अस्तित्व : देश में पर्यावरण की सेहत (पर्यावरण रिपोर्ट-2018) | 15 Feb 2018
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी पर्यावरण की स्थिति को लेकर समय-समय पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें प्रकाशित होती रहती हैं, जिनमें देश की पर्यावरणीय सेहत की जानकारी दी जाती है। इन रिपोर्टों से पता चलता है कि पर्यावरण के प्रति हमारी सजगता का स्तर क्या है। ऐसी ही एक रिपोर्ट है The State of India's Environment, जिसे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) और डाउन टू अर्थ द्वारा संयुक्त रूप से वार्षिक रूप से प्रकाशित किया जाता है। यह रिपोर्ट पर्यावरण का आकलन कर भविष्य का खाका सामने लाने का काम करती है।
- वायु प्रदूषण, ठोस कचरे का प्रबंधन, पानी की किल्लत, गिरता भूजल स्तर, जल प्रदूषण, संरक्षण, वनों की गुणवत्ता और संरक्षण की कमी, जैव विविधता के नुकसान और भूमि/मृदा क्षरण भारत में प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दे हैं, जिनका समाधान खोजना वर्तमान परिस्थितियों में बेहद ज़रूरी हो गया है।
क्या होता है इस रिपोर्ट में?
पहली बार यह रिपोर्ट 2014 में प्रकाशित की गई थी। इस वार्षिक पुस्तक में प्रमुख विचारकों, शिक्षाविदों, शोधकर्त्ताओं और कार्यकर्त्ताओं के अलावा भारत के प्रमुख विकास और पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा बेहद सावधानीपूर्वक तैयार की गई सामग्री होती है।
- इसमें देश के सामने मौजूद कुछ प्रमुख पर्यावरण और विकास चुनौतियों के विषय में निबंध, गहन रिपोर्ट, सामयिक डेटा एवं प्रवृत्तियाँ और डिबेट शामिल होती हैं।
- वार्षिक रिपोर्ट 2018 में नदियाँ, जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्र, जंगल और भोजन तथा म्युनिसिपल वेस्ट (ठोस कचरा निष्पादन) कुछ ऐसे विषय हैं, जिन्हें पहली बार शामिल किया गया है।
- रिपोर्ट में पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच सामंजस्य और संतुलन बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है।
- देश का एक बड़ा हिस्सा कृषि और वानिकी कार्यों से जुड़ा है। देश में लगभग 22 करोड़ लोग वानिकी पर निर्भर हैं और यह उनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत हैं।
- आर्थिक रूप से देश का एक बड़ा भाग पर्यावरण पर निर्भर है, लेकिन जंगलों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण पर संकट आ जाता है।
- उजड़ते जंगल वन्य जीवन के लिये भी एक बड़ा ख़तरा बनकर सामने आए हैं, जिसका परिणाम आए दिन मानव बस्तियों में हिंसक पशुओं के घुस आने (Man-Animal Conflict) के रूप में दिखाई देता है।
- बेशक बढती आबादी का पहला और सीधा असर देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है, लेकिन स्वच्छ और हरित पर्यावरण को बहाल करना असंभव नहीं है।
- यह केवल तकनीकी मुद्दा नहीं है, अपितु एक नैतिक उत्तरदायित्व है कि आने वाली हर पीढ़ी को स्वच्छ और हरित पर्यावरण वापस लौटाया जाए।
पर्यावरण रिपोर्ट में कई तरह की चेतावनियाँ और सुझाव दिये जाते हैं, ताकि पर्यावरण को संरक्षित रखने के प्रति जनचेतना को बढ़ाया जा सके। इसमें ऐसी सूचनाएं शामिल होती हैं, जिनमें मौसम में बदलाव के वैज्ञानिक संकेत, अंधाधुंध विकास के दुष्परिणामों और उनकी रोकथाम की जानकारी दी जाती है। इसमें जलवायु परिवर्तन का मनुष्यों और पारिस्थितिकी के लिए गंभीर, गहन और बदले न जा सकने वाले संभावित परिणामों के बारे में बताया गया है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि कृषि, निर्माण क्षेत्र, ऊर्जा, वन, कारोबार और परिवहन क्षेत्रों में तकनीकी हरित निवेश कर पर्यावरण को हो रही अपूरणीय क्षति को कम किया जा सकता है।
पर्यावरण और अर्थव्यवस्था (हरित अर्थव्यवस्था)
- सरलतम शब्दों में कहें तो हरित अर्थव्यवस्था वह है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम हो, कुशल संसाधन हों और सामाजिक रूप में समग्र हो।
- हरित अर्थव्यवस्था हमारे जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छूती है और हमारे विकास से इसका सीधा संबंध है।
- व्यावहारिक रूप में हरित अर्थव्यवस्था वह है जिससे आय और रोज़गार का विकास ऐसे सार्वजनिक और निजी निवेश से संचालित हो जो कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण कम करे, ऊर्जा और संसाधन कुशलता बढ़ाए और जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी प्रणालियों के नुकसान को रोके।
- यदि हरित अर्थव्यवस्था का संबंध सामाजिक समानता और समग्रता से है तो तकनीकी रूप में यह समस्त मानव जाति से संबंधित है।
- यह टिकाऊ ऊर्जा, हरित रोज़गार, निम्न कार्बन अर्थव्यवस्थाओं, हरित नीतियों, हरित भवनों, कृषि, मत्स्य पालन, वानिकी, उद्योग, ऊर्जा कौशल, टिकाऊ पर्यटन, टिकाऊ परिवहन, कचरा प्रबंधन, जल संरक्षण और अन्य सभी संसाधनों की कुशलता की बात करती है और ये सभी कारक हरित अर्थव्यवस्था के सफलतापूर्ण कार्यान्वयन से संबद्ध हैं।
- हरित अर्थव्यवस्था का उद्देश्य टिकाऊपन, विकास के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आयामों को संतुलित करके सभी के लिये समान अवसर प्रदान करना है।
- वैसे भी इस धारणा में कोई दम नहीं है कि आर्थिक स्वास्थ्य और पर्यावरण के बीच विरोधाभास है। सही नीतियों और सही निवेश सुनिश्चित कर पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है, अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सकता है, रोज़गार के अवसर उत्पन्न किये जा सकते हैं और सामाजिक प्रगति को गति प्रदान की जा सकती है।
- हरित अर्थव्यवस्था में टिकाऊ विकास प्राप्त करने और से गरीबी समाप्त करने की असाधारण क्षमता है। विश्व के नेताओं, सिविल सोसायटी और उद्योगों को इस परिवर्तन के लिये आपसी सहयोग से काम करने की आवश्यकता है।
हरित भवनों/इमारतों की आवश्यकता
- घरों की कमी हमारे देश की गंभीर समस्याओं में से एक है। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और उससे भी तेज़ी से बढ़ रहे शहरीकरण ने देश में घरों की उपलब्धता की समस्या खड़ी कर दी है। 2012-2017 के बीच यह अनुमान लगाया गया था कि भारत में शहरी क्षेत्रों में 18.78 मिलियन घरों की कमी होगी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या लगभग 43.90 मिलियन होगी।
- पर्यावरण के प्रति लोगों में बढ़ती जागरूकता के कारण पर्यावरण अनुकूल आवासों की मांग पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ती रही है, जिसकी वज़ह से इस क्षेत्र में नई तकनीकों का विकास तो हो ही रहा है, साथ ही पहले से उपलब्ध तकनीकों में भी सुधार हो रहा है। इन तकनीकों में एयर टरबाइन, सौर पैनल, उच्च दक्षता वाली प्रकाश व्यवस्था, अति कुशल इन्सुलेशन, ग्लेजिंग, जल संरक्षण, पुनर्चक्रण इत्यादि शामिल हैं।
- हरित भवनों की डिज़ाइनिंग और निर्माण संरक्षित संसाधन और ऊर्जा कुशल निर्माण सामग्री के साथ एक स्वस्थ वातावरण सुनिश्चित करने के लिये किया जाता है, जो नवीकरणीय होते हैं। आज दुनियाभर में ऐसे घरों की मांग बढ़ रही है, जो उनके लिये सुरक्षित और कम लागत वाला तो हो ही, साथ ही पर्यावरण संरक्षण में भी सहयोगी हो।
- मौजूदा भवन निर्माण सामग्री के पुनर्नवीकरण और पानी का पुनः उपयोग, एक आधुनिक घर के निर्माण और चालू परिचालन के पर्यावरणीय प्रभाव को काफी कम करता है।
- इसके अलावा, घर के कार्बन फुटप्रिंट को ऊर्जा की कम खपत, जल संरक्षण और अपशिष्ट पदार्थों के पुनर्चक्रण जैसे तरीकों से कम किया जा सकता है।
- पारिस्थितिकी अनुकूलन मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों के अवशोषण के प्रति अधिक जागरूक बनाता है। कम पानी, कम गैस और कम बिजली उपयोग को अपनी दैनिक आदतों में शामिल कर हरित पर्यावरण में योगदान किया जा सकता है।
- किसी भी पर्यावरण अनुकूल घर की एक प्रमुख विशेषता उसमें कम ऊर्जा का उपयोग है। वास्तव में हरित घर सामान्य घरों से 20 प्रतिशत कम ऊर्जा का उपयोग करते हैं। इसके अलावा जल संरक्षण और पुनर्चक्रण सिद्धांतों को हरित घर के निर्माण और इसके दैनिक कार्यों के लिये लागू किया जाता है।
संविधान और पर्यावरण
भारतीय संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों के तहत हर नागरिक से अपेक्षा की जाती है कि वह पर्यावरण को सुरक्षित रखने में योगदान देगा। जीने के बेहतर मानक और प्रदूषणरहित वातावरण संविधान के भीतर अंतर्निहित हैं। भारत का स्वरूप एक लोक-कल्याणकारी राज्य का है और स्वस्थ पर्यावरण भी कल्याणकारी राज्य का ही एक तत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिये सबसे ज़रूरी मौलिक अधिकारों की गारंटी भारत का संविधान भाग-3 के तहत देता है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अनुसार पर्यावरण में जल, हवा और जमीन के साथ मानव, अन्य जीवित चीजें, पेड़-पौधे, सूक्ष्म जीव-जंतु और संपत्ति आदि शामिल हैं। यह कानून कहता है कि पर्यावरण के अधिकार के बिना व्यक्ति का विकास संभव नहीं है। भारत में पर्यावरण कानून का इतिहास लगभग 125 वर्ष पुराना है। इस संबंध में प्रथम कानून 1894 में पारित हुआ था और इसमें वायु प्रदूषण नियंत्रणकारी प्रावधान थे।
प्राकृतिक पर्यावरण: अनुच्छेद 51A(g) कहता है कि जंगल, तालाब, नदियां, वन्यजीव सहित सभी तरह की प्राकृतिक पर्यावरण संबंधित चीजों की रक्षा करना व उनको बढ़ावा देना हर भारतीय का कर्त्तव्य होगा। साथ ही प्रत्येक नागरिक को सभी सजीवों के प्रति करुणा रखनी होगी।
सार्वजनिक स्वास्थ्य: संविधान का अनुच्छेद 47 के अनुसार लोगों के जीवन स्तर को सुधारना, उन्हें भरपूर पोषण उपलब्ध कराना और सार्वजनिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिये काम करना राज्य के प्राथमिक कर्त्तव्यों में शामिल हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के तहत पर्यावरण संरक्षण और उसमें सुधार भी शामिल हैं, क्योंकि इसके बिना सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।
कृषि एवं जीव-जगत: अनुच्छेद 48 कृषि एवं जीव-जगत के संरक्षण की बात करता है। यह अनुच्छेद राज्यों को निर्देश देता है कि वे कृषि व जीवों से जुड़े कारोबार को आधुनिक व वैज्ञानिक तरीके से संगठित करने के लिये जरूरी कदम उठाएँ। विशेष तौर पर राज्यों को जीव-जंतुओं की प्रजातियों को संरक्षित करना चाहिये और गाय, बछड़ों, भेड़-बकरी व अन्य जानवरों की हत्या पर रोक लगानी चाहिये। संविधान का अनुच्छेद 48A कहता है कि राज्य पर्यावरण संरक्षण व उसको बढ़ावा देने का काम करेंगे और देशभर में जंगलों व वन्य जीवों की सुरक्षा के लिये काम करेंगे।
(टीम दृष्टि इनपुट)
प्रमुख संवैधानिक प्रावधान
संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार कानून द्वारा स्थापित बाध्यताओं को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को जीवन जीने और व्यक्तिगत आज़ादी से वंचित नहीं रखा जाएगा। मेनका गांधी बनाम भारत संघ संबंधी मुकदमे में 1978 में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद अनुच्छेद 21 की समय-समय पर उदारवादी तरीके से व्याख्या की जा चुकी है। यह अनुच्छेद जीवन जीने का मौलिक अधिकार देता है और इसमें पर्यावरण का अधिकार, बीमारियों व संक्रमण के खतरे से मुक्ति का अधिकार अंतर्निहित है।
स्वस्थ वातावरण का अधिकार प्रतिष्ठा से मानव जीवन जीने के अधिकार की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब 1988 में रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्ध) मामला सामने आया था। यह देश में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण व पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में खनन (गैरकानूनी खनन) को रोकने के निर्देश दिये थे।
इससे पहले 1987 में एम.सी. मेहता बनाम भारतीय संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के रूप में माना था।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) a व अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को बेहतर वातावरण और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। 1993 के पी.ए. जैकब बनाम कोट्टायम पुलिस अधीक्षक मामले में केरल उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि भारतीय संविधान में इस अनु्च्छेद के तहत दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी नागरिक को तेज़ आवाज़ में लाउडस्पीकर व अन्य शोर-शराबा करने वाले उपकरण आदि बजाने की इजाजत नहीं देता।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(g) प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद के अनुसार किसी भी तरह का व्यवसाय, काम-धंधा आदि करने का अधिकार देता है, लेकिन इसमें कुछ प्रतिबंध भी हैं। कोई भी नागरिक ऐसे किसी भी काम को नहीं कर सकता, जिससे समाज व लोगों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े। पर्यावरण संरक्षण संविधान के इस अनुच्छेद में अंतर्निहित है।
1954 के कोवरजी बी. भरुचा बनाम आबकारी आयुक्त, अजमेर के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि जहाँ कहीं भी पर्यावरण संरक्षण व व्यवसाय करने के अधिकार के बीच कोई विरोध होगा तो न्यायालय को पर्यावरण संबंधी हितों और व्यवसाय व कारोबार चुनने संबंधी अधिकार के बीच संतुलन बनाकर किसी निर्णय पर पहुँचना होगा।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत जनहित याचिका पर्यावरण संबंधी याचिकाओं की धारा का ही परिणाम है। सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण को लेकर कई अभूतपूर्व और जनहित में निर्णय दिये हैं। सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि पर्यावरण संरक्षण व वातावरण को शुद्ध रखने के लिये पूर्व सावधानियाँ रखकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ पाना संभव है।
पर्यावरण संरक्षा के लिये देश में 200 से भी अधिक कानून हैं। इन कानूनों का खुलकर उल्लंघन होता है और इसीलिये भारत विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देशों की श्रेणी में आता है। पर्यावरण एवं प्रकृति संरक्षण भले ही एक कानूनी मुद्दा है, किंतु इसे सर्वाधिक रूप से स्वच्छ और संरक्षित रखने के लिये समाज के सभी घटकों के मध्य आवश्यक समझ एवं सामंजस्य के द्वारा सामूहिक प्रयास किया जाना ज़रूरी है। मानव पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली घटक है। पर्यावरण से इतर उसका अस्तित्व नहीं है, क्योंकि पर्यावरण के अनेक घटकों के कारण वह निर्मित हुआ तथा अनेक कारकों से उसकी क्रियाएँ प्रभावित होती रहती हैं। मानव पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता भी है। तेज़ी से बढती आबादी, भोगवाद की संस्कृति, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, युद्ध, परमाणु परीक्षण, औद्योगिक विकास आदि के कारण नई-नई पारिस्थितिकी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इन समस्याओं को उत्पन्न न होने देना मानव जाति का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये। अपने नैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास की उच्चतम उपलब्धियाँ मानव तभी प्राप्त कर सकता है,जब वह प्राकृतिक संपदा का विवेकपूर्ण उपयोग करेगा।
(टीम दृष्टि इनपुट)
निष्कर्ष: पर्यावरण की संरक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों व परंपराओं का एक अंग है। अथर्ववेद में कहा गया है कि मनुष्य का स्वर्ग यहीं पृथ्वी पर है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने भी कहा था कि दो चीजें असीमित हैं--एक ब्रह्माण्ड तथा दूसरी मानव की मूर्खता। मनुष्य ने अपनी मूर्खता के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न की हैं, जिनमें पर्यावरण प्रदूषण भी एक है। इस पर अंकुश लगाने के लिये पर्यावरण संरक्षण को तभी प्रभावी बनाया जा सकता है जब उसमें लोगों की सहभागिता बढ़ाने के साथ पर्यावरण जागरूकता, पर्यावरण संबंधी शिक्षा का विकास करने व लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने के लिये पर्यावरण की रक्षा से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों का ज्ञान हो। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कानूनी प्रयासों साथ ही सामूहिक सामंजस्य एवं आपसी समझ के द्वारा प्रयास करने से ही प्रदूषण पर प्रभावशाली तरीके से नियंत्रण करना संभव हो सकता है।