क्या भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के पथ पर अग्रसर है? | 08 Jun 2018
संदर्भ
हाल ही में केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (CSO) द्वारा पिछले वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही के विकास के आँकड़े जारी किये गए थे। केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (CSO) के अनुसार, जनवरी से मार्च 2018 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.7 फीसदी रही। इन आँकड़ों से भविष्य में विकास दर और तेज़ होने का अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरी ओर मूडीज जैसी एजेंसी ने कच्चे तेल की कीमतों में हो रही वृद्धि के चलते 2018-19 में भारत की विकास दर का अनुमान 7.5 से घटाकर 7.3 प्रतिशत कर दिया। वहीँ विश्व बैंक का मानना है कि भविष्य में भी भारत तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में शामिल रहेगा क्योंकि इसमें सतत् विकास की क्षमता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था वास्तव में विकास के पथ पर अग्रसर है?
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए इस वाद-प्रतिवाद-संवाद में हम भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के बारे में चर्चा करेंगे।
वाद
- भारतीय अर्थव्यवस्था ने घरेलू विकास आवेगों द्वारा बड़े पैमाने पर संचालित एक मजबूत V-आकार का प्रतिलाभ दर्शाया है।
- यदि 2015-16 की चौथी तिमाही के बाद से लगातार नौ तिमाहियों पर विचार किया जाए तो 2017-18 की पहली तिमाही तक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 9% से घटकर 5.6% पर आ गई थी।
- सभी को ज्ञात है कि ऐसा विमुद्रीकरण (Demonetisation) तथा वस्तु एवं सेवा कर लागू करने के प्रतिकूल प्रभावों के कारण हुआ था।
- अंततः GDP विकास दर में हो रही लगातार गिरावट पर विराम लगा और 2017-18 की पिछली तीन तिमाहियों दूसरी, तीसरी और चौथी में विकास दर में क्रमशः 6.3%, 7.0% और 7.7% की वृद्धि दर्ज़ की गई।
- यह तेज़ प्रतिलाभ पूरी तरह से घरेलू कारकों पर आधारित है क्योंकि 2016-17 की तीसरी तिमाही के बाद सकल घरेलू उत्पाद में शुद्ध निर्यात वृद्धि का योगदान शून्य या नकारात्मक रहा है।
- माँग पक्ष से, दो खंडो सरकारी खपत और समग्र निवेश माँग ने 2017-18 की चौथी तिमाही में इस विकास को समर्थन दिया।
- 2017-18 की चौथी तिमाही में सकल नियत पूंजी निर्माण ने 14.4% तक की वृद्धि की थी।
- 2017-18 की चौथी तिमाही में वास्तविक निवेश दर भी 34.6% हो गई है, हालाँकि इसके विपरीत इस अवधि के दौरान निवेश की सांकेतिक दर 31% से नीचे रही।
उत्पादकता पर फोकस
- विमुद्रीकरण और GST सहित सरकार की कई नीतिगत पहलों ने स्पष्ट उत्पादकता-प्रदर्शन को बढ़ावा देने पर जोर दिया है।
- नई मौद्रिक नीति फ्रेमवर्क समझौते में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) आधारित मुद्रास्फीति को औसतन 4% तक बनाए रखने का लक्ष्य शामिल किया गया है।
- प्रमुख नीतिगत पहलों (मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया) का उद्देश्य उत्पादकता में सुधार करना है।
- दो शुरुआती नीतिगत सफलताएँ खनिज और स्पेक्ट्रम की कीमतों के बाज़ार निर्धारण से संबंधित हैं।
- इसके अलावा उज्ज्वल डिस्कॉम एस्योरेंस योजना (UDAY) से उर्जा क्षेत्र को फायदा हुआ।
- रियल एस्टेट और बैंकिंग के लिये, नियामक ढाँचे को बदल दिया गया था।
- रेल/सड़क परियोजनाओं के विस्तार को प्राथमिकता देने के साथ ही सब्सिडी के बेहतर नियोजन के माध्यम से अतिरिक्त राजकोषीय विस्तार का निर्माण किया गया।
- दो कारक उच्च वृद्धि के निरंतर स्तर को बनाए रखने के लिये भारत की संभावनाओं पर अल्पकालिक अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं। वे कारक हैं:
- वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें।
- राजकोषीय गिरावट की संभावनाओं में वृद्धि।
तेल की बढ़ती कीमतें
- वर्ष 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें हाल ही में 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गईं। इसका कारण ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और वेनेजुएला में उत्पन्न संकट है।
- यदि माँग पक्ष पर विचार किया जाए तो विश्व बैंक के अनुसार, 2017 में वैश्विक रूप से तेल की खपत में वृद्धि हुई है, जो साल दर साल 1.6% की दर से बढ़ी है। 2018 में अमेरिकी उपभोग और अधिक वृद्धि होने की उम्मीद है।
- कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें व्यापार और चालू खाता घाटा, मुद्रास्फीति, विनिमय दर और राजकोषीय घाटे सहित भारत के अधिकांशतः स्थूल संकेतकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं।
- अप्रैल 2018 में पेट्रोल और डीज़ल की बढ़ती कीमतों के चलते CPI आधारित मुद्रास्फीति 4.6% हो गई।
मुद्रास्फीति का प्रभाव
- मुद्रास्फीति पर लगातार दबाव रिज़र्व बैंक को चालू वित्त वर्ष के दौरान रेपो दर में वृद्धि करने के लिये प्रेरित कर सकता है।
- वित्तीय वर्ष 2014-15 के बाद से स्थिर सुधार दिखाने के बाद वर्ष 2017-18 में केंद्र के राजकोषीय घाटे तथा GDP का अनुपात सकल घरेलू उत्पाद के 3.5% से अधिक निचले स्तर पर आ गया, जो राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) के लक्ष्य से 3% और बजटीय लक्ष्य से 3.2% अधिक है।
राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) क्या है?
- देश की राजकोषीय व्यवस्था में अनुशासन लाने के लिये तथा सरकारी खर्च तथा घाटे जैसे कारकों पर नज़र रखने के लिये राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) कानून को वर्ष 2003 में तैयार किया गया था तथा जुलाई 2004 में इसे प्रभाव में लाया गया था।
- यह सार्वजनिक कोषों तथा अन्य प्रमुख आर्थिक कारकों पर नज़र रखते हुए बजट प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- FRBM के माध्यम से देश के राजकोषीय घाटों को नियंत्रण में लाने की कोशिश की गई थी, जिसमें वर्ष 1997-98 के बाद भारी वृद्धि हुई थी।
इस वित्तीय वर्ष के अंत में संभावित चुनाव का प्रभाव
वित्तीय वर्ष के अंत में संभावित आम चुनाव के कारण इस तथ्य के बावजूद इस स्थिति में सुधार नहीं हो सकता है कि FRBM अधिनियम में संशोधन किया गया है, पॉलिसी एंकर को ऋण-जीडीपी अनुपात 40% हासिल करने के लिये स्थानांतरित किया गया है जबकि राजकोषीय घाटे का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद का 3% रखा गया है। यह लक्ष्य अब मार्च 2021 तक प्राप्त किया जा सकता है।
प्रतिवाद
- केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद विकास के अनुमान से पता चलता है कि 2011-12 की कीमतों के आधार पर 2017-18 में अर्थव्यवस्था में 6.7% का विकास हुआ।
- संयोग से सरकार के चार वर्षों के शासन में यह सबसे कम वृद्धि दर है।
- इस सरकार के शासन में आने के बाद 2015-16 में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 8.2% के उच्चतम स्तर से तेज़ी से बढ़ी।
- लेकिन इन अनुमानों को त्रैमासिक आंकड़ों (जो दर्शाते हैं कि GDP में वृद्धि 2017-18 की पहली तिमाही में 5.6 प्रतिशत के निम्न स्तर से बढ़कर चौथी तिमाही में 7.7% हो गई थी) के आधार पर अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान के संकेत के रूप में भी माना गया है।
- जबकि यह इस बात का भी संकेत हो सकता है कि अर्थव्यवस्था केवल उस निम्न स्तर से ऊपर उठी है जिस निम्न स्तर तक यह पहुँच गई थी ।
- ऐसा प्रतीत होता है कि यह विकास दर सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा, निर्माण और कृषि की वृद्धि दर में प्रतिलाभ के कारण उत्पन्न हुई है।
- हालाँकि निर्माण क्षेत्र में एक वास्तविक प्रतिलाभ प्रतीत होता है जो अब से कुछ समय पहले पिछड़ रहा था, चौथी तिमाही में सार्वजनिक प्रशासन और रक्षा क्षेत्र में 13.3% की वृद्धि तीसरी तिमाही में हुई विकास दर से लगभग दोगुनी है।
- यह पैटर्न 2016-17 के समान है और सरकारी व्यय के बदलते स्वरूप को प्रतिबिंबित कर सकता है।
- कृषि क्षेत्र में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन की वजह से समग्र विकास दर भी बेहतर प्रतीत होती है।
ग्रामीण संकट
- कृषि क्षेत्र में व्यक्तिगत सकल घरेलू उत्पाद में 4.91% की नाममात्र वृद्धि 2012-13 के बाद से चौथी तिमाही के दौरान होने वाली सबसे कम वृद्धि है।
- यह दो सूखा ग्रस्त सालों (2014 और 2015) के दौरान प्राप्त चौथी तिमाही में प्रति व्यक्ति GDP की वृद्धि से भी कम है।
- इन सब का आशय यह है कि कृषि में 0.42% GDP अपस्फीतिकारक भी कृषि-संबंधी की कीमतों में गिरावट की पुष्टि करता है।
- लेकिन यहाँ भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्या निहित है। यह एक ऐसे समय से गुजर रही है जब घरेलू माँग विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में कम हो गई है। माँग में गिरावट सिर्फ GDP अपस्फीतिकारक से स्पष्ट नहीं होती है बल्कि ग्रामीण मज़दूरी के आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि की गई है।
- वस्तुओं की कीमतों में गिरावट के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों का व्याकुल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
- कृषि के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण कई राज्यों में हड़ताल का होना संकट के स्तर का स्पष्ट आभास है। लेकिन यह आर्थिक विकास की नाजुकता का स्पष्ट प्रमाण भी है।
- लेकिन वास्तविक संदर्भ में, चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि दर कृषि और लोक प्रशासन को छोड़कर सभी क्षेत्रों में गिरावट को दर्शाती है जो तीसरी तिमाही की 7.4% की तुलना में 7.2% हो गई है।
- ग्रामीण माँग में कमी आने के साथ ही निर्यात आधारित GDP अनुपात भी घट गया है जो एक दशक में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया है।
- निजी निवेश और उपभोक्ता माँग के साथ एकमात्र चीज जो सुस्त, अर्थव्यवस्था के लिये काम कर रही है वह है कम मुद्रास्फीति।
- अतः आर्थिक विकास के पुनरुत्थान का जश्न मनाना निश्चित रूप से जल्दबाजी होगी।
संवाद
- अक्टूबर-दिसंबर तिमाही के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.2% की वृद्धि ने देश को विश्व स्तर पर सबसे ज़्यादा विकास करने वाले वर्ग में रखा है।
- विश्व बैंक के अनुसार, भारत की यह विकास दर आगे भी जारी रहेगी।
- यह काफी अच्छी तरह से ज्ञात है कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के लिये CSO द्वारा त्रैमासिक आकलन हमेशा अनुमानों पर आधारित होते हैं, इसलिये उन्हें विश्वसनीय नहीं माना जाता है। लेकिन यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि एक बेहद अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में, जहाँ अनियंत्रित अर्थव्यवस्था का हिस्सा बहुत अधिक ज्ञात नहीं है, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के सभी आकलन, विशेष रूप से अनुमान प्रकाशित करने की आवश्यकता है।
- हमें स्वयं को यह भी याद दिलाना चाहिये कि वित्तीय वर्ष समाप्त होने के बाद भी, और CSO ने जिस वर्ष के GDP अनुमान की घोषणा की है उसके समाप्त होने की बाद भी इसमें आगे संशोधन किया जाता है। इस संदर्भ में वित्त मंत्रालय के दृढ़ अभिकथनों को पढ़ा जाना चाहिये।
आशावाद की तरफ से अभिव्यक्ति
क्या इस स्थिति में जब निवेश-जीडीपी अनुपात 10 वर्षों में अभी भी सबसे कम है, V-आकार का प्रतिलाभ संभव है? यह 2017-18 में अपने चरम पर (सकल घरेलू उत्पाद का 38%) था, 2013-14 में यह 31% तक नीचे आ गया और पिछले चार वर्षों के दौरान यह 29% से कम हो गया। इसके अलावा उद्योग में क्षमता का उपयोग केवल 70% रहा है।
अधिक आशावादी दृष्टिकोण
- रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने कुछ समय पहले कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि निवेश-GDP अनुपात में सुधार होगा और यह भी अनुमान जताया था कि मौजूदा क्षमता उपयोग एक निश्चित स्तर तक पहुँच पाएगा।
- अपने बयानों की अनिश्चितता को देखते हुए उन्होंने यह भी कहा कि एक V-आकर का प्रतिलाभ निकट भविष्य में होगा, जो की अति आशावादी प्रतीत होता है। वास्तव में बाहरी वातावरण बिल्कुल भी उत्साहजनक नहीं है।
वैश्विक विकास की गति
- 2017 तक वैश्विक विकास धीमा रहा, जबकि अमेरिका, यूरोप, चीन और जापान में सुधार हुआ।
- 2013-14 में निर्यात मूल्य 315 अरब डॉलर के मूल्य से नीचे के स्तर पर आ गया था, 2016-17 में यह 275 अरब डॉलर था और हाल ही में 2017-18 में यह 303 अरब डॉलर हो गया है। पिछले कई सालों से वे इस स्तर से काफी नीचे थे।
- व्यापार निर्यात के लिये सकल घरेलू उत्पाद जो वैश्विक आर्थिक संकट से ठीक पहले 16% (जो उच्चतम था) से, 2017-18 में कम होकर सकल घरेलू उत्पाद का 11.7% ( जो कि 2003-04 के बाद से सबसे कम है) तक हो गया है।
नकारात्मक पहलू जिसका भारत पर व्यापक असर पड़ेगा
♦ तेल की कीमतें कम से कम चार वर्षों तक कम रहने के बाद फिर से बढ़ने लगी हैं।
♦ यू.एस.-चीन व्यापार युद्ध के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का माहौल खतरों से भरा हुआ है।
♦ अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने लगी हैं और आगे भी बढ़ती रहेंगी जो भारत सहित सभी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिये अधिक फंड प्रवाह की संभावना को कम करेगी।
- एक V-आकार का प्रतिलाभ न केवल निर्यात वृद्धि पर बल्कि निजी निवेश को चुनने पर भी निर्भर करता है।
- लेकिन ट्विन बैलेंस शीट समस्या इसके समाधान से किसी प्रकार संबंधित नहीं है। इन परिस्थितियों में सार्वजनिक निवेश महत्त्वपूर्ण है।
- सार्वजनिक निवेश का संचालन मुख्य रूप से राज्य सरकारों द्वारा किया गया है।
- आंशिक रूप से बढ़ते कृषि ऋण छूट के कारण वित्तीय समेकन को केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकार के साथ समन्वित किया गया है।
- इस प्रकार वर्तमान में लगभग 7% संयुक्त राजकोषीय घाटे के कारण यह संभव है कि राज्य सरकारें अपने सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर उत्साहहीन निजी निवेश को समन्वित कर सकती हैं।
- हाल के दिनों में राजस्व के संबंध में सबसे अच्छी खबर यह है कि GST के तहत करदाताओं की संख्या में 53% की वृद्धि हुई है और कर के दायरे में अधिक इकाइयों को लाने वाली अर्थव्यवस्था की औपचारिकता में वृद्धि हुई है।
- हालाँकि, वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण संघ और राज्य सरकारों पर राजकोषीय दबाव बढ़ रहा है।
- सरकारों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ गया है और चूँकि राजकोषीय घाटा चिंता का विषय बना हुआ है, इसलिये सरकार पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में कटौती करने के लिये विमुख होती है।
V-आकार का प्रतिलाभ या वसूली
V-आकार की वसूली एक आर्थिक स्थिति को दर्शाती है जहाँ बाज़ारों में एक गंभीर मंदी बाज़ारों में समान रूप से मजबूत सुधार के साथ मिलती है। V अलग-अलग आँकड़ों, जैसे बेरोज़गारी, खुदरा बिक्री, औद्योगिक उत्पादन, इक्विटी इंडेक्स या अन्य मैट्रिक्स के आकार के आधार पर एक चार्ट फॉर्म सामान्य आकार को दर्शाता है।
निष्कर्ष
- निहितार्थ यह है कि हाल के वर्षों में मुद्रास्फीति की दर कम रही है लेकिन अब इसके बढ़ने की संभावना है। किसी भी मामले में वित्तीय रेटिंग एजेंसियों के साथ विश्वसनीयता खोने के डर से राजकोषीय समेकन का मार्ग नहीं छोड़ा जा सकता है, भारत के लिये उच्च विकास दर प्राप्त करने के मार्ग में संभावनाएँ सीमित है।