कितने कारगर हैं अंधविश्वास विरोधी कानून? | 24 Nov 2017
संदर्भ
प्राचीन काल से ही दुनिया भर में अंधविश्वास व्याप्त रहा है। अंधविश्वास एक तर्कहीन विश्वास है जिसका आधार अलौकिक प्रभावों की मनगढ़ंत व्याख्या है। भारत तो अंधविश्वासों का गढ़ है। अधिकांश भारतीयों का अंधविश्वासों में एक अविश्वसनीय विश्वास है जो प्रायः आधारहीन होते हैं।
दरअसल कुछ अंधविश्वास लोगों के व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित है जैसे 'बिल्ली को देखकर रास्ता बदलना' आदि। लेकिन कुछ अंधविश्वास ऐसे हैं जिनकी एक सभ्य समाज में बिलकुल भी इज़ाज़त नहीं होनी चाहिये जैसे ‘बलि प्रथा’ आदि। आज वाद-प्रतिवाद-संवाद में हम यह चर्चा करेंगे कि देश में अंधविश्वास विरोधी कानून कितने कारगर हैं।
वाद
- अमानवीय, क्रूर और शोषणकारी अंधविश्वासों के लिये विशेष कानून
► भारत को एक अंधविश्वास विरोधी कानून की ज़रूरत है, हालाँकि इसमें किन-किन बातों को शामिल किया जाए इस पर चर्चा होनी चाहिये।
► यद्यपि प्रत्येक अंधविश्वास का अंत कानून के दम पर नहीं किया सकता है, इसके लिये लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना होगा।
► फिर भी अंधविश्वासी व्यवहार जो पूरी तरह से अमानवीय, क्रूर और शोषणकारी हैं, उनके लिये वैसे कानून होने चाहियें जो विशेष रूप से इसी उद्देश्य के लिये बनाए गये हों।
- महाराष्ट्र का उदाहरण
► महाराष्ट्र में अंधविश्वास विरोधी और काला जादू (रोकथाम) अधिनियम लागू किया गया है। इस कानून के लिये ‘नरेन्द्र दाभोलकर’ और ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ ने 18 वर्षों तक संघर्ष किया था।
► पहले तो महाराष्ट्र में इस अधिनियम का जमकर विरोध हुआ क्योंकि इसे हिंदू मान्यताओं के विरुद्ध बताया गया। दाभोलकर ने इन विरोधों के बीच अपनी लड़ाई जारी रखी और अंततः उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी।
► विदित हो कि इस संबंध में महाराष्ट्र में दायर पिछली 350 एफआईआर पर गौर करें तो आरोपी विभिन्न धर्मों से संबंध रखने वाले हैं, जबकि अधिनियम को हिंदू विरोधी कहा जा रहा था।
- आईपीसी में सुधार की ज़रूरत
► भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में नरबलि (Human sacrifice) को अंजाम देने वालों को दंड देने का प्रावधान तो है, लेकिन यह काला ज़ादू तथा अन्य अंधविश्वासी प्रथाओं के कारण होने वाले अपराधों के रोकथाम में सक्षम नहीं है।
► आईपीसी में एक अलग से प्रावधान लाए जाने की ज़रूरत क्यों है, इसे घरेलू हिंसा निरोधक कानून के उदाहरण से समझा जा सकता है।
► आईपीसी में हिंसा के विरुद्ध प्रावधान होने के बावज़ूद घरेलू हिंसा के लिये हमें अलग से कानून की ज़रूरत इसलिये पड़ी, क्योंकि घरेलू हिंसा के मामलों में पीड़िता का अभियुक्त से सामान्य के बजाय विशेष संबंध होता है।
► ठीक ऐसा ही संबंध इन अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाले स्वयंशंभू धर्मगुरुओं और भक्तों के बीच है। अतः अंधविश्वासों पर पूरी तरह से लगाम लगाई जा सके, इसके लिये हमें आईपीसी में सुधार करते हुए नया कानून लाना होगा।
प्रतिवाद
- धर्म से जुड़ा मामला
► दरअसल, एक अंधविश्वास विरोधी कानून की आवश्यकता तो है, लेकिन यह सभी वास्तविकताओं का संज्ञान नहीं ले सकता है।
► इस कानून का मुख्य उद्देश्य अंधविश्वासों को समाप्त करना है जिनका कि आधार धार्मिक है।
► लेकिन धर्म एक आस्था है और आस्था का कोई वैज्ञानिक तर्क तो है नहीं, इस दृष्टि से धर्म से जुड़ी हर चीज़ अंधविश्वास है।
► एक उदार लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांत हमें उन बातों पर भी विश्वास की आज़ादी देते हैं, जिनका कि वैज्ञानिक और तार्किक आधार नहीं है।
- पर्याप्त हैं मौज़ूदा कानून
► इसमें कोई शक नहीं कि अंधविश्वास के विरुद्ध कानून आवश्यक है लेकिन जहाँ तक इसके लिये अलग से एक कानून बनाने का प्रश्न है तो इसका उत्तर नकारात्मक ही होना चाहिये।
► ऐसा इसलिये क्योंकि पहले से आईपीसी में बहुत सारे प्रावधान हैं जो अमानवीय, क्रूर और शोषणकारी अंधविश्वासों को प्रतिबंधित करते हैं।
► उदाहरण के लिये एक बच्चे को काँटों पर फेंक देना आईपीसी की धारा 307 और एक महिला को नग्न करने घुमाना धारा 354 बी के तहत अपराध है।
- राज्य ला सकते हैं अलग कानून
► दरअसल कानून और व्यवस्था राज्य के विषय हैं, अतः राज्य विशिष्ट आपराधिक कानूनों को लागू करने के लिये स्वतंत्र हैं।
► राज्य आईपीसी में संशोधन करने के लिये स्वतंत्र है, ताकि वह विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा कर सके।
► हाल ही में कर्नाटक द्वारा एक अंधविश्वास निरोधक कानून भी लाया गया है। अतः राज्य इस संबंध में स्वयं प्रयास कर सकते हैं।
► यदि कार्यपालिका इस तरह की प्रथाओं को रोकने के बारे में गंभीर है तो मौजूदा कानूनों को लागू करने तथा इन्हें अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
संवाद
- आवश्यक हैं सुधार:
► राजा राममोहन राय ने जब सती-प्रथा के खिलाफ़ आवाज उठाई तो उनका यह कहकर विरोध किया गया कि यह लोकप्रिय मान्यता और परम्पराओं के विरुद्ध है।
► क्या होता यदि राजा राममोहन राय की आवाज़ हो-हल्ला न मचाती और लोकप्रिय मान्यताओं के शोरगुल में यह कहीं दब जाती! शायद आने वाले कई वर्षों तक हिन्दू महिलाएँ ज़िन्दा ही अपने पति की चिता पर जलती रहतीं।
► अतः अंधभक्ति और अंधश्रद्धा जब इस कदर बढ़ जाए कि नरबलि और काला-जादू के लिये जीभ काटने जैसी घटनाएँ घटित होनी लगें तो हमें इसे धर्म से अलग रखकर सोचना होगा।
- अप्रभावी हैं मौज़ूदा कानून
► हाल के दशकों में, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में लगभग 800 महिलाओं को जादू टोना करने के संदेह में मौत के घाट उतार दिया गया है। यह प्रमाणित करता है कि मौज़ूदा कानून अप्रभावी हैं।
► ये कानून इसलिये अप्रभावी हैं क्योंकि इनका उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित नहीं हो पाया है। पहले हमें मौज़ूदा कानूनों का उचित कार्यान्वयन करना होगा।
► वैधानिक ढाँचे में प्रत्येक अपराध के लिये एक अलग से कानून नहीं बनाया जा सकता है। नहीं तो हमारे पास कानून बहुत ज़्यादा होंगे जबकि ‘कानून का शासन’ कम।
निष्कर्ष
- अंधविश्वास के प्रसार के कारण:
► शिक्षा के अभाव में लोग किसी घटना के घटित होने के वैज्ञानिक कारणों से अनजान होते हैं।
► अंधविश्वास को ईश्वर के साथ जोड़ दिया जाता है जिससे लोग इसकी आलोचना से डरने लगते हैं।
► लोग मानते हैं कि कुरीतियाँ प्राचीन काल से ही चली आ रही हैं, इसलिये उन्हें इनका पालन करना चाहिये।
► जब लोग अपने आर्थिक उत्थान के लिये आवश्यक उपाय नहीं कर पाते तो वे इस उम्मीद में अंधविश्वासों को अपना लेते हैं कि इससे उनकी हालत सुधर सकती है।
► अंधविश्वासों पर आधारित मान्यताओं को खत्म करने के लिये आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है।
- परिणाम
► अंधविश्वास साधुओं, मौलवियों आदि द्वारा लोगों के शोषण को बढ़ावा देता है, जिससे सामाजिक विकास बाधित होता है।
► अंधविश्वास के कारण आयोजित रस्मों और समारोहों में लोग अपनी ऊर्जा, समय तथा धन बर्बाद करते हैं, जो देश की आर्थिक उत्पादकता कम करने का कार्य करता है।
► प्रायः महिलाओं को जादू-टोना करने के संदेह में नंगा घुमाया जाता है। इससे महिला-शोषण को बढ़ावा मिलता है।
►मानसिक रोगियों को बुरी आत्माओं के प्रभाव में बताया जाता है, जिससे वे समुचित उपचार से वंचित रह जाते हैं।
- आगे की राह
► अल्पावधि सुधारों के लिये हमें ऐसे कानूनों की आवश्यकता है जो इन कुरीतियों के अंत में सहायक हो और दाभोलकर जैसे तर्कवादियों की सुरक्षा सुनिश्चित करता हो।
► जबकि दीर्घकालिक सुधार हेतु शिक्षा, तर्कसंगत सोच और वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देना होगा।
► संविधान की वह धारा 51-ए में मानवीयता एवं वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात की गई है और यह सुनिश्चित की जानी चाहिये।
► साथ ही ज़रूरत यह भी है कि अंधविश्वासों को 'परंपराओं और रीति-रिवाज़ों’ से अलग रखा जाए, क्योंकि ये किसी देश के लोकाचार को प्रतिबिंबित करती हैं और अक्सर समाज के उत्थान में सहायक होती हैं।