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देश देशांतर : चंदे के नए अंदाज (new ways of political funding)

  • 29 Oct 2018
  • 19 min read

संदर्भ

देश में आम चुनाव की तारीखों का एलान तो नहीं हुआ है लेकिन राजनीतिक दलों ने चुनाव की तैयारी शुरु कर दी है। चुनाव से पहले पार्टियाँ न सिर्फ जनता से संपर्क साधने के नए तरीकों का इस्तेमाल करने जा रही हैं तो बल्कि चंदा जुटाने के लिये सीधे जनता से निवेदन कर रही हैं। भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया के सहारे सीधे जनता से संवाद स्थापित कर चंदा जुटाने के अभियान को शुरु किया है। भाजपा ने कार्यकर्त्ताओं, समर्थकों और हितैषियों से नरेंद्र मोदी एप पर चंदा देने की अपील की है। वहीं, कॉन्ग्रेस ने 'डोर टू डोर’ संपर्क अभियान शुरू किया है जिसमें वह लोगों से वोट के साथ-साथ चुनावी चंदा भी मांग रही है। तो इस कसरत में क्षेत्रीय पार्टियाँ भी पीछे नही हैं।

राजनीतिक चंदे का दौर कैसे शुरू हुआ?

  • आज से करीब 40 साल पहले सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ताओं को रसीद बुक दी जाती थी जिसे लेकर वे घर-घर जाकर चंदा वसूल करते थे। उस समय छोटी-छोटी राशि में मिलने वाले चंदे की अहमियत थी।
  • बाद में ऐसे दौर भी आए कि जो लोग फंडिंग करते थे उन्होंने सोचा कि अगर हमारे बलबूते पर इन पार्टियों के उम्मीदवार जीतते हैं तो हम खुद ही चुनाव लड़कर क्यों न जीतें। और वहीँ से राजनीति में पैसे वाले लोगों का आगमन शुरू हुआ।
  • अब बड़े-बड़े कॉर्पोरेट राजनीतिक दलों को करोड़ों रुपए का चंदा देते हैं और फिर सरकार को रिमोट से चलाने की कोशिश करते हैं जो कि आज के दौर में यह काफी आम गया है।
  • उस समय चंदे को लेकर उतनी जागरूकता भी नहीं थी और न ही उतने प्रश्न होते थे। लेकिन चुनाव की फंडिंग और राजनीतिक दलों की आतंरिक संरचना हमेशा मुद्दा रहा है। इन पर बौद्धिक और अकादमिक बहस तो होती रहती थी लेकिन सतही चिंताओं को प्रकट करने के अलावा पार्टियों ने इस पर कभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। आज भी वह जनमत के दबाव में ही ध्यान देती है।
  • धीरे-धीरे बदलाव आता गया और दबाव पार्टियों पर बनता गया। उसमें सुप्रीम कोर्ट तथा चुनाव आयोग ने भी भूमिका निभाई कि वे लगातार अपने को पारदर्शी, लोकतांत्रिक और फंडिंग को लेकर भी लोगों के प्रति जवाबदेही दिखाएँ।
  • चंदे में अब हम एक नया दौर देख रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि राजनीति में क्राउड फंडिंग हो रही है।
  • सवाल यह है कि जिस बड़े चंदे से चुनाव में हज़ारों करोड़ रुपए खर्च होते हैं और उसके लिये जो पैसा आता है वह एक तरह से भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। हमारी इस वर्तमान व्यवस्था में उस पर प्रभावी रोक लगाना अभी संभव नहीं हुआ है।

राजनीतिक दल किससे चंदा ले सकते हैं?

  • जनप्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 29बी के मुताबिक, भारत में कोई भी राजनीतिक दल सभी से चंदा ले सकता है, अर्थात् वे व्यक्तिगत तथा कॉर्पोरेट से भी चंदा ले सकते हैं।
  • राजनीतिक दल विदेशी नागरिकों से भी चंदा ले सकते हैं। वह केवल सरकारी कंपनी या फिर विदेशी कंपनी से चंदा नहीं ले सकते हैं। अगर विदेशी कंपनी भारत में मौजूद हो तभी उससे पार्टियाँ चंदा नहीं ले सकतीं।
  • विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम, 1976 की धारा 3 और 4 के मुताबिक, भारतीय राजनीतिक दल विदेशी कंपनियों और भारत में मौजूद ऐसी कंपनियों से चंदा नहीं ले सकती हैं जिनका संचालन विदेशी कंपनियाँ कर रही हैं।

चंदे की सीमा

  • कंपनियाँ राजनीतिक दलों को कितना चंदा दे सकती हैं, इसको लेकर अलग-अलग तरह के प्रावधान हैं।
  • मसलन तीन साल से कम समय वाली कंपनी राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती है और कंपनीज़ एक्ट की धारा 293ए के मुताबिक़, कोई भी कंपनी अपने सालाना मुनाफ़े के पाँच फ़ीसदी तक की राशि को ही चंदे के तौर पर दे सकती है।
  • वहीं, दूसरी ओर, राजनीतिक दलों के लिये चंदा लेने के लिये कोई सीमा नहीं है। आयकर क़ानून की धारा 13ए के मुताबिक़ राजनीतिक दलों को आयकर से छूट मिली हुई है।

भारत की राजनीतिक वित्त व्यवस्था की कमज़ोरियाँ

आज, भारत की राजनीतिक वित्त व्यवस्था तीन प्रमुख कमजोरियों से पीड़ित है।

  1. राजनीतिक दलों को दस्तावेज़ रहित अनियंत्रित नकदी का एक स्थिर प्रवाह।
  2. राजनीतिक योगदान के संबंध में वस्तुतः कोई पारदर्शिता नहीं। उदाहरण के लिये हम दाता और रिसीवर दोनों की पहचान के बारे में अनजान हैं।
  3. राजनीतिक दल किसी भी स्वतंत्र ऑडिट के अधीन नहीं हैं, जो उनके निर्दिष्ट खातों को काल्पनिक या अवास्तविक तथा हास्यास्पद बनाते हैं।
  • यह भी देखने में आया है कि राजनीतिक दलों के 75 प्रतिशत चंदे का स्रोत ज्ञात नहीं है। करोड़ों रुपए के चंदे को छोटा चंदा दिखाकर कवर अप करने की कोशिश की जाती है। इस पर नज़र रखने की ज़रूरत है।
  • चुनाव आयोग के अंकुश के बाद 2010 में चुनाव आयोग में एक्सपेंडीचर मोनिटरिंग डिवीज़न बनाया गया था जहाँ पर चुनाव आयोग के वरिष्ठ निदेशक को डायरेक्टर जनरल बनाया गया था।
  • यह कहा गया था कि चुनाव में धन के खर्चे की जो भूमिका है, उसपर निगरानी रखी जाएगी।
  • इससे पहले चुनाव के दो हफ्ते या तीन हफ्ते के लिये राजस्व विभाग के एक अधिकारी को एक्सपेंडीचर आब्जर्वर के रूप में बुलाया जाता था और वह तीन हफ्ते में ओब्जर्व कर अपनी रिपोर्ट देकर चले जाते थे और कोई फॉलो-अप नहीं हो पाता था।

इस पृष्ठभूमि के खिलाफ सरकार क्या करना चाहती है?

  • प्रावधानों के मुताबिक, चंदे से उसके स्रोत का पता लगाना संभव होता है लेकिन इसमें एक ख़ामी की वज़ह से यह व्यावहारिक तौर पर मुश्किल है।
  • 20 हज़ार रुपए से कम के चंदे के बारे में चुनाव आयोग को बताना ज़रूरी नहीं है। इसने राजनीतिक दलों को नकदी दान की सीमा कम कर दी है।
  • मोटे तौर पर यह देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने चंदे के अधिकतम हिस्से को अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुआ बताती हैं।
  • यह भी संभव है कि पार्टी 20 हज़ार रुपए की सीमा के भीतर कई लोगों से बैकडेट में चंदा प्राप्त किया हुआ बता सकती है। फिर कुछ हिस्सा रखकर काले पैसे को सफ़ेद बता सकती है।
  • हालाँकि चुनाव आयोग सख़्ती दिखाए तो राजनीतिक दलों की ऐसी गड़बड़ी सामने आ सकती है और इससे दल विशेष की सार्वजनिक छवि को भी नुकसान पहुँच सकता है।

क्या है इलेक्टोरल बॉण्ड?

  • यदि हम बॉण्ड की बात करें तो यह एक ऋण सुरक्षा है। चुनावी बॉण्ड का जिक्र सर्वप्रथम वर्ष 2017 के आम बजट में किया गया था।
  • दरअसल, यह कहा गया था कि आरबीआई एक प्रकार का बॉण्ड जारी करेगा और जो भी व्यक्ति राजनीतिक पार्टियों को दान देना चाहता है, वह पहले बैंक से बॉण्ड खरीदेगा फिर जिस भी राजनैतिक दल को दान देना चाहता है उसे दान के रूप में बॉण्ड दे सकता है।
  • राजनैतिक दल इन चुनावी बॉण्ड की बिक्री अधिकृत बैंक को करेंगे और वैधता अवधि के दौरान राजनैतिक दलों के बैंक खातों में बॉण्ड के खरीद के अनुपात में राशि जमा करा दी जाएगी।
  • गौरतलब है कि चुनावी बॉण्ड एक प्रॉमिसरी नोट की तरह होगा, जिस पर किसी भी प्रकार का ब्याज नहीं दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि चुनावी बॉण्ड को चेक या ई-भुगतान के ज़रिये ही खरीदा जा सकता है।

इलेक्टोरल बॉण्ड : प्रमुख तथ्य

  • चुनावी बॉण्ड का उद्देश्य राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले नकद व गुप्त चंदे के चलन को रोकना है। जब चंदे की राशि नकदी में दी जाती है, तो धन के स्रोत के बारे में, दानदाता के बारे में तथा यह धन कहाँ खर्च किया गया, इसकी भी कोई जानकारी नहीं मिलती। इसलिये चुनावी बॉण्ड से वर्तमान प्रणाली में पारदर्शिता आएगी।
  • इससे पहले सरकार ने पिछले वर्ष के बजट में नकद चंदे की सीमा 20 हज़ार से घटाकर मात्र 2 हज़ार कर दी थी।
  • राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिये ब्याज मुक्त बॉण्ड भारतीय स्टेट बैंक से खरीदे जा सकते हैं। चुनावी बॉण्ड एक हज़ार रुपए, दस हज़ार रुपए, एक लाख रुपए, दस लाख रुपए और एक करोड़ रुपए के मूल्य में उपलब्ध होंगे।
  • इन बॉण्ड का विक्रय वर्ष के चार महीनों-जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10 दिनों के लिये होगा। इसी दौरान इन्हें खरीदा जा सकेगा। आम चुनाव के वर्ष में बॉण्ड खरीद की सुविधा 30 दिनों के लिये होगी।
  • दानकर्त्ता ये बॉण्ड एसबीआई की शाखाओं से खरीदकर किसी भी दल को दान कर सकेंगे। दानकर्त्ता चुनाव आयोग में पंजीकृत उसी राजनीतिक दल को इन्हें दान में दे सकते हैं, जिन दलों ने पिछले चुनावों में कुल मतों का कम-से-कम 1 प्रतिशत मत हासिल किये हैं।
  • बॉण्ड से मिलने वाली चंदे की राशि संबंधित दल के अधिकृत बैंक खाते में जमा होगी। इलेक्टोरल बॉण्ड की वैलिडिटी सिर्फ 15 दिनों की होगी। बॉण्ड को कम अवधि के लिये वैध रखे जाने के पीछे उद्देश्य है इसके दुरूपयोग को रोकना साथ ही राजनीतिक दलों को वित्त उपलब्ध कराने में कालेधन के उपयोग पर अंकुश लगाना है।
  • इसके ज़रिये पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकेगी। एक ओर बैंक इस बात से अवगत होगा कि कोई चुनावी बॉण्ड किसने खरीदा और दूसरे, बॉण्ड खरीदने वाले को उसका उल्लेख अपनी बैलेंस शीट में भी करना होगा।

टीम दृष्टि इनपुट

राजनीतिक दलों के लिहाज़ से पारदर्शी व्यवस्था क्या हो सकती है?

  • एक सीमा के बाद भारत जैसी व्यवस्था में पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जा सकती है लेकिन बुनियादी बात यह है कि पार्टियाँ खुद ही नहीं चाहतीं कि वे पारदर्शी हों।
  • संसद में भी इस तरह के कई मामले देखे गए हैं। उदाहरण के लिये राजनीति के अपराधीकरण का मामला, चुनाव जीतकर आए लोगों की आपराधिक पृष्ठभूमि को उजागर करने का मामला। ऐसी बुनियादी प्रक्रिया को लागू करने में भी संसद में सभी दलों ने अड़ंगा लगाया है। अंततः यह मामला सुप्रीम कोर्ट तथा चुनाव आयोग से होकर आया।
  • जब तक राजनीतिक दलों के भीतर दबाव और इच्छा शक्ति पैदा नहीं होगी कि हम स्वयं अपने आपको जवाबदेह और पारदर्शी बनाएँ तब तक कुछ हो पाना संभव नहीं है।
  • दूसरी समस्या जो उतनी ही बड़ी है वह है चंदे के रूप में बड़ी राशि को देने वाले तथा लेने वाले। लेने वाले और देने वाले जब तक नहीं चाहेंगे कि व्यवस्था ठीक हो तब तक पारदर्शिता का आना कठिन है।
  • बिना नंबर दो की अर्थव्यवस्था (काले धन) को बदले हम साफ-सुथरे चुनावों को संपन्न कर लेंगे, अव्यवहारिक अपेक्षा होगी।
  • चुनाव खर्च के लिये एक सीमा तय होनी चाहिये। गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के लिये प्रत्येक उम्मीदवार हेतु उनके चुनाव अभियान के दौरान होने वाले खर्च की सीमा तय कर रखी है, लेकिन प्रायः यह देखने को मिलता है कि उम्मीदवार इस सीमा से बाहर जाकर खर्च कर रहे हैं फिर भी चुनाव आयोग के लिये उनके खिलाफ़ कार्यवाही करना आसान नहीं रहता, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर यह साबित करना मुश्किल होता है।
  • हम प्रायः इस बात का रोना रोते हैं कि राजनीति एक ऐसी दलदल है जिसमें कालेधन के उपयोग से ही चुनाव जीते जा सकते हैं, हालाँकि, सत्य यह भी है कि हममें से कोई भी अपनी वैध कमाई का हिस्सा राजनीति पर खर्च नहीं करना चाहता।
  • यह एक कटु सत्य है कि ‘राजनैतिक दान’ काली कमाई को सफ़ेद करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन चुका है। अतः हमें कुछ ऐसा करने की ज़रूरत है जिससे कि हम स्वच्छ राजनैतिक दान का माहौल तैयार कर सकें और यह सरकार द्वारा चुनावों के वित्त पोषण के माध्यम से किया जा सकता है।

आगे की राह

  • दरअसल, सरकार द्वारा वित्तपोषित चुनाव की अवधारणा इस बात पर टिकी है कि यदि एक बार दलों को सरकारी आवंटन मिल गया तो चुनावों में प्राइवेट फंडिंग रुक जाएगी।
  • पानी की तरह बहाए जाने वाले पैसे पर अंकुश लग जाएगा। गौरतलब है कि पहले से ही हमने ऐसे कानून बना रखे हैं जो कि चुनावों के दौरान आवश्यकता से अधिक होने वाले खर्च पर अंकुश लगाने की बात करते हैं, लेकिन हम इसमें सफल नहीं रहे हैं।
  • अतः सर्वप्रथम प्रयास यह किया जाना चाहिये कि राजनैतिक दलों को मिलने वाले अवैध धन पर अंकुश लगाया जाए। यदि दलों के पास खर्च करने के लिये धन ही नहीं होगा तो चुनावों में बहने वाला पैसा अपने आप बंद हो जाएगा।
  • वस्तुतः चुनावों को वित्तपोषित करने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है राजनैतिक दलों का वित्त-पोषण करना। हमें यह समझना होगा कि चुनावों के वित्तपोषण और दलों के वित्तपोषण में अंतर है।
  • प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात् राजनैतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मत के आधार पर भुगतान किया जाए और किसी अन्य स्रोत से किसी भी प्रकार के दान लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया जाए। यह कदम ज़्यादा व्यावहारिक होगा।

निष्कर्ष

भारत में चुनाव आयोग के समक्ष 1900 के करीब पार्टियाँ पंजीकृत हैं। सामान्यतौर पर देखें तो यही प्रतीत होगा कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अतः इतनी संख्या में राजनैतिक दलों का होना अच्छा ही है लेकिन जैसे ही हम इस सच्चाई पर गौर करते हैं कि इनमें सैकड़ों ऐसी पार्टियाँ हैं जिन्होंने कभी चुनाव ही नहीं लड़ा है तो यह साफ़ हो जाता है कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है।

दरअसल, देश के पंजीकृत राजनीतिक दलों को आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13 ए के तहत आयकर से छूट मिलती है। उनके लिये दान या चंदा लेने की कोई अधिकतम सीमा तय नहीं है। उनको सिर्फ उस लेन-देन का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना होता है जो 20 हज़ार या उससे ज़्यादा हो, इससे कम की रकम का कोई हिसाब उन्हें नहीं देना होता। इसी का लाभ उठाकर तमाम राजनीतिक दलों पर कालेधन को सफेद करने और चुनावों में बेहिसाब कालाधन खर्च करने के आरोप लगते रहे हैं। यही कारण है कि सैकड़ों समूह चुनाव नहीं लड़ते लेकिन राजनैतिक दल के तौर पंजीकृत हैं।

चुनाव में बेहिसाब पैसा खर्च कर सत्ता में आने वाला कोई भी दल कभी लोक कल्याणकारी नीतियों को प्रोत्साहन देने वाला नहीं हो सकता है, अतः राजनैतिक दलों की वित्तीय अनियमिततों को दूर करना आज वक्त की ज़रूरत बन चुकी है। हालाँकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस संबंध में अब तक जितने भी प्रयास हुए हैं नाकाफी साबित हुए हैं।

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