इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

संसद टीवी संवाद


भारतीय अर्थव्यवस्था

देश-देशांतर : भारतीय अर्थव्यवस्था के संकेत और चुनौतियाँ

  • 25 Jan 2018
  • 23 min read

संदर्भ व पृष्ठभूमि 
भारत की अर्थव्यवस्था के विकास पर विश्वभर की प्रतिष्ठित एजेंसियों के अलावा दावोस, स्विट्जरलैंड में विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum-WEF) की वार्षिक शिखर बैठक के मौके पर अलग से जारी अपनी नवीनतम विश्व आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund-IMF) ने भी अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि 2018 में भी दुनियाभर में भारत सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बना रहेगा। 

तेज़ी से विकास कर रही है भारत की अर्थव्यवस्था 

  • आईएमएफ ने अपनी इस रिपोर्ट में भारत की विकास दर वित्त वर्ष 2017-18 में 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है।
  • उल्लेखनीय है कि भारत के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने इसके 6.5 प्रतिशत  रहने का अनुमान लगाया है।
  • रिपोर्ट में भारत की विकास दर 2018-19  में 7.4 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है।
  • आईएमएफ का भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर यह अनुमान विश्व बैंक द्वारा इस महीने की शुरुआत में लगाए गए अनुमान 7.3 प्रतिशत से भी अधिक है।
  • इस प्रकार भारत उभरती अर्थव्यवस्थाओं मे सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बना रहेगा। 
  • भारत के 2018 और 2019 के लिये विकास दर के अनुमान में अक्तूबर 2017 के अनुमान की तुलना में कोई बदलाव नहीं किया गया है।
  • आईएमएफ ने उस समय समान अवधि में चीन की वृद्धि दर क्रमश: 6.6 प्रतिशत और 6.4 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है, जबकि पिछले वर्ष चीन दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था थी और उसकी वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत रही थी।
  • आईएमएफ ने कहा कि उभरते बाज़ारों तथा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये 2018 और 2019 में कुल वृद्धि दर के अनुमान में कोई बदलाव नहीं किया है। 
  • रिपोर्ट के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ रही है और उसकी  वृद्धि दर 2018 और 2019 में 3.9 प्रतिशत रहेगी। 
  • रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक आर्थिक गतिविधियों की वृद्धि दर 3.7 प्रतिशत रहने का अनुमान है। यह पहले के अनुमानों से 0.1 प्रतिशत अधिक है और 2016 के प्रदर्शन से 0.5 प्रतिशत अधिक है।
  • चूँकि वैश्विक वृद्धि दर में व्यापक बढ़ोतरी देखने को मिल रही है, इसके मद्देनज़र   आईएमएफ ने 2018 और 2019 में वैश्विक वृद्धि दर के अनुमान को क्रमश: 0.2 प्रतिशत बढ़ाकर 3.9 प्रतिशत कर दिया है। 

विश्व बैंक की रिपोर्ट में भी भारत अव्वल
जब दुनिया की प्रमुख वित्तीय संस्थाएँ भारतीय अर्थव्यवस्था में अपना विश्वास प्रदर्शित कर रही हैं, उसी समय विश्व बैंक ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि 2018 में भारत विश्व में सबसे तेज़ विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगा। विश्व बैंक ने अपनी ‘ग्लोबल इकॉनमिक प्रॉस्पेक्ट्स रिपोर्ट’ में 2018-19 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.3 प्रतिशत होने का अनुमान जताया है। इन सभी वित्तीय संस्थाओं का मानना है कि विमुद्रीकरण और जीएसटी का विपरीत प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर अवश्य पड़ा था, लेकिन अब स्थिति धीरे-धीरे नियंत्रण में आने लगी है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स का भी यही है कहना 
हाल ही में डब्ल्यूईएफ ने अपनी पहली ‘रेडीनेस फॉर द फ्यूचर ऑफ प्रोडक्शन’ रिपोर्ट में वैश्विक विनिर्माण सूचकांक जारी किया था।

  • इस वैश्विक विनिर्माण सूचकांक (Global Manufacturing Index) में भारत को 30वाँ स्थान दिया गया। 
  • ब्रिक्स देशों में चीन (5वाँ स्थान) को छोड़कर ब्राज़ील (41), रूस (35) और दक्षिण अफ्रीका (45) की तुलना में भारत की रैंकिंग इस इंडेक्स में बेहतर रही। 
  • इसमें 100 देशों को चार समूहों (अग्रणी, उच्च क्षमता, लिगेसी और विकासोन्मुख) में वर्गीकृत किया गया।
  • इसमें भारत को लिगेसी (मज़बूत मौजूदा आधार, भविष्य में जोखिम) वर्ग में रखा गया है। 
  • इस वर्ग में भारत के अलावा  हंगरी, मैक्सिको, फिलीपींस, रूस, थाईलैंड और तुर्की शामिल हैं। 
  • उत्पादन के पैमाने के संदर्भ में भारत को 9वाँ स्थान मिला। 
  • जटिलता के मामले में भारत 48वें स्थान पर रहा।
  • बाज़ार के आकार के संदर्भ में भारत तीसरे स्थान पर रहा।  
  • श्रम बल में महिला भागीदारी, व्यापार टैरिफ, विनियामक कुशलता और टिकाऊ संसाधनों के मामले में भारत की रैंकिंग निम्न स्तर पर रही।

इस रिपोर्ट में आधुनिक औद्योगिक रणनीतियों के विकास का विश्लेषण किया गया और सामूहिक कार्यवाही करने पर जोर दिया गया। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख चुनौतियाँ
विमुद्रीकरण, मौद्रिक नीति का नया ढाँचा, मुद्रास्फीति नियोजन, वित्तीय संघवाद और बाहरी क्षेत्रों के बदलाव के साथ-साथ जीएसटी के कार्यान्वयन के चलते पिछले कुछ समय में भारतीय अर्थव्यवस्था को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इन सबका असर औद्योगिक उत्पादन, निवेश, उपभोग और कारोबारी माहौल पर पड़ा, जो अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इसके अलावा लम्बे समय से राज्यों का असमान आर्थिक विकास भी देश की अर्थव्यवस्था के लिये एक बड़ी चुनौती बना रहा है। 

देश में असमान आय वितरण की चुनौती 
इसी के साथ इंटरनेशनल राइट्स ग्रुप ऑक्सफैम आवर्स द्वारा दुनिया में बढ़ रहे धन के समान वितरण के संबंध में रिवॉर्ड वर्क, नॉट वेल्थ नामक रिपोर्ट जारी की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार, गत वर्ष भारत में कुल धन का 73 प्रतिशत का केवल एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास था,  जबकि देश की लगभग आधी आबादी (67 करोड़) की आय में मात्र एक प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है, जो कि निर्धन है। इतना ही नहीं देश की सबसे गरीब आबादी (3.7 करोड़) की आय में कोई वृद्धि नहीं हुई। यह इस बेहद चिंताजनक स्थिति के ओर संकेत करता है कि भारत में आर्थिक विकास का लाभ बहुत कम लोगों को मिल रहा है। आय में असमानता की यह चिंताजनक तस्वीर वैश्विक स्तर पर तो और भी अधिक गंभीर है, जहाँ कुल अर्जित धन में से 82 प्रतिशत धन दुनिया की सबसे अमीर आबादी (एक प्रतिशत) ने अर्जित किया है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

राजकोषीय संतुलन बनाए रखने की चुनौती
वर्तमान समय में जब अनेक विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर अनिश्चितताओं का आवरण है, तब भारत कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच संभावनाओं के साथ उभरा है। लेकिन इन संभावनाओं के साथ एक बड़ी चिंता भी जुडी है...और वह है राजकोषीय घाटा। भारत में आर्थिक स्तर पर वित्तीय अनुशासन की कमी रही है, जबकि आर्थिक शक्ति बनने के लिये देश में आर्थिक अनुशासन का वातावरण अनिवार्य रूप से होना चाहिये। इस वित्तीय अनुशासनहीनता का ही दुष्परिणाम है राजकोषीय घाटा। बढ़ता राजकोषीय घाटा किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है, क्योंकि इससे ब्याज दरों के साथ-साथ मुद्रास्फीति दर (महँगाई) भी बढ़ती है। इसीलिये भारतीय परिस्थितियों के मद्देनज़र अर्थशास्त्री राजकोषीय घाटे को कम-से-कम रखने पर ज़ोर देते हैं। 

विनिवेश प्रक्रिया में तेज़ी लाने की चुनौती  

  • सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम राष्ट्र की संपत्ति हैं और यह सुनिश्चित करने के लिये यह संपत्ति आम जनमानस के हाथों में होनी चाहिये, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और उद्यमों में जन-स्वामित्व को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। इसके लिये सरकार इनमें विनिवेश का रास्ता चुनती है, जिससे उसके पास अतिरिक्त धन की उपलब्धता हो जाती है, जिसे सामाजिक योजनाओं और विकास कार्यों पर खर्च किया जा सकता है। 
  • र्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और उद्यमों में अल्पांश बिक्री के माध्यम से विनिवेश करते समय सरकार अधिकांश अर्थात् कम-से-कम 51 प्रतिशत शेयरधारिता और सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों का प्रबंधन नियंत्रण अपने पास रखती है। 
  • देश में सामरिक निवेश नीति आयोग सहित विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के साथ एक परामर्शी प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है। 
  • नीति आयोग रणनीतिक विनिवेश के लिये इन उपक्रमों की पहचान करता है और बिक्री की पद्धति, बिक्री किये जाने वाले शेयरों की प्रतिशतता और उपक्रम के मूल्यांकन की पद्धतियों के संबंध में सलाह देता है। 
  • पिछले वित्त वर्ष (2016-17) के लिये बजट अनुमान 56,500 करोड़ रुपए था, जिसे बाद में संशोधित कर 45,500 करोड़ रुपए किया गया था। 
  • केंद्र सरकार ने 2017-18 के लिये विनिवेश कार्यक्रम के तहत 75,500 करोड़ रुपए का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। लेकिन देखा गया है कि किसी भी बजट में दिया जाने वाला विनिवेश लक्ष्य शायद ही पूरा होता है। 
  • इस वर्ष लंबे समय से घाटे में चल रही एयर इंडिया को पुनर्जीवित करने के लिये सरकार ने उसकी पाँच सहायक कंपनियों के रणनीतिक विनिवेश पर फैसला किया है, लेकिन इस मामले में अभी कुछ विशेष प्रगति नहीं हुई है। 

ऐसे में सरकार को विनिवेश प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है और जिन सरकारी उपक्रमों का हिस्सा बेचने की योजना है, उनके एफपीओ और आईपीओ जल्द-से-जल्द आने चाहिये।

(टीम दृष्टि इनपुट)

बैंकों के बढ़ते एनपीए की चुनौती 
भारत की  बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इनके मद्देनज़र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वैश्विक जोखिम मानदंडों के अनुरूप उनकी पूंजी ज़रूरतों को पूरा करने और क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ावा देने के लिये पूंजी लगा रही है। लेकिन एनपीए का स्तर 7 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो जाने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि किसी काम की नहीं है। यदि इस राशि की वसूली हो जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इज़ाफा, लाखों लोगों को रोज़गार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुँचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मज़बूती, विकास को गति देना आदि संभव हो सकेगा। 

कालेधन की चुनौती

  • 2014 में नई सरकार ने कार्यभार संभालने के बाद 27 मई को अपने पहले निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप कालेधन पर विशेष जाँच दल (एसआईटी) का गठन किया, जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत) एम.बी शाह और उपाध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवनिवृत्त) अरिजीत पसायत थे। 
  • इसकी अधिकांश सिफारिशों को सरकार स्वीकार कर चुकी है। एसआईटी के गठन के बाद 70 हजार करोड़ रुपए के कालेधन का पता लगाया गया, इसमें भारतीयोँ द्वारा विदेशों में जमा किये गए 16 हजार करोड़ रुपए शामिल हैं। 
  • इसके अलावा कालेधन को समाप्त करने के लिये एक हज़ार और पांच सौ रुपए के नोटों का विमुद्रीकरण करना सरकार का एक बड़ा कदम था। 

इसके साथ-साथ सरकार ने भष्ट्राचार और कालेधन की समाप्ति के लिये कई विधायी, प्रशासनिक और प्रौद्योगिकीय प्रयास किये हैं: 

  • विधायी प्रयासों में प्रमुख रूप से कालाधन (अघोषित विदेशी आय और संपत्ति) अधिरोपण विधेयक, 2015, बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन विधेयक 2016, प्रतिभूति कानून (संशोधित), 2014 और निर्दिष्ट बैंक नोट (उत्तरदायित्व विधेयक समाप्ति) 2017 आदि शामिल हैं।

(टीम दृष्टि इनपुट)

कृषि क्षेत्र की चुनौती

  • वर्तमान में राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान बहुत अधिक नहीं है, फिर भी कृषि उत्पादन में गिरावट विकास दर को निश्चित ही प्रभावित करती है। 
  • स्वतंत्रता के समय देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 50 प्रतिशत था, जो अब घटकर केवल 14 प्रतिशत रह गया है। 
  • सर्वाधिक उत्पादकता वाले इस क्षेत्र पर देश की लगभग 58 प्रतिशत  जनसंख्या निर्भर करती है। 
  • घटी हुई विकास दर न केवल कृषि पर निर्भर देश के 14 करोड़ से अधिक परिवारों को प्रभावित करती है, बल्कि आम आदमी भी महँगाई से परेशान हो जाता है। 
  • चूँकि देश की बहुत बड़ी आबादी रोज़गार के लिये खेती-किसानी से जुड़ी हुई है, इसलिये कृषि में किसी भी प्रकार की गिरावट रोज़गार संकट को  भी बढ़ा देती है। 

रोज़गार की चुनौती
भारतीय अर्थव्यवस्था की सर्वाधिक बड़ी चुनौतियों में से एक है रोज़गार सृजन की चुनौती। इस समस्या के समाधान के लिये एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। हमारे देश में लगभग 13-15 लाख युवा प्रतिवर्ष कार्यशील जनसंख्या में तब्दील हो जाते हैं, जो रोज़गार के उपयुक्त अवसरों की तलाश में रहते हैं। दूसरी ओर देश की लगभग आधी आबादी कृषि क्षेत्र में लगी है तथा वहाँ और अधिक लोगों को रोज़गार दे पाना  संभव नहीं है। अतः समय की मांग यही है कि गैर-कृषि क्षेत्रों में रोज़गार सृजन के उपाय किये जाएँ।

श्रम सुधारों की आवश्यकता 

  • हमारे देश में केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर बहुत अधिक श्रम कानून हैं, जो प्रायः औद्योगिक विकास में बाधक बनते हैं। 
  • यदि देश में अधिकाधिक रोज़गारों का सृजन करना है तो सर्वप्रथम श्रम कानूनों के आधिक्य को कम करना होगा। 
  • कठोर श्रम कानूनों के कारण औद्योगिक प्रगति नहीं हो पाती, जो आगे चलकर रोज़गारहीनता का एक बड़ा कारण बनती है। 
  • श्रम सुधारों को कारोबार से जोड़कर ही मानव संसाधन को उत्पादक संपत्ति बना पाना संभव हो पाएगा।

इसके अलावा रोज़गार सृजन के लिये अनुकूल माहौल बनाना भी बेहद आवश्यक है। इसके लिये जहाँ एक तरफ छोटे एवं मध्यम उद्यमों से बोझ घटाने की ज़रूरत है, वहीं इन सुधारों को कामगारों के लाभ से भी जोड़ना होगा। 

निजी (कॉर्पोरेट) निवेश को आकर्षित करने की चुनौती  
हमारे देश के संदर्भ में यह तथ्य 100 टके सही है कि यदि अर्थव्यवस्था को वास्तव में मज़बूती देनी है तो निजी निवेश को बढ़ावा देना होगा। केवल सरकारी निवेश से भारत जैसे लोक-कल्याणकारी देश में विकास को गति दे पाना लगभग असंभव है। अर्थव्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने के लिये सरकार को प्रोत्साहन पैकेज के साथ-साथ निजी निवेश को बढ़ावा देने की खातिर पूंजी व्यय बढ़ाने पर भी विचार करना चाहिये। गंभीर बात यह है कि निजी निवेश गिरा है और वास्तविकता यह है कि पूंजी पर सार्वजनिक व्यय में बहुत कम वृद्धि हुई है। ऐसे में सबसे ज़रूरी मुद्दा उन समस्याओं के समाधान का है, जो निजी निवेश को बाधित कर रही हैं। कई परियोजनाएँ जो रुकी हुई हैं, उन पर काम शुरू होना सुनिश्चित किया जाए। इसके साथ बैंकिंग प्रणाली के पुनर्पूंजीकरण पर पर्याप्त ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि निवेश के लिये अतिरिक्त कर्ज़ उपलब्ध कराया जा सके। 

कच्चे तेल के चढ़ते दामों की चुनौती
देश में खाद्य उत्पादों की बढ़ती महँगाई के साथ इधर कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल के दामों में बढ़ोतरी होने से घरेलू बाज़ारों में तेल की कीमतें राजग सरकार के शासनकाल में सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गई हैं, जिसका विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। भारत भारी विदेशी मुद्रा खर्च कर अपनी ज़रूरत का लगभग 80 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है और ऐसे में इसके घरेलू दामों को नियंत्रित करना एक बड़ी चुनौती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: सर्वाधिक तेज़ विकास दर के बावजूद विश्व के अन्य कई देशों की तरह ही भारत की अर्थव्यवस्था भी कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रही है। कृषिगत, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चिंताजनक स्थिति, रोज़गार सृजन की चुनौतियाँ और कई आर्थिक क्षेत्रों में कमज़ोर प्रदर्शन भारत की मुख्य समस्याएँ हैं। आर्थिक वृद्धि की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ते भारत के कदमों को कई बार ये तीनों ही चुनौतियाँ एक साथ या बारी-बारी से जकड़ लेती हैं। अर्थव्यवस्था, रोज़गार और कृषि क्षेत्र तीनों ही एक-दूसरे से कुछ इस प्रकार से जुड़े हुए हैं कि किसी एक में भी लाया गया बदलाव औरों को प्रभावित करता है। किसी भी तंत्र द्वारा बेहतर कार्य निष्पादन क्षमता के लिये यह आवश्यक है कि इसके सभी अंग एक-दूसरे से समन्वित ढंग से जुड़े हों। जिस प्रकार मानव शरीर में हृदय, रक्त और धमनियों के मध्य आपसी समन्यव से शरीर के प्रत्येक कोने में रक्त का संचार होता है, ठीक उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था, समाज और कृषि को एक साथ मिलाकर ही हम वास्तविक संवृद्धि पा सकते हैं। समस्या यह भी है कि आर्थिक विकास के इन घटकों का हम अलग-अलग अध्ययन करते हैं, अर्थशास्त्री केवल अर्थव्यवस्था की चिंता करता है और समाजशास्त्री सामाजिक चिंताओं की बात करता है। विकास की गति  बनाए रखने के लिये प्रचलित तरीकों में बदलाव लाते हुए एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करने की आवश्यकता है जो इन्हें एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी बना सके।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2