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ग्राम न्यायालय (Gram Nyayalay)

  • 15 Feb 2020
  • 16 min read

संदर्भ:

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘ग्राम न्यायालय’ की स्थापना से संबंधित एक याचिका की सुनवाई के दौरान देश के कई राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा ग्राम न्यायालयों की स्थापना न किये जाने पर असंतोष व्यक्त किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने ग्राम न्यायालयों की स्थापना के संबंध में जवाब न देने वाले राज्यों (असम, चंडीगढ़, गुजरात, हरियाणा, ओडिशा, पंजाब, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल ) की सरकारों पर 1-1 लाख रुपए का ज़ुर्माना भी लगाया है। इसके साथ ही न्यायालय ने राज्यों को एक माह के भीतर ग्राम न्यायालयों की स्थापना करने और इस संबंध में अधिसूचना जारी कर न्यायालय को सूचित करने का आदेश दिया है।

क्या है ग्राम न्यायालय?

देश के आम नागरिकों तक न्याय व्यवस्था की पहुँच को बढ़ाने और प्रत्येक नागरिक को देश के न्यायिक तंत्र से जोड़ने के लिये ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008’ के तहत ‘ग्राम न्यायालयों’ की स्थापना की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। इस व्यवस्था के अंतर्गत राज्यों को ग्राम पंचायत स्तर पर ‘ग्राम न्यायलयों’ की स्थापना करने के निर्देश दिये गए हैं, जिससे पंचायत स्तर पर दीवानी या फौजदारी (Civil or Criminal) के सामान्य मामलों (अधिकतम सज़ा 2 वर्ष) में सुनवाई कर नागरिकों को त्वरित न्याय उपलब्ध कराया जा सके।

इस व्यवस्था को लागू करने का मुख्य उद्देश्य देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे नागरिकों को स्थानीय स्तर पर संवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से न्याय उपलब्ध कराना था।

पृष्ठभूमि:

  • भारतीय संविधान के भाग-4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 39 (a) में राज्यों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि -
    • राज्य का विधि तंत्र इस तरह से काम करे जिससे सभी नागरिकों के लिये न्याय प्राप्त करने का समान अवसर उपलब्ध हो सके।
    • इसके साथ ही राज्यों को उपयुक्त विधानों, योजनाओं या किसी अन्य माध्यम से निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने हेतु व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी नागरिक आर्थिक या किसी अन्य कारण से न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहे।
  • वर्ष 1986 में 114वें विधि आयोग (114th Law Commission) ने अपनी रिपोर्ट में ग्राम न्यायलय की अवधारण प्रस्तुत करते हुए ग्राम पंचायत स्तर पर ‘ग्राम न्यायालयों’ की स्थापना की सिफारिश की।
  • समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए राज्यसभा में 15 मई, 2007 को ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम’ का मसौदा प्रस्तुत किया गया।
  • यह कानून 2 अक्तूबर, 2009 को लागू किया गया।
    • ध्यातव्य है कि देश की स्वतंत्रता से पूर्व ‘द तमिलनाडु विलेज कोर्ट्स एक्ट-1888’ (The Tamil Nadu Village Courts Act, 1888) के माध्यम से भी पंचायत स्तर पर कुछ इसी तरह की व्यवस्था को वैधानिकता प्रदान करने का प्रयास किया गया था।
    • वर्तमान में देश के कुल 9 राज्यों में मात्र 208 ग्राम न्यायालय ही कार्यरत हैं, जबकि केंद्र सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना में देशभर में ऐसे 2500 ग्राम न्यायालयों को स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया था।

ग्राम न्यायालय की स्थापना:

  • ग्राम न्यायालय अधिनियम-2008 के अनुच्छेद 3(1) के तहत राज्य सरकारों को ज़िले में मध्यवर्ती स्तर पर प्रत्येक पंचायत या निकटवर्ती पंचायतों के समूह के लिये एक या अधिक (अधिनियम की शर्तों के अनुसार) ‘ग्राम न्यायालय’ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है।
  • अधिनियम के अनुसार, राज्य सरकारें इस संबंध में उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् अधिसूचना जारी कर ‘ग्राम न्यायालयों’ की स्थापना कर सकेंगी।

‘ग्राम न्यायालय’ की संरचना:

  • ‘ग्राम न्यायालय’ के संचालन के लिये राज्य सरकार हाईकोर्ट के परामर्श पर एक ‘न्यायाधिकारी’ की नियुक्ति करेगी।
    • न्यायाधिकारी के रूप में नियुक्ति की अर्हताएँ एक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समान होंगी।
    • इसके साथ ही न्यायाधिकारी के वेतन, भत्ते और उसकी सेवा से संबंधित अन्य नियम व शर्तें भी प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समान होंगी।

‘ग्राम न्यायालय’ की शक्तियाँ और प्राधिकार:

  • ‘ग्राम न्यायालयों’ में सिर्फ उन्ही मामलों की सुनवाई की जाएगी जिनमें अधिकतम सज़ा दो वर्ष का कारावास (ज़ुर्माने के साथ या बगैर) या इससे कम हो, अपराध क्षमायोग्य (प्रशमनीय) हो आदि।
  • ‘ग्राम न्यायालयों’ को ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008’ की अनुसूची (1) व (2) में निर्धारित दीवानी और फौजदारी (Civil and Criminal) के सामान्य मामलों में सुनवाई करने के लिये कुछ शक्तियाँ और अधिकार प्रदान किये गए हैं।
  • केंद्र तथा राज्य सरकारें इस अधिनियम में निर्धारित मामलों की सूची में परिवर्तन या संशोधन कर सकती हैं।
  • अधिनियम में प्रदत्त विशेष अधिकारों के तहत ग्राम न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure), 1908 व भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act), 1872 का अनुसरण करने के लिये बाध्य नहीं होंगे।
  • ग्राम न्यायालय आपराधिक मामलों में न्याय की संक्षिप्त प्रक्रिया (Summary Procedure) और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) का अनुसरण करते हुए शीघ्र न्याय प्रदान करने का प्रयास करेंगे।
  • ग्राम न्यायालयों में दीवानी मामलों में आपसी समझौतों और फौजदारी मामलों में ‘प्ली बार्गेनिंग’ (Plea Bargaining) के माध्यम से मामलों का निपटारा करने की व्यवस्था भी की गई है।

ग्राम न्यायालय के फैसलों में अपील:

ग्राम न्यायालय द्वारा दिये गए किसी आदेश को उसके जारी होने के 30 दिनों के अंदर संबंधित ज़िला न्यायालय या सत्र न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

  • दीवानी मामले: ग्राम न्यायालय द्वारा दीवानी मामले में दिये गए किसी आदेश को संबंधित ज़िला न्यायालय (District Court) में चुनौती दी जा सकती है।
  • फौजदारी मामले: ग्राम न्यायालय द्वारा फौजदारी मामले में दिए गये किसी आदेश को संबंधित सत्र न्यायालय (Session Court) में चुनौती दी जा सकती है।
  • ज़िला एवं सत्र न्यायालयों को ग्राम न्यायालय के आदेश के खिलाफ प्राप्त याचिकाओं पर 6 माह के अंदर फैसला देना होगा।

ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लाभ:

आज भी भारत की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या के अनुपात में विधिक निकायों की कमी और ग्रामीण क्षेत्रों से इनकी दूरी देश के सभी नागरिकों तक विधि व्यवस्था की पहुँच के लिये एक बड़ी चुनौती है। ध्यातव्य है कि वर्ष 2017 में देश भर के ज़िला न्यायालयों और उससे निचले स्तरों पर कार्यरत न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लगभग 3 करोड़ थी। ग्राम न्यायालयों की स्थापना से न्याय तंत्र के इस भार में कुछ स्तर तक कमी लाने में सहायता मिलेगी।

ग्राम न्यायालयों की स्थापना के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं-

  • ग्राम पंचायत स्तर पर न्यायालयों की तक पहुँच से लोगों के लिये समय और धन की बचत होगी।
  • लंबित मामलों में एक बड़ी संख्या उन मामलों की भी है जिनका आपसी सुलह या मध्यस्थता से निस्तारण किया जा सकता है, ग्राम न्यायालयों के गठन से ऐसे मामलों में भारी कमी आएगी।
  • न्याय प्रक्रिया में आसानी और इसके तीव्र निस्तारण से जनता में विधि व्यवस्था के प्रति विश्वास बढ़ेगा।

चुनौतियाँ:

प्रारंभ में कुछ राज्यों में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की गई परंतु बाद में राज्यों ने इस संदर्भ में अनेक चुनौतियों का हवाला देकर योजना के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया। ग्राम न्यायालयों की स्थापना में कुछ चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं-

मानव संसाधनों की कमी: वर्तमान में देश के कई राज्यों में विधि विभाग के शीर्ष अधिकारियों के साथ सहायक पदों पर कार्य करने वाले सदस्यों की भारी कमी है। ध्यातव्य है कि ग्राम न्यायालय की रूपरेखा तैयार करने के लिये गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक ग्राम न्यायालय के व्यवस्थित संचालन के लिये विभिन्न स्तरों पर 21 सदस्यों को आवश्यक बताया था। ऐसे में पंचायत स्तर पर ग्राम न्यायालय की स्थापना करना और उसका सुव्यवस्थित संचालन करना राज्यों के लिये एक बड़ी चुनौती है।

आर्थिक कारण: योजना की रूपरेखा में समिति ने ऐसे न्यायालयों की स्थापना के लिये 1 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया था, गौरतलब है कि पिछले 10 वर्षों में यह लागत और बढ़ी है। इसे देखते हुए ज़्यादातर राज्यों ने केंद्र सरकार की सहायता के बगैर ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम न्यायालयों के संचालन में असमर्थता जताई है।

संसाधनों का अभाव: देश के अनेक दूरस्थ क्षेत्रों के गाँवों में महत्त्वपूर्ण संसाधनों, जैसे-24 घंटे बिजली, पक्की सड़क, बेहतर इंटरनेट का न होना भी इस योजना के कार्यान्वयन में एक बड़ी बाधा रही है।

अन्य हितधारकों के सहयोग की कमी: इस योजना के क्रियान्वयन में एक बड़ी चुनौती विधि तंत्र से जुड़े अन्य विभागों के सहयोग में कमी रही है। ज़िला स्तर पर कार्यरत वकील, पुलिस और विधि विभाग के अनेक शीर्ष अधिकारी नगरों या शहरों को छोड़कर गाँवों में नहीं जाना चाहते, जिसके कारण योजना को समय-समय पर विभिन्न समूहों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोध का सामना करना पड़ा है।

राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी: ग्राम न्यायालय के संचालन में अधिकांश बाधाएँ मानव-निर्मित हैं और कुछ प्रयासों से इनका समाधान किया जा सकता है। परंतु इस परियोजना को लागू करने के लिये शीर्ष राजनीतिक प्रतिनिधियों से अपेक्षित प्रयास में भारी कमी देखी गई है।

समाधान:

  • ग्राम न्यायालय की स्थापना और संचालन के लिये राज्य तथा केंद्र सरकारों को मिलकर आर्थिक सहयोग करना चाहिये, जिससे देश की न्यायिक व्यवस्था का सुचारु रूप से संचालन हो सके। ज़िला स्तर पर एवं अन्य स्थानीय न्यायालयों में रिक्त पदों को भरकर न्याय तंत्र पर बढ़ रहे बोझ को कम किया जा सकता है।
  • देश के सुदूर हिस्सों के गाँवों तक विभिन्न महत्त्वपूर्ण सुविधाओं जैसे-सड़क, इंटरनेट, बिजली आदि की पहुँच को बेहतर बनाकर ग्राम न्यायालयों तक लोगों की पहुँच को बढ़ाया जा सकता है।
  • साथ ही सरकार द्वारा इस योजना से जुड़े अन्य हितधारकों जैसे-वकीलों, स्टांप पेपर विक्रेताओं आदि की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित कर इस योजना के सफल क्रियान्वयन में तेज़ी लाई जा सकती है।
  • इस योजना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे नागरिक हैं, अतः उनके बीच ग्राम न्यायालयों और न्यायालय में उनके अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ाकर इस योजना के उद्देश्यों को सफल बनाया जा सकता है।

निष्कर्ष: ‘ग्राम न्यायालय’ न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र में रह रहे नागरिकों को आसानी से न्याय उपलब्ध कराने में सहायक हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में सुधारों के परिणामस्वरूप न्याय तंत्र पर दबाव को कम करने व आम जनता के बीच विधि व्यवस्था के प्रति उनके नज़रिये को पुनः परिभाषित करने का अवसर प्रदान करते हैं। ‘ग्राम न्यायालय’ की मूल भावना ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोगों को आसानी से उनके घर के नज़दीक और निःशुल्क न्याय प्रदान करना है। ऐसे में ग्राम न्यायालय आम जनता तक न्याय की पहुँच बढ़ाने के साथ ही समय और धन की बचत कर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से देश के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देंगे।

अभ्यास प्रश्न: राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुसार सभी को न्याय उपलब्ध कराने की दिशा में ‘ग्राम-न्यायालय’ की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।

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