अंतर्राष्ट्रीय संबंध
क्या भारत एक अच्छा पड़ोसी है ?
- 04 Aug 2017
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दरअसल, किसी भी देश की विदेश नीति का उस देश के इतिहास से गहरा संबंध होता है। भारत की विदेश नीति भी इतिहास और स्वतंत्रता आंदोलन से संबंध रखती है। ऐतिहासिक विरासत के रूप में भारत की विदेश नीति आज उन अनेक तत्त्वों को समाहित किये हुए है, जो कभी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से उपजे थे।
- पड़ोस में शांति हो, तो इन्सान चैन की नींद सोता है, लेकिन यह शांति तभी बनी रह सकती है, जब पड़ोसी के साथ-साथ हम भी शांति के पक्षधर हों। जब देश आज़ाद, हुआ तब सोवियत रूस और अमेरिका के बीच वर्चस्व की जंग जारी थी।
- शीत-युद्ध के उस दौर में सोवियत रूस के समाजवाद से प्रभावित होने के बावजूद पंडित नेहरु ने ‘गुट निरपेक्ष’ रहना पसंद किया। तब से लेकर आज तक भारत की विदेश नीति में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं।
- आज वाद-प्रतिवाद और संवाद में यह जानने का प्रयास करेंगे कि वास्तव में भारत कैसा पड़ोसी है ?
वाद
- सच कहें तो ऐसा कोई निश्चित मानदंड नहीं है, जिसके आधार पर किस देश के पड़ोसी संबंधों की सफलता या असफलता को निर्णित किया जाए।
- फिर भी यदि किसी देश ने स्वयं को संकटों से बचा रखा है तो माना जाता है कि उसकी पड़ोस व विदेश नीति दोनों पटरी पर हैं।
- एक तरफ भारत-पाकिस्तान संबंध लगातार ठंढे पड़े हुए हैं तो दूसरी तरफ भारत-चीन संबंध आज एक बड़ी राजनयिक चिंता बन गई है।
- जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है तो उसकी हालत ठीक उस पड़ोसी की तरह है, जो रोज़ शराब पीकर पड़ोस में हंगामा मचाता है, लेकिन चीन के साथ हमारे संबंध ख़राब हुए है तो इसके लिये कुछ हद तक हम भी ज़िम्मेदार हैं।
- कुछ अल्पकालिक उपायों को छोड़ दें तो भारत के पास चीन से निपटने के लिये कोई दीर्घकालिक योजना नहीं है।
- सोवियत रूस के विघटन और आर्थिक उदारीकरण के बाद धीरे-धीरे भारत और रूस एक-दूसरे से दूर होने लगे और आज चीन ने इसका जबर्दस्त फायदा उठाया है।
- भारत की विदेश नीति में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व व विश्व शांति की झलक मिलती है और इसके मूल में ‘शांति व्यवस्था’ कायम रखना शामिल रहा है। मोटे तौर पर कहें तो भारत की विदेश नीति के केंद्र में ‘सुरक्षा’ के बजाय ‘शांति’ रही है।
- लम्बे समय तक भारत की विदेश नीति शांति-उन्मुख रही है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से भारत ने शांति बनाए रखने के बजाय स्वयं को सुरक्षित रखने पर अधिक ज़ोर दिया है, उससे भारत कि एक उदार देश की छवि दरकने लगी है।
- दरअसल, भारत जिस तरह से विस्तारवादी नीतियों के साथ स्वयं को सहज महसूस कर रहा है, उससे “नेबर्स फर्स्ट” यानी ‘पड़ोसी संबंधों को सर्वोच्च प्राथमिकता’ की नीति भी विफल होती नज़र आ रही है।
- मसलन, किसी भी देश के लिये एक स्पष्ट और बहुआयामी विदेश नीति तैयार करने के लिये 70 साल काफी होते हैं, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि द्विपक्षीय से बहुपक्षीय होती इस दुनिया में हम ऐसा करने में विफल रहे हैं।
प्रतिवाद
- नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले तीन वर्षों में, पड़ोसी देशों से मज़बूत संबंध भारत की विदेश नीति की प्राथमिकता रही है। यदि शिक्षा की बात करें तो पड़ोसी देशों से बड़ी संख्या में लोग पढ़ने के लिये भारत आ रहे हैं।
- इंजीनियरिंग और मेडिकल के अलावा सांस्कृतिक विषयों जैसे: नृत्य, संगीत और साहित्य में विदेशी छात्रों की रुचि देखने लायक है। शिक्षा ही नहीं, बल्कि चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत के पड़ोसी उससे लाभान्वित हो रहे हैं।
- नेपाल और भारत की एक खुली सीमा है, जिससे व्यापार में सुगमता सुनिश्चित होती है, जबकि बांग्लादेश और भारत के मध्य व्यापार में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। हालाँकि, भारत में बांग्लादेशी निर्यात अब बढ़ा है और यह लगभग एक अरब डॉलर के करीब पहुँचने को है।
- भारत और इसके पड़ोसी देशों के संबंधों में समय-समय पर कड़वाहट भी देखी गई है, लेकिन अच्छे संबंध कायम रखने के समग्र उद्देश्य से पिछले कुछ वर्षों में कई महत्त्वपूर्ण पहलें भी हुई हैं और इनमें से अधिकांश पहलें गैर-पारस्परिक तरीके से की गई हैं।
- हमें पड़ोसी देशों के एक ऐसे संघ की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता होगी, जिसके आधार पर हमारी ताकतों में सहक्रिया लाई जा सके और चुनौतियों से मुकाबला किया जा सके।
- आज दुनिया में उन्नत हथियारों के निर्माण की होड़ सी मची हुई है। प्रत्येक देश अपने आप को सुरक्षित रखना चाहता है और हमें भी इस मोर्चे पर खुद को पिछड़ने से रोकना होगा। सवाल यह भी है कि पिछले 70 वर्षों में शांति के पथ पर चलते हुए हमने क्या पाया है?
- यदि पड़ोस में सुख-शांति बनी रहेगी, तभी हम स्वयं का भी विकास कर सकते हैं। अतः भारत को भी पहले अपने आस-पास के माहौल को बेहतर बनाने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। यही कारण है कि भारत नेबर फर्स्ट की नीति पर आगे बढ़ रहा है।
संवाद
- हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि हमारे पड़ोस में भौगोलिक सीमाएँ, औपनिवेशिक शासन के परिणाम हैं, जो भारत और चीन दोनों को ही विरासत में मिली हैं।
- हिमालय के दोनों ओर स्थित दोनों ही देश दक्षिण एशिया की दो बड़ी ताकतें हैं और दोनों ही दक्षिण एशिया के अन्य छोटे देशों को सहायता प्रदान कर अपने साथ जोड़ना चाहते हैं।
- दरअसल, चीन भारत को अलग-थलग करते हुए दक्षिण एशिया में एक नई क्षेत्रीय व्यवस्था का निर्माण करना चाहता है और इसके लिये वह पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में आक्रामक ढंग से निवेश करना चाहता है।
- ऐसे में भारत की पड़ोस नीति की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है। भारत को ‘नेबर फर्स्ट’ की अपनी नीति में उन तत्त्वों को समाहित करना चाहिये, जो चीन की नीतियों में मौज़ूद नहीं हैं।
- चीन आक्रामक विस्तारवादी नीतियाँ अपना रहा है, भारत को इसके उलट अपने सहयोगियों से सहिष्णुता से पेश आना चाहिये और भरोसा दिलाना चाहिये कि वह चीन को रोकने के लिये उनके साथ है।
- चीन की एक बड़ी ताकत यह है कि वह अपने पड़ोसी देशों में बड़े से बड़े निवेश से पीछे नहीं हटता, भारत को यहाँ भी चीन से सीखना चाहिये और पड़ोसी देशों की ज़रूरतों के साथ खड़ा रहना चाहिये, जैसा कि हमने अफगानिस्तान में किया है।
- दरअसल, समस्या यह भी है कि भारत कभी उदार नज़र आता है, तो कभी अत्यंत ही असंवेदनशील रुख अपनाता है।
- भारत और नेपाल की खुली सीमा भारत की उदारता का प्रतिक है, वहीं मधेशी आंदोलन के दौरान जब नेपाल में जन-जीवन अस्त-व्यस्त था तो कोई व्यावहारिक कदम न उठाना असंवेदनशीलता का परिचायक है।
- एनडीए सरकार ने अब तक एक मुखर विदेश नीति का पालन किया है, लेकिन महाद्वीपीय मानसिकता में भारी परिवर्तन हो रहा है और सामुद्रिक सीमा और क्षेत्र का महत्त्व पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। भारत को इन सभी बातों का ध्यान रखना होगा।
निष्कर्ष
- यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा कि भारत एक बेहतर पड़ोसी साबित नहीं हुआ है। रिश्ते की जटिलता और शत्रु की प्रकृति को देखते हुए भारत ने चीन के साथ अपने संबंधों को अच्छी तरह से निभाया है। वर्तमान डोकलम विवाद और वर्षों से चली आ रही सीमा समस्या को छोड़ दें तो भारत-चीन व्यापारिक संबंधों ने नई ऊँचाईयों को छुआ है।
- आर्थिक मोर्चे पर दोनों देशों को सकारात्मक रुख अपनाना चाहिये और शायद भारत और चीन दोनों को इस बात का एहसास भी है, तभी तो चीन, भारत का एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक सहयोगी देश है।
- इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत-चीन संबंधों में सुधार दोनों ही देशों के हित में हैं, लेकिन क्या यह सुधार भारत को अपनी सम्प्रभुता और सुरक्षा की कीमत चुकाकर करनी चाहिये! यह भी एक बड़ा सवाल है। मई 2014 के भारत में नेतृत्व परिवर्तन के साथ ही भारत ने चीन की तरफ गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया था, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीज़ा सामने नहीं आया।
- उसके बाद भारत ने चीन को उसी की भाषा में जवाब देने का फैसला किया है। इसके लिये नई दिल्ली ने समान सोच वाले देशों जैसे अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम से संबंधों को प्रगाढ़ किया है।
- भारत ने चीन के साथ लगने वाली समस्याग्रस्त सीमाओं पर अपनी सामरिक क्षमता में वृद्धि की है। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि भारत सरकार ने अपनी तिब्बत नीति में आमूलचूल परिवर्तन के संकेत दिये हैं।
- चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर ग्वादर बन्दगाह का विकास कर रहा और दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है, वहीं भारत सरकार ने चाबहर बंदरगाह को विकसित करने की तरफ कदम बढ़ाकर चीन के इस कदम का मुँहतोड़ जवाब दिया है।
- यह निहायत ही सत्य है कि 21वीं सदी में युद्ध अब सेनाओं द्वारा लड़ा जाने वाला नहीं है, बल्कि यह आर्थिक नीतियों एवं कुटनीतिक कदमों का युद्ध है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के सत्ता में आने से दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है।
- भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों के मद्देनज़र रूस ने चीन की तरफ हाथ बढ़ाया था, जिसका प्रभाव हमें चीन-रूस-पाकिस्तान के गठजोड़ के तौर पर देखने को मिला। लेकिन, अमेरिका चीन से दूर भाग रहा है। ऐसे में यह समीकरण भारत के लिये हितकारी हो सकता है, बशर्ते भारत फूँक- फूँक कर कदम बढ़ाए।
- अंततः यदि यह पूछा जाए कि ‘भारत कैसा पड़ोसी है’ तो जवाब यह होना चाहिये कि ‘भारत पहले उदार पड़ोसी था, लेकिन अब उदार होने के साथ-साथ सजग भी है।