक्त किया जाता है।
निष्कर्ष
- सामाजिक रूप से वंचित समूहों में अक्सर पारंपरिक सामाजिक बाधाओं के कारण सामुदायिक निर्णय लेने में कौशल और आत्मविश्वास की कमी होती है।
- इसलिये यह सुनिश्चित करने के लिये विशेष रूप से हाशिए के समूहों को लक्षित करना महत्त्वपूर्ण है कि वे समावेशी और सतत् विकास सुनिश्चित करते हुए सामाजिक रूप से सशक्त हो सकें।
उत्तर 6:
हल करने का दृष्टिकोण:
- सशक्तीकरण की अवधारणा के साथ उत्तर का परिचय दीजिये।
- उदाहरण दीजिये कि महिला सशक्तीकरण जनसंख्या नियंत्रण में कैसे मदद करेगी।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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सशक्तीकरण को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिये जिसमें पारस्परिक रूप से लाभकारी समाधान प्राप्त करने के अंतिम लक्ष्य हेतु सभी को सुनने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। महिला सशक्तीकरण न केवल जनसंख्या वृद्धि को रोकने का एक समाधान है, बल्कि समाज की समग्र प्रगति के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।
- यह मज़बूत और अधिक आत्मविश्वासी बनने, विशेष रूप से किसी के जीवन को नियंत्रित करने और अपने अधिकारों का दावा करने की प्रक्रिया है।
- संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के एक अनुमान के अनुसार, भारत वर्ष 2023 में चीन को पछाड़कर सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने के लिये तैयार है। भारत की जनसंख्या वर्ष 1970 में 555.2 मिलियन से बढ़कर वर्ष 2017 में 1,366.4 मिलियन हो गई है।
इसलिये भविष्य में जनसंख्या विस्फोट को कम करने के लिये निरंतर जनसंख्या वृद्धि हेतु भारत को पर्याप्त और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
सशक्तीकरण की कमी समाज में महिलाओं के हित को बाधित करती है तथा साथ ही समाज के लिये जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याएँ पैदा करती है:
- महिलाएँ कई बार आवश्यक परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सेवाओं के लिये भुगतान करने हेतु आर्थिक रूप से कमज़ोर होती हैं।
- परिवार नियोजन की विफलता सीधे बड़े पैमाने पर निरक्षरता से संबंधित है जो विवाह की कम उम्र, महिलाओं की निम्न स्थिति, उच्च बाल-मृत्यु दर आदि में भी योगदान देती है। वे जनसंख्या को नियंत्रित करने के विभिन्न तरीकों, गर्भ निरोधकों के उपयोग और जन्म नियंत्रण उपायों के बारे में कम से कम जानते हैं।
- उदाहरण के लिये यूएनएफपीए का अनुमान है कि विकासशील देशों में 200 मिलियन से अधिक महिलाओं को आधुनिक गर्भनिरोधक की अपूर्ण आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि वे गर्भवती नहीं होना चाहती हैं लेकिन सुरक्षित और प्रभावी गर्भनिरोधक विधियों का उपयोग नहीं कर रही हैं।
- अशिक्षित परिवार बढ़ती जनसंख्या दर के कारण उत्पन्न समस्याओं और मुद्दों को समझ नहीं पाते हैं।
- गर्भ निरोधकों के दुष्प्रभावों के बारे में गलत जानकारी, छोटे परिवारों के लाभों के बारे में जानकारी की कमी तथा गर्भनिरोधक के धार्मिक या पुरुष विरोध के कारण प्रजनन दर अधिक है।
- कई बच्चों वाली कोई भी महिला अपना अधिकांश जीवन एक माँ और पत्नी के रूप में बिताती है। वह अपने समुदाय और समाज में तब तक कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा सकती जब तक कि वह अपने परिवार को उचित आकार तक सीमित नहीं कर लेती।
आइए देखें कि विभिन्न क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण जनसंख्या नियंत्रण प्राप्त करने में कैसे मदद कर सकता है:
- राजनीतिक सशक्तीकरण से राजनीतिक प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और विभिन्न मंचों पर उनकी आवाज बुलंद होगी। इसलिये, महिलाएँ छोटे परिवारों की आवश्यकता और जन्म नियंत्रण तथा संबंधित लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में सक्षम होंगी।
- आर्थिक सशक्तीकरण से आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और परिवार की आय में वृद्धि होगी तथा महिलाओं को वित्तीय स्वायत्तता मिलेगी। यह जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करेगा क्योंकि एक विकसित समाज में पिछड़े समाज की तुलना में कम बच्चे होते हैं।
- इसके बाद बेहतर स्थिति और महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ावा देने से महिलाओं का सामाजिक सशक्तीकरण होगा, समाज में निर्णय लेने की संरचना को प्रभावित करेगा, महिलाओं को गुणात्मक स्वास्थ्य व प्रजनन अधिकार प्रदान करेगा।
- विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (Science Technology Engineering and Mathematics- STEM) में अधिक महिलाएँ अपने तकनीकी सशक्तीकरण का नेतृत्व करेंगी और सभी ज़रूरतों को बेहतर तरीके से पूरा करेंगी। एक कामकाजी महिला में गैर-कामकाजी महिला की तुलना में आनुपातिक रूप से कम प्रजनन क्षमता (TFR) दर होती है जैसे पश्चिमी यूरोप और सऊदी अरब में महिलाएँ ।
- नतीजतन महिलाओं के बीच आत्मनिर्भरता उनके सशक्तीकरण में परिणत होगी और उनके छोटे परिवार हो सकते हैं, जो प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण के लिये उपयुक्त है।
- लड़कियों पर शिक्षा का परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता है। शिक्षित लड़कियाँ अधिक काम करती हैं, अधिक कमाती हैं और शादी के बाद परिवार नियोजन पर ध्यान देती हैं।
- परिवार नियोजन न केवल परिवार कल्याण में सुधार करेगा बल्कि सामाजिक समृद्धि और व्यक्तिगत सुख प्राप्त करने में भी योगदान देगा।
- पुन: उत्पादक संसाधनों तक पहुँच और नियंत्रण के परिणामस्वरूप परिवार नियोजन से लेकर गर्भधारण के समय तक सभी स्तरों पर निर्णय लेने में स्तर, एजेंसी और सार्थक भागीदारी में वृद्धि होगी।
जनसंख्या की बेलगाम वृद्धि एक ऐसी समस्या है जिससे हमारे देश को उबरने की आवश्यकता है। हमारे देश में अधिक जनसंख्या की समस्या को हल करने के लिये सरकार, गैर सरकारी संगठनों और समाज के लोगों को मिलकर काम करना होगा। हालाँकि भारत को अपनी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है जो देश की जनसंख्या वृद्धि को रोकने में मदद कर सकें। जैसा कि नेहरू ने भी उल्लेख किया है, लोगों को जागरूक करने के लिये पहले महिलाओं को जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि एक बार जब एक महिला जागरूक हो जाती है तो उसके साथ पूरा देश और परिवार जागरूक हो जाता है।
उत्तर 7:
हल करने का दृष्टिकोण:
- लर्निंग पॉवर्टी को परिभाषित कीजिये।
- लर्निंग पॉवर्टी के संदर्भ में भारत की स्थिति दर्शाइए और SDG 4 हासिल करने और लर्निंग पॉवर्टी को दूर करने के तरीके सुझाइये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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विश्व बैंक के अनुसार, लर्निंग पॉवर्टी को 10 वर्ष की उम्र तक एक साधारण पाठ को पढ़ने और समझने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया गया है। यह उम्मीद की जाती है कि इस उम्र तक बच्चों को "स्वतंत्र रूप से और धाराप्रवाह सरल, लघु कथा एवं व्याख्यात्मक ग्रंथों को पढ़ने","स्पष्ट रूप से बताई गई जानकारी का पता लगाने" और "इन ग्रंथों में प्रमुख विचारों के बारे में कुछ स्पष्टीकरण देने तथा व्याख्या करने में सक्षम होना चाहिये।" यदि वे ऐसा कर सकते हैं तो यह उन्हें बाद के वर्षों में 'रीड टू लर्न' की अनुमति देता है।
यह भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई साक्षरता परिभाषा से अलग है। 2011 की जनगणना के अनुसार, सात वर्ष या उससे अधिक आयु का व्यक्ति, जो किसी भी भाषा में समझ के साथ पढ़ और लिख सकता है, को साक्षर माना जाता है। जो व्यक्ति केवल पढ़ सकता है लेकिन लिख नहीं सकता, वह साक्षर नहीं है।
सभी मूलभूत कौशल महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन हम पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करते हैं क्योंकि:
- पढ़ना प्रत्येक छात्र के लिये हर दूसरे क्षेत्र में सीखने के लिये एक प्रमुख मार्ग है।
- पढ़ने में प्रवीणता (सीखने का एक आसानी से समझा जाने वाला उपाय) अन्य विषयों में आधारभूत शिक्षा के लिये एक प्रॉक्सी के रूप में काम कर सकता है, उसी तरह जैसे कि बच्चे में स्टंटिंग की अनुपस्थिति स्वस्थ प्रारंभिक बचपन के विकास का एक मार्कर है।
- विश्व बैंक के विश्लेषण से पता चलता है कि लर्निंग का संकट वैश्विक स्तर पर अभी भी गंभीर है। विकासशील देशों में हर दो में से एक बच्चा अभी भी प्राथमिक स्कूल में अपने उम्र के हिसाब से पढ़ना नहीं सीख रहा है।
भारत में लर्निंग पॉवर्टी और SDG 4:
- सतत् विकास लक्ष्य (SDG) 4 सभी के लिये समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा तथा आजीवन सीखने के अवसरों को सुनिश्चित करता है।
- भारत में उच्च स्तर के नामांकन के बावजूद आज लगभग 55% बच्चे ‘लर्निंग पॉवर्टी' हैं। हालाँकि यह देश के नेशनल लार्ज-स्केल असेसमेंट (NLSA) के डेटा पर आधारित है, भारत ने विश्व बैंक के लर्निंग एंड असेसमेंट प्लेटफ़ॉर्म (LeAP) डायग्नोस्टिक्स में भाग नहीं लिया है।
भारत के प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में कुछ चुनौतियाँ:
- बुनियादी ढाँचे की कमी एक गंभीर मुद्दा है, जैसा कि जीर्ण-शीर्ण इमारतों, सिंगल-रूम क्लासरूम, पीने के पानी की सुविधाओं की कमी, अलग टॉयलेट और शैक्षिक अवसंरचना के अन्य पहलुओं से जाहिर होता है।
- शिक्षक क्षमता:
- उच्च गुणवत्ता वाली शैक्षिक प्रणाली के निर्माण के लिये आवश्यक योग्यता, क्षमता और ज्ञान वाले शिक्षकों की कमी।
- उदाहरणत: बंगाल शिक्षक भर्ती घोटाले ने शिक्षकों की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा कर दिया है।
- गैर-शैक्षणिक बोझ:
- अनावश्यक रिपोर्ट और प्रशासनिक कर्तव्यों के साथ शिक्षक अधिक काम करते हैं। जैसे यू.पी. प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की ज़िम्मेदारी है कि वह दूध खरीद कर बच्चों में बाँटें।
- खराब भुगतान:
- शिक्षकों को दयनीय (Pitiful) वेतन मिलता है जिसका असर उनकी नौकरी में रुचि और प्रतिबद्धता पर पड़ता है। इसलिये विद्यार्थी अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु कोचिंग सेंटर या ट्यूशन जैसे विकल्पों की तलाश करते हैं।
- शिक्षकों की अनुपस्थिति:
- कक्षा के दौरान अक्सर शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं। जवाबदेही की कमी और अपर्याप्त शासन ढाँचे से मुद्दों को और भी बदतर बना दिया गया है।
- ड्रॉपआउट की उच्च दर:
- स्कूल छोड़ने की दर अपेक्षाकृत अधिक है, खासकर महिला छात्रों के लिये।
- बंद स्कूल:
- खराब छात्र नामांकन, शिक्षकों की कमी और अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे के कारण कई स्कूल बंद हैं। सरकारी स्कूलों को निजी संस्थानों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
‘लर्निंग पाॅवर्टी’ को कम करने के उपाय:
- स्कूल खोलें और यह सुनिश्चित करें कि प्रत्येक बच्चे की उस तक पहुँच हो या फिर सभी बच्चे नामांकित हों।
- बच्चों की स्थिति जानने के लिये लर्निंग का आकलन करना।
- मूल सिद्धांत को पढ़ाने को प्राथमिकता देना।
- बच्चों और शिक्षकों दोनों के लिये भावनात्मक समर्थन पर काम करना।
- सॉफ्टवेयर या हार्डवेयर में नहीं बल्कि पूरे डिजिटल इकोसिस्टम में निवेश करके डिजिटल डिवाइड को कम करना।
- सरकार को व्यावहारिक ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करने के लिये कदम उठाने की ज़रूरत है और सर्वांगीण रचनात्मक शिक्षा सुनिश्चित करना।
- शिक्षण के प्रति उत्साही शिक्षकों की भर्ती और प्रशिक्षण के लिये विभिन्न सुधारों की आवश्यकता है।
- हमारी शिक्षा का सर्वांगीण विकास होना चाहिये। यह रटने कर बजाय रचनात्मकता पर आधारित होना चाहिये। व्यावहारिक या विज़ुअलाइज्ड शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- हमें उन देशों की मदद से अपने शैक्षिक बुनियादी ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिये जिनका गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा प्रदान करने में एक अद्भुत रिकॉर्ड रहा है, जैसे- फिनलैंड। हम निश्चित रूप से यह कर सकने में समर्थ हैं।
- सार्वभौमिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना केवल शिक्षकों के प्रदर्शन पर ही नहीं बल्कि कई हितधारकों की साझा ज़िम्मेदारी है जैसे- सरकारें, स्कूल, शिक्षक, माता-पिता, मीडिया और नागरिक समाज, अंतर्राष्ट्रीय संगठन और निजी क्षेत्र।
- उच्च शिक्षा क्षेत्रों में स्किलिंग में सुधार करना होगा और इसे विविध बनाना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज केवल 5% भारतीय कार्यबल किसी भी प्रकार के कौशल में प्रशिक्षित है, यदि कौशल विकास नहीं किया गया तो हम जनसांख्यिकीय आपदा का सामना कर सकते हैं।
- भारत की शिक्षा प्रणाली को सामान्य और तकनीकी ट्रैक के बीच अधिक लचीलेपन की आवश्यकता है। इसे आत्म-प्रभावकारिता और टीम वर्क जैसे सामाजिक-व्यवहार कौशल के निर्माण पर अधिक ध्यान देना चाहिये
- प्री-स्कूल में मूल्य शिक्षा शुरू की जाए और प्राइमरी में इसे मज़बूत किया जाए।
उत्तर 8:
हल करने की दृष्टिकोण
- परिचय में उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण चक्रवातों को परिभाषित कीजिये।
- भारत पर चक्रवातों के प्रभाव का उल्लेख कीजियेऔर विशेष रूप से चक्रवातों के संबंध में भारत की सुभेद्यता को उजागर कीजिये।
- आगे की राह के रूप में शमन और अनुकूलन तकनीकों के महत्त्व को बताते हुए निष्कर्ष निकालिये।
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उष्णकटिबंधीय चक्रवात:
- उष्णकटिबंधीय चक्रवात एक तीव्र गोलाकार तूफान है, जिसकी उत्पत्ति गर्म उष्णकटिबंधीय महासागरों में होती है तथा कम वायुमंडलीय दबाव, तेज़ पवनें और भारी वर्षा इसकी विशेषताएँ हैं। इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है:
- हिंद महासागर में चक्रवात
- अटलांटिक महासागर में हरिकेन
- पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण चीन सागर में टाइफून
- पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में विली-विलीज़
शीतोष्ण चक्रवात:
- समशीतोष्ण चक्रवातों को अतिरिक्त-उष्णकटिबंधीय चक्रवात के रूप में भी जाना जाता है।
- आंदोलन की दिशा पश्चिम से पूर्व की ओर होती है और सर्दियों के मौसम में अधिक स्पष्ट होती है। इन अक्षांश क्षेत्रों में ध्रुवीय और उष्णकटिबंधीय वायु द्रव्यमान मिलते हैं और अग्र भाग का निर्माण करते हैं।
समशीतोष्ण चक्रवात और उष्णकटिबंधीय चक्रवात के बीच प्रमुख अंतर
उष्णकटिबंधीय चक्रवात |
शीतोष्ण चक्रवात |
यह पूर्व से पश्चिम की ओर गति करता है। |
ये चक्रवात पश्चिम से पूर्व की ओर गति करते हैं |
अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र पर इसका प्रभाव पड़ता है। |
यह बहुत बड़े क्षेत्र को प्रभावित करता है |
इसकी हवा की गति बहुत अधिक और अधिक हानिकारक होती है। |
हवा का वेग तुलनात्मक रूप से कम होता है |
यह केवल 26-27 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले समुद्रों पर बनता है और भूमि पर पहुंचने पर नष्ट हो जाता है। |
यह भूमि और समुद्र दोनों पर बन सकता है |
यह 7 दिनों से अधिक नहीं रहता है |
यह 15 से 20 दिनों की अवधि तक चल सकता है |
उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के साथ भारत की संवेदनशीलता:
- यह पूर्वी जेट धाराओं के तहत चक्रवातों के पश्चिम की ओर गति के कारण भारत के पूर्वी तट को चक्रवातों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।
- पश्चिमी तट पर गुजरात, केरल और कर्नाटक के क्षेत्र बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक अपनी वक्रता गति और मुख्य भूमि भारत की ओर लौटने के कारण उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं।
- मछुआरों की आजीविका का नुकसान और पर्यटन उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- ग्रामीण से शहरी बाढ़, फसल की बर्बादी, प्रचलित जलजनित रोग भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवात द्वारा उत्पन्न कई चुनौतियाँ हैं।
- कुछ उष्णकटिबंधीय चक्रवात हैं जैसे- चक्रवात फानी (2019), तितली (2018), फैलिन (2013)।
समशीतोष्ण चक्रवातों के साथ भारत की सुभेद्यता:
- शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात शीत ऋतु में भूमध्य सागर से भारत में प्रवेश करते हैं। इनके कारण उत्तरी मैदानों में वर्षा होती है और दिसंबर तथा जनवरी के महीनों में पहाड़ों में हिमपात होता है। वे 'रबी' फसलों की खेती के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
प्रभाव :
- उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्र में हिमपात, हिमस्खलन शीतोष्ण चक्रवातों से प्रभावित होते हैं।
- सर्दी के मौसम में ओलावृष्टि से सरसों व अन्य रबी फसलों की फसल नष्ट हो जाती थी।
- पश्चिमी विक्षोभ के कारण ठंड की तीव्रता बढ़ने से मैदानी से लेकर पहाड़ियों तक कई चिकित्सीय जटिलताएँ आती हैं जैसे हाइपोथर्मिया, चिलब्लेंस आदि।
- कभी-कभी, पहाड़ी क्षेत्रों में पश्चिमी विक्षोभ के कारण होने वाली बारिश बाढ़ जैसी स्थिति (2015, कश्मीर) लाती है।
चक्रवातों के प्रति लोगों की संवेदनशीलता को कम करने के लिये विभिन्न उपाय किये जाने की आवश्यकता है:
- भारत को अपनी आपदा न्यूनीकरण और अनुकूलन तकनीकों को आधुनिक बुनियादी ढाँचे और सार्वजनिक एजेंसियों के समर्थन से स्थानीय लोगों की क्षमता विकास के साथ लगातार उन्नत करना है।
- चक्रवात और सुनामी जैसी आपदाओं के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति के रूप में तटीय हरित बुनियादी ढाँचे को विकसित करने की आवश्यकता है।
- चक्रवात जोखिम शमन परियोजना को बढ़ाने, आश्रयों के निर्माण, निकासी योजना और तटबंधों को मज़बूत करने सहित आपदा तैयारियों को बढ़ाने की आवश्यकता है।
- कृषक समुदायों के अनुकूलन और शमन के लिये कुट्टनाड तकनीक और खेती की कोरापुट तकनीक जैसी प्रथाओं को अपनाने की आवश्यकता है।
चक्रवात एक प्राकृतिक घटना है जिसे हमें मनुष्यों पर इसके प्रभाव को कम करने के तरीके अपनाने होंगे।
उत्तर 9:
हल करने का दृष्टिकोण:
- मिशन गगनयान का परिचय दीजिये।
- उदाहरण दीजिये कि कैसे मिशन अंतरिक्ष विनियमन के लिये भारत की आवाज को मज़बूत करेगा।
- चर्चा कीजिये कि मिशन भारत की अंतरिक्ष गतिविधियों को मुख्य रूप से पर्यटन को कैसे बढ़ावा देगा।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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- गगनयान कार्यक्रम में अल्पावधि में पृथ्वी की निचली कक्षा (LEO) के लिये मानव अंतरिक्ष उड़ान के प्रदर्शन की परिकल्पना की गई है और यह लंबे समय में एक सतत् भारतीय मानव अंतरिक्ष अन्वेषण कार्यक्रम की नींव रखेगा।
अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष विनियमन में मिशन गगनयान और भारत की आवाज:
- भारत अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक सहयोगी और ज़िम्मेदार खिलाड़ी है तथा उसने अंतरिक्ष गतिविधियों के विनियमन हेतु कई अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय भी अपनाए हैं, जिसमें शामिल हैं:
- 1967 में चंद्रमा और अन्य आकाशीय पिंड 1967 (बाहरी अंतरिक्ष संधि)।
- अंतरिक्ष वस्तुओं के कारण होने वाले नुकसान के लिये अंतर्राष्ट्रीय दायित्व पर अभिसमय 1972।
- अंतरिक्ष यात्री को बचाने, अंतरिक्ष यात्री की वापसी और अंतरिक्ष में भेजी गई वस्तु की वापसी पर समझौता 1968 (बचाव समझौता), 1968 आदि।
- वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी करीब दो प्रतिशत है और यह निकट भविष्य में सरकार की उदार नीति और निजी क्षेत्र के उद्यम द्वारा प्रतिस्पर्धी माहौल के कारण और वृद्धि करेगा।
- चंद्रमा और मंगल मिशन जैसे अंतरिक्ष मिशनों में भारत की असाधारण सफलता गगनयान मिशन द्वारा पूरक होगी और भारत को इतिहास रचने वाला दुनिया का चौथा देश बना देगा।
- ये मील का पत्थर और नीतिगत प्रयास सभी के हित में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंतरिक्ष विनियमन नीति के लिये भारत की आवाज को मज़बूत करेगा और एक प्रतिस्पर्धी माहौल तैयार करेगा।
मिशन गगनयान और भारत का अंतरिक्ष पर्यटन:
- स्पेस फाउंडेशन की एक 'स्पेस रिपोर्ट' के अनुसार, वैश्विक अर्थव्यवस्था बढ़कर 447 बिलियन डॉलर हो गई, जिसे एक दशक पहले की तुलना में 55% अधिक वृद्धि के रूप में जाना जाता है। वर्ष 2020 में, वैश्विक स्तर पर वाणिज्यिक अंतरिक्ष गतिविधि 6.6% बढ़कर लगभग 357 बिलियन डॉलर हो गई, जो कुल अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का लगभग 80% है।
- वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी केवल 2% है और ज्यादातर उपग्रह प्रक्षेपण गतिविधियों द्वारा संचालित है।
- क्षेत्र में भविष्य के विकास और आकाशीय पिंड से परे अंतरिक्ष पर्यटन की संभावना को मानने के लिये भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र ने निजी क्षेत्रों को बोर्ड पर लाने और अंतरिक्ष पर्यटन हेतु पर्यावरण में प्रबल होने के लिये कई कदम उठाए हैं, जो इस प्रकार हैं:
- स्पेसकॉम पॉलिसी 2020: इसरो द्वारा वाणिज्यिक भारतीय उद्योग की बढ़ी हुई भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये।
- इन-स्पेस: इन-स्पेस को निजी कंपनियों को भारतीय अंतरिक्ष अवसंरचना का उपयोग करने के लिये एक समान अवसर प्रदान करने के लिये लॉन्च किया गया था।
- भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्द्धन और प्राधिकरण केंद्र (IN-SPACe) को वर्ष 2020 में निजी कंपनियों को भारतीय अंतरिक्ष बुनियादी ढाँचे का उपयोग करने के लिये एक समान अवसर प्रदान करने हेतु अनुमोदित किया गया था।
- यह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और अंतरिक्ष से संबंधित गतिविधियों में भाग लेने या भारत के अंतरिक्ष संसाधनों का उपयोग करने वाले सभी लोगों के बीच एकल-बिंदु इंटरफेस के रूप में कार्य करता है।
- न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL): बजट 2019 में घोषित NSIL का उद्देश्य भारतीय उद्योग भागीदारों के माध्यम से वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिये इसरो द्वारा वर्षों से किये गए अनुसंधान और विकास का उपयोग करना है।
- भारतीय अंतरिक्ष संघ (ISpA): ISpA भारतीय अंतरिक्ष उद्योग की सामूहिक अभिव्यक्ति बनेगा। ISpA का प्रतिनिधित्व प्रमुख घरेलू और वैश्विक निगमों द्वारा किया जाएगा जिनके पास अंतरिक्ष एवं उपग्रह प्रौद्योगिकियों में उन्नत क्षमताएँ हैं।
- FDI: सरकार अंतरिक्ष क्षेत्र में FDI लाने की योजना बना रही है।
इन नीतिगत कदमों के साथ मिशन गगनयान निजी अंतरिक्ष स्टार्ट-अप और अंतरिक्ष औद्योगिक क्षेत्रों में वास्तविक प्रगति को बढ़ावा देगा जैसे:
- मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम (गगनयान कार्यक्रम) के राष्ट्र के लिये मूर्त और अमूर्त दोनों तरह के लाभ हैं, जिनमें शामिल हैं:
- सौर प्रणाली और उससे आगे का पता लगाने के लिये एक सतत् और किफायती मानव एवं रोबोट कार्यक्रम की दिशा में प्रगति।
- मानव अंतरिक्ष अन्वेषण, नमूना वापसी मिशन और वैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिये उन्नत प्रौद्योगिकी क्षमता।
- वैश्विक अंतरिक्ष स्टेशन के विकास में सक्रिय रूप से सहयोग करने और राष्ट्र के हित के वैज्ञानिक प्रयोग करने की भविष्य की क्षमता।
- यह देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के स्तर को बढ़ाने तथा युवाओं को प्रेरित करने में मदद करेगा।
- गगनयान मिशन में विभिन्न एजेंसियों, प्रयोगशालाओं, उद्योगों और विभागों को शामिल किया जाएगा। यह सामाजिक लाभों के लिये प्रौद्योगिकी के विकास में मदद करेगा।
- यह अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में मदद करेगा।
- कई देशों के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station-ISS) पर्याप्त नहीं हो सकता है क्योंकि क्षेत्रीय पारिस्थितिक तंत्र को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है, अतः गगनयान मिशन क्षेत्रीय ज़रूरतों- खाद्य, जल एवं ऊर्जा सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करेगा।
- मिशन गगनयान भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में नई तकनीकों को पेश करेगा जैसे:
- मानव रेटेड प्रक्षेपण वाहन।
- क्रू एस्केप सिस्टम।
- चालक दल का चयन एवं प्रशिक्षण और संबद्ध चालक दल प्रबंधन गतिविधियाँ।
- इसरो के अनुसार गगनयान कार्यक्रम के सफल समापन के बाद अगला कदम अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ी गतिविधियों द्वारा अंतरिक्ष में निरंतर मानव उपस्थिति के लिये क्षमता प्राप्त करने की ओर ध्यान केंद्रित करना होगा और यह गगनयान कार्यक्रम का विस्तार होगा।
सार्वजनिक-निजी, उद्योग-शिक्षा, स्टार्टअप-उद्योग और कौशल-ज्ञान के ये सभी संलयन भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में एक युग का परिचय देंगे तथा यह अंतरिक्ष स्टेशन, अंतरिक्ष पर्यटन व अन्य इंटरसेलेस्टियल स्पेस मिशन जैसे उद्यम को बढ़ावा देगा।
उत्तर 10:
हल करने का दृष्टिकोण:
- मृदा को परिभाषित करते हुए इसके प्रकार और इसके निर्माण के बारे में बताइये।
- सुझाव दीजिये कि भारत में मृदा निम्नीकरण को कम करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं ।
- उपर्युक्त निष्कर्ष लिखिये।
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- मृदा पृथ्वी की सतह पर विकसित, चट्टान के मलबे और कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण है ।
- मृदा प्रोफाइल मृदा का एक ऊर्ध्वाधर क्रॉस-सेक्शन है, जो सतह के समानांतर परतों से बना होता है। इन परतों को मृदा संस्तर के रूप में जाना जाता है। इसमें तीन परतें होती हैं जिन्हें संस्तर कहा जाता है।
- ‘A- संस्तर’ (सबसे ऊपरी परत ) ‘जहाँ जैविक पदार्थ होते हैं ।
- ‘B संस्तर’(संक्रमण क्षेत्र ) इसमें निचली परत के साथ-साथ ऊपर की परत के पदार्थ होते हैंं।
- ‘C-संस्तर‘ मूल पदार्थ से निर्मित होता है ।
- मृदा के निर्माण के कई कारक हैं जैसे:
- मृदा के निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों को सक्रिय (वनस्पति या जैविक और जलवायु) और निष्क्रिय कारकों (उच्चावच, मूल सामग्री और समय) में विभाजित किया गया है।
मृदा का वर्गीकरण
- उत्पत्ति, रंग, संरचना और स्थान के आधार पर भारत की मृदा को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया गया है: (i) जलोढ़ मृदा (ii) काली मृदा (iii) लाल और पीली मृदा (iv) लैटेराइट मृदा (v) शुष्क मृदा (vi) ) पीटमय मृदा (vii) पीट मृदा (viii) वन मृदा
जलोढ़ मृदा
- यह उत्तरी मैदानों और नदी घाटियों (देश के 40% से भी अधिक क्षेत्र में विस्तृत) में विस्तृत है।
- ये निक्षेपण मृदाएँ (जिन्हें अक्षेत्रीय मृदा भी कहा जाता है) हैं जिन्हें नदियों और सरिताओं ने वाहित तथा निक्षेपित किया है।
काली मृदा
- काली मृदाएँ दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। इन मृदाओं को ‘रेगुर’ तथा ‘कपास वाली काली मृदाएँ’ भी कहा जाता है।
- काली मृदा में लम्बी अवधि तक नमी बनी रहती है। जो फसलों, विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को शुष्क मौसम में भी फलने फूलने में सहायक है।
लाल और पीली मृदा
- लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहांँ रवेदार आग्नेय चट्टाने पाई जाती हैं।
- इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है। महीने कणों वाली लाल और पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं। इसके विपरीत मोटे कणों वाली मृदाएँ अनुर्वर होती हैं।
लैटेराइट मृदा
- लैटेराइट मृदाएँ उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं।
- लैटेराइट मृदाएँ कृषि हेतु पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं। काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिये लाल लैटेराइट मृदाएँ अधिक उपयुक्त होती हैं।
- मकान बनाने के लिये लैटेराइट मृदाओं का प्रयोग ईंटें बनाने में किया जाता है।
शुष्क मृदा :
- शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर भूरा तक होता है। ये सामान्यतः संरचना से बालुई और प्रकृति में लवणीय होती हैं।
- नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ो की परतें पाई जाती हैं।
- ये मृदाएँ अनुर्वर हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते है। कुछ क्षेत्रों में नमक की मात्रा बहुत अधिक होती है।
लवणीय मृदाएँ
- ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। लवणीय मृदाओं में सोडियम, पौटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं।
- लवणीय मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन क्षेत्रों में है।
पीटमय मृदा :
- यह भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाले क्षेत्रों में मिलती है ।
- इसमे मृत कार्बनिक पदार्थ/ह्यूमस बड़ी मात्रा में होते हैं जो मिट्टी को क्षारीय बनाते है।
- काले रंग के साथ यह भारी मृदा होती है।
वन मृदा :
- यह उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में मिलती है।
- ह्यूमस की मात्रा कम होने से यह मिट्टी अम्लीय होती है।
पर्वतीय मृदा:
- यह देश के पर्वतीय क्षेत्रों में मिलती है।
- कम ह्यूमस और अम्लीयता के साथ यह अपरिपक्व मिट्टी होती है।
मृदा क्षरण
- मृदा क्षरण को मिट्टी की उर्वरता में गिरावट के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। मृदा संरक्षण मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने, मिट्टी के कटाव को रोकने और मिट्टी की खराब स्थिति में सुधार करने की एक पद्धति है।
भारत में मृदा क्षरण को कम करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं :
- 15 - 25 डिग्री ढाल वाली भूमि का उपयोग खेती के लिये नहीं किया जाना चाहिये।
- शून्य जुताई के प्रयोग को रोकना या सीमित करना , जिसे संरक्षण कृषि के रूप में भी जाना जाता है।
- जैविक कृषकों द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली कम्पोस्ट पोषक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ बाढ़ के जोखिम को कम करते हुए कार्बन कैप्चरिंग में सहायक है।
- अति-चराई और स्थानांतरित खेती: ग्रामीणों को इसके परिणामों के बारे में शिक्षित करके इसे नियंत्रित और विनियमित किया जाना चाहिये।
- कंटूर बंडिंग, कंटूर टेरेसिंग, विनियमित वानिकी, नियंत्रित चराई, कवर फसल, मिश्रित खेती और फसल चक्रण इसके कुछ उपचारात्मक उपाय हैं जिन्हें अक्सर मिट्टी के कटाव को कम करने के लिये अपनाया जाता है।
- चेक डैम (बड़ी नालियों के लिये) की एक शृंखला बनाकर और निर्माण करके अवनालिका अपरदन को रोका जा सकता है।
- शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में वृक्षों और कृषि वानिकी के विकास के माध्यम से खेती योग्य भूमि को रेत के अतिक्रमण से बचाने के प्रयास किये जाने चाहिये।
भूमि संरक्षण को प्राप्त करने की अंतिम ज़िम्मेदारी उन लोगों की होगी जो इस पर विभिन्न क्रियाकलापों द्वारा लाभ प्राप्त करते हैं।
उत्तर 11:
हल करने का दृष्टिकोण:
- मगध साम्राज्य के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये ।
- उन कारणों का वर्णन कीजिये जिन्होंने प्राचीन काल में मगध साम्राज्य को सबसे शक्तिशाली और अद्वितीय राज्य बना दिया था।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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- जनपद का अर्थ है वह भूमि है जहाँ जन (लोग, कबीले या जनजाति)आते या बस जाते हैं। यह प्राकृत और संस्कृत दोनों में प्रयुक्त शब्द है।
- पूर्वी गंगा मैदान (600-200 ईसा पूर्व) में दूसरे शहरीकरण के सोलह महाजनपदों या "महान साम्राज्यों" में से ‘मगध’ सोलह महाजनपदों में से एक महान राज्य था।
- बृहद्रथ, प्रद्योत, हर्यंक और शिशुनाग जैसे राजवंशों ने 682 से 544 ईसा पूर्व (413-345 ईसा पूर्व) के बीच मगध पर शासन किया। यहाँ गाँवों की अपनी सभाएँ होती थीं जिन्हें उनके ग्रामक या स्थानीय नेता चलाते थे। कार्यकारी, न्यायिक और सैन्य जिम्मेदारियों को इनके प्रशासन में शामिल किया गया था ।
- मगध में जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का विकास हुआ था।
- मगध साम्राज्य सबसे शक्तिशाली और अद्वितीय राज्यों में से एक था: विभिन्न समकालीन कारकों ने मगध महाजनपद की महानता में योगदान दिया:
- आक्रामक और महत्वाकांक्षी शासक: मगध के शासक तर्कसंगत थे जो साम्राज्य के विस्तार और राज्य की समस्याओं के लिये समर्पित थे। यह शासक थे:
- बिंबिसार (558 ईसा पूर्व - 491 ईसा पूर्व) स्थायी सेना रखने वाला पहला शासक था और इसने कोसल और लिच्छवी जैसे महाजनपदों के साथ संबंध को मज़बूत करने के लिये विवाह संबंध स्थापित करने की नीति अपनाई।
- इसकी कूटनीतिक प्रतिष्ठा काफी अधिक थी (इसने अपने चिकित्सक जीवक को उज्जैन में अपने प्रतिद्वंद्वी के पीलिया के इलाज के लिये भेजा था)।
- लोहे की उपलब्धता के कारण इसे उन्नत हथियार विकसित करने में मदद मिली और सेना में हाथियों का उपयोग करने वाला यह पहला राजा था। इसने बेहतर प्रशासन भी स्थापित किया।
- अजातशत्रु ने आधुनिक मशीनों का उपयोग करते हुए विस्तारवादी नीति का पालन किया उदाहरण के लिये इसने कैटापुल्ट्स (महाशिलाकंटक) जैसे पत्थर फेंकने हेतु युद्ध इंजनों का और गदा के साथ रथ (रथमुसल) का इस्तेमाल किया।
- इसने वाराणसी और वैशाली को भी अपने राज्य में मिला लिया और पहली बौद्ध परिषद का आयोजन किया ।
- उदयिन ने पाटलिपुत्र (अब पटना) में गंगा और सोन नदियों के संगम पर एक किला बनवाया।
- शिशुनाग: अवंती पर कब्जा कर इसने मगध और अवंती के बीच के दीर्घकालिक टकराव को समाप्त कर दिया।
- कालसोक: इसने वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की।
- महापद्म नंद: इसे"भारत का पहला ऐतिहासिक सम्राट" कहा जाता है और इसने कलिंग सहित कई राज्यों पर विजय प्राप्त की।
- धनानंद: यह नंद वंश का अंतिम शासक था। सिकंदर ने इसके शासन के दौरान उत्तर पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया लेकिन इसकी शक्तिशाली सेना के कारण मगध में प्रवेश करने के विचार को बदल दिया।
- भौगोलिक कारक: मगध गंगा घाटी के ऊपरी और निचले हिस्से में स्थित था जो तीन ओर से गंगा, सोन और कैम्पा जैसी नदियों से घिरा हुआ था (जिससे इन्हे व्यापारिक मार्ग मिलने के साथ दुश्मन से सुरक्षा प्राप्त हुई। इस क्षेत्र की मिट्टी भी उपजाऊ है।
- राजगीर (राजधानी) रणनीतिक रूप से सात पहाड़ियों से घिरी घाटी में स्थित है (पूरे राजगीर को घेरती हुई साइक्लोपीन नामक 40 किलोमीटर लंबी पत्थर की दीवार है जिसे आक्रमणकारियों और दुश्मनों से शहर की रक्षा के लिये बनाया गया था)।
- आर्थिक कारक: मगध में तांबे और लोहे के विशाल भंडार थे। इससे यह व्यापार को आसानी से नियंत्रित कर सकता था (जलमार्ग पर नियंत्रण के कारण)।
- यहाँ की बड़ी आबादी का उपयोग कृषि, खनन, शहर के निर्माण और सेना के लिये किया जा सकता था। उस समय गंगा पर प्रभुत्व का अर्थ ,आर्थिक आधिपत्य था।
- सांस्कृतिक कारक: मगध का समाज रूढ़िवादी नहीं था । यहाँ पर बौद्ध धर्म ने उदार परंपरा को मज़बूत किया। समाज ने युद्ध और रूढ़िवादिता के बजाय व्यापार और वाणिज्य एवं शांति को प्राथमिकता दी।
- प्रशासनिक और कर संरचना:
- परिषद (पहले की सभा और समिति का एक संशोधित संस्करण) राजाओं की एक सलाहकारी परिषद थी जिसमें विशेष रूप से ब्राह्मण शामिल थे। कुछ प्रमुख अधिकारी थे जैसे:
- कम्मिकास: सीमा शुल्क अधिकारी।
- शुल्क-अध्यक्ष : टोल अधिकारी।
- राजाभट्ट: यात्रियों की जान और माल की रक्षा के लिये प्रतिनियुक्त।
- शासकों के पास शहरों पर शासन करने और बली (कर) और बालिसधाक (एक कर संग्रहकर्ता के रूप में) जैसे कर एकत्र करने के लिये एक कुशल प्रणाली थी।
- पड़ोसी राज्यों पर की जाने वाली लूट को धन प्राप्त करने के वैध साधन के रूप में मान्यता दी गई थी। मगध का समकालीन सभी महाजनपदों पर प्रभाव था।
- कानून व्यवस्था:
- मगध में पहली बार दीवानी और फौजदारी कानूनों का संकलन किया गया था। उदाहरण- ब्राह्मणों ने धर्मसूत्र के नाम से जाने, जाने वाले संस्कृत ग्रंथों की रचना शुरू की। इसमें शासकों (साथ ही अन्य सामाजिक श्रेणियों के लिये) के लिये निर्धारित मानदंड थे। इस समय व्यभिचार एक आपराधिक कृत्य था।
- शासक किसानों, व्यापारियों और कारीगरों से कर (उत्पाद का छठा हिस्सा) और भेंट भी प्राप्त करते थे ।
- व्यापार एवं वाणिज्य:
- आमतौर पर चाँदी और कुछ तांबे से बने निष्क और सतमान जैसे प्रारंभिक आहत सिक्के यहाँ पर प्रचलन में थे ।
- कारीगरों और व्यापारियों ने खुद को अपने-अपने संघों में संगठित किया। सेठी ,उच्च कोटि के व्यवसायी थे।
- वेसा (या व्यापारी सड़कें) - यहाँ कारीगर और व्यापारी निश्चित स्थान पर रहते थे।
- उत्तरापथ (तक्षशिला से राजगृह तक जिसे बाद में ताम्रलिप्ति तक विस्तारित किया गया) और दक्षिणापथ नामक व्यापारिक मार्ग मगध के प्रभाव में थे।
- सामाजिक व्यवस्था:
- समाज शहरी और ग्रामीण दोनों समुदायों से बना था।
- विशिष्ट गाँवों में मिश्रित जातियाँ और समुदाय शामिल थे। अधिकांश गाँव निम्न प्रकार के थे:
- उपनगरीय गाँव: ये शिल्प गाँव, रथ बनाने वाले गाँव, बढ़ई के गाँव (वधाकी-ग्राम) थे।
- सीमावर्ती गाँव (अरामिका-ग्राम): ग्रामीण इलाकों की परिधि पर स्थित थे।
- ब्रह्मदेय: ब्राह्मणों को दिया गया गाँव (ब्राह्मण, लोगों को कानून का पालन करने और राजाओं का सम्मान करने के लिये प्रेरित करते थे जिससे गृहयुद्ध जैसी स्थितियों को रोकने में सहयता मिलती थी )।
इन सभी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्थाओं और भौगोलिक एवं उद्यमशीलता लाभ ने मगध को प्राचीन भारत का एक प्रमुख राज्य बना दिया। पुरातात्विक साक्ष्य एवं बौद्ध धर्म, जैन धर्म और आजिविका जैसे धार्मिक ग्रंथों में मगध के शासकों तथा राज्य की भव्यता का उल्लेख किया गया है।
उत्तर 12:
हल करने का दृष्टिकोण:
- 1857 के विद्रोह का परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि 1857 के विद्रोह के कारण अंग्रेज़ों की नीतियों ने भारतीय आकांक्षाओं पर अंकुश लगाने तथा अपने स्वार्थी हितों की पूर्ति के लिये नया अवसर कैसे प्राप्त किया।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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- 1857 का विद्रोह 1757 के बाद के औपनिवेशिक शासन के चरित्र और नीतियों का परिणाम था लेकिन इसके बाद भारत पर शासन करने की ब्रिटिश नीति में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए।
- 1 नवंबर, 1858 को इलाहाबाद दरबार में लॉर्ड कैनिंग द्वरा 'रानी का उद्घोषणा पत्र' जारी किया गया था।
- रानी की घोषणा के अनुसार भारतीयों के लिये कई अनुकूल प्रावधान किये गए थे जैसे:
- इसमें दावा किया गया कि ब्रिटिशों द्वारा स्थानीय राजाओं की गरिमा और अधिकारों का ध्यान रखा जाएगा।
- ब्रिटिश अधिकारियों के हस्तक्षेप के बिना भारत के लोगों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करने का वादा किया गया था।
- इस उद्घोषणा में सभी भारतीयों को कानून के तहत समान और निष्पक्ष स्थान देने के साथ जाति या पंथ से के निरपेक्ष सरकारी सेवाओं में समान अवसर देने का भी वादा किया गया था।
- इस उद्घोषणा के साथ अंग्रेज़ों ने कई नीतियों और रणनीतियों की शुरुआत की जो केवल भारतीयों का शोषण करके औपनिवेशिक सत्ता के स्वार्थी हितों को पूरा करने के साथ भारतीयों के लिये अवसर को कम करने पर केंद्रित थीं।
भारतीय आकांक्षाओं को दबाने और भारत का शोषण करने के एक नए अवसर के रूप में विद्रोह का उपयोग:
- किसी भी भारतीय को वायसराय की परिषद् के योग्य नहीं माना जाता था और किसी नए चुने गए ब्रिटिश को भारतीय अधिकारी से श्रेष्ठ स्थान दिया जाता था।
- सेना और तोपखाने जैसे विभागों में सभी उच्च पद यूरोपीय लोगों के लिये आरक्षित थे।
- सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या में भारी कमी आई और यूरोपीय सैनिकों की संख्या में वृद्धि हुई। इसने सेना में भारतीयों के लिये रोज़गार के अवसरों को कम कर दिया।
- 1859 और 1879 के आयोगों ने सेना में एक तिहाई श्वेत लोगों की संख्या के सिद्धांत पर जोर दियाा (जो कि 1857 से पहले के 14 प्रतिशत के सिद्धांत के विपरीत था)।
- इनके द्वारा फूट डालो और राज करो की अवधारणा को अपनाया गया साथ ही जाति / समुदाय / क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग इकाइयाँ बनाई गईं और सशस्त्र इकाइयों के बीच फूट डालने तथा भारत के किसी भी वर्ग में विद्रोह होने की स्थिति में सशस्त्र इकाइयों और नागरिकों दोनों को दबाने के लिये टुकड़ियों को 'मार्शल' रेस और गैर-मार्शल रेस के रूप में बाँटा गया था।
- सेना को नागरिक आबादी से दूर रखना भी ऐसे ही कई कदमों में से एक था।
- 1857 के विद्रोह से कंपनी के प्रशासन और सेना में कमियाँ स्पष्ट रुप से उजागर हुईं इससे भारतीयों के दमन के लिये सेना को और भी मज़बूत किया गया।
- इंग्लैंड में रूढ़िवादी प्रतिक्रिया ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को और अधिक निरंकुश बना दिया; इसने सत्ता साझा करने की शिक्षित भारतीयों की आकांक्षाओं को नकारना शुरू कर दिया।
- भारतीय सिविल सेवा अधिनियम, 1861 के तहत सिविल सेवा परीक्षा के संचालन के लिये बनाए गए नियम उच्च पदों को उपनिवेशवादियों को देने के ही पक्ष में थे। जैसे:
- यह परीक्षा केवल इंग्लैंड में (1921 तक) अंग्रेजी भाषा में आयोजित की जाती थी और यह केवल ग्रीक और लैटिन की शास्त्रीय शिक्षा पर आधारित थी।
- इसकी अधिकतम आयु सीमा को धीरे-धीरे 23 वर्ष (1859 में) से घटाकर 19 वर्ष (1878) कर दिया गया।
- सत्ता और प्रशासन के सभी प्रमुख और उच्च वेतन वाले पदों पर यूरोपीय लोगों का ही अधिकार बना हुआ था।
प्रकाशन और मीडिया :
- 1857 के विद्रोह के कारण उत्पन्न आपात स्थिति के कारण लाइसेंसिंग अधिनियम, 1857 के माध्यम से मेटकाफ अधिनियम द्वारा निर्धारित पहले से मौजूद पंजीकरण प्रक्रिया के अतिरिक्त लाइसेंसिंग प्रतिबंध लगा दिये गए और सरकार ने किसी भी पुस्तक, समाचार पत्र के प्रकाशन और प्रसार को रोकने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा।
- नस्लीय भेदभाव पर संचालित सरकार के खिलाफ लोगों की आवाज को और दबाने के लिये 1857 के विद्रोह के बाद स्थानीय प्रेस के 'बेहतर नियंत्रण' के लिये वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 को लाया गया था और स्थानीय भाषाओं में "सरकार के खिलाफ लेखन" करने वालों को प्रभावी ढंग से दंडित और दमित किया गया था। ये अधिनियम भारत में प्रेस के विकास के खिलाफ लाए गए थे।
- राजनीतिक मोर्चे पर अधीनस्थ संघ की नीति (1857-1935)
- विलय की नीति को तो त्याग दिया गया था लेकिन विलय के इतर स्थानीय शासकों को दंडित करने या अपदस्थ करने के लिये नीति लाई गई थी ।
- अब शासक सत्ता को विरासत से मिले अधिकार के रुप में नहीं बल्कि ब्रिटिश शक्ति से मिले उपहार के रूप में प्राप्त कर रहे थे, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में ब्रिटिश हित के लिये राज्यों के आंतरिक मामलो में हस्तक्षेप किया जाता था ।
- ब्रिटिश सरकार ने संचार के आधुनिक साधनों के विकास जैसे-रेलवे, सड़क, तार, नहरें, डाकघर, प्रेस के माध्यम से अपने प्रभाव का प्रसार किया।
- कर्जन ने भारतीय राज्यों के लिये संरक्षण और 'आंतरिक सर्विलांस' की नीति अपनाई।
आर्थिक शोषण: 1860 के दशक के बाद :
- आर्थिक विश्लेषक दादाभाई नौरोजी जिन्हें 'ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया', के नाम से जाना जाता है, ने धन-निष्कासन के सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
- उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ों ने भारत को खाद्य पदार्थों और कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता तथा और ब्रिटिश पूंजी के निवेश और इनके तैयार उत्पादों के गंतव्य स्थल के रुप में बदल दिया है।
- आर्थिक निकासी सिद्धांत ने राष्ट्रवादी आलोचना के सभी पहलुओं को शामिल किया और इस बात को स्पष्ट किया कि इसने भारत को उसकी उत्पादक पूंजी से किस प्रकार वंचित कर दिया है।
- एकतरफा मुक्त व्यापार और टैरिफ पॉलिसी को लागू किया गया।
- उपनिवेश के तीसरे चरण (1860 के आसपास शुरू हुआ) को अक्सर विदेशी निवेश और उपनिवेशों के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के युग के रूप में वर्णित किया जाता है।
- भारतीयों पर ब्रिटिश शासन को स्थायी 'ट्रस्टीशिप' के रुप में घोषित कर दिया गया और भारतीयों को अपरिपक्व घोषित कर दिया गया, जिन्हें ब्रिटिश नियंत्रण और ट्रस्टीशिप की आवश्यकता थी (असभ्य लोगों को सभ्य बनाने के नाम पर - इसी को "व्हाइट मैन बर्डन " सिद्धांत के रुप में संदर्भित किया गया)।
उपरोक्त तर्कों से पता चलता है कि 1857 के विद्रोह के बाद किये गए ये सभी सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक परिवर्तन केवल ब्रिटेन के हित में भारत का शोषण करने और भारतीयों की आकांक्षा को दबाने के लिये थे।
उत्तर 13:
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में ब्रिटिश हितों और उनकी शिक्षा नीतियों के बारे में बताइये ।
- चर्चा कीजिये कि किस प्रकार अंग्रेज़ों द्वारा लाई गई शिक्षा नीतियाँ उनके हित में ही थी।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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- अंग्रेज भारत में व्यापारियों के रूप में आए और उनका भारत में शिक्षा को बढ़ावा देने का कोई इरादा नहीं था। समय के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी का राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव बढ़ता गया और फिर इन्होंने भारत में अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा नीति शुरू की। जैसे:
- कलकत्ता मदरसा (वर्ष 1781 में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा ) और संस्कृत कॉलेज (वर्ष 1791 में जोनाथन डंकन द्वारा ) को क्रमशः मुस्लिम और हिंदू कानून का अध्ययन करने के लिये स्थापित किया गया था। भारत में अपने हितों को बनाे रखने और उसके अनुकूल नीतियाँ बनाने के लिये इन्हे सामाजिक-धार्मिक संस्कृति की समझ आवश्यक थी।
- फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना वर्ष 1800 में वेलेजली द्वारा भारतीयों की भाषाओं और रीति-रिवाजों के बारे में कंपनी के सिविल सेवकों को प्रशिक्षण देने के लिये की गई थी ( इसे 1802 में बंद कर दिया गया)।
- प्रबुद्ध भारतीयों और मिशनरियों ने आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये सरकार पर दबाव डालना शुरू कर दिया क्योंकि इनका ऐसा मानना था की पश्चिमी शिक्षा देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान है। मिशनरियों का मानना था कि आधुनिक शिक्षा भारतीयों के अपने धर्मों में विश्वास को नष्ट कर देगी और वे ईसाई धर्म को अपना लेंगे।
निम्नलिखित हितों को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश शिक्षा नीति लाए थे, जैसे:
- 1813 के चार्टर अधिनियम द्वारा देश में आधुनिक विज्ञान की शिक्षा को बढ़ावा दिया गया ।
- लॉर्ड मैकाले मिनट (1835) में पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेज़ी में अध्यापन हेतु किया जाए।
- अंग्रेज़ों ने उच्च और मध्यम वर्गों के छोटे से वर्ग को शिक्षित करने की योजना बनाई जिससे यह ऐसे वर्ग को तैयार करना चाहते थे जो "रक्त और रंग में भारतीय हो लेकिन स्वाद, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हो"। इनका मानना था कि यह वर्ग सरकार और जनता के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा।
- थॉमसन के प्रयास: NW प्रांतों के गवर्नर जेम्स थॉमसन (1843-53) ने नए स्थापित राजस्व और लोक निर्माण विभाग के लिये कर्मियों को प्रशिक्षित करने के लिये स्थानीय भाषाओं के माध्यम से ग्रामीण शिक्षा की योजना प्रस्तुत की।
- वुड्स डिस्पैच (1854): इसे "भारत में ब्रिटिश शिक्षा का मैग्ना कार्टा" कहा जाता है भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी (EIC) के बढ़ते राजनीतिक-आर्थिक प्रभुत्व के आलोक में और भारत में EIC के उज्ज्वल भविष्य के लिये भारतीयों का वैचारिक समर्थन आवश्यक था। इन हितों की पूर्ति के लिये इसमें निम्नलिखित प्रावधान किये गए जैसे:
- जन सामान्य की शिक्षा का उत्तरदायित्व सरकार को सौंपा गया
- शिक्षा में स्थानीय भाषा का प्रयोग
- निजी उद्यम को प्रोत्साहित करने के लिये धर्मनिरपेक्ष शिक्षा और अनुदान सहायता प्रदान करना
- 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित किये गए और बाद में सभी प्रांतों में शिक्षा विभाग स्थापित किये गए।
- उपर्युक्त योजनाओं में प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा की गई क्योंकि यह आर्थिक रूप से EIC के लिये वहनीय नहीं थी।
- प्रारंभिक राष्ट्रवादियों और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस द्वारा आधुनिक शिक्षा के पक्ष में आंदोलन के कारण ब्रिटिशों द्वारा भारत में महारानी ताज के शासन की स्थापना (1857 की क्रांति के बाद) के बाद शिक्षा के लिये कई नीतियां लाई गईं जैसे:
- हंटर शिक्षा आयोग (1882-83): इसने प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिये राज्य की विशेष भूमिका की सिफारिश की लेकिन अगले दो दशकों में भारतीयों की भागीदारी के साथ माध्यमिक और कॉलेज स्तर की शिक्षा का तेजी से विकास और विस्तार देखा गया लेकिन ब्रिटिशों द्वारा प्राथमिक शिक्षा पर कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं की गई।
- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904: 1902 में रैले आयोग की स्थापना की गई। इसकी सिफारिशों के आधार पर यह अधिनियम 1904 में पारित किया गया था। इस अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकार का अधिक नियंत्रण स्थापित किया गया था जैसे:
- विश्वविद्यालयों में शोधार्थियों की संख्या तथा उनके कार्यकाल को कम किया गया। अधिकांश शोधार्थियों को सरकार द्वारा नामित किया जाने लगा।
- सरकार को विश्वविद्यालयों के सीनेट के विनियमों को वीटो करने करने का अधिकार प्राप्त हो गया और वह इन विनियमों में संशोधन कर सकती थी या स्वयं विनियम पारित कर सकती थी;
- कर्जन ने गुणवत्ता और दक्षता के नाम पर विश्वविद्यालयों पर अधिक नियंत्रण को उचित ठहराया लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य शिक्षा को सीमित करने और शिक्षितों को सरकार के प्रति वफादार बनाना था।
- राष्ट्रवादियों ने इसको साम्राज्यवाद को मज़बूत करने और राष्ट्रवादी भावनाओं को कमज़ोर करने के प्रयास के रुप मे देखा। गोखले ने इसे "प्रतिगामी उपाय" कहा।
- शिक्षा नीति पर सरकार का संकल्प—1913: इसे इसलिये लाया गया क्योंकि 1906 में बड़ौदा प्रान्त ने अपने पूरे प्रदेश में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत की।
- राष्ट्रीय नेताओं जैसे गोखले ने सरकार से ब्रिटिश भारत के लिये भी ऐसा करने का आग्रह किया जिन्होंने इस मुद्दे को विधान परिषद में भी उठाया था। इसके कारण सरकार द्वारा 1913 में शिक्षा नीति लाई गई ।
- सरकार ने अनिवार्य शिक्षा की ज़िम्मेदारी लेने से मना कर दिया लेकिन यह ज़िम्मेदारी प्रांतीय सरकारों और निजी व्यक्तियों को सौंप दी गई।
- द्वैध शासन के तहत शिक्षा: मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत शिक्षा को प्रांतीय मंत्रालयों को स्थानांतरित कर दिया गया था।
- 1902 से स्वीकृत सरकारी अनुदान पर रोक लगा दी गई थी।
- वित्तीय कठिनाइयों के कारण शिक्षा का व्यापक प्रसार तो नही हुआ पर चैरिटी के तहत किये गए प्रयासों से शिक्षा में वृद्धि हुई।
- 1929 में हार्टोग समिति द्वारा प्राथमिक शिक्षा की दिशा में छोटा सा प्रयास किया गया ।
- शिक्षा पर सार्जेंट योजना 1944: अंग्रेज़ों की कमज़ोर स्थिति और भारत में राष्ट्रवादी नेताओं की मज़बूत स्थिति के कारण सार्जेंट योजना का उद्देश्य ब्रिटेन में प्रचलित शिक्षा स्तर को भारत में लागू करना था। यह योजना मुख्य रूप से अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों के हितों को संबोधित करने के लिये थी ।
- इसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारतीय शिक्षा के विकास के लिये लाया गया था।
- सार्जेंट योजना को कई भारतीय शिक्षाविदों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था।
हालाँकि ब्रिटिश प्रत्येक शिक्षा नीति को केवल अपने स्वार्थ के लिये लाए थे लेकिन अप्रत्यक्ष रुप से इन नीतियों ने भारत के समाज और शिक्षा प्रणाली में विभिन्न मूल्यों जैसे धर्मनिरपेक्षता और लिंग, धर्म और जाति से परे सभी के लिये शिक्षा के समान अवसरों का मार्ग प्रशस्त किया। अंततः इन नीतियों के प्रभाव से भारतीय समाज में विभिन्न पश्चिमी-उदारवादी मूल्य शामिल हुए।
उत्तर 14:
हल करने का दृष्टिकोण:
- उपनिवेशवाद और वि-औपनिवेशीकरण की अवधारणाओं का परिचय दीजिये ।
- वि-औपनिवेशीकरण के पीछे निहित कारकों और उद्देश्यों पर चर्चा कीजिये ।
- विश्लेषण कीजिये कि क्या उपनिवेशवाद ने नए स्वतंत्र देशों को वास्तविक अर्थों में स्व-शासन प्रदान किया है।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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उपनिवेशवाद को किसी राष्ट्र द्वारा विदेशी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और बनाए रखने की प्रक्रिया के रुप में संदर्भित किया जाता है। वि-औपनिवेशीकरण का तात्पर्य , उपनिवेशवाद को समाप्त करना है। वि-औपनिवेशीकरण की अवधारणा विशेष रूप से 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय उपनिवेशों के समाप्त होने से संबंधित है।
- महान औपनिवेशिक शक्तियों ने उपनिवेशों को केवल आंतरिक दबावों या कोई भी अन्य विकल्प न बचने के कारण ही नहीं छोड़ा बल्कि इसके लिये एक महत्वपूर्ण कारण बदलती वैदेशिक और आर्थिक नीति के मद्देनजर औपनिवेशिक भूमिका का असंगत होना भी था।
- कई यूरोपीय देशों के अफ्रीका और एशिया में उपनिवेश थे जैसे बेल्जियम (कांगो, रवांडा), पुर्तगाल (अंगोला, मोजाम्बिक और गिनी), ब्रिटेन (भारत और चीन सहित मध्य पूर्व से पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया तक विस्तारित) आदि।
वि-औपनिवेशीकरण के कारण और उद्देश्य:
- औपनिवेशिक देशों में होने वाले राष्ट्रवादी आंदोलन जैसे भारत में ब्रिटेन के खिलाफ, वियतनाम में फ्राँस के खिलाफ आदि ने औपनिवेशिक सरकार पर सत्ता में अधिक भागीदारी का दवाब डाला जैसे भारत में अंतरिम सरकार का गठन किया गया था।
- द्वितीय विश्व युद्ध (WW2) के प्रभावों ने औपनिवेशिक शक्तियों को कमज़ोर कर दिया और सैन्य, वैचारिक एवं आर्थिक स्तर पर भी इनकी कमज़ोरी को प्रकट किया (अब औपनिवेशिक शक्तियाँ ताकत के बल पर साम्राज्य को बनाए रखने में असमर्थ थीं)। उदाहरण के लिये द्वितीय विश्व युद्ध में सैन्य रूप से, जापान और मिस्र ने क्रमशः ब्रिटेन और इटली को हराया।
- यूरोपीय शक्तियों के लिये द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदारी करने के कारण अफ्रीकी और एशियाई देशों ने अधिक सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की मांग की थी।
- साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की रोकथाम के संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के बीच 1941 के अटलांटिक चार्टर के उदार विचारों का प्रभाव जिसमें सरकार के स्वरुप को चुनने के अधिकार जैसे प्रावधानों ने यह मार्ग प्रशस्त किया। उपनिवेशों में भी अटलांटिक चार्टर को लागू करने की मांग उठी जैसे भारत में राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा इस मांग को उठाया गया ।
- मुक्त व्यापार के नाम पर सोवियत संघ, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के अन्य विजेताओं द्वारा यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों पर वि-औपनिवेशीकरण का दबाव डाला गया। UNO के गठन से यह प्रक्रिया तेज हो गई थी।
- पैन-अफ्रीकनवाद जैसे विचारों ने अफ्रीकी मूल के लोगों को समान हितों के लिये एकीकृत किया। अफ्रीकी वैश्विक डायस्पोरा द्वारा राजनीतिक या सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में पैन-अफ्रीकनवाद के तहत स्वतंत्रता और वि-औपनिवेशीकरण की मांग को तीव्र किया गया।
- संयुक्त राज्य अमेरिका जैसी शक्तियों ने राजनीतिक-आर्थिक हितों के आलोक में साम्यवाद के प्रसार को रोकने और मुक्त व्यापार की सुविधा के लिये वि-औपनिवेशीकरण की मांग उठाई।
विभिन्न हितधारकों के प्रयासों के बाद कुछ उपनिवेशों को द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद और कुछ को बाद में स्वतंत्रता मिली। स्वतंत्रता के बाद हालाँकि प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि दुनिया के सभी राष्ट्रों को अपने लोगों और अपने निर्णयों पर संप्रभु अधिकार है लेकिन वास्तव में कुछ कम विकसित और विकासशील देश अभी तक संप्रभुता और स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर पाए हैं।
देशों की वर्तमान स्थितियाँ :
- नव-उपनिवेशवाद का तात्पर्य शक्तिशाली देशों द्वारा स्वतंत्र लेकिन आर्थिक रूप से पिछड़े देशों का शोषण और उन पर वर्चस्व (मुख्य रूप से आर्थिक) स्थापित करने की प्रक्रिया है। उदाहरण के लिये 1956 का स्वेज नहर संकट मिस्र द्वारा नव-उपनिवेशवाद के विरोध का कारण था।
- नव-साम्राज्यवाद से तात्पर्य मुक्त कानूनी समझौतों, आर्थिक शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव के माध्यम से किसी देश पर वर्चस्व और कभी-कभी आधिपत्य स्थापित करना है। उदाहरण के लिये एशियाई और अफ्रीकी देशों पर पश्चिमी आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के चलते जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने खुद को पूरी तरह से पश्चिमीकृत कर दिया है। कई अफ्रीकी राष्ट्र अपनी मूल भाषा खो चुके हैं और फ्रैंकोफोन देश बन गए हैं।
- अंतरराष्ट्रीय वित्तीय (विश्व बैंक), मौद्रिक (IMF), न्यायिक (ICJ) और इंस्टीट्यूशन फॉर पीस एंड सिक्योरिटी (UNSC) पर पश्चिमी देशों का प्रभुत्व है जिससे यह नए स्वतंत्र राष्ट्रों से वित्तीय और आर्थिक दृष्टि से लाभ की स्थिति में रहते हैं । जैसे अमेरिका ने सामूहिक विनाश के हथियार के नाम पर इराक पर आक्रमण किया।
- मज़बूत राष्ट्र द्वारा अपने हितों को पूरा करने के लिये लॉबिंग और कैम्पेनिंग का सहारा लिया जाता है और नए स्वतंत्र देशों के संप्रभु निर्णय लेने का उल्लंघन किया जाता है। उदाहरण के लिये पूर्वी यूरोप और दक्षिणी अमेरिका में मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के प्रसार ने शॉक थेरेपी के रूप में राष्ट्र को नुकसान पहुँचाया है और इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी असंतुलित हुई है।
- अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नये शोषणकारी तरीकों से जैसे ऋणजाल कूटनीति के कारण छोटे देश गरीबी की स्थिति में आ रहे हैं और मज़बूत देश इन पर आधिपत्य स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं। जैसे, श्रीलंका और पाकिस्तान का आर्थिक संकट।
- उपरोक्त तर्कों से यह तो स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली केवल राष्ट्रों के बीच समन्वय और जन कल्याण पर ही आधारित न होकर शोषणकारी दर्शन के रूप में काम करती है। इसलिये हमें ऐसे स्वतंत्र और तटस्थ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को विकसित करने की आवश्यकता है जो नीति के केंद्र में व्यक्तियों के कल्याण को रखते हुए किसी विशेष विचारधारा के पक्ष या विपक्ष में प्रचार या प्रसार से संबंधित न हों।
उत्तर 15:
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रवास को परिभाषित करते हुए इसके प्रकार बताइये।
- प्रवास के कारण मिलने वाले लाभों को बताते हुए प्रवास के समय प्रवासियों के समक्ष उत्पन्न होने वाले मुद्दों को सूचीबद्ध कीजिये।
- एक राष्ट्रीय प्रवासन नीति पर चर्चा करते हुए बताएँ कि यह किस प्रकार प्रवास से संबंधित मुद्दों का समाधान करने में सहायक होगी।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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- प्रवास एक स्थान से दूसरे स्थान तक लोगों की आवाजाही है। यह एक छोटी या लंबी दूरी के लिये, अल्पकालिक या स्थायी, स्वैच्छिक या कारणवश या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो सकता है।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार, वर्ष 2011 से 2016 तक पिछले पांँच वर्षों में हर वर्ष औसतन नौ मिलियन लोगों द्वारा शिक्षा या कार्य के लिये भारत के राज्यों के बीच पलायन किया गया है।
प्रतिकर्ष एवं अपकर्ष कारक:
- अपकर्ष (Pull) कारक प्रवास के संदर्भ में एक विशेषता या घटना है जो किसी व्यक्ति को दूसरे क्षेत्र में जाने के लिये आकर्षित करती है।
- अपकर्ष कारकों में उस क्षेत्र में बेहतर अवसर जैसे कि शैक्षिक, नौकरी की संभावनाएंँ, जीवन की उच्च गुणवत्ता, सुरक्षा, स्वतंत्रता इत्यादि शामिल हैं। प्रवास के मुख्य कारकों में रोज़गार एवं विवाह शामिल हैं।
- प्रतिकर्ष (Push) कारक वे हैं जो लोगों को प्रतिकूल भौगोलिक स्थितियों के कारण अन्य स्थानों पर प्रतिस्थापित करते हैं जैसे-युद्ध, अकाल, प्राकृतिक खतरे जैसे- भूकंप, बवंडर और तूफान, जीवन के लिये खतरा, दमनकारी राज्य, नौकरी या शैक्षणिक सुविधा, जीवन के लिये कठोर स्थिति इत्यादि ।
- उग्रवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद और उग्रवादी समूहों द्वारा लोगों को घरों से बाहर निकलने के लिये बाध्य किया जाता है।
प्रवास के लाभ:
- उत्पादन लागत में कमी, मानव संसाधनों की उपलब्धता, बढ़ती उत्पादकता, उपभोक्ता के आकार और पूंजी बाजार के कारण इष्ट प्रदेश को प्रवासियों की वजह से लाभ प्राप्त होता है।
- साथ ही ये अपने मूल स्थान, पीछे छूटे एवं घरेलू लोगों को प्रेषण (Remittances), सूचना और नवाचारों के प्रवाह से के माध्यम से लाभान्वित करते हैं।
प्रवास से संबंधित मुद्दे:
- नौकरियों की निम्न गुणवत्ता : शहरी गंतव्यों जैसे- निर्माण, होटल, कपड़ा, विनिर्माण, परिवहन, सेवा, घरेलू कार्य आदि प्रमुख क्षेत्रों में प्रवासियों के समक्ष कार्य के बदले कम भुगतान, खतरनाक एवं अनौपचारिक क्षेत्रों में नौकरियों की उपलब्धता विद्यमान रहती है।
- रोज़गार तक पहुंँच: कुछ राज्यों द्वारा रोज़गार के संबंध में अधिवास आवश्यकताओं की शुरुआत की गई है। इससे प्रवासियों को नुकसान होता है।
- आवास और स्वच्छता: आवास से संबंधित प्रमुख मुद्दों में खराब आपूर्ति, स्वामित्व एवं किराये की समस्या शामिल है। अल्पकालिक प्रवासियों को छोटी अवधि के कारण आवास सुविधा संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है इसलिये प्रवासियों को अनचाही परिस्थितियों में भीड़-भाड़ वाली कॉलोनियों में रहना पड़ता है।
- शोषण और धमकी: सामान्यत: प्रवासियों का स्थानीय आबादी द्वारा शोषण किया जाता है जिन्हें सामाजिक रूपरेखा, रूढ़िवादिता, दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है तथा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के शोषणकारी परिस्थितियों में कार्य करने के लिये बाध्य किया जाता है। उदाहरण के लिये, गुजरात प्रवासी संकट।
- लाभ तक पहुँच में कमी: एक स्थान पर पंजीकृत प्रवासियों को प्राप्त होने वाले लाभ उन्हें अन्य स्थान पर जाने के कारण प्राप्त नहीं होते जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत पात्र लोगों के संदर्भ में सत्य है। पीडीएस के मिलने राज्य सरकारों द्वारा जारी राशन कार्ड की आवश्यकता होती है जो अन्य राज्यों द्वारा वहनीय नहीं है।
राष्ट्रीय प्रवास नीति की आवश्यकता:
- प्रवास से संबंधित मुद्दों के समाधान के लिये प्रवास/ प्रव्रजन के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति का होना आवश्यक है।
- राष्ट्रीय नीति प्रवासियों की कार्य करने की स्थिति, उनके वेतन से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने में मदद करेगी।
- यह प्रवासीयों श्रमिकों के लिये उन क्षेत्रों में सामाजिक सुरक्षा और चिकित्सा लाभ सुनिश्चित करने में मदद करेगी जहांँ वे प्रवास करते हैं।
- यह अपने मूल स्थान पर कानूनी और सामाजिक अधिकारों (जैसे पीडीएस) के तहत प्राप्त होने वाले लाभों जैसे- पीडीएस तक पहुंँच इत्यादि मुद्दों को संबोधित करने में सहायक होगी।
निष्कर्ष:
इस प्रकार एक राष्ट्रीय नीति प्रवासियों के समक्ष न केवल आवास की समस्या का समाधान करने में सहायक होगी बल्कि बुनियादी सेवाओं जैसे- पानी की आपूर्ति, बिजली और स्वच्छता तक पहुंँच सुनिश्चित करेगी।
उत्तर 16:
हल करने का दृष्टिकोण
- जाति व्यवस्था के स्वरूप को संक्षिप्त रूप में लिखिये।
- जाति प्रतिनिधित्व के कुछ उदाहरण दीजिये।
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परिचय
जाति व्यवस्था, समाज वंशावलियों के समूहों की दर्शाती है। एक जाति समूह के व्यवसाय, परंपराओं, जीवन शैली व संस्कृति में समानता पाई जाती है।
जाति व्यवस्था समाज में पदानुक्रम को इंगित करती है। यह उच्च वर्ग व निम्न वर्ग में समाज को विखंडित करती है।
भारतीय समाज में प्रत्येक क्षेत्र में जातियों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिये संविधान द्वारा कुछ प्रावधान किये गए हैं जिनमें राजनीतिक और नौकरियों में प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना प्रमुख है।
वर्तमान में जातियों के स्वरूप में परिवर्तन आया है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित है:
- अंतर-जातीय विवाह की प्रवृत्ति में एकारात्मक बढ़ोतरी
- जागतिगत व्यवस्था में परिवर्तन
- शहरीकरण, पाश्चात्यकरण में परिवर्तन
- निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति में सुधार
- शिक्षा का विकेंद्रीकरण
- आर्थिक स्वतंत्रता
- अस्पृश्ता उन्मूलन कानून, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून, आदि के माध्यम से जातीय आधार पर भेदभाव को रोकने संबंधी विविध प्रावधानों की उपस्थिति।
- पंचायती राज संस्थाओं में प्रतिनिधित्व हेतु आरक्षित स्थानों व संसद व विधान सभाओं में आरक्षित स्थानों के कारण राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सुधार हुआ।
- जातीय स्वरूप में परिवर्तन व प्रतिनिधित्व में वृद्धि के पश्चात् भी कुछ चिंताएँ विद्यमान हैं-
- जातीय आधार पर हिंसा (भीमा कोरेगाँव की घटना)
- अंर्तजातीय विवाह की स्थिति में ऑनर कीलिंग (Honour Killing) जैसी घटनाएँ अभी भी प्रकाश में आती है, इत्यादि।
निष्कर्ष:
जातीय स्वरूप में परिवर्तन परिलक्षित हो रहें हैं जिससे देश के विभिन्न समाजिक क्षेत्रों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य व जीवन स्तर में सुधार हो रहा है।
उत्तर 17:
हल करने का दृष्टिकोण
- मॉब लिंचिंग के संदर्भ में वर्तमान स्थिति पर संक्षेप में प्रकाश डालिये।
- कानून और व्यवस्था की तुलना में मॉब लिंचिंग की घटना, अधिकारों का उल्लंघन (नागरिकता) तथा भारत की पारंपरिक बहुलवादी एवं मिश्रित संस्कृति विशेषता पर चर्चा कीजिये।
- उपर्युक्त निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय
- जब अनियंत्रित भीड़ द्वारा किसी दोषी को उसके किये अपराध के लिये या कभी-कभी मात्र अफवाहों के आधार पर ही बिना अपराध किये भी तत्काल सज़ा दी जाए अथवा उसे पीट-पीट कर मार डाला जाए तो इसे भीड़ द्वारा की गई हिंसा या मॉब लिंचिंग (Mob Lynching) कहते हैं।
- इस तरह की हिंसा में किसी कानूनी प्रक्रिया या सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता और यह पूर्णतः गैर-कानूनी होती है।
- वर्ष 2017 का पहलू खान हत्याकांड मॉब लिंचिंग का एक बहुचर्चित उदाहरण है, जिसमें कुछ तथाकथित गौ रक्षकों की भीड़ ने गौ तस्करी के झूठे आरोप में पहलू खान की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी।
- इन घटनाओं ने न केवल कानून-व्यवस्था को लागू करने की संस्थागत क्षमता पर बल्कि भारतीय समाज के इतिहास और नागरिक शास्त्र, इसके सामाजिक ताने-बाने तथा सहिष्णुता की भावना, भाईचारे के बारे में व्यापक सवाल खड़े किये हैं।
कारण:
- यह राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह कानून का शासन लागू करे न कि ऐसे लोगों को आगे बढ़ने दे जो इसके अलावा, राज्य एजेंसियों को ऐसी किसी भी घटना के खिलाफ सक्रिय होना चाहिये और ऐसे अपराधों को पहली बार में रोकना चाहिये।
- हालाँकि निम्नलिखित कारणों से भीड़ की हिंसा की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है:
- कानून प्रवर्तन एजेंटों की उदासीनता।
- मॉडल पुलिस अधिनियम 2006 और प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद पुलिस सुधारों को राजनीतिक दबाव में रखते हुए लागू नहीं किया गया है।
- ऐसी घटनाओं के खिलाफ समय पर और पर्याप्त कार्रवाई करने में प्रशासन की विफलता ने देश के कुछ हिस्सों में इन अपराधों को बढ़ने दिया है।
- सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रामक संदेशों और अफवाहों के प्रसार को रोकने में अधिकारियों की विफलता।
- ऐसी फर्जी खबरों और भ्रामक बयानबाजी से प्रभावित होने वाले लोगों में जागरूकता की कमी।
चिंता:
- भारत ने हमेशा एक समग्र सांस्कृतिक लोकाचार के साथ एक शांतिपूर्ण राष्ट्र होने पर गर्व किया है, जहाँ सदियों से विभिन्न समुदाय शांतिपूर्वक साथ रह रहे हैं।
- मॉब लिंचिंग की घटनाओं ने इस सांप्रदायिक सौहार्द को ध्रुवीकृत करने का काम किया है। पहचान के आधार पर मॉब लिंचिंग पूरे समुदाय के साथ भेदभाव करती है और भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।
- कुछ समूह, धार्मिक अल्पसंख्यक और दलित, सामाजिक पूर्वाग्रहों एवं कमज़ोर वर्गों के प्रति संस्थागत उदासीनता के कारण ऐसे अपराधों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष, समावेशी सांस्कृतिक ताने-बाने पर एक धब्बा है और हमारे संविधान के लोकाचार पर प्रश्नचिह्न है।
- एक सहिष्णु, बहुलवादी समाज के रूप में भारत की ऐतिहासिक छवि नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है।
- एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुल समाज होने के नाते भारत इस तरह के अपराधों को क्षमा के साथ जारी रखने का जोखिम नहीं उठा सकता है और इसके हाशिए पर एवं अल्पसंख्यक वर्गों के लिये न्याय तथा सुरक्षा की भावना लाने की ज़िम्मेदारी सरकार व समाज दोनों पर आती है।
आगे की राह:
- सर्वोच्च न्यायालय की सिफारिश के अनुसार, संसद को एक नया एंटी-लिंचिंग कानून बनाना चाहिये।
- न्यायालय ने राज्य सरकारों को भीड़ की हिंसा को रोकने के लिये नोडल अधिकारी के रूप में SP रैंक से नीचे के पुलिस अधिकारियों को नियुक्त करने का निर्देश दिया है। इस निर्देश के कार्यान्वयन का गंभीरता से पालन किया जाना चाहिये।
उत्तर 18:
हल करने का दृष्टिकोण
- ऑपरेशनल ओशनोग्राफी को परिभाषित कीजिये और इसके अनुप्रयोग लिखिये।
- भारत के लिये इसके लाभों पर चर्चा कीजिये।
- निष्कर्ष।
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परिचय:
ऑपरेशनल ओशनोग्राफी सागरों व महासागरों के जल स्तर, धाराओं, लवणता, घनत्व आदि भौतिक लक्षणों के पूर्वानुमान व निगरारनी की व्यवस्था है। यह नियमित, सुनियोजित व दीर्घकालिक प्रक्रिया है।
ऑपरेशनल ओशनोग्राफी के अनुप्रयोग:
- महासागरों में जीवन को सुरक्षित करना, ब्लू इकॉनमी को प्रोत्साहन देना, सामुद्रिक वातावरण को संरक्षित करना।
- समुद्री तूफानों सुनामी और चक्रवातों की पूर्व घोषणा।
- समुद्री प्रदूषण व शैवाल प्रस्फुटन की निगरानी।
- महासागरीय पर्यावरण, समुद्री मार्गों का निर्धारण व निगरानी, समुद्री धाराओं की स्थिति, मत्स्यन क्षेत्रों का पूर्वनुमान, तेल रिसाव की स्थिति में निगरानी व बचाव।
- समुद्री जैविक व अजैविक संसाधनों, ऊर्जा संसाधनों का दोहन व संरक्षण द्वारा आर्थिक लाभ की प्राप्ति।
भारत के संदर्भ में ऑपरेशनल ओशनोग्राफी के लाभ:
- मत्स्यन, बंदरगाहों की सुरक्षा व परिचालन, आपदा प्रबंधन, नेवी व कोस्ट गार्ड को समुद्री सुरक्षा में सहायता प्रदान करना, पर्यावरण संरक्षण में सहायता, तटीय क्षेत्र की जनसंख्या के रोजगार में वृद्धि और आपदा के प्रति सुभेद्यता से संरक्षण आदि क्षेत्रों में ऑपरेशनल ओशनोग्राफी सहायक होगा।
- भारत के अधिकांश कच्चा तेल समुद्री मार्गों से आता है तथा देश के अधिकांश तेलशोधन व उत्पादन सयंत्र तटीय व अपतटीय क्षेत्रों में स्थित हैं। इसलिये ऑपरेशनल ओशनोग्राफी द्वारा भारत के ऊर्जा हितों को सुरक्षित किया जा सकेगा।
- इसका प्रभावी क्रियान्वयन हिंद महासागर की भू-राजनीति में भारत की रणनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करेगा।
- तटीय राज्यों की परियोजना निर्माण व उनके क्रियान्वयन में विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध कराना।
- यह भारत के सतत् विकास लक्ष्य-14 की प्राप्ति में सहायता होगा जो वैज्ञानिक अनुसंधान के संवर्द्धन व छोटे द्वीपीय देशों और अल्पविकसित देशों को सहयोग करने की भारत की प्रतिबद्धता के अनुकूल है।
निष्कर्ष
यह समुद्री व तटीय क्षेत्रों की स्थिरता में वृद्धि करेगा तथा उनसे जुड़े मुद्दों के समाधान खोजने के लिये तकनीकी और प्रबंधन क्षमता में वृद्धि करेगा।
भारत ने ऑपरेशनल ओशनोग्राफी के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की है।
उत्तर 19:
हल करने का दृष्टिकोण:
- पृथ्वी पर महासागरों और महाद्वीपों के वितरण की अवधारणा का परिचय दीजिये।
- प्रत्येक सिद्धांत के योगदान और नकारात्मक पक्षों के साथ-साथ पृथ्वी पर महाद्वीपों तथा महासागरों के वितरण की व्याख्या करने के लिये विभिन्न सिद्धांतों की का भी वर्णन कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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महाद्वीपों और महासागरीय घाटियों को पृथ्वी की मूलभूत उच्चावच विशेषताओं के रुप में संदर्भित किया जाता है।
महाद्वीपों और महासागरों के वितरण को टेट्राहेड्रल परिकल्पना, महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत और प्लेट टेक्टोनिक सिद्धांत जैसी कई परिकल्पनाओं और सिद्धांतों द्वारा समझाया गया है।
विभिन्न सिद्धांत :
लोथियन ग्रीन की टेट्राहेड्रल परिकल्पना (1875):
- यह ज्यामितीय सिद्धांतों और टेट्राहेड्रल विशेषताओं पर आधारित है। इसमें निम्नलिखित व्याख्या की गई है :
- उत्तरी गोलार्ध में भूमि और दक्षिणी गोलार्ध में जल क्षेत्रों का प्रभुत्व।
- महाद्वीपों और महासागरों का त्रिकोणीय आकार।
- उत्तरी ध्रुव पर महासागर और दक्षिणी ध्रुव पर महाद्वीप।
- प्रशांत महासागरों के चारों ओर वलित पर्वतों की श्रृंखला का होना।
- टेट्राहेड्रल आकार के रूप में पृथ्वी का संतुलन, महाद्वीपों और महासागरों का स्थायित्व कुछ ऐसे तर्क हैं जिससे इस सिद्धांत की आलोचना हुई और टेलर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त हुआ।
टेलर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत:
- F.B. टेलर ने महाद्वीपीय क्षैतिज विस्थापन सिद्धांत के तहत टर्सियरी काल के वलित पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या की।
- उन्होने कहा कि:
- क्रिटेशियस काल में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर क्रमशः लौरेंसिया और गोंडवानालैंड नामक दो भू-भाग थे।
- टेलर के अनुसार महाद्वीप, चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति के कारण भूमध्य रेखा की ओर तथा और पश्चिम की ओर विस्थापित हो गए।
- भू -भाग के विस्थापन के परिणामस्वरूप तनावपूर्ण बल उत्पन्न होने से भूभाग में खिंचाव, विभाजन और टूटने की प्रक्रिया हुई।
- गोंडवाना कई महाद्वीपों और द्वीपों में विभाजित हो गया।
- दक्षिण की ओर लौरेंसिया के विस्थापित होने के कारण आल्प्स, काकेशस और हिमालय का निर्माण हुआ।
- टेलर के सिद्धांत की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई जैसे:
- उन्होंने बताया कि महाद्वीपों का विस्थापन बहुत बड़े पैमाने पर होता है लेकिन वर्तमान पर्वतों के निर्माण के लिये इनका छोटे पैमाने पर विस्थापन आवश्यक था।
- यदि चंद्रमा का ज्वारीय बल इतने बड़े महाद्वीपों को विस्थापित कर सकता है तो यह पृथ्वी की घूर्णन गति पर विराम लगा सकता है।
- हालाँकि F.B. टेलर का सिद्धांत स्वीकार्य नहीं है लेकिन इनकी परिकल्पना ने महाद्वीपों और महासागरीय घाटियों के स्थायित्व पर नवीन विचारों का मार्ग प्रशस्त किया।
वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (1912):
- इनकी विस्थापन परिकल्पना का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी के भूवैज्ञानिक समय में हुए वैश्विक जलवायु परिवर्तन की व्याख्या करना था।
- इनके अनुसार किसी भी प्रतिरोध के बिना महाद्वीप या सियालिक भू-भाग , सीमा पर तैरता है।
- उन्होंने एकल भू-भाग (पैंजिया) की अवधारणा प्रस्तुत की थी।
- पैंजिया में होने वाले विभाजन के परिणामस्वरूप वर्तमान भू-भाग का निर्माण हुआ।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के साक्ष्य
- महाद्वीपों का साम्य : उदाहरण के लिये दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएँ त्रुटिरहित साम्य हैं।
- रेडियोमेट्रिक डेटिंग के अनुसार महासागरों में समान आयु की चट्टानें मिलती हैं।
- टिलाइट: भारत में मिलने वाले भूगर्भिक पदार्थ दक्षिणी गोलार्द्ध के छह अलग-अलग भूभागों से मेल खाते हैं।
- प्लेसर निक्षेप : घाना तट पर पाये जाने वाले सोने के बड़े निक्षेप , ब्राज़ील के निक्षेप से संबंधित हैं ।
- जीवाश्मों का वितरण: जब समुद्री अवरोधक के दोनों विपरीत किनारों पर समान प्रजातियाँ पाई जाती हैं तो इनके वितरण की व्याख्या में समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
- वेगनर की परिकल्पना के अनुसार सियालिक (महाद्वीपीय) भूभाग की भूमध्य रेखा की ओर गति गुरुत्वाकर्षण बल में अंतर और उत्प्लावकता बल के कारण होती है ( पूर्व में इन्होंने इसके विपरीत यह कहा था कि सियाल बिना किसी घर्षण के ,सीमा पर तैर रहा है)।
- इनके अनुसार पश्चिम की ओर विस्थापन सूर्य और चंद्रमा के ज्वारीय बल के कारण हुआ (वास्तव में यह महाद्वीपों को विस्थापन के लिये पर्याप्त नहीं है)।
- वेगनर के क्षैतिज विस्थापन के सिद्धांत के अनसुलझे रहने से प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त हुआ। .
- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत (PTT): एच. हेस ने 1960 में प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत की अवधारणा को प्रतिपादित किया।
- महाद्वीपीय विस्थापन और सागर नितल प्रसरण, प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के पीछे मुख्य अवधारणाएं थीं।
- इस सिद्धांत में महत्वपूर्ण परिकल्पना दी गई जहाँ मध्य महासागरीय कटक में सागर की नवीन सतह का निर्माण होता है और गर्त में यह नष्ट हो जाती हैं।
- इसमें प्लेटों के किनारों ( सभी विवर्तनिकी गतिविधियाँ प्लेट के किनारों पर ही होती हैं ) को तीन प्रकार में बाँटा गया है
- अपसारी प्लेट किनारा : उदाहरण - मध्य अटलांटिक कटक
- अभिसारी प्लेट किनारा : उदाहरण- प्रशांत महासागर में रिंग ऑफ फायर
- रूपांतरित प्लेट किनारा: उदाहरण- इंडियन और अंटार्कटिक प्लेट
- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत में गतिमान पिघले हुए मैग्मा को प्लेट की गति के पीछे के प्रमुख बल के रुप में संदर्भित किया जाता है।
- प्लेट विवर्तनिकी की परिकल्पना को प्लेटों की गति और प्रारंभिक स्तर पर बने उच्चावचों की व्याख्या करने के लिये अब तक का सबसे उचित और स्वीकार्य सिद्धांत माना जाता है।
इसलिये हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत सिद्धांतों की श्रृंखला में अंतिम और सबसे स्वीकार्य भी है।
उत्तर 20:
हल करने का दृष्टिकोण
- भारत में खाद्य अपव्यय और अलाभकारी खेती का परिचय दीजिये।
- कृषि-जलवायु क्षेत्र के अनुसार फसलों की खेती के महत्त्व और खेती को अधिक लाभकारी बनाने के लिये स्थानीय खाद्य इकाइयों की औपचारिकता का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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- संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि भारत में उत्पादित खाद्य पदार्थों का 40 प्रतिशत तक बर्बाद हो जाता है। यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग 92,000 करोड़ रुपए मूल्य का 67 मिलियन टन से अधिक भोजन बर्बाद हो जाता है।
- NSO के सर्वेक्षण "कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन" से पता चला है कि वर्ष 2021 में प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये प्रति माह थी।
- फसल आय किसान की आय का केवल 37% हिस्सा है और यह किसान की मजदूरी आय से 40% कम है। डेटा अपने आय स्रोत के कारण किसानों को श्रमिक के रूप में दिखाता है। यह भारत में अलाभकारी खेती को दर्शाता है।
भारत में किसानों को मुख्य रूप से दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे उच्च लागत लागत और कृषि उपज का कम पारिश्रमिक। इन दोहरी चुनौतियों से क्षेत्र की कृषि-पारिस्थितिकी के अनुसार क्षेत्रीय फसल पैटर्न की पद्धति और कृषि-उत्पाद के मूल्य की प्राप्ति को अधिकतम करने के लिये स्थानीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों/इकाइयों की औपचारिकता से निपटा जा सकता है।
- कृषि-जलवायु क्षेत्र के अनुसार फसलें: इसमें निहित गुणों और फसलों के लाभ के कारण खेती में इनपुट लागत को कम करने की अपार संभावनाएँ हैं:
- यह उन फसलों में इनपुट लागत को कम करता है जिनकी आवश्यकता हो सकती थी यदि विभिन्न पारिस्थितिक क्षेत्र की फसलें अलग-अलग क्षेत्रों में उगाई गई हों जैसे कि पंजाब और हरियाणा के सूखा प्रवण क्षेत्र में चावल को अत्यधिक सिंचाई सुविधाओं की आवश्यकता होती है और बाद में जल स्तर में गिरावट भविष्य की आवश्यकता के लिये पीढ़ीगत जल समानता को बाधित कर सकती है।
- उदाहरण के लिये राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में बाजरा उगाना और पश्चिम बंगाल, ओडिशा और केरल में चावल उगाने हेतु बहुत कम इनपुट और उच्चतम प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होती है।
- यह प्रकृति में अनिश्चित परिवर्तन की संभावना को कम करेगा जैसे पंजाब और हरियाणा में रहस्यमय बौना रोग धान की फसलों को प्रभावित करना (ऊँचाई वृद्धि और उपज को प्रभावित करना), मानसूनी बारिश के पैटर्न में बदलाव जैसे कि धान के मूल कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्र में एक ही धान की फसल फल-फूल रही हो और अन्य फसलों के लिये भी यही सही है।
- बढ़ते संकरण और आनुवंशिक संशोधित (GM) बीजों के उद्भव, आर्थिक लागत होने के अलावा, ये बीज किसानों को आत्महत्या के बीज के उद्भव के कारण कृषि-निगमों पर निर्भरता और GM बीजों द्वारा कृषि-पारिस्थितिकी के लिये खतरा हैं। स्वदेशी बीज वाली क्षेत्रीय फसलों को वरीयता (वे क्षेत्रीय प्रतिकूल जलवायु और रोग के प्रति अधिक सहिष्णु हैं) उपर्युक्त समस्या को हल किया जा सकता है।
- विभिन्न क्षेत्रों की फसलों में रसायनों के बड़े अवशेष होते हैं और पंजाब में कैंसर की समस्या जैसी दुर्लभ बीमारियों को जन-जन तक पहुँचाते हैं और स्वास्थ्य पर जेब खर्च को बढ़ाते हैं और पूर्ण आय को कम करते हैं।
- कृषि-उत्पादों और उपज में भौगोलिक संकेत जैसी प्रतिस्पर्धी और विपणन अवधारणा का उदय, क्षेत्रीय एवं जैविक फसलों को थोड़े प्रयास से भी आकर्षक दर पर मुद्रीकृत किया जा सकता है तथा किसानों को मूल्य प्राप्ति में वृद्धि हो सकती है। उदाहरणत: मणिपुरी काला चावल, कंधमाल हल्दी (ओडिशा)।
स्थानीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों/इकाइयों (FPI) का औपचारिककरण:
- खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (FPI) का महत्त्व इसलिये अधिक है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था के दो स्तंभों, यानी कृषि और उद्योग के बीच अंतर्संबंधों को बढ़ावा देता है।
- किसानों की आय दोगुनी: कृषि उत्पादों की मांग बढ़ने से किसान को भुगतान की गई कीमत में वृद्धि होगी, जिससे आय में वृद्धि होगी।
- कुपोषण कम करना: प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ जब विटामिन और खनिजों से युक्त होते हैं तो जनसंख्या में पोषण की कमी को कम कर सकते हैं।
- खाद्य अपव्यय कम करना: संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 40% उत्पादन बर्बाद हो जाता है। इसी तरह नीति आयोग ने लगभग 90,000 करोड़ रुपये की वार्षिक कटाई के बाद के नुकसान का अनुमान लगाया है।
- व्यापार को बढ़ावा एवं विदेशी मुद्रा का स्रोत: यह विदेशी मुद्रा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। उदाहरण के लिये मध्य-पूर्वी देशों में भारतीय बासमती चावल की बहुत मांग है।
- प्रवासन पर अंकुश: खाद्य प्रसंस्करण एक श्रम प्रधान उद्योग होने के कारण स्थानीय रोजगार के अवसर प्रदान करेगा और इस प्रकार ग्रामीण से शहरी प्रवास को कम करेगा।
- खाद्य मुद्रास्फीति पर अंकुश: प्रसंस्करण खाद्य पदार्थ की सेल्फ लाइफ को बढ़ाता है और इस प्रकार से आपूर्ति को बनाए रखता है जिससे खाद्य-मुद्रास्फीति पर नियंत्रण पाया जाता है। उदाहरण के तौर पर फ्रोज़न सफल मटर पूरे वर्ष उपलब्ध होता है।
- फसल-विविधीकरण: खाद्य प्रसंस्करण के लिये विभिन्न प्रकार के आदानों की आवश्यकता होगी जिससे किसान को फसलों को उगाने और विविधता लाने हेतु प्रोत्साहन मिले, यह सीधे क्षेत्रीय फसल पैटर्न का समर्थन करता है।
उपर्युक्त सभी तर्कों से पता चलता है कि क्षेत्रीय फसल पैटर्न और FPI में फसलों में किसानों की इनपुट लागत को कम करने या उपज के विपणन मूल्य में वृद्धि करने और भारतीय कृषि क्षेत्र की दोहरी चुनौतियों का समाधान करने की अपार संभावनाएँ हैं।