संयुक्त राष्ट्र का वित्तीय संकट | 24 Oct 2019
संदर्भ
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र (United Nation- UN) महासचिव ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र अक्तूबर के अंत तक वित्तीय संकट में पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र का कुल घाटा 230 मिलियन डॉलर है, जिससे निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने सम्मेलनों को सीमित करने, सेवाओं को कम करने और केवल आवश्यक आधिकारिक यात्राएँ करने का प्रस्ताव दिया है।
संयुक्त राष्ट्र के वित्तीय संकट के मुख्य कारणों में से एक संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा भुगतान में देरी है। ज्ञातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र के बजट का 22% (674 मिलियन डॉलर) का भुगतान अमेरिका करता है। हालाँकि अब तक संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से केवल 129 देशों ने बजट में अपना योगदान दिया है। साधारणत: प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र का बजट 5.4 बिलियन डॉलर का होता है।
संयुक्त राष्ट्र के वित्तीय संकट की प्रकृति
- अमेरिका की बजटीय प्रक्रिया के कारण अक्तूबर के अंत तक अमेरिका द्वारा संयुक्त राष्ट्र को वित्त का भुगतान किये जाने में देरी होती है, जिससे आमतौर पर अक्तूबर के महीने में संयुक्त राष्ट्र को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ता है।
- ज्ञातव्य है कि अमेरिका अगर लगातार दो वर्षों तक धन के भुगतान में चूक करता है तो वह संयुक्त राष्ट्र में अपने मताधिकार को खो देगा।
- यह पहली बार नहीं है कि अमेरिका ने अपने रणनीतिक हितों के अनुसार बहुपक्षीय मंचों का प्रयोग करने की कोशिश की है। इससे पूर्व अमेरिका ने यूनेस्को को भी वित्त के भुगतान में देरी की एवं फिलिस्तीन के मुद्दे पर मतांतर होने के कारण अपनी सदस्यता वापस ले ली।
- हालाँकि इस बार ब्राज़ील और दक्षिण कोरिया जैसे अन्य बड़े योगदानकर्त्ताओं ने भी वित्त के भुगतान में देरी की है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र का बजटीय घाटा 30 प्रतिशत तक पहुँच गया है।
- अगर अमेरिका संयुक्त राष्ट्र को वित्त का भुगतान करता है तो यह संकट अक्तूबर के अंत तक समाप्त हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र के बजट में ऐसे नियमित वित्तीय संकट संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता
- वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में बहुपक्षीय संबंध खतरे में हैं तथा क्षेत्रीय या द्विपक्षीय संबंधों को अधिक प्राथमिकता दी जा रही है।
- उदाहरण के तौर पर आज विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation- WTO) जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं की तुलना में देशों की विश्वसनीयता क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (Regional Comprehensive Economic Partnership- RCEP) जैसे क्षेत्रीय समझौतों पर बढ़ती जा रही है।
बहुपक्षवाद
- यह तीन या उससे अधिक पक्षों के मध्य परस्पर संबंधों को विकसित करने की प्रक्रिया है।
- यह 'सामान्य हित के सिद्धांतों’ पर आधारित है, यह आपसी संबंधों को और बेहतर बनाने एवं विवादों को सुलझाने की प्रक्रिया को आसान बनाने वाली प्रणाली है।
- इसका विकास मुख्य रूप से द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में हुआ। ज्ञातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व का सबसे बड़ा बहुपक्षीय मंच है।
क्षेत्रवाद
- एक भौगोलिक क्षेत्र के भीतर पहचान और सामूहिक हित की सामान्य भावना की अभिव्यक्ति क्षेत्रवाद कहलाता है।
- बहुसंस्कृतिवाद में जहाँ विश्व एक पटल पर एकत्रित होता है वहीं क्षेत्रवाद एक भौगोलिक सीमा के भीतर स्थित राज्यों के मध्य संबंध और परस्पर निर्भरता को सूचित करता है।
- दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संघ (South Asia Association for Regional Cooperation- SAARC), यूरोपीय संघ (European Union- EU) इत्यादि क्षेत्रीय संगठनों के उदाहरण हैं।
- हालाँकि संयुक्त राष्ट्र छोटे-छोटे देशों के लिये महत्त्वपूर्ण है जो इसके प्रमुख वित्तीय योगदानकर्त्ता नहीं हैं।
- यद्यपि सुरक्षा मामलों में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका कमज़ोर रही है, किंतु सामाजिक परिदृश्य में इसकी उपयोगिता सिद्ध है।
- संयुक्त राष्ट्र की विशेष /समर्पित एजेंसियों जैसे- संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP), विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (UNHCR) इत्यादि ने सामाजिक क्षेत्र जैसे- मानवाधिकार, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य आदि में उल्लेखनीय कार्य किया है।
- साथ ही संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में आतंकवाद से निपटने, धन शोधन पर नियंत्रण, परमाणु अप्रसार, रासायनिक हथियारों का प्रयोग न करने जैसे मामलों में बहुत हद तक सफलता मिली है।
- इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र छोटे, अल्पविकसित या विकासशील देशों की तरफ से प्रभावशाली राष्ट्रों पर दबाव बनाने वाली एक संस्था के रूप में कार्य करता है।
संयुक्त राष्ट्र की घटती प्रासंगिकता के कारण
- संयुक्त राष्ट्र की स्थापना वर्ष 1945 में की गई थी, इसे मुख्य रूप से दुनिया में शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु स्थापित किया गया था, लेकिन इस मोर्चे पर यह बहुत सफल नहीं हो पाया है।
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nations Security Council-UNSC) के पाँच स्थायी सदस्य (P5: रूस, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका) द्वितीय विश्वयुद्ध के विजयी देश थे।
- इन पाँचों देशों से विश्व में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग की उम्मीद थी किंतु शीत युद्ध के कारण ये देश अलग-अलग गुटों में विभाजित हो गए। अमेरिका, फ्राँस व ब्रिटेन एक तरफ एवं रूस और चीन दूसरी तरफ। इस विभाजन के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो पावर का प्रभाव क्षीण हो गया जो शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् भी बना रहा।
UN में किस प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है?
- अमेरिका का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र में शीर्ष स्तर पर नौकरशाही काफी अधिक है और इसमें लागत आधारित सुधार की आवश्यकता है।
- भारत जैसे विकासशील देशों ने UN का लोकतंत्रीकरण करने का सुझाव दिया है। जैसे- UNSC सुधार, संयुक्त राष्ट्र शांति सुधार इत्यादि।
- चूँकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में विशेषाधिकार प्राप्त देशों ने शांति और व्यवस्था बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र को अधिक सहयोग नहीं दिया है। अत: वर्तमान विश्व व्यवस्था को प्रदर्शित करते हुए संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधित्त्व में सुधार की आवश्यकता है, साथ ही संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसियों द्वारा सभी देशों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिये।
- विश्व में अब भी बहुपक्षवाद की ज़रुरत है किंतु 75 वर्ष पुराने रूप में नहीं बल्कि नए रूप में। वर्तमान विश्व व्यवस्था द्विध्रुवीय से एकध्रुवीय और अब बहु ध्रुवीय व्यवस्था में परिणत हो गई है, अत: इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र में भी सुधार की आवश्यकता है। जाहिर है बहुपक्षवाद केवल तभी प्रभावी हो सकता है जब सदस्य राज्य पारस्परिक हित चाहते हों।
निष्कर्ष
इन सभी वित्तीय मुद्दों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र वैश्विक नियम आधारित प्रणाली वैश्विक शासन के विचार को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण है। यह सभी देशों के हित में है कि वे एक ऐसा मंच बनाए रखें जहाँ वे कूटनीति के वेस्टफेलियन मॉडल (शक्ति की धारणा पर आधारित द्विपक्षीय संबंध) के बजाय एक कॉलेजियम व्यवस्था के आधार पर बातचीत कर सकें।
अभ्यास प्रश्न: वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में जहाँ क्षेत्रीय भावनाएँ प्रबल हो रही हैं, क्या संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था प्रासंगिक है? चर्चा कीजिये।