विशेष/द बिग पिक्चर: इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) और Living Will का अधिकार | 10 Mar 2018
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
कोमा जैसी स्थिति में पहुँचने पर या किसी असाध्य रोग की पीड़ा लंबे समय तक भोगने वाले किसी व्यक्ति को क्या स्वयं को जीवित रखने या इच्छामृत्यु चुनने का अधिकार दिया जा सकता है?
इस सवाल पर देश के सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च को ऐतिहासिक फैसला देते हुए इच्छामृत्यु (Passive Euthnesia) की अनुमति दे दी, लेकिन साथ ही इसके लिये कड़े दिशा-निर्देश भी जारी किये हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस याचिका पर आया है जिसमें लाइलाज बीमारी से जूझ रहे ऐसे व्यक्ति के लिये इच्छामृत्यु की इज़ाज़त देने की मांग की गई थी, जिसके स्वास्थ्य में सुधार होने की कोई संभावना नहीं रह गई है। सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यों वाली संविधान पीठ ने पिछले साल 12 अक्तूबर को इस मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इस मामले में पांच न्यायाधीशों ने चार अलग-अलग राय रखी, लेकिन सभी ने एकमत होकर लिविंग विल पर सहमति जताई। विशेष परिस्थितियों के तहत इच्छामृत्यु की मांग करने वाले लोगों को लिखित रूप में लिविंग विल देनी होगी। इस मामले में कानून बनने तक फैसले में प्रतिपादित दिशा-निर्देश प्रभावी रहेंगे।
क्या कहा अदालत ने?
शीर्ष अदालत की पाँच सदस्यों वाली संविधान पीठ (मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, ए.के. सिकरी, ए.एम. खानविलकर, डी.वाई. चंद्रचूड़ और अशोक भूषण) ने अपने फैसले में मनुष्यों को पूरी गरिमा के साथ मृत्यु का वरण करने का अधिकार देने की बात कही।
ये दिशा-निर्देश जारी किये
- गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ारहित होनी चाहिये और कुछ ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिये जिसमें गरिमापूर्ण तरीके से मृत्यु हो सके। लिविंग विल कौन कर सकता है? इसकी प्रक्रिया क्या होगी? इसके लिये दिशा-निर्देश जारी किये गए हैं, अर्थात लिविंग विल और इच्छामृत्यु के इस नए अधिकार का दुरुपयोग रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने कुछ प्रावधान किये हैं।
- असाध्य बीमारी से ग्रस्त मरीजों के मामले में ऐसे मरीज़ के नज़दीकी मित्र और संबंधी इस तरह अग्रिम निर्देश दे सकते हैं और लिविंग विल का निष्पादन कर सकते हैं।
- ऐसे लोगों को इच्छामृत्यु की वसीयत (Living Will) करने की भी अनुमति दी गई है, जो मेडिकल कोमा में रहने या लाइलाज बीमारी से ग्रसित होने की वज़ह से इच्छामृत्यु चाहते हैं।
- लिविंग विल को लेकर ऐसे व्यक्ति की पूरी छानबीन होगी, जिसे संपत्ति या विरासत में लाभ होने वाला हो।
- इच्छामृत्यु पर आखिरी फैसला मेडिकल बोर्ड तय करेगा कि इलाज संभव है या नहीं और यह निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र होगा कि मरीज़ से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाना चाहिये या नहीं।
- यदि मेडिकल बोर्ड कहेगा कि इलाज संभव नहीं है तो लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा सकते हैं।
कौन लिख सकता है लिविंग विल?
- ऐसा कोई भी वयस्क इच्छामृत्यु की विल लिख सकता है, जो स्वस्थ और मानसिक रूप से स्थिर तथा संवाद करने की हालत में हो।
- उसे दस्तावेज़ को समझने और इसके परिणामों के बारे में जानकारी होनी चाहिये।
- लिविंग विल स्वैच्छिक होनी चाहिये तथा उसके पीछे कोई दबाव या मजबूरी नहीं होनी चाहिये।
- इस विल में स्वीकृति के तत्त्व होने चाहिये तथा इसको लिखने के पीछे कोई स्वार्थ नहीं होना चाहिये।
- न्यायालय के हिसाब से वसीयतकर्त्ता को स्पष्ट करना चाहिये कि उसे असाध्य रोग होने की हालत में क्या उसका मेडिकल इलाज हटाया जाए और क्या विशेष इलाज न दिया जाए।
- वसीयतकर्त्ता किसी भी समय अपनी विल में लिखे वायदों से पीछे हट सकता है।
- उसे यह भी बताना होगा कि वह बेहोश हो तो उसका कौन-सा निकट संबंधी निर्णय लेगा।
कार्रवाई
- वसीयतकर्त्ता यदि असाध्य रूप से बीमार हो जाए और उसे जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया है तो इलाज करने वाला चिकित्सक मजिस्ट्रेट से वसीयत की वास्तविकता की जाँच करेगा और इसके अनुरूप ही कार्रवाई करेगा।
- एक मेडिकल बोर्ड बनाया जाएगा जिसमें कम-से-कम तीन 20 साल के अनुभव वाले जनरल मेडिसिन, कार्डियोलॉजी, नेफ्रोलॉजी, न्यूरोलॉजी, साइकियाट्री और कैंसर के विशेषज्ञ शामिल होंगे।
- ये विशेषज्ञ मरीज़ के परिजनों की उपस्थिति में उसे देखेंगे और तय करेंगे कि उसके चल रहे इलाज हटाए जाएं या बंद किये जाएँ।
- मेडिकल बोर्ड यदि यह तय करता है कि इलाज हटाना ठीक रहेगा तो इलाज करने वाला चिकित्सक क्षेत्र के कलेक्टर को इसकी जानकारी देगा। कलेक्टर भी एक मेडिकल बोर्ड का गठन करेगा, जिसमें ज़िले के सीएमओ और तीन विशेषज्ञ चिकित्सक शामिल होंगे।
- ये बोर्ड के साथ अस्पताल जाएंगे और मरीज़ को देखेंगे। यदि ये पाते हैं कि अस्पताल के मेडिकल बोर्ड की सलाह अमल करने लायक है तो लिविंग विल में लिखे निर्देशों को लागू करने के लिये प्रमाणपत्र जारी करेंगे।
- इससे पहले वे प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को सूचित करेंगे, जो मरीज़ से मिलेगा और बोर्ड के फैसले को लागू करने के लिये अधिकृत करेगा।
- इसके लागू होने से पूर्व वसीयतकर्त्ता के पास इससे पीछे हटने का विकल्प खुला रहेगा।
- यदि मेडिकल बोर्ड मना कर देता है तो मरीज़ के परिजनों के पास उच्च न्यायालय जाने का विकल्प है। ऐसी स्थिति में विशेष खंडपीठ का गठन कर मेडिकल बोर्ड बनाया जाएगा।
- इसके बाद सरकारी वकीलों की दलीलें सुनने के बाद उच्च न्यायालय जल्द-से-जल्द फैसला लेगा और यदि इसमें देरी होती है तो इसके कारणों का विस्तृत ब्योरा देगा।
सत्यापन
- यदि दो लिविंग विल लिखी गई हैं तो बाद में लिखी गई विल ही मान्य होगी।
- विल पर वसीयतकर्त्ता के हस्ताक्षर के साथ दो गवाहों के हस्ताक्षर भी होने चाहिये।
- इस विल को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट से सत्यापित करवाना अनिवार्य होगा।
- मजिस्ट्रेट एक कॉपी अपने पास रखेगा तथा एक अन्य कॉपी डिजिटल प्रारूप में रखी जाएगी।
- मजिस्ट्रेट द्वारा एक कॉपी जिला जज को भेजी जाएगी और वहाँ भी एक कॉपी डिजिटल प्रारूप में रखी जाएगी।
- मजिस्ट्रेट वसीयतकर्त्ता के परिजनों को सूचित करेगा और उन्हें वसीयत के बारे में बताएगा।
- एक कॉपी नगरपालिका या पंचायत को दी जाएगी, जो एक उचित प्राधिकार को नामित करेंगे, जिसके पास दस्तावेज़ सुरक्षित रहेगा अर्थात् ये कस्टोडियन का काम करेंगे।
- विल की एक कॉपी वसीयतकर्त्ता के फैमिली डॉक्टर को भी दी (यदि कोई है) जाएगी।
मामले की पृष्ठभूमि (कालक्रम)
(टीम दृष्टि इनपुट) |
क्या है लिविंग विल?
- इच्छामृत्यु के लिये लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) एक ऐसा लिखित दस्तावेज है, जिसमें कोई मरीज़ पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुँचने या रज़ामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में होने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए, जबकि इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मृत्यु सन्निकट देखते हुए उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है।
- यह सुनिश्चित करना अनिवार्य होगा कि ‘लिविंग विल’ की इज़ाज़त केवल पैसिव यूथेनेशिया के मामलों में ही दी जाए।
- लिविंग विल के माध्यम से ही कोई व्यक्ति यह बता सकेगा कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद न हो तो उसे ज़बरन लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखना उचित है या नहीं?
- कोमा में पहुँच चुका मरीज़ स्वयं इस स्थिति में नहीं होता कि वह अपनी इच्छा व्यक्त कर सके। इसलिये उसे पहले ही यह लिखने का अधिकार होना चाहिये कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद खत्म हो जाए तो उसके शरीर को यातना न दी जाए।
यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि कोई यह कैसे तय कर सकता है कि उसके शरीर को बाद में यातना झेलनी पड़ेगी, इसलिये वह पहले ही लिविंग विल’ पर हस्ताक्षर कर दे?
- इस संबंध में एक उपाय यह हो सकता है कि डॉक्टरों की एक टीम द्वारा संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ्य की भली-भाँति जाँच की जाए, लेकिन कानूनी प्रावधानों के अभाव में ऐसा नहीं हो पाता।
संबंधित विधेयक में क्या है? (टीम दृष्टि इनपुट) |
एक्टिव और पैसिव यूथेनेशिया में अंतर
‘एक्टिव यूथेनेशिया’ और ‘पैसिव यूथेनेशिया’ इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग ‘इच्छामृत्यु ’ को इंगित करने हेतु किया जाता है।
एक्टिव यूथेनेशिया: पहली वह स्थिति है, जब इच्छामृत्यु मांगने वाले किसी व्यक्ति को इस कृत्य में सहायता प्रदान की जाती है, जैसे-ज़हरीला इंजेक्शन लगाना या पेन किलर का ओवरडोज़ देना।
उदाहरण: लगभग ढाई दशक पहले जब माकपा नेता बी.टी. रणदिवे रक्त-कैंसर की असहनीय पीड़ा झेलते हुए मुंबई के अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तब उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग की थी। लेकिन इस विषय में कोई कानून न होने की वज़ह से उनको यह अनुमति नहीं मिली। यदि उस समय कानून यह अनुमति देता तो यह सक्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि असाध्य रोग से मुक्ति और असहनीय कष्ट के निवारण के लिये मरीज़ की मांग पर चिकित्सक उन्हें मृत्यु की दवा देते। (टीम दृष्टि इनपुट) |
पैसिव यूथेनेशिया: दूसरी वह स्थिति है जब इच्छामृत्यु के लिये किसी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं की जाती। सरल शब्दों में कहें तो एक्टिव यूथेनेशिया वह है, जिसमें मरीज़ की मृत्यु के लिये कुछ किया जाए, जबकि पैसिव यूथेनेशिया वह है जहाँ मरीज़ की जान बचाने के लिये कुछ न किया जाए।
उदाहरण: बलात्कार की शिकार मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग की इच्छामृत्यु को 2014 में अदालत से अनुमति तो नहीं मिली, लेकिन उनकी स्थिति रणदिवे से अलग थी। अरुणा वर्षों से अचेत, जीवन-रक्षक प्रणालियों पर ही थी, उसे नहीं पता था कि वह जीवित है या नहीं, उसे कोई कष्ट है या नहीं। यदि उसे इच्छामृत्यु की अनुमति मिलती तो वह निष्क्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि उसे किसी दवा की आवश्यकता नहीं थी, केवल जीवन-रक्षक प्रणाली हटाने की आवश्यकता थी। तब अदालत ने इसकी भी अनुमति नहीं दी थी। हालाँकि 2015 में उसे यह अधिकार मिल गया और उसे अपने कष्ट से तथा कष्ट देनेवाले संसार से मुक्ति मिल गई। (टीम दृष्टि इनपुट) |
इन दोनों के अलावा भी यूथेनेशिया के कई स्वरूप हैं, जैसे-असिस्टेड सुसाइड, DNR (Do Not Resusciate) अर्थात् पुनर्जीवित करने के प्रयास न करना, डॉक्ट्रिन ऑफ डबल इफेक्ट, फ्यूटाइल ट्रीटमेंट, इनडायरेक्ट यूथेनेशिया, इनवोलंटरी यूथेनेशिया।
इच्छामृत्यु के पक्ष में तर्क
संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देता है, लेकिन इसकी व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जीवन के अधिकार में गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। यदि कोई अशक्त और असहाय व्यक्ति जिसके जीवन में पीड़ा के अलावा और कुछ न हो और वह, जो अपने प्रत्येक कार्य के लिये दूसरों पर निर्भर रहता हो तो ऐसी स्थिति में उसके गरिमा के साथ जीने के अधिकार का प्रत्यक्ष उल्लंघन होता है। इच्छामृत्यु के पक्ष में खड़े लोगों का तर्क है कि व्यक्ति के शरीर पर केवल उसका अधिकार है। यदि बीमारी के कारण व्यक्ति का दर्द सहनशक्ति की सीमा से ऊपर जा चुका है, तो उस व्यक्ति को इच्छामृत्यु के ज़रिये दर्द से मुक्ति पाने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिये।
लावते दंपति का मामला यह दंपति भारत में इच्छामृत्यु के प्रति घृणा को 'सांस्कृतिक पिछड़ेपन' का एक लक्षण मानता है। उनका कहना है कि उनकी इच्छामृत्यु की मांग तर्क से प्रेरित है, न कि आध्यात्मिकता से। उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा है कि वे 'दया मौत' की अपनी याचिका पर अनुकूल प्रतिक्रिया चाहते हैं। इसे पहले बहुचर्चित अरुणा शानबाग बनाम भारतीय संघ (2011) मामले में पहली बार इच्छामृत्यु का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा में आया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हॉस्पिटल में 42 साल तक कोमा में रही नर्स अरुणा की इच्छामृत्यु की याचिका स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। हालाँकि, बाद में न्यायालय ने अपना फैसला बदल दिया था, लेकिन इस फैसले ने असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को इच्छामृत्यु देने की बहस को आगे बढ़ाने का कार्य किया। (टीम दृष्टि इनपुट) |
इच्छामृत्यु के विपक्ष में तर्क
दुनिया के कुछ देशों (लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड और बेल्जियम आदि) में इच्छामृत्यु की अनुमति है, लेकिन भारत इसके लिये अभी तैयार नहीं है। भारत की जटिल सामाजिक संरचना में यह एक बेहद जटिल मुद्दा है। इच्छामृत्यु की अनुमति देना या इसे वैध बनाना इसके दुरुपयोग की संभावनाओं को बल देगा। धन-संपत्ति या पारिवारिक दुश्मनी के कारण इच्छामृत्यु का दुरुपयोग टालना असंभव सा कार्य होगा और इसे मानसिक तथा शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों के जीवन को समाप्त करने के एक तरीके के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इच्छामृत्यु का विरोध करने वालों का कहना है कि जीवन ईश्वर की देन है, इसलिये इसे वापस लेने का हक भी सिर्फ उसे है।
अन्य देशों में क्या है व्यवस्था?
संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राज्यों में इसकी मंज़ूरी है। ओरेगन, वॉशिंगटन और मोंटाना में डॉक्टर की सलाह और उसकी मदद से मरने की इज़ाज़त है। स्विट्ज़रलैंड में में इच्छामृत्यु तो गैर-कानूनी है, लेकिन व्यक्ति खुद को इंजेक्शन देकर जान दे सकता है। नीदरलैंड्स में मरीज़ की मर्जी के बाद डॉक्टर उसे इच्छामृत्यु दे सकता है। बेल्जियम में सितंबर 2002 से इच्छामृत्यु वैधानिक हो चुकी है। ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस और इटली जैसे यूरोपीय देशों सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इच्छामृत्यु की अनुमति नहीं है है।
निष्कर्ष: 1970 के दशक के अंत में आई सुपरहिट फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर फिल्माए गए एक उतने ही सुपरहिट गीत की शुरुआती पंक्तियाँ कुछ यूं हैं..."रोते हुए आते हैं सब, हंसता हुआ जो जाएगा..."। संविधान पीठ के एक न्यायाधीश ने इच्छामृत्यु पर अपना फैसला देते हुए अन्य तर्कों के अलावा इस गीत का भी हवाला दिया। उन्होंने राजकुमार सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) का हवाला भी दिया जो बीमार और मृत व्यक्ति को देखकर भयभीत हो गए थे।
अपने फैसले में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इस मामले में यही तय करना था कि मरीज़ की पीड़ा को खत्म करने के लिये कानूनी तौर पर तुरंत मौत की इज़ाज़त दी जा सकती है या नहीं। उन्होंने एक प्राचीन ग्रीक दार्शनिक की कविता का हवाला दिया..."मैं मृत्यु से क्यों डरूं? जब मैं हूँ तो मृत्यु नहीं। उस चीज़ से मैं क्यों डरूं जिसका अस्तित्व केवल तभी होता है जब मैं नहीं होता?..."
देश की सबसे बड़ी अदालत ने जीवन की तुलना 'दिव्य ज्योति' से करते हुए इसके सम्मान की बात की और मृत्यु को जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बताया। स्वाभिमान के साथ जीना हमारे जीवन जीने के अधिकार का अभिन्न अंग है और जीवन एवं मृत्यु को अलग नहीं किया जा सकता। हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है और बदलाव प्रकृति का नियम है। जीवन को मौत से अलग नहीं किया जा सकता और मृत्यु जीने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।
इच्छामृत्यु के अनुमति देने के संबंध में किसी प्रक्रिया का उल्लेख न तो संविधान में किया गया है और न ही संसद द्वारा बाद में जोड़ा गया है। इच्छामृत्यु की मांग करने वाले व्यक्ति को प्रायः न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है और प्रावधानों के अभाव में तथ्यों को देखते हुए विवेकानुसार फैसले किये जाते हैं। शीर्ष अदालत के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद परिस्थितियाँ निश्चित रूप से बदलेंगी। अब यूथनेसिया के संबंध में एक व्यापक कानून बनाया जाना चाहिये जो इसे स्वीकारने या अस्वीकारने के संबंध में मज़बूत और वैध तर्क प्रस्तुत करता हो।