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देश देशांतर : श्रीलंका में राजनीतिक संकट (Political Tormoil in Sri Lanka)

  • 03 Nov 2018
  • 22 min read

संदर्भ

श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को देश का नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया, जिसके बाद श्रीलंका में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन गया है। हटाए गए प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने कहा कि उनके पास बहुमत साबित करने के लिये पर्याप्त संख्या बल है। वहीँ दूसरी ओर, विक्रमसिंघे ने अपनी बर्खास्तगी को गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार देते हुए इस फैसले को मामने से इनकार कर दिया और बहुमत साबित करने के लिये आपातकालीन सत्र बुलाने की मांग कीI जिसके बाद उधर, राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने आगामी 16 नवंबर, 2018 तक संसद को निलंबित कर दिया है ताकि उनके समर्थित राजपक्षे अविश्वास प्रस्ताव के लिये ज़रूरी संख्या बल जुटा सकें। लेकिन श्रीलंकाई संसद के स्पीकर कारु जयसूर्या ने विक्रमसिंघे को ही प्रधानमंत्री बताया और राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना के संसद के निलंबन पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं।

राजनीतिक पृष्ठभूमि

  • 2015 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में सिरिसेना ने आश्चर्यजनक जीत हासिल की। उन्होंने दो बार राष्ट्रपति रहे राजपक्षे को हराया। राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना की यूनाइटेड पीपल्स फ्रीडम अलायंस (UPFA) ने रानिल विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) के साथ मिलकर संसदीय चुनाव लड़ा था।
  • गठबंधन की जीत के बाद रानिल विक्रमसिंघे देश के प्रधानमंत्री बने। इनका मूल मकसद तमिल अल्पसंख्यकों के दीर्घकालिक मुद्दों को हल करने के लिये एक नए संविधान के साथ संवैधानिक और शासन प्रणाली में सुधार लाना था।
  • बीते शुक्रवार को अचानक हुए एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत राष्ट्रपति सिरिसेना की पार्टी ने प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की पार्टी से गठबंधन तोड़ दियाI शुक्रवार को ही राष्ट्रपति ने श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को बुलाकर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी।
  • इसके बाद रानिल विक्रमसिंघे ने राष्ट्रपति के इस फैसले को ‘अवैध’ और ‘असंवैधानिक’ बताते हुए संसद में अपना बहुमत साबित करने के लिये विशेष सत्र बुलाने की मांग की। लेकिन इससे पहले ही राष्ट्रपति ने संसद को 16 नवंबर तक के लिये निलंबित करने का आदेश जारी कर दिया।

श्रीलंका में राजनीतिक संकट क्यों है?

  • संसद के अध्यक्ष कारु जयसूर्या ने विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त करने के राष्ट्रपति के निर्णय का समर्थन करने से इनकार कर दिया है।
  • एक पत्र में जयसूर्या ने 16 नवंबर तक संसद को निलंबित करने के राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसके देश पर "गंभीर और अवांछनीय" परिणाम होंगे।
  • श्रीलंका में संवैधानिक संकट के साथ-साथ राजनीतिक संकट भी है। राजनीतिक खेमेबाजी तथा कुछ अन्य कारणों से भी कहीं-न-कहीं सिरिसेना अपनी प्रतिष्ठा खोते जा रहे थे। संकट के कारणों में निम्नलिखित हैं-
  1. सिरिसेना मंत्रिपरिषद से इन विषयों पर निर्णय चाहते थे उनमें से बहुत पर निर्णय नहीं लिया जा सका। उदाहरण के लिये, सिरिसेना तथा रानिल विक्रमसिंघे के बीच न्यायपालिका तथा सेंट्रल बैंक ऑफ़ श्रीलंका में नियुक्ति से संबंधित विवाद।
  2. सिरिसेना के फ्रॉड को लेकर भी बड़ा मुद्दा था। इसमें एक कैबिनेट मंत्री का नाम भी शामिल था। और सवाल यह उठा कि प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने क्या कार्यवाही की?
  3. कानून और व्यवस्था की खराब स्थिति।
  4. भारतीय निवेश को लेकर भी पिछले कुछ हफ्तों से श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच तनातनी चल रही थी जो विवाद का एक अन्य बड़ा कारण था। कुछ ही दिन पहले कैबिनेट की बैठक में ईस्ट कंटेनर कोस्ट को लेकर विवाद हुआ। प्रधानमंत्री इस प्रोजेक्ट को विकसित करने में भारतीय निवेश के पक्षधर हैं, जबकि राष्ट्रपति को यह मंज़ूर नहीं था।
  5. राष्ट्रपति का भारत विरोधी रवैया तब और ज़्यादा उग्र रूप में सामने आया जब उन्होंने भारत की खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ पर अपनी हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया, हालाँकि बाद में वह इस बात से साफ मुकर गए।

राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कितना सही है?

  • श्रीलंका में शासन की अर्द्ध-राष्ट्रपति प्रणाली है जिसमें प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के अलावा राष्ट्रपति की भी बड़ी भूमिका होती है।
  • 2015 से पूर्व यहाँ का प्रधानमंत्री देश की विधायिका के प्रति ज़िम्मेदार होता था। जबकि, राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख, सरकार का प्रमुख और सशस्त्र बलों का मुखिया होता था। यानी इस लिहाज़ से देखें तो राष्ट्रपति के हाथ में प्रधानमंत्री से कहीं ज़्यादा शक्तियाँ होती थीं।
  • 2015 से पूर्व तक राष्ट्रपति के हाथ में प्रधानमंत्री को हटाने और संसद को भंग करने के भी स्वतंत्र अधिकार थे। लेकिन 2015 में संविधान के अनुच्छेद 46(2) में किये गए 19वें संशोधन के बाद राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री को अपने विवेक से हटाने का अधिकार नहीं रह गया है। साथ ही अब, जब तक संसद पाँच साल की निर्धारित अवधि में से साढ़े चार साल पूरे नहीं कर लेती, राष्ट्रपति को उसे भंग करने का स्वतंत्र अधिकार नहीं है। वह अपने विवेकाधिकार पर प्रधानमंत्री को हटाने की शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर सकता है।
  • प्रधानमंत्री को केवल तभी बर्खास्त किया जा सकता है जब मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया जाए या प्रधानमंत्री अपने पद से इस्तीफा दे या प्रधानमंत्री की संसद की सदस्यता समाप्त हो जाए। राष्ट्रपति केवल प्रधानमंत्री की सलाह पर ही किसी मंत्री को हटा सकता है।
  • इसके अलावा, श्रीलंकाई संविधान यह भी कहता है कि अगर प्रधानमंत्री सदन में विश्वास मत हासिल न कर सके या सरकारी नीति या बजट को पास न करा सके तब राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर सकता है।
  • लेकिन, गौर करने वाली बात यह है कि बीते शुक्रवार को जब राष्ट्रपति सिरिसेना ने प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे को बर्खास्त किया तब ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं थी।
  • इसके अलावा, प्रधानमंत्री विक्रम रणसिंघे का यह भी दावा है कि जब तक कैबिनेट मौजूद है वह कैबिनेट के हेड हैं। कैबिनेट के रहते हुए उनको प्रधानमंत्री पद से नहीं हटाया जा सकता।
  • ऐसी स्थिति में यह न्यायिक मामला बन जाता है लेकिन इतना ज़रूर है की राष्ट्रपति ने संसद सत्र को तीन हफ्ते के लिये भंग कर थोड़ी मुश्किल ज़रूर पैदा कर दी है। इन तीन हफ़्तों में काफी कुछ बदल सकता है।
  • इस पूरी प्रक्रिया ने देश में अस्थिरता की स्थिति पैदा कर दी है। स्थिति को जल्द-से-जल्द स्पष्ट किया जाना चाहिये। ऐसा करने का एकमात्र तरीका है कि संसद का सत्र बुलाकर यह देखा जाए कि बहुमत किसके पास है और यह तुरंत किया जाना चाहिये।

राष्ट्रपति की दलील तथा कानूनविदों की राय

  • राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने महिंदा राजपक्षे को नए प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने के बाद बर्खास्त प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उनकी बर्खास्तगी को संवैधानिक रूप से सही बताया था।
  • इस पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मैंने संविधान के अनुच्छेद 42(4) द्वारा राष्ट्रपति को दी गई शक्तियों के तहत आपको प्रधानमंत्री पद से हटाया है।’
  • श्रीलंका के विधि विशेषज्ञों का कहना है कि अनुच्छेद 42(4) में प्रधानमंत्री को हटाने का कोई प्रावधान ही नहीं है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को केवल उस सांसद को प्रधानमंत्री के तौर पर नियुक्त करने की अनुमति देता है जिसके लिये उसे लगता है कि यह सदन में विश्वासमत हासिल कर लेगा।
  • कानून के जानकारों का यह भी कहना है कि अनुच्छेद 42(4) के तहत अगर राष्ट्रपति ने महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री के तौर पर पहले मौका दिया है तो यह भी उनका गलत निर्णय है, क्योंकि यूपीएफ के समर्थन वापस लेने के बाद भी विक्रमसिंघे सरकार के पास राजपक्षे से कहीं ज़्यादा सीटें हैं।
  • इस स्थिति में विक्रमसिंघे को सरकार गठन के लिये पहले मौका दिया जाना चाहिये था।
  • जानकारों का यह भी कहना है कि राष्ट्रपति द्वारा 16 नवंबर तक संसद निलंबित किये जाने का फैसला सीधे-सीधे नए प्रधानमंत्री राजपक्षे को बहुमत जुटाने के लिये दिया गया एक मौका है। राष्ट्रपति का यह कदम सांसदों की खरीद-फरोख्त को बढ़ावा देगा।

क्या है विकल्प?

  • श्रीलंका में राजनीतिक संकट के विकल्प के रूप में तीन तर्क दिये जा रहे हैं-संवैधानिक, न्यायिक तथा राजनैतिक।
  • इस घटनाक्रम के बाद कोर्ट में जाने का रास्ता निश्चित रूप से खुला हुआ है। ऐसा लगा था कि कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाएगा लेकिन राजपक्षे की कोर्ट में जाने की कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है।
  • दूसरी तरफ रानिल विक्रमसिंघे भी अभी तक न्यायालय जाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। TNA और JDP विपक्षी पार्टियाँ ज़रूर यह कह रही हैं कि संसदीय मान्यताओं को कायम रखा जाना चाहिये, लोकतंत्र का गला नहीं घोटा जाना चाहिये लेकिन वे खुलकर यह नहीं कह रहे हैं कि रानिल विक्रमसिंघे ही प्रधानमंत्री बने रहने चाहिये।
  • देश में खरीद फरोख्त के खिलाफ कोई कानून नहीं है। खरीद फरोख्त की बातें आराम से हो रही हैं। रानिल विक्रमसिंघे के ही एक मंत्री ने आरोप लगाया है कि चीन के ज़रिये आ रहे पैसे से राजपक्षे सांसदों को खरीद रहे हैं।
  • कैबिनेट में शपथ लेने वाले 12 मंत्रियों में 4 ऐसे हैं जो अब तक रानिल विक्रमसिंघे के समर्थक माने जा रहे थे। वहीँ, राजपक्षे के समर्थन में दो लोग अब कह रहे हैं कि वह रानिल के साथ होंगे।
  • इसलिये 125 बनाम 98 का जो आँकड़ा संसद में आ रहा है यह आँकड़ा बदल सकता है लेकिन लड़ाई निश्चित रूप से इस वक्त सियासी है।
  • इस वक्त कोई पक्ष तुरंत कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने को तैयार नहीं है। दोनों इसे राजनीतिक तौर पर भुनाना चाह रहे हैं।

श्रीलंका के राजनीतिक संकट का भारत पर असर

  • पूर्व श्रीलंकाई राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे का घरेलू राजनीति में फिर से प्रवेश होने से अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और लोकतंत्र पर इसके व्यापक परिणाम हो सकते हैं। नवीनतम राजनीतिक अशांति अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के आत्मविश्वास को और कमज़ोर कर सकती है।
  • भारत श्रीलंका में पोर्ट, पेट्रोलियम और गैस, हाउसिंग, एयरपोर्ट आदि कई क्षेत्रो में विकास का कार्य कर रहा है। विक्रमसिंघे जहाँ भारतीय निवेश के पक्षधर रहे हैं वहीं राष्ट्रपति सिरिसेना का रवैया विरोधी रहा है।
  • दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग की अपार संभावनाएँ हैI भारत श्रीलंका में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा हैI तमिल उग्रवाद समाप्त होने के बाद अब देश में कोई आंतरिक संकट नहीं है।
  • लेकिन अगर फिर से श्रीलंका में राजनीतिक संकट और अस्थिरता उत्पन्न हो जाएगी तो भारत को भी इसका नुकसान हो सकता है।
  • अगर राजपक्षे फिर से श्रीलंका की सत्ता में काबिज़ हो जाते हैं तो श्रीलंका और चीन की निकटता और बढ़ जाएगी। चीन ने श्रीलंका की कई बड़ी परियोजनाओं में अरबों डॉलर का भारी निवेश किया है।
  • अगर चीन का प्रभुत्व बढ़ेगा तो इसके फलस्वरूप हिन्द महासागरीय क्षेत्र में चीन का भू-राजनीतिक प्रभाव और सामरिक दखल भी बढ़ सकता है और एक रीजनल पावर के रूप में भारत किसी और देश की मौजूदगी इस क्षेत्र में नहीं चाहता है।
  • श्रीलंका और चीन के बीच प्रगाढ़ होते संबंध भारत के लिये चिंता का सबब है। हाल के वर्षों में जिस तरह से श्रीलंकाई हुकूमत ने चीन का समर्थन किया है, वह सीधे तौर पर भारत के लिये खतरे की घंटी है।
  • अभी तक यहाँ के राजनीतिक दलों का दृष्टिकोण दो प्रकार का रहा है। एक पक्ष जहाँ चीनी दखल को श्रीलंका की संप्रभुता से जोड़कर देखता है, वहीँ दूसरा इसे विकास के लिये ज़रूरी मानता है।
  • चीन और भारत, दोनों का यही प्रयास रहता है कि श्रीलंका में उनके अपने-अपने पक्ष की सरकार बने।
  • पड़ोसी देश होने के कारण श्रीलंका में मचे राजनीतिक बवंडर का असर भारत की विदेशी कूटनीति के लिये बड़ी चुनौती बन सकता है। हाल में मालदीव संकट ने भारत की परेशानियाँ बढ़ाई थीं और अब श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता का भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर चर्चा हो रही है।
  • इस बीच विदेश मंत्रालय ने श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि पड़ोसी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान किया जाना चाहिये।

चीन का प्रभाव

  • इस तरह की राजनीति में वैसे तो कोई नई बात नहीं है और तमाम देशों में देखी भी जा सकती है, लेकिन श्रीलंका की राजनीति में जिस तरह से चीन सक्रिय हुआ, उसने पूरी दुनिया को चौंका दिया है।
  • इसके साथ ही यह अटकल भी ज़ोर पकड़ने लगीं कि इस तख्ता-पलट में चीन की भूमिका है।
  • यह भी कहा जाने लगा कि वहाँ दलबदल के लिये जो पैसा चाहिये उसका इंतजाम चीन कर रहा है। इन अटकलों का सच समझना मुश्किल है, लेकिन यह सच है कि महिंदा राजपक्षे को काफी समय से चीन समर्थक माना जाता है।
  • भारत के आस-पास के सभी देशों में अपना दबदबा बनाने की चीन की रणनीति श्रीलंका में मंहिदा राजपक्षे के कार्यकाल में ही परवान चढ़ी थी।
  • यह भी कहा जाता है कि इसके कारण श्रीलंका बहुत बड़े आर्थिक संकट में फँस चुका है। रानिल विक्रमसिंघे ने सत्ता में आते ही इन नीतियों को पलटना शुरू कर दिया था और अंत में उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
  • राजपक्षे के शासन में श्रीलंका की चीन से निकटता देखी गई है और दक्षिण एशिया की पारंपरिक तौर पर अग्रणी शक्ति भारत से दूर हुई है। कोलंबो की विदेशी पूंजी की तत्काल आवश्यकता को देखते हुए अब चीन द्वारा वहाँ अधिक निवेश किया जाएगा।
  • जबकि विक्रमसिंघे नई दिल्ली और बीजिंग के साथ संबंधों को संतुलित करने के समर्थक रहे हैं।
  • राजपक्षे ने अनुचित शर्तों के बावजूद चीनी धन को स्वीकार करने की अपनी इच्छा को स्पष्ट कर दिया।
  • अतीत में कोलंबो को बीजिंग द्वारा रणनीतिक संपत्तियाँ बेचने के लिये तब मजबूर किया गया था, जब वह देनदारियों को पूरा करने में सक्षम नहीं था, जैसे हंबनटोटा बंदरगाह।
  • श्रीलंका चीन के बहुउद्देशीय वन बेल्ट वन रोड परियोजना का भी साझेदार है। अभी हाल में श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेन ने यह घोषणा की थी कि कोलंबो से 230 किलोमीटर दूर उनके चुनावी क्षेत्र पोनोनारुवा में चीन एक किडनी प्रत्यारोपण हॉस्पिटल बनाएगा। 
  • राजपक्षे की नियुक्ति को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की भारत के खिलाफ जीत के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इस क्षेत्र में सर्वोच्चता के लिये दो महाशक्तियों की लड़ाई है।

हंबनटोटा बंदरगाह भारत की चिंता का कारण

  • हंबनटोटा बंदरगाह के विकास की ज़िम्मेदारी चीन की है। दरअसल, हंबनटोटाबंदरगाह के ज़रिये ही चीन हिंद महासागर में अपनी विस्‍तारवादी योजना को साकार रूप देना चाहता है। 
  • इस समय श्रीलंका की माली हालत संकट में है। श्रीलंका पहले से ही चीनी क़र्ज़ में दबा हुआ है। वह चीन को धन लौटा पाने में असमर्थ रहा है।आर्थिक तंगी के कारण ही श्रीलंका सरकार में इस बात की चर्चा तेज़ हो गई थी कि इस बंदरगाह को चीन सरकार को ही बेच दिया जाए। अगर ऐसा हुआ तो यह भारत के हित में नहीं होगा।
  • हंबनटोटाबंदरगाह अगर चीन के कब्‍जे में आया तो उसका हिंद महासागर में प्रभुत्‍व बढ़ेगा। चीन का यह प्रभुत्‍व भारत के सामरिक हित में नहीं है। 
  • इसके अलावा, बंदरगाह से एक विशेष आर्थिक क्षेत्र जुड़ा हुआ है। यह SEZ यहाँ से करीब 13-15 हज़ार एकड़ में फैला हुआ है। एसईज़ेड की इस ज़मीन को चीन को दिया जाएगा।

निष्कर्ष

श्रीलंका में राजनीतिक संकट भारत के लिये बहुत बड़ी चिंता की बात है। साउथ एशिया में सामरिक महत्त्व के कारण श्रीलंका हमारे लिये बहुत ही अहम है। वहाँ जो राजनीतिक संकट उत्पन्न हुआ है, वह भारत और श्रीलंका के बीच के संबंध को प्रभावित कर सकता है। श्रीलंका में अगर स्थिति भारत के अनुकूल नहीं रहती है तो वहाँ पर हमारे हितों को नुकसान पहुँच सकता है।

जिस प्रकार से श्रीलंका में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तथा खेमेबाज़ी दिखाई दे रही है उससे तात्कालिक समाधान की उम्मीद कम ही दिखाई दे रही है। जहाँ तक भारत का सवाल है उसे वेट एंड वाच की पॉलिसी अपनानी चाहिये।

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