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  • 11 Aug 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    दिवस 32 : ज्ञान का अभाव बुद्धि को भ्रमित करता है, जबकि शिक्षा आत्मा को सच्चा ज्ञान प्रदान करती है- रवींद्रनाथ टैगोर।" वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस उद्धरण की चर्चा कीजिये? (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • दिये गए उद्धरण का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
    • उद्धरण का विस्तार से वर्णन कीजिये।
    • वर्तमान संदर्भ में दिये गए उद्धरण की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिये।

    उत्तर:

    दिये गए कथन का तात्पर्य है कि ज्ञान का आभाव (अविद्या) बुद्धि और विवेक के लिये हानिकारक है। टैगोर के लिये शिक्षा का अर्थ स्वयं से साक्षात्कार है एवं जीवन का उद्देश्य इस स्थिति को प्राप्त करना है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे शिक्षा के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है।

    टैगोर शिक्षा की नियमित प्रणाली से असंतुष्ट थे और उन्होंने स्कूलों को ‘रोल लर्निंग’ के कारखाने के रूप में।संबोधित किया, उन्होंने प्रभावी शिक्षा के लिये स्वतंत्रता के सिद्धांत का समर्थन किया।

    • उन्होंने कहा कि बच्चों को स्वतंत्रता दी जानी चाहिये ताकि वे अपनी इच्छानुसार विकसित और वृद्धि कर सकें। शिक्षा की प्रक्रिया के माध्यम से एक व्यक्ति को अपने जीवन के सामाजिक ढांचे के साथ एक सामंजस्यपूर्ण व्यक्ति के रूप में सामने आने में सक्षम होना चाहिए।
    • टैगोर के शिक्षा दर्शन में, इंद्रियों का सौंदर्य विकास उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना कि बौद्धिक, संगीत साहित्य और स्कूल के दैनिक जीवन में कला एवं नृत्य को बहुत प्रमुखता दी जाती थी।
    • टैगोर के लिये, सर्वोच्च शिक्षा वह है जो हमें न केवल जानकारी देती है बल्कि हमारे जीवन को उसके सभी अस्तित्व के साथ सामंजस्य बिठाती है। अंतिम लक्ष्य हाशिये पर पड़े लोगों की स्थितियों में सुधार करना है।

    वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता

    वर्तमान में शिक्षा प्रणाली ज्ञान और कौशल के साथ विद्यार्थियों को आकर्षित करने की दिशा में अधिक केंद्रित है जो उन्हें अच्छी आजीविका प्रदान कर सकती है, नैतिक ज्ञान और आध्यात्मिक आत्म-समझ को पर्याप्त लाभ नहीं दिया जा रहा है। इस प्रकार, शिक्षा पर टैगोर के विचारों के निम्नलिखित पहलुओं को मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली में शामिल करने की आवश्यकता है:

    • आत्म-साक्षात्कार: अध्यात्मवाद मानवतावाद का सार है; यह अवधारणा टैगोर के शैक्षिक दर्शन में परिलक्षित हुई है। आत्म-साक्षात्कार शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति व्यक्ति के आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक ज्ञान पर निर्भर करती है।
    • बौद्धिक विकास: टैगोर ने बच्चे के बौद्धिक विकास पर बहुत ज़ोर दिया। बौद्धिक विकास से उनका अर्थ है कल्पना का विकास, रचनात्मक मुक्त सोच, निरंतर जिज्ञासा और मन की सतर्कता। बच्चे को अपने सीखने के तरीके को अपनाने के लिये स्वतंत्र होना चाहिये जिससे सर्वांगीण विकास हो सके।
    • शारीरिक विकास: टैगोर के शैक्षिक दर्शन का उद्देश्य भी बच्चे का शारीरिक विकास करना है। उन्होंने एक ध्वनि और स्वस्थ काया को बहुत महत्त्व दिया। तरह-तरह के व्यायाम होते थे। शिक्षा प्रणाली के अभिन्न अंग के रूप में शांतिनिकेतन में विभिन्न प्रकार के व्यायाम योग, खेल का आयोजन किया जाता था।
    • मानवता के लिये प्रेम: टैगोर का मानना था कि संपूर्ण ब्रह्मांड एक परिवार है। शिक्षा लोगों को विश्व की एकता का एहसास करना सिखा सकती है। अंतर्राष्ट्रीय समझ और सार्वभौमिक भाईचारे के लिये शिक्षा उनके शैक्षिक दर्शन का एक और महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। ईश्वर के पितृत्व और मनुष्य के भाईचारे जैसी अवधारणाओं के माध्यम से एकता की भावना विकसित की जा सकती है, इस पृथ्वी पर सभी प्राणी समान हैं।
    • मनुष्य और ईश्वर के बीच संबंध स्थापित करना: मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त विविध गुणों और क्षमताओं को धारण करता है। ये गुण जन्मजात और सहज होते हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच का रिश्ता मज़बूत और स्थायी होता है। हालाँकि अध्यात्मवाद और पवित्रता के प्रति समर्पण मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध को जन्म देगा।
    • स्वतंत्रता: स्वतंत्रता को मानव विकास का एक अभिन्न अंग माना जाता है। शिक्षा एक मानव-निर्माण प्रक्रिया है, यह मनुष्य के भीतर मौजूद जन्मजात शक्ति को उज़ागर करती है। यह एक उदार प्रक्रिया है जो व्यक्ति को उसके सर्वांगीण विकास के लिये अत्यधिक स्वतंत्रता प्रदान करती है।
    • Correlation of Objects:
    • वस्तुओं का सहसंबंध: सहसंबंध ईश्वर, मनुष्य और प्रकृति के साथ मौजूद है। एक शांतिपूर्ण दुनिया केवल तभी संभव है जब मनुष्य और प्रकृति के बीच सहसंबंध स्थापित किया जाएगा।
    • नैतिक और आध्यात्मिक विकास: टैगोर ने अपने शैक्षिक विचारों में नैतिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया। मानवीय व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिये नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा किताबी ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण है। निःस्वार्थ क्रियाकलापों के विकास, सहकारिता एवं सहानुभूति के प्रति प्रेम तथा शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों में सहभागी होने का पर्याप्त प्रावधान होना चाहिये।
    • सामाजिक विकास: टैगोर के अनुसार, "ब्रह्मा" सर्वोच्च आत्मा स्वयं को पुरुषों और अन्य प्राणियों के माध्यम से प्रकट करता है। चूँकि वह सभी मनुष्यों और प्राणियों का स्रोत है, इसलिये सभी समान हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि "मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है"। सभी को अपने जीवन की शुरुआत से ही सामाजिक संबंधों और साथी-भावना का विकास करना चाहिये।

    इस प्रकार टैगोर ने ऐसे शिक्षा पद्धति की कल्पना की जो किसी व्यक्ति के संस्कृति और परिवेश में निहित हो लेकिन उसकी व्यापकता पूरे विश्व से व्यक्ति को जोड़ सके। शिक्षा पर उनके विचारों को हर उम्र में महत्त्व दिया जाएगा क्योंकि वे नैतिकता और आध्यात्मिक समझ, अंतरसांस्कृतिक समझ तथा शांति, प्रकृति के साथ सम्मान एवं अंतरंगता, सामाजिक जुड़ाव और कलात्मक क्षमताओं तथा रचनात्मकता पर आधारित हैं।

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