शासन व्यवस्था
अस्तित्व: देश में नगर नियोजन (Town Planning) के लिये नई नीति की आवश्यकता
- 20 Apr 2018
- 22 min read
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
देश में सर्वप्रथम शहरी नियोजन नीति या आवास नीति मई, 1988 में लागू की गई थी। वर्तमान में राष्ट्रीय शहरी आवास और पर्यावास नीति, 2007 लागू है, तब से अब तक लगभग एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद परिस्थितियों में ज़मीन-आसमान का अंतर आ चुका है। महानगरों के अलावा सभी बड़े शहरों पर बढ़ते जनसंख्या दबाव के चलते नई शहरी नियोजन नीति की लंबे समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। अब सरकार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है और जल्दी ही नई शहरी नियोजन नीति का मसौदा सामने आ सकता है।
बेहतर शहरी नियोजन के लिये नीति आयोग के सुझाव
- नीति आयोग ने अपनी 3-वर्षीय कार्य योजना के प्रारूप में शहरी जीवन में सुधार हेतु बढ़ती शहरी जनसंख्या के लिये रहने योग्य पर्याप्त स्थानों का सृजन करने, मलिन बस्तियों में कमी लाने, निरंतर बढ़ते शहरीकरण के लिये नए शहरों का निर्माण करने तथा शहरी जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने जैसे कुछ आवश्यक कदम सुझाए हैं।
- इसके अलावा नीति आयोग ने अपनी इस कार्य योजना में केंद्र तथा राज्यों में आर्थिक परिवर्तनों को बढ़ावा देने के लिये कई कार्यकारी कदमों का सुझाव दिया है।
- योजना में इस बात पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया है कि आर्थिक परिवर्तनों को बढ़ावा देने के लिये भारत को शहरी जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर बढ़ती शहरी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता है। इसके लिये भारत सरकार को मौजूदा शहरों का विस्तार करने की आवश्यकता होगी।
- नीति आयोग द्वारा सुझाए गए प्रस्तावित सुधारों में शहरी स्थानीय स्तर पर ई-गवर्नेंस का विकास, नगरपालिका क्षेत्रों का गठन और उनका व्यावसायीकरण, शहरी और नगर स्तरीय योजना, विधि अनुरूप भवनों की समीक्षा, नगरपालिका कर और शुल्क सुधार, शहरी स्थानीय निकायों की क्रेडिट रेटिंग और बिजली तथा पानी जैसी उपयोगी सेवाओं के लिये होने वाली लेखा परीक्षा आदि शामिल हैं।
- शहरी अर्थव्यवस्थाओं और श्रम बाज़ारों के लिये सार्वजानिक परिवहन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसलिये कुशल एवं टिकाऊ सार्वजानिक परिवहन को बढ़ावा देना सरकार के लिये सकारात्मक कदम होगा क्योंकि देश में वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण वायु प्रदूषण जैसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जिसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- नीति आयोग ने एकीकृत महानगर परिवहन प्राधिकरण के गठन का भी सुझाव दिया है, जिसे 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में बनाया जाएगा। यह प्राधिकरण समन्वित सार्वजनिक परिवहन योजना तैयार करेगा, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि भारतीय शहरों में वैश्विक रुझानों का अनुसरण किया जा रहा है।
गाँवों से शहरों की ओर पलायन
- आज़ादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है लगभग पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी घर, गाँव, रोज़गार से पलायन। इस आर्थिक-सामाजिक ढाँचे में बदलाव का अध्ययन करने से पता चलता है कि देश की लगभग एक-तिहाई आबादी (लगभग 31.16%) अब शहरों में रह रही है।
- 2011 की जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि गाँव छोड़कर शहर की ओर जाने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और अब 37 करोड़ 70 लाख लोग शहरों में रहते हैं।
- 2001 और 2011 की जनगणना के आँकड़ों की तुलना करने पर पता चलता है कि इस अवधि में शहरों की आबादी में 9 करोड़ 10 लाख की वृद्धि हुई, जबकि गाँवों की आबादी 9 करोड़ 5 लाख ही बढ़ी।
- देश में गाँवों की आबादी अभी भी लगभग 68.84 करोड़ है यानी देश की कुल आबादी का दो-तिहाई, लेकिन देश की जीडीपी में कृषि का योगदान लगातार घटते हुए केवल 15 प्रतिशत रह गया है।
- गाँवों में जीवन-स्तर में गिरावट, शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोज़गार की कमी है, इसलिये बेहतर जीवन की तलाश में वहाँ से लोग शहरों की ओर आ रहे हैं।
- इसका परिणाम यह हुआ कि देश के महानगरों सहित सभी अन्य बड़े शहर स्लम में तब्दील हो गए हैं।
- पूरे देश में शहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड़ परिवारों में से 1.37 करोड़ परिवार स्लम में रहते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली का उदाहरण लीजिये...दिल्ली में जन सुविधाएँ, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढाँचा, पर्यावरण, खान-पान, पानी, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ सबकुछ लगभग ध्वस्त हो चुका है। कुल 1483 वर्ग किमी. में फैले इस महानगर की आबादी लगभग पौने दो करोड़ हो चुकी है और प्रतिदिन लगभग पाँच हज़ार नए लोग यहां बसने चले आते हैं।
(टीम दृष्टि इनपुट)
बड़ी चुनौती है नगर नियोजन
2015 में प्रधानमंत्री ने अमरुत (कायाकल्प और शहरी बदलाव के लिये अटल मिशन), स्मार्ट सिटी मिशन तथा सभी के लिये मकान (शहरी) योजनाओं की शुरुआत करते हुए कहा था कि सरकार का प्रयास केवल मकान देना नहीं बल्कि पूरा जीवन जीने के लिये उचित माहौल प्रदान करना होना चाहिये। शहरी नियोजन के बारे में समग्र विज़न का अभाव है और शहरों का विस्तार शहर के प्रशासकों द्वारा नहीं बल्कि प्रॉपर्टी डेवलपरों से प्रेरित है।
क्या है शहरीकरण का सही तरीका
शहरीकरण को अवसर के रूप में और शहरी केंद्रों को विकास के इंजन के रूप में देखा जाना चाहिये। देश में शहरी और ग्रामीण विकास एक-दूसरे के पूरक होने चाहिये। भारत के अलग-अलग राज्यों में यदि शहरीकरण के क्षेत्र में विकास की दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि विभिन्न राज्यों में शहरीकरण की मात्रा और गति एक जैसी नहीं है।
- शहरीकरण और विकास एक ही पटरी पर चलें, इसके लिये जन-केंद्रित शहरी विकास होना चाहिये, जो ऐसे शहरों का ताना-बाना बुन सकता है, जिन्हें आवश्यक वैश्विक मानकों के अनुसार बनाया जाएगा।
- एक ऐसा शहर जो लोगों की आकांक्षाओं से दो कदम आगे रहे...एक ऐसा शहर जो श्रेष्ठ वैश्विक व्यवहारों के आधार पर बनाया गया हो...एक ऐसा शहर जिसमें प्रौद्योगिकी, परिवहन, ऊर्जा दक्षता, कार्यस्थल से निकटता, आदि जैसी सुविधाएँ हों...एक ऐसा शहर जिसमें शहरी विकास की सभी योजनाओं को लोगों की भागीदारी के साथ आगे बढ़ाया गया हो।
मनरेगा जैसी योजनाओं की ज़रूरत
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) अपने आकार-प्रकार तथा प्रभाव के मामले में बेजोड़ है। इसका स्वरूप भी अन्य सामाजिक योजनाओं से अलग है और इस कानून की पूरी रूपरेखा मांग आधारित है। इसका उद्देश्य देश के ग्रामीण क्षेत्रों में एक वित्त वर्ष में न्यूनतम 100 दिनों का तयशुदा रोज़गार देकर आजीविका सुरक्षा को बढ़ावा देना है। वित्त वर्ष 2018-19 में 55 हज़ार करोड़ रुपए का आवंटन मनरेगा के तहत अब तक का सर्वाधिक आवंटन है।
- मनरेगा ने दिहाड़ी रोज़गार के ज़रियेए ग्रामीण परिवारों की आजीविका सुरक्षा को बढ़ाया है। स्वतंत्र आकलनकर्त्ताओं के ज़रिये कराए गए एक सरकारी अध्ययन से पता चलता है कि मनरेगा के परिणामस्वरूप मौसम विशेष में होने वाले पलायन में कमी आई है। अन्य अध्ययनों में भी यह दर्शाया गया है कि घर के नदीक काम देने और कार्यस्थल पर उचित माहौल उपलब्ध कराने से पलायन कम करने में मनरेगा का प्रत्यक्ष और सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। परंपरागत रूप से अत्यधिक पलायन वाले क्षेत्रों में सुविधाओं के अभाव के कारण होने वाले पलायन में कमी आई है।
अलग-अलग राज्यों में इसके क्रियान्वयन में अंतर है, लेकिन फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण आय को बढ़ाकर मनरेगा ने पलायन पर भी रोक लगाई है और ग्रामीण परिदृश्य को बदला है।
(टीम दृष्टि इनपुट)
कैसे रोका जाए गाँवों से होने वाला पलायन?
- एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना और अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना पलायन कहलाता है। यह पलायन की प्रवृत्ति कई रूपों में देखी जा सकती है, जैसे- एक गाँव से दूसरे गाँव में, गाँव से नगर, नगर से नगर और नगर से गाँव। परन्तु भारत में गाँव से शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा है। आज हालत यह है कि गाँवों में ताले लगे घरों की संख्या में दिनों-दिन इज़ाफा हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था का कभी मूलाधार कही जाने वाली कृषि और पशुपालन का व्यवसाय अपनी रंगत खो चुका है। उधर रोज़गार की तलाश में शहरों में गए लोगों के रंगीन सपने तो चूर हो ही चुके हैं, साथ ही उनकी वापसी के रास्ते जैसे बंद हो चुके हैं। गाँवों के टूटने और शहरों के बिगड़ने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों के बीच संतुलन गड़बड़ा गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
- गाँवों में ही उच्च या तकनीकी शिक्षा के संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनज़र ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज खाद और दवाओं को प्रोत्साहित करना, ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चलते गाँवों से युवाओं के पलायन को रोका जा सकता है। इस राष्ट्रीय समस्या के निदान में पंचायत समितियाँ अहम भूमिका निभा सकती हैं, जबकि पानी, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली सरीखी मूलभूत ज़रूरतों की पूर्ति का ज़िम्मा स्थानीय प्रशासन को संभालना होगा। पलायन रोकने के पहले चरण में ये सुविधाएँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो जाएंगी तो अगले चरण में तकनीकी कौशल संपन्न लोगों को रोकने के प्रयास किये जा सकते हैं।
मेगा सिटीज़ पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
- वैश्विक स्तर पर ऐसी कुल 31 सिटीज़ में अनुमानतः 5 करोड़ लोग रहते हैं। यह दुनिया की कुल आबादी का 6.8% है।
- 2030 तक मेगा सिटीज़ की संख्या बढ़कर 41 हो जाएगी और इनकी आबादी होगी 7.3 करोड़, जो पूरी दुनिया की आबादी का 8.7% होगा।
- इस रिपोर्ट में शहरों की प्रशासनिक सीमाओं पर भरोसा नहीं किया गया है। इसके बजाय विकसित होते शहरी क्षेत्र की अवधारणा का उपयोग करने को प्राथमिकता दी गई है।
- रिपोर्ट से पता चलता है कि शहरी क्षेत्र के लोग ही इन मेगा शहरों में रहते हैं। दुनिया के लगभग 21% लोग इनमें रहते हैं, जिनकी आबादी 50 हजार से एक करोड़ के बीच है।
- 2030 तक दुनिया की 60% आबादी छोटे-बड़े शहरों में बसेगी, जो फिलहाल 54% है।
- एशिया और अफ्रीका के ज़्यादातर विकासशील शहरों में आबादी बढ़ रही है और 2030 तक 41 में से 33 मेगा सिटीज़ तीसरी दुनिया के देशों में होंगी।
रिपोर्ट में भारत: संयुक्त राष्ट्र के डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड सोशल अफेयर की इस रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक भारत में सात मेगा सिटीज़ होंगी, जिसमें प्रत्येक में 96 लाख जनसंख्या होगी। इन सातों में आबादी के मामले में दिल्ली दूसरे स्थान पर होगी।
वर्ल्ड सिटीज़ रिपोर्ट-2016 में बताया गया है कि फिलहाल देश में पाँच (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु और चेन्नई) मेगा सिटी हैं, जिनमें प्रत्येक की जनसंख्या एक करोड़ से अधिक है। 2030 तक हैदराबाद और अहमदाबाद भी इनमें शामिल हो जाएंगे।
(टीम दृष्टि इनपुट)
विदेशी शहरीकरण मॉडल की ज़रूरत नहीं
- नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार शहरीकरण के लिये विदेशी मॉडल को अपनाने के बजाय पूरे देश में विकास केंद्रों को बनाने की ज़रूरत की बात कहते हैं। विदेशी मॉडल अपनाने से असमानता तथा असंतुलन और बढ़ेगा। भारत की विविधता को देखते हुए असमान और असंतुलित शहरीकरण सही नहीं है। हम वह भारत में नहीं दोहरा सकते जैसा चीन ने किया है, चीन में विकास तटवर्ती क्षेत्रों में अधिक हुआ है, जबकि अन्य क्षेत्र वहाँ अभी भी पिछड़े हैं। भारत में सभी शहरी सुविधाओं को गाँव से जोड़ने के लिये नई पहल रूर्बन (R-URBAN) की अवधारणा को अमल में लाने की ज़रूरत है।
भारत में राष्ट्रीय रूर्बन (R-URBAN) मिशन
फरवरी 2016 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय रूर्बन मिशन के शुरुआत की थी। रूर्बन मिशन ‘ग्रामीण आत्मा और शहरी सुविधाओं’ से युक्त कलस्टर आधारित विकास करने में सक्षम है। यह मिशन स्मार्ट गाँवों का निर्माण करके स्मार्ट शहरों की पहल का पूरक बनने के लिये शुरू किया गया है। रूर्बन कलस्टरों को आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनाया जा रहा है जो विकास को प्रोत्साहित कर आसपास के गाँवों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार ला रहे हैं।
रूर्बन मिशन की प्रमुख विशेषताएँ
- इस मिशन को 5,142.08 करोड़ रुपए की लागत से चलाया जा रहा है
- इसके तहत गाँवों में शहरों जैसी सुविधाएँ दी जा रही हैं
- बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य केंद्रों की सुविधा दी जा रही है
- इसके अलावा वहां कौशल विकास की व्यवस्था भी की जा रही है
- गाँवों को क्लस्टर की तर्ज पर विकसित किया जा रहा है
- एक क्लस्टर की आबादी 25-50 हजार तक है
- देशभर में ऐसे 300 क्लस्टर बनाने की योजना पर काम चल रहा है
- प्रत्येक क्लस्टर को हर साल 10 करोड़ रुपए की राशि दी जा रही है
- केंद्र गैप फंडिंग के तौर पर कुल खर्च का 30% अपने बजट से दे रहा है
मेगा सिटी के साथ बनाए जाएँ सेटेलाइट शहर
सेटेलाइट शहरों से तात्पर्य किसी महानगर (Metro or Mega City) से अलग, किंतु उससे संबद्ध छोटे-छोटे अन्य शहरों से है, जो अनेक आवश्यक कार्यों एवं सेवाओं के लिये उस बड़े शहर पर निर्भर रहते हैं। देश की राजधानी दिल्ली इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहाँ देश के लगभग सभी राज्यों से लोग रोज़गार और बेहतर जीवन स्तर की तलाश में आते हैं। इससे यहाँ आवास की समस्या उत्पन्न हुई तो फरीदाबाद, गाजियाबाद, गुड़गाँव और नोएडा जैसे शहरों में लोगों ने जगह तलाशी।
- दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद और गुड़गाँव जैसे सेटेलाइट शहरों में दिल्ली के मुकाबले जनसंख्या घनत्व कम है।
- ये सेटेलाइट शहर किसी भी महानगर की परिधि के विकास और उसकी आबादी को बेहतर बनाने में सहायता करते हैं।
- सैटेलाइट शहर किसी महानगर का सभी संभव तरीकों से विस्तार करने में मदद करने के लिये डिज़ाइन किये जाते हैं।
- मेट्रो शहरों के बाहर बने ये सैटेलाइट शहर पूरी तरह से स्वतंत्र शहर भी हो सकते हैं।
- इन सेटेलाइट शहरों का उद्देश्य पर्यावरण-अनुकूल विकास के संबंध में आबादी और संसाधनों के बीच एक आदर्श संतुलन प्रदान करना होता है।
- समाज के एक बड़े वर्ग के लिये किफायती आवास बनाने के साथ-साथ समावेशी विकास सेटेलाइट शहरों को स्मार्ट शहरों में विकसित करने की एक अंतर्निहित आवश्यकता है।
- कोई भी सेटेलाइट शहर योजनाबद्ध शहरीकरण और व्यवस्थित विकास सुनिश्चित करने के लिये क्षेत्र की पारिस्थितिकी के साथ समझौता किये बिना एक स्मार्ट सिटी को समायोजित करने में सक्षम होना चाहिये।
- नीति निर्माताओं और सरकारी एजेंसियों को सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, शिक्षा केंद्रों, बोली और भाषा जैसे जनसांख्यिकीय कारकों को सेटेलाइट शहर की योजना बनाते समय ध्यान में रखना चाहिये।
- किसी भी शहर का निर्माण करने के लिये विशाल पूंजी की आवश्यकता होती है। आवश्यक पूँजी के अलावा बनने वाले सेटेलाइट शहर की स्वीकार्यता और विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि यह कितनी जल्दी आत्मनिर्भर इकाई बनने में सक्षम है।
(टीम दृष्टि इनपुट)
निष्कर्ष: लगभग एक दशक पहले दिल्ली नगर निगम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट कार्ल मार्क्स की उस चर्चित उक्ति की पुष्टि करती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अपराध, वेश्यावृत्ति तथा अनैतिकता का मूल कारण भूख व गरीबी होता है। विकास के नाम पर मानवीय संवेदनाओं में अवांछित हस्तक्षेप से उपजती आर्थिक-सामाजिक विषमता, विकास और औद्योगीकरण की अनियोजित अवधारणाएँ तथा पारंपरिक जीवकोपार्जन के तौर-तरीकों में बाहरी दखल, शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करने वाले तीन प्रमुख कारण हैं। किसी एक जगह पर पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, खेती, स्वास्थ्य, रोज़गार के समुचित संसाधन नहीं होंगे तो नतीजा पलायन के रूप में ही सामने आएगा। ऐसे में पलायन को रोकने के लिये कारणों का निवारण करना होगा, समस्या खुद-ब-खुद हल हो जाएगी। इसके लिये सरकार और समाज दोनों को मिलकर प्रयास करने होंगे अन्यथा कुछ ही वर्षों में यह देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक होगा। इन सब के मद्देनज़र नगर नियोजन की नीति और नियमों को नए सिरे से तय करना ज़रूरी हो गया है।