राज्यसभा
सरोकार: इंसाफ की घड़ी (Justice Clock)
- 04 Apr 2018
- 30 min read
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
"तारीख पे तारीख! तारीख पे तारीख!! तारीख पे तारीख!!!"...हिंदी फिल्मों के सर्वकालिक प्रसिद्ध संवादों में से एक है फिल्म 'दामिनी' का यह संवाद; और यह भारत की न्याय व्यवस्था का सच बताने के लिये पर्याप्त है।
भारतीय न्याय व्यवस्था भारत में संविधान निर्माताओं ने शासन के तीनों अंगों--विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक समान शक्तियाँ दी हैं। एक समान शक्तियाँ प्राप्त होने के बावज़ूद न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय) को ही संविधान का संरक्षक कहा गया है। (टीम दृष्टि इनपुट) |
‘इंसाफ की घड़ी’ (Justice Clock)
- भारत सरकार न्याय प्रकिया को बेहतर बनाने के लिये प्रयासरत है क्योंकि देश के सभी उच्च न्यायालयों में 2016 के अंत तक लगभग 7 लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे।
- भारत सरकार द्वारा 2016 में दिये गए आँकड़ों के अनुसार देश में 24 उच्च न्यायालयों एवं निचली अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
- इसके मद्देनज़र अदालती कामकाज में तेज़ी लाने के लिये सरकार देश के सभी 24 उच्च न्यायालयों में ‘इंसाफ की घड़ी’ (Justice Clock) लगाने की योजना पर काम कर रही है।
जस्टिस क्लॉक तैयार करने के तीन प्रमुख उद्देश्य
1. ज़िला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक को आपस में जोड़ना।
2. अदालतों में लंबित मामले और इनके निपटारे की रफ्तार पर लगातार नज़र रखना।
3. यह पता लगाना कि अदालतें किस गति से काम कर रही हैं।
क्या है जस्टिस क्लॉक?
- यह एक डिजिटल बोर्ड है, जिसमें ‘जस्टिस क्लॉक’ नाम का एक सॉफ्टवेयर लगा होगा, जिसे केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय ने तैयार करवाया है।
- यह देशभर के जिला न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों से जुड़ा एक इंटरनल सॉफ्टवेयर होगा और इसके ज़रिये सभी अदालतें इंटर-कनेक्ट होंगी।
- जस्टिस क्लॉक नामक यह सॉफ्टवेयर अदालती प्रक्रिया में तेज़ी और जल्द फैसला देने में सहायक होगा।
- मामलों की संख्या अधिक होने से न्याय प्रकिया में विलंब होता है और मामलों में तेजी लाने तथा जल्द फैसला करने के लिये जस्टिस क्लॉक की मदद ली जा रही है।
- सभी राज्यों अपने ज़िला न्यायालयों उच्च न्यायालय का सारा डेटा इस सॉफ्टवेयर को उपलब्ध कराने को कहा गया है ।
- जस्टिस क्लॉक पर सभी अदालतों की जानकारी उपलब्ध होगी--किस कोर्ट में कितने मामले अभी लंबित हैं...कितने समय से लंबित हैं...किस मामले में कितना समय लगा...कितनी तारीखें लगीं...मामले में देरी हुई तो क्यों हुई?
- इस पूरे डेटा की निगरानी केंद्रीय कानून मंत्रालय करेगा और कुछ भी गलत होने पर उसमें हस्तक्षेप कर संबंधित कोर्ट से उसका जवाब मांगा जाएगा।
- सारा डेटा कानून मंत्रालय के पास होने से मामलों के आधार पर कोर्ट और जज की रैंकिंग तय की जाएगी।
- जिस कोर्ट ने केस निपटाने में देरी की, उस कोर्ट और वहाँ के जज की रैंकिंग बिगड़ेगी तथा जिस कोर्ट में कम मामले पेंडिंग होंगे, उसे अच्छी रैंकिंग मिलेगी।
- इस रैंकिंग के आधार पर केंद्र और राज्य सरकार तय करेगी कि किस जगह पर मुकदमों के निपटारे की रफ्तार धीमी है।
- जस्टिस क्लॉक को रोज़ अपडेट किया जाएगा। देश के किसी भी राज्य की किसी भी कोर्ट के किसी भी जज का नाम और केस नंबर डालते ही उस केस से जुड़ा सारा रिकॉर्ड सामने आ जाएगा।
- इसमें यह भी जानकारी मौजूद होगी कि किसी मामले में कितनी बार तारीख दी गई और हर बार अगली तारीख देने के पीछे क्या कारण रहा।
तारीख-पे-तारीख!!!
(टीम दृष्टि इनपुट) |
विधि आयोग की रिपोर्टों में न्यायिक सुधारों का उल्लेख
अमेरिकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था, "न्यायपालिका राज्य का सबसे कमज़ोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन होता है और न ही हथियार। धन के लिये न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना होता है और अपने दिये गए फैसलों को लागू कराने के लिये उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है।" (टीम दृष्टि इनपुट) |
विधि आयोग की 245वीं रिपोर्ट
- इस रिपोर्ट में लगभग 30 साल पहले 1987 में विधि आयोग ने तत्कालीन समय में लंबित मुकदमों के निपटारे के लिये 44 हज़ार जजों की ज़रूरत बताई थी।
- आज भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 17 न्यायाधीश हैं जबकि विधि आयोग ने 30 साल पहले इस अनुपात को बढ़ाकर प्रति 10 लाख लोगों पर 50 न्यायाधीश करने की सिफारिश की थी।
- विधि आयोग ने 'एरियर व बैकलॉग-न्यायिक मानव संसाधन की आवश्यकता' विषय पर 245वीं रिपोर्ट 7 जुलाई, 2014 को केंद्र सरकार को सौंपी थी। आयोग ने इस रिपोर्ट में स्पीडी ट्रायल व न्याय के लिये मौजूदा जजों की संख्या दुगुनी करने की सिफारिश की थी। देश में आज भी मात्र 18 हज़ार जज काम कर रहे हैं, जबकि जनसंख्या के अनुसार कम-से-कम 70 हज़ार जजों की आवश्यकता है।
Justice Delayed is Justice Denied Justice Delayed is Justice Denied को मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि शीघ्र न्याय प्रदान करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है, विशेषकर आपराधिक मामलों में तो और भी जल्दी। संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 तथा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इनकार करने के लिये धन या संसाधनों का अभाव कोई स्पष्टीकरण नहीं है। यह समय की मांग है कि भारतीय संघ और विभिन्न राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और न्याय प्रदान करने के तंत्र को मज़बूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें। (टीम दृष्टि इनपुट) |
क्या किया जा सकता है?
- सुनवाई की तारीखों का अधिकतम अंतराल तय होना चाहिये। जब तक अपरिहार्य न हो वकीलों को अगली सुनवाई की तारीख नहीं मांगनी चाहिये।
- अदालतों में मुकदमों के लंबित रहने की एक वज़ह निचली अदालतों की कार्य संस्कृति भी है। वकील बगैर किसी ठोस आधार पर अदालत में तारीख आगे बढ़ाने की अर्जी दाखिल कर देते हैं और वह आसानी से मंज़ूर भी हो जाती है।
- अगर कोई मुकदमा नियत समय में फैसले तक नहीं पहुँचता है तो उसे त्वरित सुनवाई की प्रक्रिया में शामिल करने की मुकम्मल व्यवस्था होनी चाहिये।
- न्याय प्रणाली के गुणात्मक पक्ष का भी ध्यान रखा जाना चाहिये। न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाकर तथा उनकी जवाबदेही तय करके ही न्याय के गुणात्मक पक्ष को साधा जा सकता है।
- न्याय-व्यवस्था में सुधार की कार्रवाई नीचे से शुरू की जाए। फौजदारी, दीवानी और आर्थिक अपराधों के लिये अलग-अलग अदालतें गठित की जानी चाहिये।
- जिन राज्यों में मुकदमों का बोझ अधिक है वहाँ पर विशेष अदालतों का गठन किया जाना चाहिये।
- पारदर्शिता और सूचना प्रवाह में सुधार के लिये सूचना और प्रौद्योगिकी के साधनों तथा आधुनिक वाद-प्रबंधन प्रणाली का उपयोग किया जाना चाहिये।
- वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली को मज़बूत किया जाना चाहिये और लोगों को इसके बारे में अवगत कराया जाना चाहिये।
- प्रभावी कार्यवाही और जाँच प्रणाली में सुधार के लिये पुलिस प्रशासन को अधिक संसाधन प्रदान करने की आवश्यकता है।
- लंबे समय से अदालतों में चल रहे मुकदमों का समयबद्ध तरीके से निस्तारण होना चाहिये। यहाँ सिंगापुर का उदाहरण लिया जा सकता है जहाँ न्यायालय में लगने वाले दिनों के हिसाब से वादी या प्रतिवादी से ‘टैक्स’ लिया जाता है जिससे कम दिनों में ही मुकदमा निपट सके।
- ग्राम न्यायालयों की स्थापना का कार्य तीव्रता से संपन्न किया जाना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सामाजिक, आर्थिक अथवा अन्य असमर्थताओं के कारण कोई भी नागरिक न्याय के अवसरों से वंचित हो।
- देश में आबादी के लिहाज़ से जजों की संख्या बहुत कम है, विकसित देशों की तुलना में कई गुना कम। जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश विधि आयोग भी कर चुका है, लेकिन उन सिफारिशों पर अमल नहीं हुआ।
- न्यायालयों का रख-रखाव, उनके संसाधन, वादी-प्रतिवादियों को न्यायालय परिसर में वांछित सुविधाएं और अधिवक्ताओं पर नियंत्रण आदि जैसी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिये प्रत्येक ज़िले में एक अभिकरण होना चाहिये। इससे अदालतों की दक्षता पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
- विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट कहा गया था कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। अमेरिका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि इसकी तुलना में भारत में इतने ही लोगों पर सिर्फ 10 न्यायाधीश हैं।
- जजों की सेवानिवृत्ति की आयु भी बढ़ानी चाहिये, इससे मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी। इज़राइल, कनाडा, न्यूज़ीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 वर्ष के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिये कोई आयु सीमा तय नहीं है। भारत में ही उच्च न्यायालयों के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 वर्ष तथा सर्वोच्च न्यायालय में 65 वर्ष है।
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ सर्वोत्तम प्रथाओं जैसे कि वादों का न्यायिक प्रबंधन, मुकदमे की तैयारी, सेटलमेंट कांफ्रेंस, कुछ निश्चित चीजें फाइल करने हेतु वकीलों के लिये समय-सीमा तय करना इत्यादि का विकास किया गया है। यह विलंब कम करने में बहुत प्रभावी सिद्ध हुए हैं।
राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की रिपोर्ट (टीम दृष्टि इनपुट) |
न्यायिक सुधारों की आवश्यकता
- देश के नागरिकों के लिये 'न्याय' सुरक्षित करने से संबंधित अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता को सही मायनों में पूरा करने के लिये न्यायिक सुधार समय की मांग है।
- न्यायिक सुधार का एक महत्त्वपूर्ण पहलू अदालत की कार्यप्रणाली और न्यायिक प्रक्रियाओं को पुनः संरचित करना है ताकि मामलों का शीघ्र निपटारा किया जा सके।
- केस प्रबंधन प्रणाली के तहत मुकदमेबाजी के प्रत्येक चरण के लिये समय-सीमा का निर्धारण, आवश्यक आईटी समर्थन तथा मामलों के भार की निगरानी के साथ उपयुक्त तरीके से प्रशिक्षित जजों के माध्यम से वैकल्पिक विवाद निपटारा प्रणाली को अपनाने के लिये बढ़ावा देना होगा।
- वादियों को भी जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये और बार-बार स्थगन आदि मांगने जैसी टालमटोल की रणनीतियों को अपनाने वाले या आधारहीन मामले दायर करने वाले पक्षों से लागत वसूल की जानी चाहिये।
- प्रणालीगत परिवर्तनों के माध्यम से न्याय प्रणाली में सुधार किया जाना बेहद ज़रूरी है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा कनाडा में लगभग 70 प्रतिशत सिविल मामले ट्रायल शुरु होने से पहले निपट जाते हैं, क्योंकि दोनों पक्ष परिणाम आने में लगने वाले संभावित समय-सीमा के बारे में जानते हैं।
- हमारे प्रक्रियात्मक कानूनों की गुणवत्ता; जटिल वाणिज्यिक विवादों को निपटाने व विशेषज्ञता में कमी; जनहित याचिका का दुरुपयोग तथा विशेष अनुमति याचिकाओं की प्रणाली जिसके कारण अनेक छोटी-छोटी बातों से संबंधित मामले उच्च न्यायपालिका में उठते रहते हैं, जबकि इन को राज्य स्तरीय न्याय प्रणाली में विभिन्न स्तरों पर निपटाया जा सकता है।
- पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने तथा इसके माध्यम से प्रगति व विकास को प्रेरित करने के लिये स्पष्ट कानूनी ढाँचे पर आधारित निष्पक्ष, पारदर्शी व कार्यकुशल विवाद समाधान प्रणाली प्रदान करना भी महत्वपूर्ण है। निवेशक चाहते हैं कि निर्णय उचित समय में लिये जाएँ।
न्याय की भाषा भारतीय हो
(टीम दृष्टि इनपुट) |
न्याय वितरण प्रणाली के लिये नीति आयोग की सिफारिशें
पिछले वर्ष नीति आयोग ने न्याय वितरण प्रणाली में तेज़ी लाने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण दूरगामी सुधारों का सुझाव दिया था। ये सुझाव विशेष रूप से निचली अदालतों के संदर्भ में दिये गए थे, जहाँ पिछले कई वर्षों से लगभग तीन करोड़ मामले लंबित पड़े हैं।
- उच्च अदालतों एवं उनके मुख्य न्यायाधीशों द्वारा न्यायिक प्रक्रियाओं में होने वाली देरी को कम करने के लिये ज़िला अदालतों और अधीनस्थ स्तर के न्यायिक निकायों के प्रदर्शन तथा उनकी प्रक्रिया पर नज़र रखने हेतु न्यायिक प्रदर्शन सूचकांक बनाया जाना चाहिये।
- इस सूचकांक के अंतर्गत कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाओं को भी शामिल किया जा सकता है, जिन्हें पहले से ही उच्च न्यायालयों द्वारा अनुमोदित किया जा चुका है। जैसे कि दिन-प्रतिदिन के न्यायिक कार्यों का भार जजों के ऊपर से हटाकर उन्हें प्रशासनिक अधिकारियों को सौंपा जाए। इससे जजों को अधिक-से-अधिक मामलों की सुनवाई करने का समय मिलेगा तथा कुछ हद तक इस समस्या का समाधान भी हो सकेगा।
- न्यायाधीशों का कार्यभार कम करने के लिये न्यायिक प्रणाली में अलग से एक प्रशासनिक कैडर बनाए जाने की आवश्यकता है। न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिये इस संवर्ग द्वारा प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपनी रिपोर्ट देनी चाहिये।
- इस संबंध में स्वचालन, इलेक्ट्रॉनिक अदालतों की सक्षमता मामलों के प्रबंधन, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी, अदालती समय-सारिणी के इलेक्ट्रॉनिक प्रबंधन और सभी अदालतों का एकीकृत राष्ट्रीय न्यायालय में स्थानांतरण जैसी अतिरिक्त अदालती प्रक्रियाओं को भी उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- इस संबंध में न्यायिक जनशक्ति और बुनियादी ढाँचे की पर्याप्तता का निर्धारण करने के लिये न्यायिक आँकड़ों को ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाना चाहिये।
- अधिक प्रभावी कार्यवाही करने के लिये भारत सरकार को विश्व के अन्य देशों द्वारा अपनाई गई प्रक्रियाओं एवं प्रणालियों के विषय में भी अध्ययन करना चाहिये।
निष्कर्ष: समय पर न्याय पाना व्यक्ति का अधिकार है, इसलिये न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता है। भारत में न्यायिक सुधार की बातें सिर्फ बहसों तक सीमित रह गई हैं, जबकि इस दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से काम करने की ज़रूरत है। हालाँकि, न्यायिक सुधार की जिम्मेदारी केवल न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं और सरकारों पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि आम जनता को भी इस दिशा में सोचने की ज़रूरत है।
अदालतों में लंबित मुकदमों की सुनवाई मात्र ही इस समस्या का समाधान नहीं है। पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों में संशोधन, अदालतों को अत्याधुनिक तकनीकी से लैस करने और सुरक्षित न्यायिक परिसर बनाने पर भी गौर करना होगा। न्यायपालिका में व्याप्त खामियों की वज़ह से भी कई समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। न्यायपालिका को Holy Cow नहीं मानना चाहिये।
ज़रूरत है कि न्याय को सुलभ, सस्ता और न्यायिक प्रक्रिया को जनोन्मुखी बनाने के लिये कानूनों के साथ-साथ न्यायपालिका में संगठनात्मक, प्रक्रियात्मक, प्रशासनिक तथा सांस्कृतिक बदलाव किया जाए जिससे जनता को अदालतों में होने वाली कठिनाइयों और परेशानियों से बचाया जा सके।