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विशेष : चुनाव सुधार

  • 27 Mar 2019
  • 18 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

एक जीवंत लोकतंत्र के लिये आवश्यक है कि देश में सुशासन के लिये सबसे अच्छे नागरिकों को जनप्रतिनिधियों के रूप में चुना जाए। इससे जनजीवन में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है, साथ ही ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ती है जो सकारात्मक वोट पर चुनाव जीतते हैं। एक जीवंत लोकतंत्र में मतदाता को उम्मीदवारों को चुनने का या अस्वीकार करने का अवसर दिया जाना चाहिये जो राजनीतिक दलों को चुनाव में अच्छे उम्मीदवार उतारने पर मजबूर करे।

  • भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश और सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारा चुनाव लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से नियंत्रित राजनीति का सबसे खास हिस्सा है।
  • कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। इनमें हेरफेर और धाँधली नहीं होगी। हमारे देश में चुनाव कराना असंभव न सही लेकिन कठिन ज़रूर है।

चुनाव सुधार की ज़रूरत

  • राजनीति के जटिल आंतरिक चरित्र और गठबंधन की अंतहीन संभावनाओं के चलते भारत के चुनाव का अनुमान लगाना बेहद कठिन है।
  • भारत के मतदाता संसद या लोकसभा के 543 सदस्यीय निचले सदन के लिये सांसदों का चुनाव करते हैं।
  • क्षेत्र के हिसाब से दुनिया के सातवें बड़े देश और दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश में चुनाव कराना बेहद जटिल कार्य है।
  • इस प्रक्रिया में लाखों मतदान कार्यकर्त्ता, पुलिस और सुरक्षा कर्मी शहरों, कस्बों, गाँवों और बस्तियों में तैनात होते हैं।
  • आयोग गुजरात के गिर के जंगल में मतदान के लिये भी मतदान केंद्र स्थापित करता है जहाँ शेरों का घूमना आम बात है।
  • चुनाव आयोग के सामने एक सुखद चुनौती भी है, अब अधिक-से-अधिक महिलाएँ मतदान करने के लिये आगे आ रही हैं।
  • महिलाओं ने 2014 के चुनाव में आधे राज्यों में मतदान केंद्रों पर पुरुषों को पछाड़ दिया था। इस चुनाव में लगभग 65% महिला मतदाताओं ने अपने मत का इस्तेमाल कर इतिहास बनाया था।
  • हालाँकि अभी भी महिलाओं का संसद में समान प्रतिनिधित्व नहीं है। आधी आबादी होने के बावजूद लोकसभा में इनकी उपस्थिति लगभग 12 प्रतिशत है।
  • पिछले चुनाव में महिलाओं ने कुछ मतदान केंद्रों का प्रबंधन किया था। इस बार आयोग की योजना महिला मतदाताओं को प्रेरित करने के लिये ऐसे पोलिंग बूथ बनाना है जिनका प्रबंधन सिर्फ महिला अधिकारियों के हाथों में हो। इन्हें पिंक बूथ नाम दिया गया है।
  • इस बार लोकसभा के चुनाव में 18 से 19 वर्ष के बीच की आयु वाले लगभग डेढ़ करोड़ युवा मतदाता होंगे जो पहली बार मतदान करेंगे। यह चुनाव आयोग के सामने बिल्कुल नई चुनौती होगी क्योंकि पुराने मतदाताओं की तुलना में यह वर्ग अधिक शिक्षित और तकनीक से लैस है।
  • इतना ही नहीं, अब आयोग को चुनाव प्रचार की तेज़ी से बदलती शैली से भी जूझना होगा।
  • पहले के चुनाव में पोस्टर-बैनर का इस्तेमाल आम बात थी पर अब लगभग 50 करोड़ हिंदुस्तानियों के पास स्मार्ट फोन हैं और इतने ही लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं, लगभग 30 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं, लगभग 20 करोड़ वाट्सएप पर हैं और तकरीबन 3 करोड़ लोग ट्विटर पर हैं।
  • इसका मतलब है कि राजनीतिक दल और उम्मीदवार युवा मतदाताओं का दिल और दिमाग जीतने के लिये नई तकनीक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करेंगे।
  • इन प्लेटफॉर्म का संभावित दुरुपयोग रोकना चुनाव आयोग के लिये एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय है।

राजनीति की दशा और दिशा को प्रभावित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ

1. धन शक्ति

  • प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में एक उम्मीदवार को चुनाव प्रचार, ट्रांसपोर्ट बगैरह पर लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं।
  • चुनाव आयोग की गाइडलाइन के मुताबिक, अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम को छोड़कर सभी राज्यों में एक उम्मीदवार चुनाव प्रचार के लिये अधिकतम 70 लाख रुपए खर्च कर सकता है।
  • अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम में खर्च की अधिकतम सीमा 54 लाख रुपए है। यह दिल्ली के लिये 70 लाख रुपए और अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के लिये 54 लाख रुपए है।
  • पिछले कुछ वर्षो में कानून-सम्मत और असल खर्चो के बीच अंतर काफी बढ़ा है।

2. बाहुबल

  • हिंसा, धमकी और बूथ कैप्चरिंग में बाहुबल की बड़ी भूमिका होती है। यह समस्या पहले अमूमन देश के उत्तरी भागों में हुआ करती थी पर अब बाकी प्रांतों में भी फ़ैल रही है।
  • राजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों का राजनीतिकरण एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं।

3. अपराधियों का राजनीतिकरण

  • अपराधी रसूख और जनता में पैठ बनाने के लिये राजनीति में प्रवेश करते हैं और पुरजोर कोशिश करते हैं कि उनके खिलाफ मामलों को समाप्त कर दिया जाए या उन पर कार्यवाही न की जाए।
  • इसमें उनकी मदद कुछ राजनीतिक दल करते हैं जो धन और रसूख के लिये इन्हें चुनाव मैदान में उतारते हैं और बदले में इन्हें राजनीतिक संरक्षण और सुरक्षा प्रदान करते हैं।

4. गैर-गंभीर स्वतंत्र उम्मीदवार

  • इन्हें किसी भी गंभीर उम्मीदवार के खिलाफ प्रतिद्वंद्वियों द्वारा बड़े पैमाने पर उतारा जाता है ताकि उसके वोट काटे जा सकें।

5. जातिवाद

  • ऐसे कई राजनीतिक दल हैं जो विशेष जाति या समूह से आते हैं। ये जाति, समूह पार्टियों पर भी दबाव डालते हैं कि उन्हें क्षेत्रीय स्वायत्तता और जाति की संख्या के मुताबिक टिकट दिये जाएँ।
  • जाति आधारित राजनीति देश की बुनियाद और एकता पर प्रहार कर रही है और आज जाति चुनाव जीतने में एक प्रमुख कारक बनी हुई है तथा अक्सर उम्मीदवारों का चयन उपलब्धियों, क्षमता और योग्यता के आधार पर न होकर जाति, पंथ और समुदाय के आधार पर होता है।

6. सांप्रदायिकता

  • स्वतंत्रता के बाद सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद की राजनीति ने देश के तमाम हिस्सों में आंदोलनों को जन्म दिया।
  • सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने बहुलवाद और पंथ निरपेक्षता के संघीय ढ़ांचे के लिये गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।

7. राजनीति में नैतिक मूल्यों की कमी

  • ऐसे तमाम कारण हैं जिन्होंने गुज़रते वक्त के साथ जनतांत्रिक संस्थाओं को मज़बूत नहीं होने दिया है और नि:स्वार्थ सेवा, मूल्यों और आत्मबलिदान को व्यवस्थित रूप से नष्ट किया है इसका नतीजा भी सामने है।
  • एक आम मतदाता की राजनेताओं और राजनीतिक दलों में आस्था कम हुई है।

सरकार, न्यायालयों और चुनाव आयोग द्वारा किये गए प्रयास

चुनाव सुधार और समितियाँ

  • दिनेश गोस्वामी समिति - चुनाव सुधार पर
  • वोहरा समिति - राजनीति के अपराधीकरण पर
  • इंद्रजीत गुप्ता समिति - चुनावों के राज्य वित्तपोषण पर बनी।
  • एमएन वैंकट चलैया समिति- विधि आयोग, चुनाव आयोग, संविधान की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट
  • वीरप्पा मोइली समिति - शासन में नैतिकता पर बनी
  • एपी शाह समिति- विधि आयोग की रिपोर्ट पर बनी

हालाँकि सरकार ने इन सिफारिशों को केवल आंशिक रूप से स्वीकार किया है।

सन् 2000 से पहले के सुधार

1. मतदान की आयु कम हुई

  • संविधान के 61वें संशोधन अधिनियम, 1989 के तहत अनुच्छेद 326 का संशोधन करके मतदान की आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष की गई।
  • चुनाव कार्यों में लगे अधिकारी, कर्मचारी को चुनाव की अवधि के दौरान चुनाव आयोग की प्रतिनियुक्ति पर माना जाएगा।
  • इस अवधि में ये कर्मी चुनाव आयोग के नियंत्रण में रहेंगे।
  • नामांकन पत्रों को लेकर प्रस्तावकों की संख्या में 10 फीसदी का इजाफा किया गया।

2. EVM का प्रचलन में आना

  • इस फेज़ में अब तक के सबसे बड़े चुनाव सुधारों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) का प्रचलन में आना शामिल है। इसका लक्ष्य चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष, सटीक और पारदर्शी बनाना है जिससे प्राप्त परिणामों को स्वतंत्र रूप से सत्यापित किया जा सके।
  • बूथ कैप्चरिंग पर चुनाव को शून्य घोषित करना निर्वाचन क्षेत्र में नए चुनाव या कांउटर चुनाव की तारीख का एलान करना।
  • राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम, 1971 का अपमान करने पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाना।
  • राष्ट्रपति पद के चुनाव लड़ने के लिेये प्रस्तावों की संख्या को 50 किया गया।
  • दो से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाना और उम्मीदवार की मौत पर चुनाव का स्थगित न होना।
  • पारंपरिक मतदान हालाँकि इन्हीं लक्ष्यों में से कई को पूरा करता था पर बढ़ता हुआ फर्जी मतदान और बूथ कैप्चरिंग जैसी समस्याओं ने जिस तरह से लोकतंत्र को आहत किया था उसे देखते हुए ये सुधार ज़रूरी हो गए थे।
  • अतः सार्वजनिक क्षेत्र के दो उपक्रमों भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड बंगलुरू और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, हैदराबाद के सहयोग से भारत के चुनाव आयोग द्वारा EVM को तैयार और डिज़ाइन किया गया।
  • EVM का पहला व्यापक उपयोग 1998 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के चुनावों के दौरान किया गया था।
  • 2014 में 16वें लोकसभा चुनाव में EVM ने बड़ी भूमिका निभाई। EVM व्यवस्था न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल है बल्कि इससे सरकारी धन और वक्त की भी बचत होती है।
  • मई 1982 में केरल के एक विधानसभा क्षेत्र के 50 मतदान केंद्रों में पहली बार EVM का इस्तेमाल किया गया था। इन मशीनों का उपयोग 1983 के बाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद नहीं किया जा सका।
  • इस फैसले के मुताबिक, चुनाव में वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल के लिये कानूनी सहमति ज़रूरी थी।
  • दिसंबर 1988 में संसद द्वारा कानून में संशोधन किया गया और जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में एक नई धारा जोड़ी गई जिसमें आयोग को EVM मशीनों के उपयोग का अधिकार दिया गया।
  • संशोधित प्रावधान 15 मार्च, 1989 से लागू हो गए।

पिंक बूथ क्या है?

  • चुनाव आयोग ने 2018 में सुधारों के तहत एक और नवीन प्रयोग किया। इसका उद्देश्य था महिला मतदाताओं को बड़ी संख्या में वोट डालने के लिये प्रेरित करना।
  • इन पोलिंग बूथों पर तैनात सभी कर्मचारी जिनमें पीठासीन अधिकारी और मतदान अधिकारी भी शामिल हैं, सभी महिलाएँ होती हैं यहाँ तक की सुरक्षाकर्मी भी महिलाएँ होती हैं।
  • मतदान केंद्रों को गुलाबी रंगों में सजाया जाता है और कर्मचारियों को गुलाबी ड्रेस दी जाती है। इन बूथों का इस्तेमाल कई चुनावों में सफलतापूर्वक किया जाता है।

सन् 2000 के बाद का चुनाव सुधार

1. एक्ज़िट पोल पर प्रतिबंध

  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत चुनाव आयोग ने मतदान शुरू होने से लेकर मतदान समाप्त होने के आधे घंटे बाद तक एक्ज़िट पोल को प्रतिबंधित कर दिया है।
  • लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में चुनाव के दौरान एक्ज़िट पोल के परिणाम प्रकाशित करने पर दो वर्ष का कारावास या जुर्माना अथवा दोनों सज़ा हो सकता है।

2. चुनावी खर्च पर सीलिंग

  • लोकसभा सीट के लिये चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ाकर बड़े राज्यों में 70 लाख कर दिया गया है वहीं छोटे राज्यों में यह सीमा 28 लाख तक है।

3. पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान

  • सरकारी कर्मचारियों और समस्त बलों को चुनाव आयोग की सहमति के बाद पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान करने की अनुमति है।
  • विदेशों में रहने वाले ऐसे भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार है जिन्होंने किसी अन्य देश की नागरिकता हासिल नहीं की है और उनका नाम किसी भी निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में दर्ज हो।

4. जागरूकता और प्रसार

  • युवा मतदाओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने हेतु भारत सरकार हर वर्ष 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाती है। यह सिलसिला 2011 से शुरू हुआ।
  • 20,000 रुपए से अधिक राजनीतिक चंदे की चुनाव आयोग को जानकारी देना।

5. नोटा

  • 2013 से नोटा व्यवस्था लागू करना। नोटा को एक अहम चुनाव सुधार माना जाता है। नोटा का मतलब है उपरोक्त में से कोई नहीं। यानी नन ऑफ द एबव (None of the above)।
  • यह व्यवस्था मतदाता को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं देने और मतदाता की पंसद को रिकॉर्ड करने का विकल्प देती है।
  • पहले जब कोई मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट नहीं देने का फैसला करता था तो मतदाता को बूथ के पीठासीन अधिकारी को यह बताना होता था और एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करना होता था। लेकिन इससे मतदाता के वोट आफ सिक्रेट बैलेट के अधिकार को नुकसान पहुँचता था।
  • 27 सितंबर, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने नोटा की शुरुआत करने का निर्देश दिया ताकि मतदाता सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के अधिकार का प्रयोग कर सकें। लेकिन नोटा का चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ता।
  • 2013 से 2016 के बीच हुए विभिन्न राज्यों के संघीय चुनाव में नोटा के तहत औसतन 2 प्रतिशत वोट पड़े।
  • निर्वाचकों के लिये कंप्यूटरीकृत डेटाबेस का निर्माण, व्यापक फोटो इलेक्टोरल सेवा, फर्जी और डुप्लीकेट इंट्री को खत्म करने के लिये डी-डुप्लीकेशन तकनीक लाना। मतदान प्रक्रिया की विडियों रिकॉर्डिंग कराना।
  • आयोग ने ऑनलाइन संचार यानी कोमेट नाम की एक प्रणाली विकसित की है, इससे चुनाव के दिन अब हर मतदान केंद्र की निगरानी करना संभव हो गया है।
  • GPS का उपयोग कर मतदान केंद्रों की अब रियल टाइम निगरानी भी की जा रही है।

निष्कर्ष

साफ-सुथरे चुनावों और राजनीतिक पारदर्शिता से ही लोकतंत्र को वैधता मिलती है। ऐसे में महत्त्वपूर्ण चुनावी सुधारों को लागू कराना बहुत ज़रूरी है ताकि लोकतांत्रिक भारत भ्रष्टाचार और आपराधिक माहौल से मुक्त होकर विकास और समृद्धि की ओर अग्रसर हो सके।

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