भारतीय अर्थव्यवस्था
द बिग पिक्चर/देश-देशांतर : भारत की विकास दर: विश्व बैंक की रिपोर्ट और उपाय
- 12 Jan 2018
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संदर्भ और पृष्ठभूमि
विश्व बैंक ने हाल ही में ग्लोबल इकॉनमिक प्रॉस्पेक्ट रिपोर्ट 2018 जारी की, जिसमें विमुद्रीकरण और जीएसटी से भारतीय अर्थव्यवस्था को लगे शुरुआती झटकों के बावजूद 2017 में विकास दर 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया गया है। यह विश्व बैंक द्वारा पहले लगाए गए अनुमान 7 प्रतिशत से कुछ कम है।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
- विश्व बैंक ने 2018 के लिये भारत की विकास दर 7.3 प्रतिशत और अगले दो सालों के लिये 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है।
- चीन से भारत की तुलना करते हुए चीन की अर्थव्यवस्था को धीमा बताया है। 2017 में चीन की अर्थव्यवस्था 6.8 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी यानी भारत की तुलना में केवल 0.1 प्रतिशत अधिक।
- 2018 में चीन के लिये अनुमान 6.4 प्रतिशत विकास दर और अगले दो सालों के लिये यह अनुमान घटाकर क्रमशः 6.3 और 6.2 प्रतिशत कर दिया गया है।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले दशक में भारत की विकास दर औसतन 7 प्रतिशत बनी रहेगी।
- रिपोर्ट में भारत को अपनी क्षमताओं का सही इस्तेमाल करने के लिये निवेश की संभावनाओं को बढ़ाने वाले कदम उठाने के लिये कहा गया है।
- श्रम सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य में सुधार और निवेश के रास्ते में आ रही बाधाओं को दूर करने से भारत की संभावनाएँ और बेहतर होने की बात भी रिपोर्ट में कही गई है।
- रिपोर्ट में भारत के जनसांख्यिकी लाभांश (Demographic Dividend) की तारीफ करते हुए कहा गया है कि अन्य अर्थव्यवस्थाओं में ऐसा प्रायः देखने को नहीं मिलता।
- रिपोर्ट में अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में महिला श्रम का अनुपात कम होने पर चिंता जताते हुए कहा गया है कि महिला श्रम की हिस्सेदारी बढ़ाकर विकास की रफ्तार काफी तेज़ की जा सकती है।
- रिपोर्ट में भारत के सामने बेरोज़गारी घटाने जैसी चुनौतियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इन चुनौतियों से निपटने में सफल रहने पर भारत अपनी क्षमता का अधिक इस्तेमाल कर पाएगा।
- विश्व बैंक के अनुसार देश में हो रहे व्यापक सुधार उपायों के साथ भारत में विश्व की अन्य कई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में विकास की कहीं अधिक क्षमता है।
विश्व बैंक की कारोबार सुगमता रिपोर्ट पिछले वर्ष नवंबर में विश्व बैंक द्वारा जारी कारोबार सुगमता रिपोर्ट अर्थात् ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग में भारत 2016 के 130वें स्थान से 30 स्थानों की छलांग लगाते हुए 100वें स्थान पर पहुँच गया। जल्द कारोबार आरंभ करने के मामले में 156वें, उद्योगों को बिजली कनेक्शन देने के मामले में 129वें, दिवालिया मामलों के निपटान के मामले में 103वें स्थान पर है। इन सभी में भारत की रैंकिंग में पहले के मुकाबले सुधार हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार इनके अलावा, जहाँ एक ओर कारोबार के लिये ऋण लेना भी आसान हुआ है, वहीं अल्पसंख्यक शेयरधारकों की हितों की रक्षा के लिये अहम् कदम उठाए गए हैं, साथ में कर-अदायगी को आसान बनाने की दिशा में भी सुधारों को बल मिला है। (टीम दृष्टि इनपुट) |
विकास दर बनाए रखने के लिये करने होंगे ये उपाय
सीएसओ ने हाल ही में विकास दर को लेकर जो पहला प्राथमिक अनुमान जारी किया है, उसके अनुसार देश की अर्थव्यवस्था पिछले चार वर्षों में सबसे सुस्त दौर से गुज़र रही है। ऐसे में विकास दर को बनाए रखना सरकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती है, जिसके लिये उसे कुछ उपाय तुरंत करने होंगे।
कृषि क्षेत्र पर देना होगा ध्यान
विकास दर बढ़ाने के लिये कृषि को प्राथमिकता दिया जाना ज़रूरी है, क्योंकि जब फसल अच्छी होती है तो सब कुछ ठीक रहता है तथा मौद्रिक नीति भी कारगर साबित होती है। लेकिन जब फसल अच्छी नहीं होती तो महँगाई बढ़ने, विकास दर कम होने जैसी चिंताएँ सिर उठाने लगती हैं। यद्यपि वर्तमान में राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान बहुत अधिक नहीं है, फिर भी कृषि उत्पादन में गिरावट विकास दर को निश्चित ही प्रभावित करती है।
कृषि क्षेत्र की वर्तमान दशा को समझने के लिये यह जान लेना पर्याप्त होगा कि स्वतंत्रता के समय देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 50 प्रतिशत था, जो अब घटकर 14 प्रतिशत रह गया है। सर्वाधिक उत्पादकता वाले इस क्षेत्र पर देश की लगभग 58 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर करती है। घटी हुई विकास दर न केवल कृषि पर निर्भर देश के 14 करोड़ से अधिक परिवारों को प्रभावित करती है, बल्कि आम आदमी भी महँगाई से परेशान हो जाता है। चूँकि देश की बहुत बड़ी आबादी रोज़गार के लिये खेती-किसानी से जुड़ी हुई है, इसलिये कृषि में किसी भी प्रकार की गिरावट रोज़गार संकट को भी बढ़ा देती है।
रोज़गार और कुशल श्रम का सृजन
भारतीय अर्थव्यवस्था की सर्वाधिक बड़ी चुनौतियों में से एक है रोज़गार सृजन की चुनौती। इस समस्या के समाधान के लिये एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- हमारे देश में लगभग 13-15 लाख युवा प्रतिवर्ष कार्यशील जनसंख्या में तब्दील हो जाते हैं, जो रोज़गार के उपयुक्त अवसरों की तलाश में रहते हैं।
- देश की लगभग आधी आबादी कृषि क्षेत्र में लगी है और वहाँ और अधिक लोगों को रोज़गार दे पाना संभव नहीं है। अतः समय की मांग यही है कि गैर-कृषि क्षेत्रों में रोज़गार सृजन के उपाय किये जाएँ।
- यदि देश में गरिमापूर्ण रोज़गारों का सृजन करना है तो सर्वप्रथम श्रम कानूनों के आधिक्य को कम करना होगा।
- केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर बहुत अधिक श्रम कानून हैं, जो प्रायः औद्योगिक विकास में बाधक बनते हैं।
- कठोर श्रम कानूनों के कारण औद्योगिक प्रगति नहीं हो पाती, जो आगे चलकर रोज़गारहीनता का एक बड़ा कारण बन जाती है।
- श्रम सुधारों को कारोबार से जोड़कर ही मानव संसाधन को उत्पादक संपत्ति बनाना संभव हो पाएगा।
इसके अलावा रोज़गार सृजन के लिये अनुकूल माहौल बनाना भी बेहद आवश्यक है। जहाँ एक तरफ छोटे एवं मध्यम उद्यमों से बोझ घटाने की ज़रूरत है, वहीं ऐसे सुधारों को कामगारों के लाभ से भी जोड़ना होगा।
शिक्षा क्षेत्र में सुधार
अंतरराष्ट्रीय मानकों पर तुलना करने से पता चलता है कि हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में अनेकानेक खामियाँ हैं। ऐसे में शिक्षा क्षेत्र के नियमों एवं प्रावधानों को बदलने की आवश्यकता है, विशेष रूप से विश्वविद्यालयों से संबंधित नियमों एवं प्रावधानों को। भारत में विश्वविद्यालयों का प्रबंधन, शैक्षिक कार्यक्रम तथा डिग्री देने की प्रक्रिया बदलते वक्त की मांग के अनुरूप नहीं हैं ।
- देश में उस ज्ञान-कौशल की पहचान करने की ज़रूरत है, जो रोज़गार सृजित कर सके और युवाओं के लिये आगे का रास्ता तय कर सके।
- इसके लिये विभिन्न संगठनों और संस्थानों को विश्वविद्यालयों में शोध-आधारित गतिविधियों को चलाने के लिये आगे आना चाहिये।
- भारत के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों एवं निकायों को इस बात की स्वायत्तता मिलनी चाहिये कि वे स्वयं की ज़रूरतों के हिसाब से ‘अध्यापकों’ का चुनाव कर सकें।
- वैसे लोग जो औद्योगिक विकास की प्रक्रिया और आवश्यकताओं को समझते हों, उन्हें विश्वविद्यालयों से जोड़ना होगा और इसके लिये विश्वविद्यालयों की कार्य-संस्कृति में बदलाव करना होगा।
- देश की आर्थिक स्थिति बदल रही है, ऐसे में शिक्षा क्षेत्र में डिजिटलीकरण की भूमिका बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
बढ़ानी होगी क्रेडिट ग्रोथ
एनपीए के चलते सरकारी बैंक कर्ज़ देने में बेहद सावधानी बरत रहे हैं और कर्ज़ देने की रफ्तार कम होने के कारण बैंकों के पास जमा राशि लगातार बढ़ रही है, जिसका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है।
- एनपीए के ऊँचे स्तर के अलावा कमज़ोर कॉरपोरेट मांग के चलते देश में क्रेडिट ग्रोथ 60 साल के निचले स्तर पर आ गई है।
- वित्त वर्ष 2016-17 में बैंकों की ओर से कर्ज़ देने की रफ्तार गिरकर केवल पाँच प्रतिशत रह गई। इससे पहले क्रेडिट ग्रोथ की न्यूनतम दर 1953-54 में रिकॉर्ड की गई थी, जो तब केवल 1.7 प्रतिशत थी।
- कर्ज़ देने के ये आँकड़े इसलिये भी हैरान करने वाले हैं, क्योंकि इसी दौरान देश की विकास दर लगभग 7 प्रतिशत रही और ब्याज दरें भी अपेक्षाकृत कम रहीं।
- बैंकों का एनपीए 14 लाख करोड़ रुपए के स्तर पर पहुँच गया है, जो बैंकिंग सिस्टम का लगभग 15 प्रतिशत है।
- बीते वित्त वर्ष में बैंकों में जमा नकदी 11.75 प्रतिशत बढ़कर 108 लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा हो गई, जो 1 अप्रैल, 2016 को 96.68 लाख करोड़ रुपए थी।
इसकी एक बड़ी वज़ह यह भी है कि कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार तेज़ी से बढ़ रहा है, जहाँ से कंपनियाँ कार्यशील पूंजी के लिये धन जुटा रही हैं।
अर्थव्यवस्था में निजी निवेश लाने की चुनौती
पिछले वर्ष सितंबर में भारतीय उद्योग जगत का प्रतिनिधित्व करने वाले एक संगठन एसोचैम द्वारा आयोजित 10वें अंतरराष्ट्रीय स्वर्ण शिखर सम्मेलन में भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन ने भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिये केंद्र सरकार को महत्त्वपूर्ण सुझाव देते हुए कहा था कि यदि अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना है तो निजी निवेश को बढ़ावा देना होगा। अर्थव्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने के लिये सरकार को प्रोत्साहन पैकेज के साथ-साथ निजी निवेश को बढ़ावा देने की खातिर पूंजी व्यय बढ़ाने पर भी विचार करना चाहिये। सरकार जिस भी तरीके से निजी निवेश को बढ़ावा दे सकती है, वही उपयुक्त तरीका होगा।
गंभीर बात यह है कि निजी निवेश गिरा है और वास्तविकता यह है कि पूंजी पर सार्वजनिक व्यय में बहुत कम वृद्धि हुई है। ऐसे में सबसे ज़रूरी मुद्दा उन समस्याओं के समाधान का है, जो निजी निवेश को बाधित कर रही हैं। कई परियोजनाएँ जो रुकी हुई हैं, उन पर काम शुरू होना सुनिश्चित किया जाए। इसके साथ बैंकिंग प्रणाली के पुनर्पूंजीकरण पर पर्याप्त ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि निवेश के लिये अतिरिक्त कर्ज़ उपलब्ध कराया जा सके।
विनिर्माण क्षेत्र में सुधार
नीति आयोग का मानना है कि देश को वर्तमान विकास दर से कहीं उच्च विकास दर से बढ़ना है तो यह विनिर्माण के बिना संभव नहीं होगा, जो कि विकास का प्रमुख वाहक है। लंबे समय तक उच्च विकास दर बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है, कम-से-कम तीन दशकों या उससे अधिक समय तक विकास दर को बनाए रखना विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन दिये बिना संभव नहीं हो सकता। विनिर्माण क्षेत्र में अधिकांश उद्योग प्रत्येक प्रत्यक्ष रोज़गार के साथ तीन अप्रत्यक्ष रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराता है, इसलिये और अधिक रोज़गार उत्पन्न करने के लिये स्थानीय विनिर्माण ढांचे में सुधार के लिये मिलकर काम करने की ज़रूरत है।
अंकटाड की रिपोर्ट में भी 6.7 प्रतिशत थी विकास दर पिछले वर्ष सितंबर में जारी हुई अंकटाड (United Nations Conference on Trade and Development–UNCTAD) की वार्षिक व्यापार और विकास रिपोर्ट में भी 2017 में भारतीय अर्थव्यवस्था के 6.7 प्रतिशत रहने की संभावना जताई गई थी, जो वर्ष 2016 के 7 प्रतिशत से कम है। इस रिपोर्ट में इसका कारण विमुद्रीकरण तथा जीएसटी को माना गया था।
इसके अलावा हाल ही में देश में विकास दर का अनुमान लगाने वाली सरकारी एजेंसी केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (Central Statistical Office-CSO) ने इस वित्त वर्ष में देश की विकास दर पिछले वर्ष की तुलना में कम रहने का अनुमान जताया है। इसके अनुसार यह विकास दर चालू वित्त वर्ष 2017-18 में 6.5 प्रतिशत पर चार साल के निचले स्तर पर रहेगी। सीएसओ ने पहले इसके 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था। (टीम दृष्टि इनपुट) |
निष्कर्ष: हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ 2 प्रतिशत से अधिक आर्थिक विकास दर को अच्छा माना जाता है, लेकिन यह केवल पश्चिमी विकसित देशों पर ही लागू होता है। भारत को उनके समकक्ष आने के लिये लंबे समय तक अपनी विकास दर को 7 प्रतिशत से अधिक बनाए रखना होगा| विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में बेशक भारत के उजले विकास का खाका खींचा है, लेकिन इसे पाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वर्तमान में देश की विकास दर का निरंतर कम होते जाना वाकई चिंताजनक है। हालाँकि विकास दर में यह कमी वैश्विक मंदी तथा घरेलू स्तर पर विमुद्रीकरण और जीएसटी लागू होने तथा कुछ अन्य कारणों से आई है, लेकिन यह इस बात का संकेत है कि हमें अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिये भागीरथ प्रयास करने होंगे। विकास दर में कमी के साथ निर्यात के समक्ष भी कई चुनौतियाँ सामने आई हैं। इनके निराकरण के लिये ऐसी ठोस नीतियाँ बनाने की आवश्यकता है जो घरेलू स्तर पर तो अर्थव्यवस्था को मज़बूती प्रदान करें ही, साथ ही वैश्विक आर्थिक हलचलों से भी सुरक्षा दिला सकें। विकास दर को सुधारने के लिये सरकार को नीतिगत और निवेश के स्तर पर कई कार्य करने होंगे, जिनमें सुधार की दिशा में आगे बढ़ने, अधिक पारदर्शी एवं अधिक वास्तविक राजकोषीय अनुशासन बनाये रखना प्रमुख हैं।