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संसद टीवी संवाद


शासन व्यवस्था

विशेष : नोटा (NOTA)

  • 15 Sep 2018
  • 22 min read

संदर्भ

चुनाव आयोग ने उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद राज्यसभा और विधान परिषद चुनावों के मतपत्रों से 'उपर्युक्त में से कोई भी नहीं' (none of the above -NOTA) विकल्प को वापस ले लिया है। सर्वोच्च अदालत ने राज्यसभा और विधान परिषद (MLC) के चुनावों में बैलेट पेपर पर ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ यानी नोटा का विकल्प प्रकाशित नहीं करने के आदेश जारी किये हैं। हालाँकि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं जैसे प्रत्यक्ष चुनावों में नोटा एक विकल्प के रूप में जारी रहेगा। इस फैसले के बाद नोटा पर बहस एक बार फिर तेज़ हो गई है। नोटा से पहले भी वोट नहीं देने का अधिकार था भारत की चुनाव आचार संहिता, 1961 के नियम 49 (ओ) के तहत यह काफी समय से अस्तित्व में था इसके तहत कोई भी मतदाता आधिकारिक तौर पर मत नहीं देने का निर्णय ले सकता था।

पृष्ठभूमि 

  • “जनता द्वारा, जनता के लिये, जनता का शासन ही लोकतंत्र है” अब्राहम लिंकन की यह प्रसिद्ध उक्ति लोकतंत्र की सबसे सरल और प्रचलित परिभाषा मानी जाती है। गौरतलब है कि लोकतंत्र की इस व्यवस्था में मालिकाना हक़ तो जनता का ही है लेकिन जिस तरह से जनता के प्रतिनिधि चुने जाते हैं उसे लेकर असंतोष ज़ाहिर किया जाता रहा है।
  • लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनावों में यदि जनता को कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता है और फिर भी वह यह समझकर मतदान करती है कि दो बुरे उम्मीदवारों में से जो कम बुरा है उसके पक्ष में मतदान किया जाए तो निश्चित ही यह लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत नहीं है।
  • क्या हमारी व्यवस्था ऐसा उम्मीदवार नहीं दे सकती जो जनता के हित और कल्याण के लिये प्रतिबद्ध हो, मान लिया जाए कि किन्हीं परिस्थितियों में कोई भी सुयोग्य उम्मीदवार नज़र नहीं आता तो जनता क्या करे? इस सवाल को लेकर बहुत लंबे समय तक बहस चलती रही है।
  • अंततः नोटा (none of the above-NOTA) के रूप में इसका समाधान प्रस्तुत किया गया।

क्या है नोटा?

भारत में नोटा पहली बार सुप्रीम कोर्ट के 2013 में दिये गए एक आदेश के बाद शुरू हुआ, विदित हो कि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम भारत सरकार मामले में शीर्ष न्यायालय ने आदेश दिया कि जनता को मतदान के लिये नोटा का भी विकल्प उपलब्ध कराया जाए। इस आदेश के बाद भारत नकारात्मक मतदान का विकल्प उपलब्ध कराने वाला विश्व का 14वाँ देश बन गया। नोटा के तहत ईवीएम मशीन में नोटा (NONE OF THE ABOVE-NOTA) के लिये गुलाबी बटन होता है। यदि पार्टियाँ ग़लत उम्मीदवार देती हैं तो नोटा का बटन दबाकर पार्टियों के प्रति जनता अपना विरोध दर्ज करा सकती है।

टीम दृष्टि इनपुट

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तथा चुनाव आयोग के ताज़ा निर्देश 

  • राज्यसभा तथा विधान परिषद के चुनावों में अब नोटा का विकल्प नहीं होगा केंद्रीय चुनाव आयोग ने इससे जुड़े निर्देश राज्य चुनाव आयोगों को दे दिये हैं।
  • गौरतलब है कि 21 अगस्त, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में जस्टिस ए.एम. खानविलकर तथा जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड की पीठ ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा था कि राज्यसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल नहीं होगा।
  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि नोटा डीफेक्शन (defection) को बढ़ावा देगा और इससे भ्रष्टाचार के लिये दरवाज़े खुलेंगे।
  • सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि नोटा को सिर्फ प्रत्यक्ष चुनावों में ही लागू किया जाना चाहिये कोर्ट ने कहा कि यह विकल्प अप्रत्यक्ष चुनाव जहाँ औसत प्रतिनिधित्व की बात होती है, वहाँ लागू नहीं होगा इसके साथ ही, राज्यसभा चुनावों में नोटा लागू करने से एकमत के औसत मूल्यांकन की धारणा नष्ट होगी।
  • सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि नोटा पहली नज़र में लुभावना लग सकता है लेकिन गंभीर जाँच करने पर यह आधारहीन दिखता है क्योंकि इससे ऐसे चुनाव में मतदाता की भूमिका को नज़रंदाज़ कर दिया है इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास होता है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि नोटा के प्रयोग से अप्रत्यक्ष चुनावों में समाहित चुनाव निष्पक्षता ख़त्म होती है वह भी तब जबकि मतदाता के मत का मूल्य हो और वह मूल्य हस्तांतरणीय (transferable) हो ऐसे में नोटा एक बाधा है।
  • मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि राज्यसभा चुनाव पहले से ही उलझन भरे हैं ऐसे में चुनाव आयोग के लिये यह चुनाव और जटिल न बने, इसके लिये कानून किसी भी विधायक को नोटा के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं देता लेकिन इस अधिसूचना के ज़रिये चुनाव आयोग विधायक को वोट न डालने का अधिकार दे रहा है, जबकि यह उसका संवैधानिक दायित्व है।
  • मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इस पर संदेह है कि नोटा के ज़रिये किसी विधायक को उम्मीदवार को वोट डालने से रोका जा सकता है।
  • वहीँ, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड ने कहा कि बैलेट बॉक्स में मतपत्र डालने से पहले कोई विधायक उसे क्यों दिखाए।

नोटा के विकल्प की इज़ाज़त देने वाली चुनाव आयोग की अधिसूचना को चुनौती

  • गुजरात के शैलेश मनुभाई परमार पिछले राज्यसभा चुनाव में गुजरात विधानसभा में कॉन्ग्रेस के मुख्य सचेतक थे। परमार ने मतपत्रों में नोटा के विकल्प की इज़ाज़त देने वाली चुनाव आयोग की अधिसूचना को चुनौती दी थी।
  • इस मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने भी परमार की याचिका का समर्थन किया था। केंद्र सरकार ने कहा था कि नोटा का इस्तेमाल राज्यसभा चुनाव के दौरान नहीं किया जाना चाहिये।
  • सरकार का कहना था कि नोटा का इस्तेमाल वहीँ होगा जहाँ प्रतिनिधि जनता के ज़रिये सीधे चुने जाते हैं लेकिन राज्यसभा में इसका इस्तेमाल नहीं हो सकता क्योंकि राज्यसभा के प्रतिनिधि प्रत्यक्ष तौर पर नहीं चुने जाते।
  • इससे पहले चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल कर कहा था कि राज्यसभा चुनाव में नोटा का प्रयोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक ही होगा और यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही चुनावों पर लागू होता है।
  • चुनाव आयोग ने कहा कि राज्यसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल अगर नहीं करते हैं तो यह अदालत के आदेश की अवहेलना और अवमानना का मामला बन जाता।
  • याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की अधिसूचना पर सवाल उठाया और कहा कि नोटा चुनाव में सीधे मतदाताओं के इस्तेमाल के लिये बनाया गया है।
  • नोटा की शुरुआत इसलिये की गई थी कि प्रत्यक्ष चुनावों में कोई व्यक्ति वोटर के तौर पर इस विकल्प का इस्तेमाल कर सके।

सुप्रीम कोर्ट का पूर्ववर्ती आदेश 

  • दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVM) में नोटा के विकल्प को अनिवार्य करने का आदेश दिया था और इसके बाद जनवरी 2014 में नोटा का प्रावधान रखने संबंधी अधिसूचना जारी की गई थी।
  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस आदेश में कहा था कि जिस तरह हर मतदाता को मत डालने का अधिकार है उसी तरह उसे किसी को भी वोट न देने का अधिकार है।
  • कोर्ट ने कहा था कि यह आदेश सभी चुनावों को लेकर है यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के चुनावों पर लागू होगा।
  • अभी तक चुनाव आयोग के नियम के मुताबिक, अगर कोई वोटर या विधायक राज्यसभा चुनावों में पार्टी के निर्देशों के खिलाफ जाकर किसी उम्मीदवार को वोट देता है या नोटा का इस्तेमाल करता है तो उसे विधानसभा की सदस्यता के लिये अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। वह विधायक रहेगा और उसका वोट भी वैध माना जाएगा लेकिन अनुशासन तोड़ने के लिये पार्टी उसके खिलाफ कार्रवाई कर सकती है जिसमें पार्टी से निकाला जाना भी शामिल है।

भारत में नोटा का सफर

भारत ने नोटा की दुनिया में 2013 में कदम रखा शुरुआत में राजनीतिक दलों ने इसका काफी विरोध किया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद यह बात साफ हो गई कि मनपसंद उम्मीदवार की गैरमौजूदगी में आम लोगों के पास अपनी राय जाहिर करने का अधिकार भी उनका चुनावी अधिकार होना चाहिये।

  • 27 सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट की भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस पी. सदाशिवम की अगुवाई वाली बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि लोकतंत्र दरअसल, चुनाव का ही नाम है इसलिये मतदाताओं को नकारात्मक मतदान का भी पूरा अधिकार है और उन्हें यह अधिकार मिलना चाहिये नकारात्मक मतदान की यही अवधारणा नोटा यानी नन ऑफ द अबब की है।
  • नोटा यानी मतदाताओं को मिला वह अधिकार है जिसके ज़रिये वे बैलेट पेपर या ईवीएम मशीन में दर्ज तमाम नामों को ख़ारिज कर अपना रुख स्पष्ट कर सकते हैं।
  • इसका सीधा सा मतलब है कि चुनाव में खड़े तमाम उम्मीदवारों में से अगर मतदाता किसी को भी पसंद नहीं करता है तो वह नोटा का बटन दबाकर या नोटा के आगे ठप्पा लगाकर अपनी पसंद जाहिर कर सकता है।
  • दरअसल, भारत में इस प्रक्रिया की शुरुआत 2009 में तब हुई जब चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के सामने नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने से जुड़ी अपनी मंशा जाहिर की।
  • बाद में नागरिक अधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी ने भी नोटा के समर्थन में जनहित याचिका दायर की।
  • इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए 2013 में कोर्ट ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने का निर्णय किया था।
  • सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए भारत निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में ईवीएम में ‘इनमें से कोई नहीं’ यानी नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिये इस तरह भारत नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने वाला विश्व का चौदहवाँ देश बन गया।
  • हालाँकि चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि नोटा के वोट गिने तो जाएंगे पर इसे रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा यानी इससे चुनाव के नतीज़ों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
  • नोटा को 2013 में पहली बार उस समय हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में अपनाया गया छत्तीसगढ़, मिज़ोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश के साथ दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार लोगों को यह विकल्प दिया गया कि वे चुनाव में खड़े सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज कर सकें।
  • इन सभी राज्यों में 1.85 प्रतिशत वोट नोटा पाए गए हालाँकि 2014 में हुए 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में नोटा घटकर 0.95 प्रतिशत रह गया। 
  • हालाँकि 2015 में दिल्ली और बिहार में हुए चुनावों में यह फिर बढ़कर 2.02 प्रतिशत हो गया।
  • नोटा की शुरुआत से पहले कई राजनीतिक दलों ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इसके आने से मतदाताओं में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी लेकिन कोर्ट ने इसे लोकतंत्र के लिये ज़रूरी बताकर इसे लागू करने का निर्देश दिया।
  • नोटा के आने के बाद इसे लेकर राजनीतिक दलों में कई बार चिंता और मनन की स्थिति भी दिखी मसलन 2013 से फरवरी 2017 के बीच हुए मतदान में कुल सीटों में से 261 विधानसभा और 24 लोकसभा सीटों पर नोटा वोट विजय मार्जिन से ज़्यादा थे।
  • यही नहीं 2017 में हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में भी कुल 21 सीटों पर सबसे ज़्यादा वोट पाने वाले पहले दो प्रत्याशियों के बीच का अंतर नोटा वोटों से कम था यही वज़ह है कि राजनीतिक दलों में नोटा वोटों को लेकर अब संजीदगी और गंभीरता ज़्यादा दिखती है।

नोटा के विपक्ष में तर्क 

अप्रत्यक्ष चुनावों में नोटा की अनिवार्यता ख़त्म करने के बाद नोटा की प्रासंगिकता के पक्ष और विपक्ष में कई सवाल-जवाब सामने आते रहे हैं।

  • वर्ष 2013 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को अपने निर्वाचन क्षेत्र में खड़े किसी प्रत्याशी को वोट नहीं देने का अधिकार दिया।
  • इसके बाद ही ईवीएम में नोटा बटन का विकल्प दिया जाने लगा लेकिन इसे लेकर अलग-अलग तबकों में विचार-विमर्श भी शुरू हो गया।
  • दरअसल, जो लोग नोटा के मौजूदा स्वरूप से असंतुष्ट हैं उनका तर्क यह है कि इससे मतदाता को चुनाव में खड़े प्रत्याशियों को ख़ारिज करने का हक़ नहीं मिलता।
  • इस प्रक्रिया में भी पहले की तरह ही सबसे ज़्यादा वोट पाने वाला प्रत्याशी विजयी घोषित हो जाता है यानी यह सिर्फ किसी को वोट नहीं देने का अधिकार है जिसका चुनाव परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ता ऐसे लोगों का तर्क है कि नोटा का यह अधिकार तभी कारगर सिद्ध हो सकता है जब आम लोगों को भी प्रत्याशियों को सिरे से ख़ारिज करने का यानी राइट टू रिजेक्ट का हक़ मिल जाए।
  • वैसे देश के कुछ राज्यों में स्थानीय निकाय स्तर पर राइट टू रिकॉल कानून लागू है इसके तहत जनता को अपने चुने हुए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार होता है लेकिन इसके बावत किसी भी तरह के ठोस कानून को लेकर किसी भी राजनीतिक दल ने कोई पहल नहीं की है।
  • हालाँकि कुछ लोग इससे भी सख्त प्रावधानों की मांग कर रहे हैं उनके मुताबिक चुने हुए नेता को वापस बुलाने के अधिकार के साथ-साथ चुनाव के वक्त ही प्रत्याशी को ख़ारिज करने का प्रावधान होना ज़रूरी है।
  • ऐसे लोग नोटा की जगह राइट टू रिजेक्ट का अधिकार दिये जाने की वकालत कर रहे हैं।

नोटा के पक्ष में तर्क 

  • नोटा के समर्थन में दलील यह है कि राजनीतिक दल अब नोटा को लेकर संजीदा हो रहे हैं।
  • नोटा वोटों की तादाद भले ही कम हो लेकिन इसे चुनावों में धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव से त्रस्त आम मतदाता के आक्रोश की बानगी के तौर पर देखा जा रहा है।
  • राजनीतिक दलों के मंसूबे और वादाखिलाफी के विरुद्ध कई नागरिक मंच और आंदोलनकारी आगामी चुनावों में नोटा का विकल्प चुनने की चुनौती भी देते रहे हैं।
  • माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना फैसला देते हुए इस बात को ही घ्यान में रखा था कि जनता के पास यदि किसी को भी नहीं चुनने का अधिकार होगा तो राजनीतिक दल दागदार और खराब छवि वाले उम्मीदवारों को चुनावों में टिकट देने से बचेंगे।
  • यह लोकतंत्र में साफ-सुथरे चुनाव हेतु एक बड़ा बदलाव भी माना जा रहा है।

नोटा की शुरुआत कब हुई?

  • माना जाता है कि नोटा का सबसे पहले इस्तेमाल अमेरिका में हुआ।
  • मतपत्रों में नोटा का प्रयोग पहली बार 1976 में अमेरिका के कैलीफ़ोर्निया में इस्ला विस्टा म्युनिसिपल एडवाइजरी कौंसिल के चुनाव में हुआ।
  • उसके बाद अन्य देशों ने भी धीरे-धीरे इस विकल्प को अपने देश में लागू करना शुरू कर दिया।
  • नोटा का प्रयोग कोलंबिया, यूक्रेन, ब्राज़ील, बांग्लादेश, फ़िनलैंड, स्पेन, स्वीडन, चिली, फ्राँस, बेल्जियम और यूनान समेत कई देशों में लागू है।
  • दुनिया के कई देशों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा मत पर ही जीत का प्रावधान है। ऐसे में अगर वहाँ 50 प्रतिशत से ज़्यादा नोटा वोटों की संख्या हो जाती है तो चुनाव को रद्द कर फिर से चुनाव कराया जाता है ऐसे में नोटा का महत्त्व काफी बढ़ जाता है।
  • रूस में वर्ष 2006 में यह विकल्प मतदाताओं के लिये उपलब्ध था लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया।
  • इसके अलावा दुनिया के कई देशों में नोटा के लिये अलग अलग नामों का इस्तेमाल किया जाता है।
  • भारत में नोटा का मतलब है ‘नन ऑफ़ द अबव’ वहीँ अमेरिका में इसके लिये ‘नन ऑफ़ दीज़ कैंडिडेट’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जबकि यूक्रेन में इसे ‘अगेंस्ट आल’ और स्पेन में ‘ब्लैक बैलेट’ कहा जाता है।
  • दुनिया के कई देशों में जहाँ मतदान में नोटा का प्रयोग नहीं शुरू हुआ है वे नोटा का इस्तेमाल करने के बारे में सोच रहे हैं।

निष्कर्ष

दरअसल, नोटा अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनने या नहीं चुनने की आज़ादी देता है। भारत में मतदाताओं को नोटा का विकल्प मिलने से उन्हें अपने मत का इस्तेमाल करने का हक़ मिल गया है जो कि अपना पसंदीदा उम्मीदवार नहीं होने के कारण वोट डालने से वंचित रह जाते थे। देश में नोटा विकल्प दिये जाने के बाद से मतदाता इसका प्रयोग करते आ रहे हैं।

यदि लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा करनी है तो चुनाव सुधार पहला प्रयास होना चाहिये। दरअसल, जनता यदि अपने प्रतिनिधियों से असंतुष्ट है तो अगले चुनावों में उन्हें सबक सिखा सकती है। चुनाव 5 साल में एक बार आते हैं, अतः जनता के पास ‘राइट टू रिकाल’ के तहत उन्हें समय से पहले वापस बुलाने का भी अधिकार है, लेकिन समस्या यह है कि कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब जनता को लगता है कि सारे ही उम्मीदवार अयोग्य हैं, फिर भी किसी-न-किसी का जीतकर संसद या विधान भवन में पहुँच जाना निश्चित ही नोटा के मूल उद्देश्य के सापेक्ष नज़र नहीं आता।

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