सामाजिक न्याय
अस्तित्व: गरीबी-असमानता और पर्यावरण
- 29 May 2018
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संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
पिछले दो-ढाई दशक में जिस रफ्तार से भारत में विकास हुआ है, उसकी तुलना में गरीबी और असमानता उस रफ्तार में कम नहीं हुई है। आँकड़ों में गरीबी कुछ कम ज़रूर हुई है, लेकिन आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हुई है। आज भी देश में 30 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे निर्वाह करने को विवश हैं और उनके लिये प्रथम वरीयता रोटी, कपड़ा और मकान है।
पर्यावरण के बारे में ज़्यादा वे कुछ नहीं जानते; और जितना जानते भी हैं, उसके तहत यह मुद्दा उनकी वरीयता में सबसे नीचे है। पर्यावरण पर यह आर्थिक असमानता भारी पड़ रही है और इसके कई प्रकार के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।
- आर्थिक असमानता केवल भारत में ही देखने को नहीं मिलती, बल्कि यह एक विश्वव्यापी समस्या है। इसे स्पष्ट करने के लिये केवल यह एक तथ्य पर्याप्त है कि विश्व के कुल धन का आधे से अधिक केवल 42 लोगों के हाथों में सिमटा हुआ है।
गरीबी से सीधे जुड़ा है पर्यावरण
- गरीबी और पर्यावरण प्रदूषण सीधे-सीधे आपस में जुड़े हुए हैं, विशेषकर वहाँ, जहाँ लोग अपनी रोजी-रोटी के लिये अपने निकट के प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहते हैं।
- पर्यावरण संरक्षण के लिये गरीबी कम होना पहली और अनिवार्य शर्त है।
- जलवायु अनुकूल तकनीक इसीलिये आवश्यक मानी जाती है क्योंकि इससे समाज के कमज़ोर वर्गों की सहायता करने में आसानी रहती है।
- जैव विविधता पर लगातार बढ़ता दबाव मानव की बढ़ती जनसंख्या को भी परिलक्षित करता है। जब तक जनसंख्या स्थिर नहीं हो जाती, तब तक यह दबाव कम नहीं होने वाला; और यह भी उतना ही सत्य है कि गरीब परिवारों में सदस्यों की संख्या अधिक होती है।
इसे इन दो उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं:
1. गरीबी पर्यावरण की कुछ ऐसी समस्याओं को जन्म देती है, जिनसे यह और बढ़ती है। उदाहरणार्थ, गरीब किसानों द्वारा कमज़ोर ज़मीन पर खेती करने से उसका क्षरण और बढ़ जाता है और अंततः इससे किसान की ही निर्धनता बढ़ती है।
2. गरीबों के द्वारा वनों से लकड़ी काटकर बेचना। इससे वन तो नष्ट हो ही रहे हैं, लकड़ी की कमी हो रही है। इसका अंतिम परिणाम भी गरीबों की गरीबी और बढ़ने के रूप में सामने आता है।
- प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण इसके सतत उपयोग पर आधारित होना चाहिये।
- मनुष्य और पर्यावरण के बीच सहजीवन का संबंध है और यह देशवासियों के धार्मिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक मानसिकता के साथ भी जुड़ा हुआ है।
- हालिया समय में प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ती मांग तथा प्रकृति के बारे में समझ की कमी के चलते यह संबंध प्रभावित हुआ है।
- इस स्थिति से बचने के लिये जनजातियों तथा स्थानीय समुदायों को पर्यावरण संरक्षण के तरीकों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिये।
- सरकार को भी इनके कल्याण पर ध्यान देना चाहिये क्योंकि ये अपनी आजीविका के लिये पर्यावरण पर निर्भर होते हैं।
पर्यावरणीय अवक्रमण से बढ़ती है गरीबी
- देश के समक्ष जो प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ हैं, वे पर्यावरणीय अवक्रमण तथा विभिन्न आयामों में मौजूद गरीबी तथा आर्थिक असमानता तथा प्रगति के गठजोड़ से संबंधित हैं।
- ये चुनौतियाँ आंतरिक तौर पर भूमि, जल, वायु जैसे पर्यावरणीय से जुड़ी हुई हैं। पर्यावरण अवक्रमण के आसन्न कारकों में जनसंख्या वृद्धि, अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी एवं उपभोग संबंधी विकल्प का चयन तथा गरीबी के साथ-साथ विकास गतिविधियों जैसे गहन-कृषि, प्रदूषक उद्योग तथा अनियोजित शहरीकरण आदि शामिल हैं।
- ये कारक केवल गंभीर कारण संबंधों के माध्यम से पर्यावरणीय अवक्रमण, विशेषकर संस्थागत विफलताओं को जन्म देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय स्रोतों की प्राप्ति और उनके प्रयोग संबंधी अधिकारों के प्रवर्तन संबंधी पारदर्शिता में कमी आने के साथ-साथ पर्यावरणीय संरक्षण को हतोत्साहित करने वाली नीतियाँ, बाज़ार असफलता तथा संचालन संबंधी बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
- पर्यावरणीय अवक्रमण विशेषकर निर्धन ग्रामीणों में गरीबी को बढ़ावा देने वाला एक प्रमुख कारक है। इस प्रकार का अवक्रमण मृदा की उपजाऊ शक्ति, स्वच्छ जल की मात्रा और गुणवत्ता, वायु गुणवत्ता, वनों, वन्य-जीवन तथा मत्स्य-पालन को प्रभावित करता है।
- प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर जैव विविधता पर ग्रामीण निर्धनों, मुख्यतया आदिवासी समाज की निर्भरता स्वतः सिद्ध है।
- विशेषकर महिलाओं पर प्राकृतिक संसाधनों के अवक्रमण का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वे इन संसाधनों को एकत्र करने और इनके उपयोग के लिये तो सीधे रूप से उत्तरदायी हैं, लेकिन इनके प्रबंधन में उनका उत्तरदायित्व नगण्य है।
प्राकृतिक संसाधनों पर आबादी का दबाव
- विश्व के कुल क्षेत्रफल के 2.4% भाग पर विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 18% दबाव...यह कथन अपनी कहानी खुद कह देता है।
- जनसंख्या के इस बढ़ते दबाव ने अन्य चीज़ों के अलावा पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन को भी जन्म दिया है, जिसका परिणाम बढ़ती प्राकृतिक एवं मानव जन्य आपदाओं तथा जलवायु परिवर्तन जैसी पर्यावरण चुनौतियों के रूप में सामने आ रहा है।
- जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं का कारण बढ़ती जनसंख्या ही है, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ रहा है।
- पर्यावरण संबंधी इन बढ़ती समस्याओं के पीछे हमारा अतार्किक व्यवहार प्रमुख कारण है। वर्तमान में मनुष्य प्रकृति का स्वामी बनने के प्रयास में लगा हुआ है और आधुनिकता के नाम पर प्रकृति का शोषण करता जा रहा है।
ऐसे में कुछ ऐसे सवाल सामने आए हैं, जिनका जवाब शायद किसी के पास नहीं है...
- आधुनिकता के नाम पर जिसे विकास कहा जा रहा है वह कितने लोगों के हिस्से में आ रहा है?
- क्या इसे समग्र विकास कहा जा सकता है?
- विकास की यह विसंगति हमारे पर्यावरण को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
भारत की राष्ट्रीय पर्यावरण नीति
- राष्ट्रीय पर्यावरण नीति संविधान के अनुच्छेद 47क तथा 51क (छ) में अधिदेशित तथा अनुच्छेद 21 की न्यायिक विवेचना द्वारा पुष्ट की गई स्वच्छ पर्यावरण की प्रतिक्रिया स्वरूप है।
- यह स्वीकार किया गया है कि स्वस्थ पर्यावरण बनाए रखना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक की भी जिम्मेदारी है। अत: देशभर में पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में एक सहभागिता की भावना महसूस की जानी चाहिये।
- सरकार को अपने प्रयत्नों को बढ़ावा देना चाहिये, लेकिन इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक और सांस्थानिक पर्यावरणीय गुणवत्ता को बनाए रखने तथा उसमें बढ़ोतरी के प्रति अपने उतरदायित्व को स्वीकार करना चाहिये।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति उपर्युक्त विचारों/तथ्यों से अभिप्रेरित है तथा इसका उद्देश्य सभी विकासात्मक गतिविधियों में पर्यावरणीय विषयों को मुख्यधारा में शामिल करना है। इसमें देश के समक्ष मौजूदा तथा भविष्य में आने वाली प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों, पर्यावरण नीति के उद्देश्यों, नीतिगत कार्यवाही को रेखांकित करते हुए मानक सिद्धांतों, हस्तक्षेत संबंधी कार्यनीतिक थीमों, कार्यनीतिक थीमों को पूरा करने के लिये ज़रूरी वैधानिक व संस्थागत विकास के सामान्य संकेतों तथा कार्यान्वयन और समीक्षा संबंधी कार्य-तंत्रों आदि का संक्षेप में उल्लेख किया गया है।
- राष्ट्रीय पर्यावरण नीति को नियामक सुधारों, पर्यावरणीय संरक्षण से संबंधित कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं और केंद्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों की एजेंसियों द्वारा कानून बनाने तथा उसकी पुनरीक्षा करने के कार्य में एक निर्देशिका के रूप में बनाया गया है।
- इस नीति की प्रमुख थीम यह है कि यद्यपि पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना सभी की आजीविका की सुरक्षा तथा बेहतरी के लिये आवश्यक है, तथापि संरक्षण के लिये सबसे सुरक्षित आधार यह सुनिश्चित करना है कि लोग उन संसाधनों के अवक्रमण के बजाय उनके संरक्षण द्वारा अपनी बेहतर आजीविका प्राप्त कर सकें।
- इस नीति का उद्देश्य विभिन्न हितधारकों अर्थात् सार्वजनिक एजेंसियों, स्थानीय समुदायों, शैक्षणिक और वैज्ञानिक संस्थानों, निवेशक समुदाय, अंतरराष्ट्रीय विकास भागीदारों के मध्य पर्यावरणीय प्रबंधन के लिये उनके अपने-अपने संसाधन और क्षमताओं के नियंत्रण व उपयोग के मामले में सहभागिता विकसित करना भी है।
विधायी ढाँचा
- पर्यावरण संरक्षण के लिये मौजूदा विधायी ढांचा मुख्य रूप से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986, जल (प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम,1974, जल प्रभार अधिनियम, 1977 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 से मिलकर बना है।
- वन और जैव विविधता के प्रबंधन से संबंधित विनियम भारतीय वन अधिनियम, 1927, वन संरक्षण अधिनियम, 1980, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972 और जैव विविधता अधिनियम, 2002 में निहित हैं।
- इनके अलावा भी कई अन्य नियम-विनियम हैं जो इन मूल अधिनियमों के पूरक हैं।
(टीम दृष्टि इनपुट)
सबकी अलग-अलग हैं पर्यावरणीय समस्याएँ
- ऐतिहासिक पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एक ही तरह के नियम सभी देशों पर लागू नहीं किये जा सकते, क्योंकि भारत जैसे देशों ने पर्यावरण के लिये गरीबी की सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर पहचान की है।
- पर्यावरण संरक्षण के लिये संतुलित रवैये का सुझाव देते हुए उन्होंने कहा था कि प्रत्येक देश की इससे निपटने की अपनी चुनौतियाँ और तरीके हैं और कोई रास्ता तभी टिकाऊ होता है जब सभी संबद्ध पक्षों को इससे लाभ हो।
- उन्होंने यह भी कहा था कि भारत का लगातार यह रुख रहा है कि विकसित देश सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले रहे हैं और पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिये उन्हें अधिक आर्थिक योगदान देना चाहिये।
- गरीब, कमज़ोर और वंचित वर्गों के पास पर्यावरण क्षरण से निपटने के लिये बेहद कम संसाधन हैं और उनकी मौजूदा और भावी पीढियाँ पर्यावरण पर कानूनों और समझौतों से प्रभावित होती रही हैं।
गरीबी है सबसे बड़ा प्रदूषण
- 1970 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्टॉकहोम में हुए प्रथम विश्व पर्यावरण सम्मेलन में कहा था, 'गरीबी स्वयं सबसे बड़ा प्रदूषण है।'
भारत के संदर्भ में कहा जाता है कि वह प्राकृतिक संसाधनों से धनी, लेकिन गरीबों का देश है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में पर्यावरण पर न जाने कितनी तरह से लोगों और समूहों का अस्तित्व टिका है। जब भी पर्यावरण के किसी भी हिस्से को क्षति होती है तो समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को अपूरणीय क्षति होती है। भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर होने वाले आंदोलन भारी असमानता और गरीबी के बीच आगे बढ़े हैं। तुलनात्मक रूप से गरीब देशों के इस पर्यावरणवाद में बदलाव तब तक अप्रभावी व असंभव होता है, जब तक कि उससे जुड़े प्रमुख मुद्दे हल नहीं हो जाते। आय असमानता किसी भी कल्याणकारी राज्य की सबसे बड़ी विडंबना है।
पर्यावरण तथा सतत विकास
- सतत या टिकाऊ या स्थायी या संधारणीय विकास का अभिप्राय आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण को सुरक्षित करना है।
- सतत विकास की सर्वोत्तम परिभाषा ब्रंटलैंड आयोग ने 1987 में अपनी रिपोर्ट ‘अवर कॉमन फ्यूचर’ में दी थी, जिसमें सतत विकास को ऐसा विकास बताया गया ‘जो भविष्य की पीढियों की आवश्यकताओं की पूर्ति से समझौता किये बिना वर्तमान की आवश्यकताएँ पूरी करता है।’
- 1992 में ब्राजील की राजधानी रियो डि जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें पहली बार सतत विकास की अवधारणा को स्वीकार किया गया।
- इसका उद्देश्य वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिये प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखना है।
- सतत विकास की अवधारणा में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार से होता है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति नहीं उत्पन्न होती तथा प्रकृति का अनावश्यक दोहन भी नहीं होता।
- सतत विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों को न्यूनतम वर्तमान स्तर या उससे अधिक बनाए रखना ज़रूरी होता है।
- सतत विकास की अवधारणा आर्थिक विकास नीतियों को पर्यावरण के अनुरूप बनाने पर ज़ोर देती है।
- इसका उद्देश्य पर्यावरण के विरुद्ध चलने वाली विकास नीतियों में बदलाव लाना है। सतत विकास हमारी आज की ज़रूरतों को तो पूरा करता ही है, साथ ही आने वाली पीढियों की ज़रूरतों की भी अनदेखी नहीं करता।
- सतत विकास का अर्थ केवल पर्यावरण सामंजस्य कायम करना नहीं है, बल्कि यह एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है, जिसमें संसाधनों का दोहन, निवेश की दिशा, तकनीकी विकास की स्थिति तथा संस्थागत परिवर्तनों को वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जा सके।
- सतत विकास में ऐसे आर्थिक तथा सामाजिक विकास शामिल हैं जो पर्यावरण तथा सामाजिक समानता को सुरक्षित रखते हैं।
- सतत विकास उत्पादन व उपभोग के उन आदर्शों पर आधारित विकास है जो भविष्य में पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना किया जा सकता है। इसका उद्देश्य आर्थिक गतिविधि के लाभों का समाज के सभी वर्गो में समान वितरण, मानव कल्याण तथा स्वास्थ्य की रक्षा करना व गरीबी मिटाना है।
- यदि सतत विकास की राह पर चलना है तो उसके लिये आवश्यक है कि मनुष्य की वर्तमान जीवन शैली तथा पर्यावरण पर उसके प्रभाव के संबंध में लोगों तथा सरकारों के दृष्टिकोणों में सुधार हो।
(टीम दृष्टि इनपुट)
निष्कर्ष: पिछले 3-4 दशकों के अनुभव से तो यही पता चलता है कि पर्यावरण संवर्द्धन के बिना संतुलित आर्थिक विकास नहीं हो सकता। पर्यावरण का अर्थ केवल जमीन, हवा या पानी मात्र नहीं हैं, बल्कि पर्यावरण में वे समस्त प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं, जिन पर मानव जीवन का अस्तित्व निर्भर करता है। किसी भी प्रकार से पर्यावरण पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव आर्थिक असमानता की खाई को और चौड़ा बना देता है और इसकी सीधी चोट सबसे ज्यादा गरीबों पर पड़ती है। कह सकते हैं कि बिगड़ता पर्यावरण और सामाजिक अन्याय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वास्तव में हम आर्थिक और सामाजिक विकास का कैसा रूप चुनते हैं, यह इसी पर निर्भर करेगा कि हमने विकास हेतु पर्यावरण का दोहन किस रूप में किया है? जैसे कि समुद्र के तटवर्ती हिस्सों के पर्यावरणीय दोहन से न केवल लाखों मछुआरों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है, बल्कि उनकी सामाजिक-संस्कृति भी क्षरित हुई है। ऐसे में हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण और मानव अस्तित्व एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन पर्यावरण के बिना मानव जीवन की कल्पना करना बेमानी है। सतत विकास की अवधारणा मनुष्य और उसके पर्यावरण के अंतर्संबंध स्पष्ट करते हुए चेतावनी देती है कि मनुष्य पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं कर सकता क्योंकि इसमें अंतत: पराजय मनुष्य की ही होती है।