शासन व्यवस्था
द बिग पिक्चर: ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री
- 15 Jun 2018
- 23 min read
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
हाल ही में केंद्र सरकार ने लैटरल एंट्री (Lateral Entry) की अधिसूचना जारी करते हुए 10 विभागों में संयुक्त सचिव (Joint Secretary) के लिये आवेदन आमंत्रित किये हैं अर्थात् अब यह तय हो गया है कि देश की ब्यूरोक्रेसी में UPSC की सिविल सर्विस परीक्षा पास करने वालों का ही वर्चस्व नहीं रहेगा, बल्कि निजी कंपनियों में काम करने वाले सीनियर अधिकारी भी सरकार का हिस्सा बन सकते हैं।
विदित हो कि पिछले वर्ष जुलाई में सरकार ने ब्यूरोक्रेसी में देश की सबसे प्रतिष्ठित मानी जाने वाली सिविल सेवाओं में परीक्षा के माध्यम से नियुक्ति के अलावा अन्य क्षेत्रों अर्थात लैटरल एंट्री से प्रवेश का प्रावधान यानी सीधी नियुक्ति करने पर विचार करने की बात कही थी। प्रधानमंत्री ने तब कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को इसके लिये प्रस्ताव तैयार करने के लिये कहा था, क्योंकि सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र के अनुभवी उच्चाधिकारियों को विभिन्न विभागों में उपसचिव, निदेशक और संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर नियुक्त किया जाए।
क्यों ज़रूरत पड़ी लैटरल एंट्री की?
- अर्थव्यवस्था और अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में थिंक-टैंकों की आवश्यकता के मद्देनज़र तथा अन्य ऐसे विभागों में जहाँ विशिष्ट प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता होती है, लैटरल एंट्री से संयुक्त सचिवों की नियुक्ति की जानी है।
- निजी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का चयन उनकी योग्यता और अनुभव के आधार पर किया जाएगा तथा कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में बनी समिति इनका अंतिम रूप से चयन करेगी।
- विगत 30-40 वर्षों में कई बार उच्चाधिकारियों की नियुक्ति इस प्रकार लैटरल एंट्री से की गई है और अनुभव कोई बुरा नहीं रहा।
IAS अधिकारियों की कमी: कुछ समय पूर्व देशभर में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Adminitrative Service-IAS) के खाली पदों की संख्या को लेकर एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि यह संख्या चिंताजनक स्तर तक पहुँच गई है। तब कार्मिक, लोक शिकायत और विधि एवं न्याय की स्थायी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि केंद्र और राज्यों में लगभग सभी प्रमुख और रणनीतिक पदों पर IAS अधिकारियों की तैनाती की जाती है।
माँग-आपूर्ति का सिद्धांत: 2016 तक IAS के लिये कुल स्वीकृत पदों की संख्या 6396 थी, जबकि वास्तविक संख्या में अनुमानत: 1470 का अंतर था। यानी कुल अधिकृत संख्या से लगभग 23% कम अधिकारी नियुक्त थे। IAS अधिकारियों की अधिकृत संख्या और वास्तविक तैनाती में सर्वाधिक 37% अंतर बिहार में था, जबकि सबसे कम 14% अंतर राजस्थान में देखा गया था। छत्तीसगढ़ और पंजाब में यह कमी क्रमश: केवल 15% एवं 16% थी। मध्य प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिज़ोरम और केंद्रशासित प्रदेशों में यह कमी 18-19% के दायरे में बनी हुई थी। महाराष्ट्र, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में से प्रत्येक में यह अंतर 22% था, गुजरात और तमिलनाडु में 24%, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में 28% और केरल में यह अंतर 32% था।
(टीम दृष्टि इनपुट)
गुण-दोषों के साथ सावधानी बरतना ज़रूरी
- विशेषज्ञों का मानना है कि अधिकारियों के चयन का अधिकार यूपीएससी को ही होना चाहिये। लैटरल एंट्री की प्रक्रिया से भविष्य में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
- केंद्र सरकार की तुलना में भारत के राज्यों में भ्रष्टाचार अधिक है और यदि किसी को उत्तरदायी ठहराए बिना किसी पद पर नियुक्त कर दिया जाता है तो उस पर अनुशासनात्मक नियंत्रण रखना कठिन हो जाएगा।
- अधिकांश विशेषज्ञ उच्चाधिकारियों की इस प्रकार सीधी नियुक्ति के पक्ष में हैं, यदि उनकी नियुक्ति लंबे समय अर्थात 20-30 वर्ष के लिये की जाए। ऐसा करने से उनकी ज़िम्मेदारी निर्धारित की जा सकती है और उनके कार्य की समीक्षा भी हो सकती है।
- इस प्रकार की नियुक्तियाँ उन्हीं हालातों में की जानी चाहिये, जब किसी उच्च सेवा के तहत किसी कार्य विशेष को करने के लिये विशेषज्ञ उपलब्ध न हों।
- इस प्रकार की सीधी नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिये तथा उसमें किसी प्रकार के भाई-भतीजावाद का स्थान नहीं होना चाहिये, अन्यथा इससे वर्तमान व्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है।
- सचिव स्तर के पदों पर कार्यकाल निश्चित होना चाहिये, क्योंकि इन्हें नीतियाँ बनाने से लेकर उन्हें लागू करने की प्रक्रिया में लंबे समय तक काम करना होता है। इस मामले में विदेश मंत्रालय का उदाहरण लिया जा सकता है, जहाँ कार्यकाल लगभग निश्चित होता है; वह चाहे देश में हो या विदेश में।
विदेशों में भी है इस प्रकार का चलन
इस मुद्दे पर अन्य देशों से तुलना करना ठीक हो सकता है, लेकिन उनकी नकल करना कतई ठीक नहीं। भारत, फ्राँस, इटली, जापान, दक्षिण कोरिया और स्पेन जैसे देशों में करियर आधारित प्रणाली है और उसी के आधार पर नियुक्तियाँ होती हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका में पद आधारित प्रणाली काम करती है। इन दोनों प्रणालियों के अपने-अपने गुण-दोष हैं।
ब्रिटेन में अल्पावधि के लिये ऐसी नियुक्तियाँ होती हैं, लोग आते हैं...सरकार में काम करते हैं...और चले जाते हैं, लेकिन वहाँ एक मज़बूत निगरानी तंत्र है, जो उन पर निगाह रखता है कि वह अपनी इस कार्यावधि से अनावश्यक लाभ न उठा सकें।
(टीम दृष्टि इनपुट)
किन विभागों में होंगी ये नियुक्तियाँ?
शुरुआत में सरकार 10 मंत्रालयों--राजस्व विभाग, वित्तीय सेवा विभाग, आर्थिक कार्य विभाग, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, जहाजरानी (Shipping) मंत्रालय, नागर विमानन (Civil Aviation) मंत्रालय, पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में विशेषज्ञ संयुक्त सचिवों को नियुक्त करेगी।
- इन पदों पर आवेदन के लिये न्यूनतम आयु सीमा 40 वर्ष रखी गई है, जबकि अधिकतम आयु सीमा तय नहीं की गई है।
- इनका वेतन केंद्र सरकार के अंतर्गत काम करने वाले संयुक्त सचिव के समान होगा तथा अन्य सुविधाएँ भी उसी अनुरूप मिलेंगी और इन्हें सर्विस रूल के तहत काम करना होगा।
- इस प्रकार UPSC से इतर नियुक्त होने वाले संयुक्त सचिवों का कार्यकाल उनकी परफॉरमेंस के अनुसार 3 से 5 साल का होगा।
- केवल इंटरव्यू के आधार पर इनका चयन होगा तथा कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में बनने वाली कमेटी इनका इंटरव्यू लेगी।
- योग्यता के अनुसार सामान्य ग्रेजुएट और किसी सरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई, विश्वविद्यालय के अलावा किसी निजी कंपनी में 15 साल का अनुभव रखने वालों को चुना जाएगा।
प्रशासनिक सुधार रिपोर्टों में भी है उल्लेख
स्वतंत्र भारत (1951) में प्रशासन की कार्यशैली पर एन.डी. गोरेवाला की रिपोर्ट 'लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन' नाम से आई। रिपोर्ट के अनुसार कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नियोजन नहीं कर सकता। इस रिपोर्ट में अनेक उपयोगी सुझाव थे, लेकिन क्रियान्वयन नहीं हुआ।
1952 में केंद्र ने प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए अमेरिकी विशेषज्ञ पॉल एपिलबी की नियुक्ति की। उन्होंने 'भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदन' प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट में भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव थे, लेकिन जड़ता जस-की-तस बनी रही।
- स्वाधीनता के 19 वर्ष बाद 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बना, जिसने 1970 अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश की।
- इसके लगभग 30 वर्ष बाद 2005 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया था।
- ब्यूरोक्रेसी में लैटरल ऐंट्री का पहला प्रस्ताव 2005 में आया था; लेकिन तब इसे सिरे से खारिज कर दिया गया।
- इसके बाद 2010 में दूसरी प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में भी इसकी अनुशंसा की गई थी, लेकिन इसे आगे बढ़ाने में समस्याएँ आने पर सरकार ने इससे हाथ खींच लिये।
- इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में इसकी संभावना तलाशने के लिये एक कमेटी बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने की अनुशंसा की।
- ब्यूरोक्रेसी के बीच इस प्रस्ताव पर विरोध और आशंका दोनों रही थी, जिस कारण इसे लागू करने में विलंब हुआ। अंतत: पहले प्रस्ताव में आंशिक बदलाव कर इसे लागू कर दिया गया।
- पहले के प्रस्ताव के अनुसार सचिव स्तर के पद पर भी लैटरल ऐंट्री की अनुशंसा की गई थी, लेकिन सीनियर ब्यूरोक्रेसी के विरोध के कारण अभी संयुक्त सचिव के पद पर ही इसकी पहल की गई है।
प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग
- देश में प्रशासनिक सुधारों की अनुशंसा करने के लिये अब तक दो प्रशासनिक सुधार आयोगों का गठन किया जा चुका है।
- सर्वप्रथम इस आयोग की स्थापना 5 जनवरी, 1966 को की गई थी और तब मोरारजी देसाई को इसका अध्यक्ष बनाया गया था।
- मार्च 1967 में मोरारजी देसाई देश के उपप्रधानमंत्री बन गए, तो के. हनुमंतैया को इसका अध्यक्ष बनाया गया।
- इस आयोग का काम यह देखना था कि देश में ब्यूरोक्रेसी को किस तरह से और बेहतर बनाया जा सकता है।
- तब इस आयोग ने अलग-अलग विभागों के लिये 20 रिपोर्टें तैयार की थीं, जिसमें 537 बड़े सुझाव थे।
- सुझावों पर अमल करने की रिपोर्ट नवंबर 1977 में संसद के पटल पर रखी गई थी।
- तब से लेकर 2005 तक देश की ब्यूरोक्रेसी इसी आयोग की सिफारिशों के आधार पर चलती रही।
दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग
- इसके बाद 5 अगस्त, 2005 को वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया।
- इस आयोग को केंद्र सरकार को प्रत्येक स्तर पर देश के लिये एक सक्रिय, प्रतिक्रियाशील, जवाबदेह और अच्छा प्रशासन चलाने के दौरान आ रही कठिनाइयों की समीक्षा करने और उसका समाधान खोजने की जिम्मेदारी दी गई थी।
- इसके अलावा इस आयोग को भारत सरकार के केंद्रीय ढाँचे, शासन में नैतिकता, अधिकारियों को भर्ती करने की प्रक्रिया को फिचलाया जाने वाला प्रशासन, ई-प्रशासन, संकट प्रबंधन और आपदा प्रबंधन के बारे में भी रिपोर्ट तैयार करने का काम सौंपा गया था।
- इस प्रशासनिक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय ब्यूरोक्रेसी में भारी फेरबदल की संभावना की बात कही थी।
- इसने सुझाव दिया था कि संयुक्त सचिव के स्तर पर विशेषज्ञों की नियुक्तियाँ की जाएँ तथा इन्हें बिना परीक्षा पास किये केवल इंटरव्यू के माध्यम से इस पद पर लाया जा सकता है।
- प्रशासनिक आयोग ने तय किया था कि अधिकारी की उम्र कम-से-कम 40 साल होनी चाहिये और उसे काम करते हुए कम से कम 15 साल का अनुभव होना चाहिये।
- इसके अलावा समिति ने सिफारिश की थी कि जितने भी प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति होती है, उन्हें कम-से-कम तीन साल के लिये किसी निजी कंपनी में काम करने के लिये भेजा जाना चाहिये, ताकि वे निजी कंपनी में काम करने के तौर-तरीके सीखें और फिर उसे ब्यूरोक्रेसी में भी लागू करें, लेकिन सरकार ने इस सिफारिश को नकार दिया।
अलघ समिति ने भी की थी सिफारिश
सिविल सेवा रिव्यू कमेटी के अध्यक्ष योगेन्द्र अलघ ने 2002 में अपनी रिपोर्ट में लैटरल एंट्री का सुझाव देते हुए कहा था कि जब अधिकारियों को लगता है कि उनका प्रतियोगी आने वाला है तो उनके अंदर भी ऊर्जा आती है...उनमें भी नया जोश आता है।
इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अमेरिका में स्थायी सिविल सर्वेंट और मिड करियर प्रोफेशनल्स का चलन है। वहाँ पर इनकी सेवा ली जाती है। हमारे देश में भी अंतरिक्ष, विज्ञान तथा तकनीक, बायोटेक्नोलोजी, इलेक्ट्रॉनिक्स ऐसे विभाग हैं, जहाँ पर इनकी सेवा ली जाती है; लेकिन इसका विस्तार करने की ज़रूरत है तथा अन्य विभागों में भी इनकी सेवा ली जा सकती है।
(टीम दृष्टि इनपुट)
पहले भी होती रही हैं ऐसी नियुक्तियाँ
देश में संयुक्त सचिव के कुल 341 पद हैं, जिनमें से 249 पदों पर IAS अधिकारी ही नियुक्त होते हैं तथा शेष 92 पदों पर विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाती है, जो गैर-IAS भी होते हैं। लेकिन इनके लिये अब तक किसी तरह का विज्ञापन जारी नहीं किया जाता था और सरकार इन पदों पर नियुक्तियाँ कर देती थी।
- भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री थे और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। उन्हें 1971 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया था और उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा नहीं दी थी। उन्हें 1972 में वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार भी बनाया गया था और यह पद भी संयुक्त सचिव स्तर का ही होता है।
- इसी प्रकार मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री रघुराम राजन को अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया था और वे भी UPSC से चुनकर नहीं आए थे, लेकिन संयुक्त सचिव के स्तर तक पहुँच गए थे और बाद में रिज़र्व बैंक के गवर्नर बनाए गए थे।
- इन्फोसिस के प्रमुख कर्त्ता-धर्त्ताओं में एक नंदन निलेकणी भी इसी प्रकार आधार कार्ड जारी करने वाली संवैधानिक संस्था UIDAI के चेयरमैन नियुक्त किये गए थे।
- इसी प्रकार बिमल जालान ICICI के बोर्ड मेंबर थे जिन्हें सरकार में लैटरल एंट्री मिली और वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर बने।
- रिज़र्व बैंक के वर्तमान गवर्नर उर्जित पटेल भी लैटरल एंट्री से इस पद पर आए हैं।
- पूर्व में इंदिरा गांधी ने मंतोश सोंधी की भारी उद्योग में उच्च पद पर बहाली की थी। इसे पहले वह अशोक लेलैंड और बोकारो स्टील प्लांट में सेवा दे चुके थे तथा उन्होंने ही चेन्नई में हैवी व्हीकल फैक्ट्री की स्थापना की थी।
- NTPC के संस्थापक चेयरमैन डी.वी. कपूर ऊर्जा मंत्रालय में सचिव बने थे।
- BSES के CMD आर.वी. शाही भी 2002-07 तक ऊर्जा सचिव रहे।
- लाल बहादुर शास्त्री ने डॉ. वर्गीज़ कुरियन को NDBB का चेयरमैन नियुक्त किया था, जो तब खेड़ा डिस्ट्रिक्ट कोआपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर यूनियन के संस्थापक थे।
- हिंदुस्तान लीवर के चेयरमैन प्रकाश टंडन को स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन का प्रमुख बनाया गया था।
- केरल स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के चेयरमैन के.पी.पी. नांबियार को राजीव गांधी ने इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग की ज़िम्मेवारी सौंपी थी।
- इसी प्रकार उन्होंने सैम पित्रौदा को भी कई अहम ज़िम्मेदारियाँ सौंपी थी।
वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव तथा योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अलावा शंकर आचार्य, राकेश मोहन, अरविंद विरमानी और अशोक देसाई ने भी लैटरल एंट्री के माध्यम से सरकार में जगह बनाई। जगदीश भगवती, विजय जोशी और टी.एन. श्रीनिवासन ने भी इसी प्रकार सरकार को अपनी सेवाएँ दी। इनके अलावा योगिंदर अलग, विजय केलकर, नीतिन देसाई, सुखमॉय चक्रवर्ती जैसे न जाने कितने नाम हैं, जिन्हें लैटरल एंट्री के ज़रिये सरकार में उच्च पदों पर काम करने का मौका मिला।
- राज्य स्तर पर देखें तो शशांक शेखर सिंह इसका सबसे बड़ा उदाहरण रहे हैं, जो 2007 से 2012 के बीच उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के समय राज्य के कैबिनेट सचिव थे और IAS अधिकारी होने के बजाय एक पायलट थे।
निष्कर्ष: सरकार का तर्क है कि लैटरल एंट्री के तहत उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कोई पहली बार नहीं की जा रही हैं, बल्कि इस प्रकार की नियुक्तियाँ पूर्व में भी की जाती रही हैं, अंतर केवल इतना है कि इस बार इन नियुक्तियों के लिये आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। दूसरी ओर इस प्रकार की नियुक्तियों का विरोध करने वालों का कहना है कि इससे UPSC एक असहाय संस्था बनकर रह जाएगी और आरक्षण व्यवस्था को भी नुकसान पहुँचेगा।
देखा यह गया है कि जब भी ब्यूरोक्रेसी में सुधार की चर्चा होती है, तो इसका विरोध होने लगता है; लेकिन अब सरकार ने इस राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। सरकार का कहना है कि ऐसा करने से विकास की नई अवधारणा से ब्यूरोक्रेसी खुद को सीधे तौर पर जोड़ सकेगी।
इसी प्रकार कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सरकार ब्यूरोक्रेसी में सुधार करके काम करने की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहती है, तो इसका विरोध नहीं होना चाहिये। निजी क्षेत्र से संयुक्त सचिवों की सीधी भर्ती ऐसा ही एक कदम है, क्योंकि निजी क्षेत्र में दक्षता और पारदर्शिता की मदद से ही कोई कामयाब हो सकता है, जबकि सरकारी तंत्र के लिये ऐसा होना आवश्यक नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्यूरोक्रेसी में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करने से पहले इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की भी आवश्यकता है।
इसलिये आगे बढ़ने से पहले यही उचित होगा कि देश की ज़रूरतों के मद्देनज़र UPSC के माध्यम से नियुक्तियों की संख्या बढ़ाई जाए। सिविल सेवाओं के लिये चयन का अधिकार संविधान के तहत केवल UPSC को दिया गया है, इसलिये इससे बाहर जाकर नियुक्तियाँ करना लोकतांत्रिक मूल्यों पर तो आघात होगा ही, साथ ही इस परीक्षा से जुड़ी मेरिट आधारित, राजनीतिक रूप से तटस्थ सिविल सेवा के उद्देश्य को भी क्षति पहुँचेगी। ऐसे में लैटरल एंट्री को लेकर उठ रहीं तमाम आशंकाओं को दूर करने का प्रयास सरकार को करना चाहिये।